राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श (भाग-३)
प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली द्वारा दिनांक ३० जून २०२३ को
शारीरकविमर्श विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन अन्तर्जालीय माध्यम से किया गया।
यह संगोष्ठी पं. मधुसूदन ओझा प्रणीत शारीरकविमर्श नामक ग्रन्थ के सप्तम प्रकरण को
आधार बनाकर समायोजित की गयी थी। जिसमें संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
के मीमांसा विभाग के अध्यक्ष प्रो. कमलाकान्त त्रिपाठी ने विशिष्ट वक्ता के रूप में तथा हिमाचल
प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला के संस्कृत, पालि एवं प्राकृत विभाग के सहायक आचार्य
डॉ. कुलदीप कुमार ने वक्ता के रूप में व्याख्यान दिया । यह संगोष्ठी श्रीशंकर शिक्षायतन के
समन्वयक तथा संस्कृत एवं प्राच्य अध्ययन संस्थान,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आचार्य प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई।
शारीरकविमर्श के सातवें प्रकरण में शब्दमय वेद के पौरुषेय-अपौरुषेय विषयक ४२ सिद्धान्तों
का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकरण में सर्वप्रथम वेद के पौरुषेय- अपौरुषेय का, नित्य-अनित्य का
और कृतक-अकृत का विचार मीमांसा, सांख्य, नव्यन्याय, प्राचीनन्याय, वैशेषिक एवं नास्तिक दर्शनों के
आलोक में प्रस्तुत किया है। मीमांसादर्शन के अनुसार वेदों का कोई रचनाकार नहीं है, महर्षियों
ने केवल वेद तत्त्व का साक्षात्कार किया है। वेद नित्य हैं एवं यह स्वयं उत्पन्न हुए हैं-
‘अकर्तृका इमे वेदाः। महर्षयस्तु द्रष्टारो न कर्तारः।’, शारीरकविमर्श पृ. ४४
सांख्यदर्शन के अनुसार वेद अनित्य हैं और उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार वृक्ष अंकुर आदि से उत्पन्न
होता है एवं जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार वेद भी प्रकृति के नियमानुसार
स्वयं उत्पन्न हुआ है। अतः वेद अनित्य हैं-
‘वृक्षाङ्कुरादिवत् सूर्यचन्द्रादिवच्चैते वेदा अपि प्रकृतिनियमानुसारेण स्वयम् उत्पन्नाः। अत एव
अनित्याः।’, वही पृ. ४४
नव्यन्यायदर्शन के अनुसार वेद अपौरुषेय हैं। वेद कूटस्थनित्य और प्रवाहनित्य से रहित होने के
कारण नित्य नहीं है।
प्राचीनन्यायदर्शन के अनुसार वेद महर्षि के द्वारा प्रणीत होने के कारण पौरुषेय हैं-
‘वेदा महर्षिकृता पौरुषेयाः।’ वही पृ.४५
वैशेषिकदर्शन के अनुसार वेद को शब्दरूप और अर्थरूप इन दो दृष्टियों से देख सकते हैं। वेद
शब्दव्यवहार के समय वाक्यप्रधान होने से महर्षियों की रचना है और पौरुषेय हैं- ‘वेदशब्दानां द्वेधा
विवक्षा द्रष्टव्या । शब्दरूपेण चार्थरूपेण च । वेदशब्दव्यवहारे वाक्यप्रधानतायां वेदा महर्षिकृताः
पौरुषेया अनित्या इति।’ वही पृ. ४७
नास्तिकदर्शन में वेद को पौरुषेय एवं अनित्य माना गया है। ओझाजी के अनुसार नास्तिक वेद
तत्त्व से अनभिज्ञ हैं अतः उनका सिद्धान्त अवैज्ञानिक है। इसलिए इस मत पर पर अधिक विचार की
आवश्यकता नहीं है।–‘अथ षष्ठं नास्तिकानां वेदपदार्थान् अनभिज्ञानाम् अवैज्ञानिकं मतम् अस्ति इति
असारत्वाद् अश्रद्धेयम् इति अत उपेक्ष्यते ।’ वही पृ. ४७
यहाँ तक छः दर्शनों के आलोक में वेद तत्त्व पर विचार किया गया। तत्पश्चात् अधोलिखित छः बिन्दुओं
के आलोक में विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है-
(1) वेद को किसी ने बनाया नहीं है एवं यह नित्यसिद्ध है। इस पक्ष में तेरह सिद्धान्तों का
उपस्थापन है।
(2) वेद ईश्वर के द्वारा रचित हैं। इस सन्दर्भ में सात तथ्यों को समाहित किया गया है।
(3) वेद ईश्वर के अवतारों के द्वारा रचित हैं। इस मत में में पाँच सिद्धान्त समाहित हैं।
(4) वेद प्रकृति के द्वारा स्वयं सिद्ध हैं। इस के लिए सात प्रकार से विचार किया गया है।
(5) वेद महर्षियों के द्वारा रचित हैं, इसके लिए सात विचार समाहित हैं।
(6) वेद ग्रामीण मनुष्यों के द्वारा रचित है, इस सन्दर्भ में तीन विचार हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त छः बिन्दुओं के द्वारा विषय को स्पष्ट करते हुए कुल ४२ सिद्धान्तों का प्रतिपादन
किया गया है।
डॉ. कुलदीप कुमार ने अपने वक्तव्य में ४२ सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराते हुए हुए कुछ सिद्धान्तों
पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि अट्ठाईसवें सिद्धान्त में वेद और यज्ञ को एक सिद्ध
करते हुए कहा गया है कि ब्रह ही यज्ञ है, त्रयी (ऋक्, यजुः और साम) विद्या ही यज्ञ है। इसमें
शतपथब्राह्मण के वाक्य को ग्रन्थकार ने उद्धृत किया है-‘ब्रह्म वै यज्ञः। सैषा त्रयीविद्या यज्ञः ।
एतावान् वै सर्वो यज्ञो यावनेष तर्यो वेदाः।’ वही पृ. ६२
पैंतींसवें सिद्धान्त के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के दो विभाग किये गये हैं। एक
भाग में ऋग्वेद और दूसरे भाग में यजुर्वेद और सामवेद हैं। ऋग्वेद को अग्निब्रह्म तथा यजुर्वेद और
सामवेद को सोमब्रह्म कहा गया है। सोमब्रह्म का ही दूसरा नाम सुब्रह्म है। ऋग्वेद का संबन्ध ब्रह्म
से है जबकि यजुर्वेद का संबन्ध भृगु से और सामवेद का संबन्ध अङ्गिरा से है। ऋग्वेद का पृथ्वी से,
यजुर्वेद का अन्तरिक्ष से एवं सामवेद का द्युलोक से संबन्ध है-‘ऋग्वेदः यजुर्वेदः सामवेदः इत्येते त्रयो
वेदा एकाग्निब्रह्म। तज्ज्येष्ठं ब्रह्म। तथा भृगुवेदः अङ्गिरोवेदः इत्येतौ द्वौ वेदावेकं सोमब्रह्म तत्
सुब्रह्म।’, वही पृ. ६४
प्रो. कमलाकान्त त्रिपाठी ने व्याख्यान देते हुए कहा कि यह ग्रन्थ दर्शन के अध्येताओं के लिए
अत्यन्त उपादेय है। इस में विविध विषयों को समाहित किया गया है। उन्होंने विषय पर बोलते हुए
कहा कि प्रथम सिद्धान्त के अन्तर्गत कहा गया है कि ईश्वर ज्ञानमय है और वह ब्रह्म शब्द से भी
जाना जाता है। वेद भी ज्ञानमय है और ब्रह्म शब्द से जाना जाता है। इस ईश्वर का वाचक प्रणव है।
यह प्रणव ही वेद का वाचक है। ईश्वर के अंश से जगत् की सृष्टि होती है। वेद शब्द से जगत् की सृष्टि
होती है। प्रलय काल में अविनाशी ईश्वर नित्य रूप से रहता है और वेद भी प्रलय काल में रहता है।
वेद का विनाश किसी काल खण्ड में नहीं होता है-‘ईश्वरो ज्ञानमयो ब्रह्मशब्दवाच्यः । वेदोऽपि
ज्ञानमयो ब्रह्मशब्दवाच्यः। ईश्वरस्य तस्य वाचकः प्रणवः। त्रयी वेदस्याप्येष वाचकः प्रणवः ।
ईश्वरांशेभ्यो जगतः सृष्टिः । वेदशब्देभ्यो जगतः सृष्टिः। प्रलयेऽप्यविनाशी नित्य ईश्वरः। प्रलयेऽप्येते
वेदा नित्या न विनश्यन्ति।’ वही पृ ४९
अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने कहा कि शारीरक विमर्श में आत्मशास्त्र को
पाँच भागों में विभक्त किया गया है। ये हैं- वेदशास्त्र, उपनिषत् शास्त्र, दर्शनशास्त्र, मीमांसाशास्त्र
और गीताशास्त्र । पं. मधुसूदन ओझा जी ने वेद के स्वरूप पर जितने विस्तार से एवं प्रमाणपूर्वक
विचार किया है, वैसा विचार संस्कृत साहित्य में अन्यत्र प्राप्त नहीं होता है। वेदशास्त्र का प्रसंग और
वेद के प्रवर्तक आचार्य की चर्चा इस ग्रन्थ में विस्तार से की गयी है। वेदशास्त्र के आदि प्रवर्तक ब्रह्मा
हैं। इस ब्रह्मा के विशेषण में अनेक शब्दों का प्रयोग ग्रन्थकार ने किया है। ब्रह्मा परम करुणा वाले
हैं, सर्वज्ञ हैं, हिरण्यगर्भ हैं। इस हिरण्यगर्भने ब्रह्म दृष्टि से विश्व के कारणरूप ब्रह्मविद्याशास्त्र का
प्रचार किया- ‘परमकारुणिको विश्वगुरुः सर्वज्ञो हिरण्यगर्भ-ब्रह्मद्रष्टृतया हिरण्यगर्भसञ्ज्ञो ब्रह्मा
विश्वकारण-विज्ञानोपपादकं ब्रह्मशास्त्रं लोके प्रचारयामास ।’ वही पृ. ४२
संगोष्ठी का शुभारम्भ महर्षि सान्दीपनि वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन द्वारा संचालित गुरुकुल के
वेदाचार्य डॉ.रवीन्द्र कुमार ओझा एवं उनके शिष्यों के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण से तथा
समापन वैदिक शान्तिपाठ से हुआ। संगोष्ठी का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के
शोध अधिकारी डॉ.लक्ष्मी कान्त विमल ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने किया। देश के
विविध विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों के शताधिक विद्वानों, शोधछात्रों
एवं इस विद्या के जिज्ञासुओं ने अपनी सहभागिता द्वारा इस इस संगोष्ठी को अत्यन्त सफल बनाया।