राष्ट्रीय संगोष्ठी -गीताविज्ञानभाष्य-गीताविषयरहस्य


श्री शंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा संस्कृत विभाग, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची के संयुक्त तत्त्वावधान में दिनांक २६ नवम्बर २०२२ को गीताविज्ञानभाष्य-गीताविषयरहस्यविमर्श विषयक अन्तर्जालीय राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी ।

पं. मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य के रहस्यकाण्ड के अन्तर्गत गीतानामरहस्य, गीताशास्त्ररहस्य एवं गीताविषयरहस्य नामक तीन विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया है। गीताविषयरहस्य का पहला विवेच्य आत्मनिर्वचन है। आत्मनिर्वचन शीर्षक को तीन भागों में विभाजित किया गया है। ये हैं- आत्मदर्शनसमीक्षा, आत्मसमीक्षा और ब्रह्मकर्मसमीक्षा । आत्मदर्शनसमीक्षा में तीन पर्व हैं – सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र । पं. ओझा ने दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार किया है-
‘दृष्टार्थस्य प्रथमतः सिद्धान्तमात्रेण परेभ्यः प्रदर्शनं दर्शनम् ।’

सबसे पहले कोई व्यक्ति किसी विषय को पहली बार समझता है। उसी समझे हुए विषय को किसी दूसरे के लिए प्रदर्शन करना दर्शन कहलाता है। ओझा जी द्वारा प्रदत्त दर्शन का यह लक्षण सर्वथा नवीन है। सामन्यतया दर्शन की जो परिभाषा उपलब्ध होती है उस से यह परिभाषा सर्वथा भिन्न है। इस दर्शन के बाद विज्ञान का स्थान आता है। इसको बतलाते हुए पं. ओझा जी लिखते हैं- ‘उपदेश-गृहीतस्यार्थस्य परीक्षाकर्मणा तदर्थसाक्षात्काराय प्रयत्नः कर्तव्यो भवतीति ज्ञानकर्मणोः सहयोगादवगमपर्यन्तं ज्ञानम् अभिनिवेशश्च उपजायते ।’

अर्थात् जब हम किसी से कोई विषय समझते हैं तो उस विषय को जाँच परख करके उस अर्थ तक पहुँचने के लिए एक प्रयत्न किया जाता है। ज्ञान और विषय इन दोनों तत्त्वों के माध्यम से मुक्ति की प्राप्ति होती है। तीसरे तत्त्व के रूप में आचरण है। आचरण के विषय में पं. ओझा जी का भाष्य इस प्रकार है-‘यथा दृष्टं यथा वा विज्ञातं तदनुसारेणाचरतः कर्मजन्या शक्तिसिद्धिर्भवति।’

यहाँ ज्ञान और विज्ञान के साथ-साथ आचरण को पं. ओझा जी ने स्थान दिया है। जिसे हम देखते हैं और जिसे हम जानते हैं । उन दोनों के आधार पर हमारा आचरण होता है। संपूर्ण ज्ञान का फल आचरण ही है। आचरण के माध्यम से ज्ञान का स्तर दूसरे को पता चलता है।
ब्रह्मकर्मसमीक्षा नामक विषय में पं. ओझाजी का भाष्य अत्यन्त ही सरल है। ब्रह्म के विषय में लिखा गया है- ‘मनोमयविज्ञानगर्भितानन्दो विद्या, तद् ब्रह्म, तज्ज्ञानम्।’

इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि विद्या, ब्रह्म और ज्ञान एक अर्थ को बतलाने वाला है। फिर कर्म के विषय में कहा गया है-मनोमयप्राणगर्भिता वाग् वीर्यम्, तत् कर्म, सा क्रिया।
यहाँ वाक्, वीर्य, कर्म और क्रिया ये सभी एक अर्थ के लिए प्रयुक्त हुए हैं। वैदिकविज्ञान में इन दोनों तत्त्वों के परस्पर सम्मेलन से सृष्टि की प्रक्रिया चलती है।

दूसरे विषय में तीन प्रकार के योगों की चर्चा की गयी है। ये हैं- योगत्रयमूलाख्यान, कर्मयोगसमीक्षा, ज्ञानयोगसमीक्षा और भक्तियोगसमीक्षा ।

तीसरे विषय में चार प्रकार के विद्याओं का निर्वचन किया गया है। ये हैं-बुद्धियोगरहस्य, गीतोपनिषत्कारिका और गीतोपदेशानुक्रमणी।

कार्यक्रम के प्रारम्भ में डॉ. धनञ्जय वासुदेव द्विवेदी, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्याल, राँची ने कार्यक्रम में जुडे हुए सभी वक्ताओं एवं श्रोताओं को स्वागत किया एवं विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि गीताविज्ञानभाष्य के विषयरहस्य में भक्तियोग वर्णित है। उपासना के माध्यम से ही भक्ति की जाती है। उपासना तीन प्रकार की बतलायी गयी है। ये हैं- सत्यवती, अङ्गवती और अन्यवती । इन तीनों प्रकार की उपासना की परिभाषा पं. ओझा जी ने दिया है।
ज्ञान और बुद्धि के समानाधिकरण से युक्त सत्यवती उपासना है। किसी छात्र को व्याकरण जानना है। यहाँ जानना उसका ज्ञान है और उस जानने के लिए जिस बुद्धि का उपयोग किया जाता है, वह बुद्धि ही है। एक घट के लिए दोनों की संगति है-‘दृष्टिबुद्धयोः सामानाधिकरण्येन पर्याप्ता सत्यवती ।’

ज्ञान के विषय में संपूर्ण दृष्टि से लगना और संपूर्ण वस्तु में अपर्याप्त की भावना रखना अङ्गवती है- ‘अकृत्स्न-पर्याप्त-दृष्टि-समर्पित-भावना-बुद्धेः कृत्स्नपर्याप्तत्वे अङ्गवती।’
दृष्टि और बुद्धि के व्यधिकरण होने पर अङ्गवती नामक उपासना होती है-‘ दृष्टिबुद्ध्योर्व्यधिकरणत्वे त्वङ्गवती।’

डॉ. रेणु कोचर शर्मा, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज ने विषयरहस्य के आत्मनिर्वचन विषय को आधार बना कर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। इस प्रकरण में यह बतलाया गया है कि क्षरपुरुष, अक्षरपुरुष और अव्यपुरुष के आधार पर ही यह सृष्टि प्रवर्तित होती है।

डॉ. संजीत कुमार झा, सहायक आचार्य, चन्द्रधारी मिथिला महाविद्यालय, दरभंगा ने विषयरहस्यस्य के ब्रह्म और कर्म के स्वयरूप को उद्घाटित करते हुए कहा कि कर्मशब्द से अभ्वपदार्थ का और ब्रह्मशब्द से आभुपदार्थ की चर्चा भाष्यकार पं. ओझा ने किया है। इन दोनों तत्त्वों के माध्यम से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।

डॉ. प्रवीण कुमार द्विवेदी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, प्रो. राजेन्द्रसिंह (रज्जू भय्या) विश्वविद्यालय, प्रयागराज ने गीताविज्ञानभाष्य में वर्णित कर्मयोग का विस्तार से प्रतिपादन किया ।

डॉ. रञ्जनलता, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर ने अपने व्याख्यान में कहा कि भक्तिवेदान्त में भक्तियोग प्रमुख है। उपासना के माध्यम से भक्ति की जाती है। सम्पूर्ण वस्तु के एकभाग का ग्रहण करना ही प्रतीक है। इसके लिए पं. ओझा जी ने एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है। जिस प्रकार जनपद में एक नगर होता है, नगर में एक घर होता है, घर में एक कमरा होता है। एक के आधार पर संपूर्ण का ग्रहण ही प्रतीकोपासना कहलाती है।

डॉ. सत्येन्द्र कुमार यादव, सहायक आचार्य, वेदविभाग, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने अपने विषय पर बोलते हुए कहा कि इस भाष्य में बुद्धियोग का विस्तृत व्याख्यान है। बुद्धियोग में वैराग्यबुद्धियोग, ज्ञानबुद्धियोग, ऐश्वर्यबुद्धियोग और धर्मबुद्धियोग है। इस भाष्य में राग, द्वेष, मोहवाली आसक्ति ही वैराग्य है। यहाँ राग और द्वेष तथा मोह और आसक्ति ये दोनों आपस में प्रतिद्वन्द्वी है। यहाँ रागशब्द से आसक्ति और द्वेषशब्द से विरोध का ग्रहण है। यह सिद्धान्त लोक में भी प्रचलित है। ।

प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, समन्वयक, श्रीशंकर शिक्षायतन ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने कहा कि पं. ओझा जी की भाष्यलेखन शैली सर्वथा नूतन और अभिनव है। इस गीताविज्ञानभाष्य में वैदिकविज्ञान के समग्र सिद्धान्त का वर्णन किया गया है।

कार्यक्रम का शुभारम्भ लक्ष्मीनारायण वेदविद्यालय, सूरत, गुजरात के वैदिकाचार्य डॉ. रवीन्द्रनाथ ओझा के वैदिक मङ्गलाचरण से हुआ। कार्यक्रम का सञ्चालन श्री शंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के वरिष्ठशोध अध्येता डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने तथा च धन्यवादज्ञापन डॉ. लक्ष्मीकान्तविमल ने किया । इस कार्यक्रम में देश के अनेक विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों तथा अन्य शैक्षणिक संस्थानों के शताधिक विद्वानों, शोधच्छात्रों और गीताप्रेमियों ने अपनी गरिमामयी उपस्थिति से इस कार्यक्रम को सफल बनाया।