राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श (भाग-४)
प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई २०२३ को शारीरकविमर्श विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया । पण्डित मधुसूदन ओझा जी के ब्रह्मविज्ञान सिद्धान्त शृंखला के अन्तर्गत शारीरकविमर्श नामक ग्रन्थ आता है। इस ग्रन्थ में सोलह प्रकरण हैं। यह संगोष्ठी इस ग्रन्थ के आठवें, दसवें एवं बारहवें अधिकरण के आलोक में समायोजित थी। शारीरकविमर्श के इन्हीं प्रकरणों में वर्णित विषय को आधार बनाकर पर सभी वक्ता विद्वानों ने व्याख्यान प्रस्तुत किया।
मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. विष्णुपद महापात्र, आचार्य, न्याय विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने दसवें प्रकरण के ‘जीवयात्रा-भेद-निरुक्ति’ नामक शीर्षक पर बोलते हुए कहा कि ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय में चार पाद हैं। इस चौथे अध्याय में जीव की यात्रा का क्रम वर्णित है। जीव मृत्यु के बाद किस किस लोक एवं अवस्था को प्राप्त होता है, इस विषय का यहाँ विवेचन किया गया है। पहले पाद में निर्गुण उपासना का स्वरूप वर्णित है। मनुष्य को आत्मभावना का बार-बार स्मरण करना चाहिए। ईश्वर से अभिन्न जीव की भावना करनी चाहिए। जीवात्मा और प्रत्यगात्मा की ऐक्य का प्रतिषेध करना चाहिए। उपासना के विविध रूप आसन, ध्यान और एकाग्रता पर विचार किया गया है। दूसरे पाद में जीवात्मा जब शरीर से निकलता है तब वह किस लोक को जाता है। तीसरे पाद में देवयान का वर्णन है और चौथे पाद में अनेक प्रकार की मुक्तियों का वर्णन है।
प्रो. रामानुज उपाध्याय, विभागाध्यक्ष, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने बारहवें प्रकरण ‘आत्मब्रह्ममीमांसा’ नामक शीर्षक पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस में आत्मा के तीन रूपों पर विचार किया गया है- केवलात्मा, ईश्वरात्मा और जीवात्मा। ये तीनों ही ब्रह्म पदार्थ हैं। जो केवलात्मा है उसे निर्विशेष एवं परात्पर शब्द से अभिहित किया जाता है। ईश्वरात्मा विश्वशरीर है और वह पुरुष अतः ईश्वर है। जीवात्मा शरीर लक्षण वाला विश्वेश्वर पुरुष है। केवलात्मा को ही विशुद्धात्मा कहते हैं।
प्रो. पराग भास्कर जोशी, विभागाध्यक्ष, आधुनिक भाषा विभाग, कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय, रामटेक, नागपुर ने दसवें प्रकरण ‘षोडशपदीपदार्थनिरुक्ति’ नामक शीर्षक पर बोलते हुए कहा कि ब्रह्मसूत्र में चार अध्याय हैं एवं प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं। इस प्रकार सोलह विषय निर्धारित होते हैं। ब्रह्मसूत्र के पहले अध्याय का नाम समन्वयाधिकार है। इस के चार पादों का विषय इस प्रकार हैं- पहले पाद का नाम ‘निरूढशब्दपाद’ है। इसमें भूतेश्वर का स्वरूप है। दूसरे पाद का नाम ‘विशेषणशब्दपाद’ है, इसमें जीवेश्वर का वर्णन है। तीसरे पाद का नाम ‘पराश्रयशब्दपाद’ है, इसमें ब्रह्म के विचालीभाव का वर्णन है। चौथे पाद का नाम प्रधानशब्दपाद है, इसमें ब्रह्म को बतलाने वाले अनेक नामों का विवेचन है। इसी प्रकार से आगे के अध्याय एवं पाद के नाम एवं विषय पर विस्तृत विमर्श किया गया है। उन्होंने बतलाया कि ग्रन्थकार पण्डित ओझा जी ने ब्रह्मसूत्र को समझने के लिए यह वर्गीकरण किया है जो भारतीय दर्शन शास्त्र के अध्येताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
डॉ. जानकीशरण आचार्य, सहायक आचार्य, दर्शन विभाग, श्री सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, वेरावल, गुजरात ने आठवें प्रकरण पर अपना व्याख्यान प्रदान किया। इस प्रकरण का नाम ‘उपनिषच्छास्त्रनिरुक्ति’ है। इस में उपनिषदों के स्वरूप और संख्या पर विचार किया गया है। चारों वेदों से संबन्धित उपनिषदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। यहाँ सोलह उपनिषदों का एवं एक सौ आठ उपनिषदों की तालिका अंकित है। जिसमें ऋग्वेद से संबन्धित ऐतरेय उपनिषद्, सामवेद से संबन्धित छान्दोग्य उपनिषद्, यजुर्वेद से संबन्धित बृहदारण्यक उपनिषद् एवं अथर्ववेद से सम्बन्धित मुण्डक उपनिषद् है। इस के साथ अन्य उपनिषदों का भी विवेचन किया गया है।
कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्याध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि यह ग्रन्थ दर्शन के अध्येताओं के लिए अत्यन्त ही उपादेय है। पण्डित ओझा जी ने वेदान्त को उपनिषद् कहा है। प्रो. शुक्ल ने बतलाया कि ओझाजी के द्वारा उपनिषद् के शान्तिपाठ का उल्लेख करने का मुख्य उद्देश्य उपनिषद् के प्रतिपाद्य सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराना है। सोलह पदार्थों से समान्यतया लोग न्याय शास्त्र के पदार्थ समझते हैं। किन्तु यहाँ ये सोलह पदार्थ ब्रह्मसूत्र के विषय को सूक्ष्मता से उद्घाटित करते हैं। ओझा झी की इस दृष्टि को आधार बना कर ब्रह्मसूत्र को एक नवीन आयाम में प्रस्तुत किया जा सकता है।
संगोष्ठी का शुभारम्भ श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के वेद विभाग के शोधछात्र श्री विवेक चन्द्र झा के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण से तथा समापन वैदिक शान्तिपाठ से हुआ। संगोष्ठी का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ.लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। देश के विविध विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों के शताधिक विद्वानों, शोधछात्रों एवं इस विद्या के जिज्ञासुओं ने अपनी सहभागिता द्वारा इस इस संगोष्ठी को अत्यन्त सफल बनाया।