गीताविज्ञानभाष्य-गीताशास्त्ररहस्यविमर्श

श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली द्वारा दिनांक ३० अक्टूबर २०२२ को गीताविज्ञानभाष्य-गीताशास्त्ररहस्यविमर्श विषयक अन्तर्जालीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। विद्यावाचस्पति पण्डित मधुसुदन ओझा ने श्रीमद्भगवद्गीता पर चार काण्डों में विज्ञानभाष्य का प्रणयन किया है। विज्ञानभाष्य के चार काण्ड हैं- रहस्यकाण्ड, शीर्षककाण्ड, आचार्यकाण्ड एवं हृदयकाण्ड। रहस्यकाण्ड के अन्तर्गत गीतानामरहस्य, गीताशास्त्ररहस्य और गीताविषयरहस्य ये तीन विषय वर्णित हैं। इनमें से गीताशास्त्ररहस्य को आधार बना कर यह संगोष्ठी समायोजित की गयी थी।

यह संगोष्ठी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान के आचार्य और श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल की अध्यक्षता में सम्पन्न हुयी। इस संगोष्ठी में डॉ. विश्वबन्धु, सहायक आचार्य, साँची बौद्ध भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय साँची, डॉ. आशुतोष द्विवेदी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा, डॉ. साधना शर्मा, सहायक आचार्य, व्याकरण विभाग, कामेश्वर सिंह दरभंगा, डॉ. अम्बरीश मिश्र, सहायक आचार्य, भरत मिश्र संस्कृत महाविद्यालय, छपरा, डॉ. विकास सिंह, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, मारवाड़ी महाविद्यालय, दरभंगा एवं डॉ. बबुआ नारायण मिश्र, संस्कृत प्राध्यापक, केन्द्रीय विद्यालय, सिल्चर, असम, ने वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया ।

पं. मधुसूदन ओझाजी ने गीताशास्त्ररहस्य के अन्तर्गत वर्णित विषयों का प्रतिपादन प्रकाश नामक विभागों में किया है। इस प्रकार गीताशास्त्ररहस्य में कुल छः प्रकाश हैं। इन छः प्रकाशों में वर्णित विषयों का संक्षेप में निदर्शन प्रस्तुत है-
प्रथम प्रकाश का नाम भाष्यविवक्षा है। इस प्रकाश में पं. ओझा जी ने कुल ४७ कारिकाओं के माध्यम से अपना विचार प्रस्तुत किया है। वैदिकविज्ञान में ब्रह्म और कर्म ये दो प्रधान तत्त्व वर्णित हैं । ब्रह्म और कर्म के परस्पर संयोग से सृष्टि होती है-

अस्ति वैज्ञानिकं गीतेयं ब्रह्मकर्मणोः।
विशिष्येहात्मविद्यायां बुद्धियोगो विधीयते॥

  • गी.वि.भा.र.का., पृ.२९
    इस प्रकाश में संपूर्ण गीता का विभाग करते हुए ओझाजी ने यह बतलाया है कि गीता में ४ विद्याएँ, २४ उपनिषद् तथा १६० उपदेश हैं। पं. ओझा जी का यह विभाग सर्वथा नूतन है-
    सन्ति चतस्रो विद्या उपनिषदो विंशतिश्चतस्रश्च ।
    उपदेशाः षष्ठिशतं यस्यां सैषानुगीयतां गीता ॥, वही, पृ.२९
  • द्वितीय प्रकाश का नाम तात्पर्यनिरुक्ति है। इस प्रकाश में कुल १७७ कारिकाएँ हैं। जिनमें अनेक विषय समाहित किये गये हैं। आत्मा ही अव्यय है। इस आत्मा के दो स्वरूप हैं-ब्रह्म और कर्म। ब्रह्मशब्द से विद्या का और कर्मशब्द से वीर्य का बोध होता है-
    अव्ययस्यात्मनोऽस्य द्वे पर्वणी ब्रह्मकर्मणी ।
    ब्रह्म विद्या, कर्म वीर्यम्, आत्मरूपमिदं द्वयम् ॥, वही, पृ.६१
  • तृतीय प्रकाश का नाम ब्रह्मकर्माभिनय है। जिसमें कुल १२२ कारिकाएँ हैं । इस प्रकरण में बुद्धियोग के चार विभाग किये गये हैं- वैराग्यविद्या, धर्मविद्या, सिद्धविद्या और राजविद्या-
    विद्याभिराभिस्सर्वाभिर्बुद्धियोगो विधीयते।
    बुद्धिश्चतुर्धा तद्योगः स्यादुपायैश्चतुर्विधैः॥, वही, पृ. १०१
  • चतुर्थ प्रकाश का नाम ज्ञान-क्रिया-साम्यवादशिक्षा है। इसमें ६४ कारिकाएँ हैं। विद्याबुद्धि चार प्रकार की बतलायी गयी है। ये चार प्रकार हैं- वैराग्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और धर्म। पं. ओझा जी ने विद्याबुद्धि का अर्थ बुद्धियोग किया है। यह बुद्धियोग अव्यय रूप आत्मा में रहता है-
    वैराग्यं ज्ञानमैश्वर्यं धर्म इत्थं चतुर्विधा ।
    विद्याबुद्धिस्ततो योगो बुद्धियोगोऽव्ययात्मनि ॥, वही, पृ. ११२
    बुद्धियोग के साथ अव्यय रूप आत्मा का साम्य होता है। जिससे बुद्धियोग चार रूपों में बुद्धि का विषय बनता है। अतः अव्यय रूप आत्मा में चार प्रकार के साम्य उपलब्ध होते हैं। इस साम्य से जीव सुख का अनुभव करता है । यही इसका तात्पर्य-
    चतुर्विधाद् बुद्धियोगादिदं साम्यं चतुर्विधम् ।
    आत्मन्युदेत्यव्ययेऽस्मिंस्ततः संपद्यते सुखम् ॥, वही, पृ. ११३
  • पञ्चम प्रकाश का नाम लक्ष्यगीता है। इस में कुल ४५ कारिकाएँ हैं। इस प्रकरण में ओझा जी ने बुद्धियोग की प्रधानता को उद्घाटित किया है। उन्होंने लिखा है कि गीता के भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग संबन्धी विचार दार्शनिकों के द्वारा अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार किया गया है। परन्तु बुद्धियोग इन तीनों योगों से सर्वथा श्रेष्ठ है। इन तीनों योग में परस्पर विरुद्ध कथन भी परिलक्षित होते हैं-
    परे त्वाहुः स भगवान् कथं विप्रवदेत् स्वयम् ।
    ज्ञाने कर्मणि भक्तौ वा कथं ब्रूयाद् विरुद्धवत् ॥, वही, पृ. १४७
  • षष्ठ प्रकाश का नाम गीतासप्तति है। इस में ६ श्लोक हैं। इस प्रकरण में पं. ओझा जी ने इतिहासदृष्टि को उपस्थापित किया है। भारतवर्ष के नौ उपद्वीप हैं। इसके अग्निकोण में बालिद्वीप है। जहाँ पर गीतासप्तति की प्रसिद्धि थी। इस समय जो गीता हमलोग पढते हैं उस गीता से पूर्व वह गीता, गीतासप्तति के नाम से प्रसिद्ध थी, ऐसी जनश्रुति उपलब्ध है-
    भारतवर्षस्यार्यद्वीपस्यैतस्य सन्त्युपद्वीपाः ।
    नव, तेषु कश्चिदेको बालिद्वीपोऽग्निकोणेऽस्ति॥
    अत्र हि भारतशास्त्रं निवसत्स्वार्येषु दृश्यते प्रथितम् ।
    तत्र च गीतासारः संप्रथते श्लोकसप्तत्या ॥, वही, पृ. १५७

कार्यक्रम में प्रथमवक्ता के रूप में व्याख्यान करते हुए डॉ. विश्वबन्धु ने कहा कि गीताशास्त्ररहस्यस्य का पहला शीर्षक भाष्यविवक्षा है। गीता महाभारत का भाग है। यद्यपि महाभारत ऐतिहासिक ग्रन्थ है तथापि गीता इतिहासग्रन्थ नहीं है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन के लिए उपदेश दिया था। गीता में श्रीकृष्ण के लिए ‘अहं’ शब्द, ‘अव्यय’ शब्द का प्रयोग हुआ है। कहीं यह मानुषकृष्ण के लिए भी प्रयुक्त हुआ है-
इतिहासग्रन्थोक्ताप्येषा गीता न भक्तिरेतस्य ।
विज्ञानशास्त्रमेतत् कृष्णो व्याचष्ट शिष्याय ।।
कृष्णो मानुषरूपोऽव्ययश्च तत्राव्ययः कृष्णः ।
गीतायां बहुधोक्तोऽहंशब्देन क्वचिन्मनुजः ॥, वही, पृ. ३१


डॉ. आशुतोष द्विवेदी ने बतलाया कि गीताशास्त्ररहस्य के अन्तर्गत वर्णित ब्रह्मकर्माभिनय नामक शीर्षक में ब्रह्मकर्म का स्वरूपविवेक युग्मतत्त्वों के द्वारा उद्घाटित किया गया है। इस में प्रथमयुग्म में ज्योति और तम, द्वितीय युग्म में सत् और असत्, तृतीय युग्म में अमृत और मृत्यु एवं चतुर्थ युग्म में रस और बल वर्णित है-
ज्योतिस्तमश्च सदसच्चामृतं मृत्युरित्युभे ।
रसो बलं चेति तत्त्वे ब्रूमस्ते ब्रह्मकर्मणी ॥, वही, पृ. ८७

डॉ. साधना शर्मा ने गीताशास्त्ररहस्य के ज्ञानक्रियासाम्यवादशिक्षा को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने बतलाया कि इस में ज्ञान और क्रिया का साम्य है। इस प्रसंग में ज्ञानशब्द से ब्रह्म एवं क्रियाशब्द से कर्म अभीष्ट है। इन्हीं दोनों तत्त्वों का साम्य यहाँ उद्घाटित किया गया है। यह साम्य पाँच प्रकार का है- अनासक्ति, निष्कामता, यज्ञ संबन्धी कर्म, ईश्वर के लिए अर्पण तथा जीव और ईश्वर की अभिन्नता-
अनासक्तिरकामत्वं यज्ञार्थं चेश्वरार्पणम् ।
जीवेश्वरैकात्म्यकृतमिदं साम्यं तु पञ्चधा ॥, वही, पृ. ११६

डॉ. अम्बरीश मिश्र ने अपने वक्तव्य में गीताविज्ञानभाष्य के महत्त्व को रेखांकित किया। उनके व्याख्यान का विषय लक्ष्यगीता था। उन्होंने कहा कि लक्ष्यगीता में पं. ओझा जी ने लिखा है कि किसी किसी आचार्य ने गीता का प्रधानविषय कर्म मात्र को स्वीकार किया है। परन्तु कर्म के बिना भक्ति संभव नहीं है, और कर्म के बिना ज्ञान भी संभव नहीं है -
कर्मैव केचिदिच्छन्ति गीताया विषयं परम् ।
न विना कर्मणा भक्तिर्न ज्ञानं कर्मणा विना ॥, वहीं, पृ. १३९

इस प्रसंग में आत्मा के आठ गुणों का वर्णन किया गया है। वे हैं- शौच, क्रिया में सरलता, दया, अनसूया, रक्षा, क्षमा, अकार्पण्य और अस्पृहा -
अष्टावात्मगुणाः शुचमनायासः प्रवृत्तिषु ।
दयाऽनुसूया रक्षा च क्षमाऽकार्पण्यमस्पृहा ॥, वहीं, पृ. १३९
ये आठों गुण क्रियायोग में प्रमुख हैं। उन गुणों को छोड़ कर ज्ञानयोग कदापि सम्भव नहीं हैं। कर्मयोग के बिना ज्ञान भी संभव नहीं है -
अष्टौ गुणाः क्रियायोगो ज्ञानयोगस्य साधकः ।
कर्मयोगं विना ज्ञानं कस्यचिन्नेह दृश्यते ॥, वहीं, पृ. १३९

डॉ. विकास सिंह ने साम्यवादशिक्षा को आधार बन कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि विज्ञानभाष्य में अन्य भाष्य की अपेक्षा नूतन दृष्टि से विषयवस्तु को उद्घाटित किया गयाहै।

डॉ. बबुआ नारायण मिश्र ने गीतातात्पर्यनिरुक्ति नामक विषय को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि पं. ओझा जी के अनुसार गीता में १० शिक्षा उपलब्ध होते हैं। ये शिक्षा हैं- आत्मयोग, आत्मस्वरूप, आत्मा के दो धातु, धातु के साम्य, बुद्धियोग, चार प्रकार की विद्या, वीर्य, शोक का कारण, शोक का निवारण, ईश्वर के साधर्म्य से जीव भी ईश्वर है। इस प्रसंग में पं. ओझा जी ने लिखा है-
आत्मयोगमथात्मानमात्मधातुद्वयं पृथक् ।
धातुसाम्यं बुद्धियोगं चातुर्विद्यं त्रिवीर्यकम् ॥
शोकस्य कारणं यच्च यच्च शोकनिवारणम् ।
यथा चेश्वरसाधर्म्याज्जीवोऽयं भगवान् भवेत् ॥, वहीं, पृ. ३८

डॉ. मिश्र ने अपने व्याख्यान में प्रत्येक शीर्षक के विषय को स्पष्टता से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि आत्मा के दो धातु हैं। ब्रह्म और कर्म । ब्रह्मशब्द से विद्या और कर्मशब्द से वीर्य का बोध होता है। वैदिकविज्ञान में ब्रह्म और कर्म को आधार बना कर एक नवीन दृष्टि प्रदान की गयी है।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने कार्यक्रम के महत्त्व को बतलाते हुए कहा कि पं. ओझा जी के ग्रन्थों के साथ नूतन विद्वानों को परिचित होना अत्यन्त आवश्यक है। पं. ओझा जी की भाष्य करने की दृष्टि सर्वथा नवीन एवं मैलिक है। श्रीमद्भगवद्गीताविज्ञानभाष्य में संपूर्ण गीता के श्लोको का विषय के अनुरूप विभाग किया गया है। इसके प्रमाण में वैदिक मन्त्रों को एवं मूलगीता के उद्धरणों को रखा गया है।

कार्यक्रम का शुभारम्भ श्रीलालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के वेदविभाग के शोधछात्र श्री पूरण अधिकारी द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण से हुआ। सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के वरिष्ठ शोध अध्येता डॉ. लक्ष्मीकान्त विमल ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने किया। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों के शताधिक शोधछात्रों ने उत्साहपूर्वक सहभागिता करते हुए इसे सफल बनाया।