राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श -भाग-५


प्रतिवेदन

श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक २९ अगस्त २०२३ को शारीरकविमर्श विषयक एक ऑनलाईन राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया । पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत ब्रह्मविज्ञान सिद्धान्त शृंखला के अन्तर्गत आने वाले शारीरकविमर्श नामक ग्रन्थ में कुल सोलह प्रकरण हैं। यह संगोष्ठी इस ग्रन्थ के ‘आत्मब्रह्ममीमांसा’ नामक १२ वें प्रकरण को आधार बनाकर समायोजित थी।

शारीरकविमर्श के बारहवें प्रकरण में ब्रह्म और आत्मा के विषयवस्तु को उद्घाटित किया गया है। शास्त्र में यह दोनों ही शब्द एक ही अर्थ के द्योतक बतलाये गये हैं। इस प्रकरण का विषयवस्तु विविध उपशिर्षकों में विभक्त है।
केवलात्मनिरुक्ति नामक उपशीर्षक में अव्यय को आधार बना कर व्याख्या की गयी है। विशुद्ध अव्यय को केवलात्मा कहा जाता है। इसे परात्पर एवं निर्विशेष भी कहा जाता है। ईश्वर अव्यय को ईश्वरात्मा कहा जाता है। इसे विश्वशरीर, पुरुष एवं ईश्वर भी कहा जाता है। जीव अव्यय को जीवात्मा कहा जाता है। इसी का दूसरा नाम विश्वेश्वर पुरुष भी है। इन तीनों प्रकार के आत्मा को ब्रह्म कहा जाता है-‘इत्थं त्रिविधोऽयम् आत्मा ब्रह्मपदार्थः।’, शारीरकविमर्श पृ. २१७

विशुद्धात्मनिरुक्ति नामक उपशीर्षक में ब्रह्म के बृंहण अर्थात् विकास की विस्तृत व्याख्या की गयी है। जिस प्रकार विकृत बीज से अंकुर की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार अविकृत बीज से जो उत्पत्ति होती है, वह बृंहण कहलाता है। ग्रन्थकार ने बीज के विशेषण में विकृत और अविकृत शब्द का प्रयोग किया है। जब कृषक कीड़ा से युक्त बीज को बाहर डालता है तो उस से भी अंकुर निकलता है। जो बीज, शुद्ध एवं कीड़ा आदि दोषों से रहित होता है उसी को खेत में फसल के लिए उपयोग किया जाता है। जैसे बीज बढता है उसी प्रकार ब्रह्म भी अपने आप को बढाता है। जिस स्थान पर बृंहण होता है वह ब्रह्म है। (‘तदिदं बृंहणं यत्र उपपद्यते तद् ब्रह्म।’, वही, पृ. २१८) यह ब्रह्म दो प्रकार का है- अचिन्त्य और प्रमेय । तटस्थ लक्षण से जिसका ज्ञान होता है परन्तु स्वरूप लक्षण से जिसका ज्ञान नहीं होता है, वह अचिन्त्य कहलाता है। इस सृष्टि में जिस तत्त्व को हम जान सकते हैं, वह प्रमेय है।

इस प्रकार ब्रह्म के तीन प्रकार हैं- विश्व, विश्वचर और विश्वातीत। जो यह विशाल सृष्टि है, यही विश्व है। इस विशाल सृष्टि में जो ब्रह्म तत्त्व प्रवेश किया हुआ है, वह विश्वचर है। इस सृष्टि से जो भिन्न सत्तारूप परम तत्त्व है उसी को विश्वातीत कहते हैं।
विश्वातीत उपशीर्षक में अनेक विषयों को समाहित किया गया है। जिस में नाम, रूप और कर्म नहीं रहता है, वह तत्त्व विश्वातीत कहलाता है। ब्रह्म व्यापक है, माया सीमित है। माया का ब्रह्म के जितने भाग से संबन्ध होता है उतना ही भाग विश्व बनता है। विश्वसृष्टि को ही मायासृष्टि कहते हैं।

विश्वचर विश्व का आत्मा है। तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है कि ब्रह्म इस सृष्टि की रचना कर के उस सृष्टि में प्रवेश करते हैं। ‘तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ । इस विश्वात्मा विश्वव्यापी को प्रजापति कहा जाता है। प्रजापति दो प्रकार के हैं- अनिरुक्त और सर्व। जो अनिरुक्त है वह इस सृष्टि का कारण है। जो सर्व रूप प्रजापति है वह कार्य है अर्थात् सृष्टि है। कारण और कार्य जब दोनों मिल जाता है तब यह प्रजापति चार प्रकार के हो जाते हैं- अमृत, सत्य, यज्ञ और विराट्। इस चार बनने में श्रुति प्रमाण है-‘चतुष्टयं वा इदं सर्वम्’।

कारण भी दो प्रकार के हैं- अचिन्त्य और विज्ञेय। मृत्यु के बन्धन से रहित केवल विशुद्धरूप अचिन्त्य कारण कहलाता है। जो आकार से युक्त होता है वह विज्ञेय कारण कहलाता है। इस प्रसंग में परिग्रह शब्द का प्रयोग हुआ है। परिग्रह का अर्थ ग्रहण करना होता है। शुद्ध तत्त्व जब आकार ग्रहण करता है तो उस को परिग्रह कहते हैं। ये परिग्रह ६ प्रकार के हैं-माया, कला, गुण, विकार, आवरण और अञ्जन। इनमें प्रारंभ के तीन आत्मा को पुष्ट करने वाले तत्त्व हैं। ग्रन्थकार ने इन्हें ‘महिमा’ कहा है। अन्तिम जो तीन हैं वे आत्मा में दोष को उत्पन्न करते हैं।

आत्मा की सात संस्था नामक उपशीर्षक में क्रमशः आत्मा के सात नामों का उल्लेख किया गया है। ये हैं- निर्विशेष, परात्पर, पुरुष, सत्य, यज्ञ, विराट् और विश्व । इन सातों में आदि के तीन (निर्विशेष, परात्पर, पुरुष,) को गूढोत्मा और अन्तिम चार (सत्य, यज्ञ, विराट् और विश्व ) को प्रजापति शब्द से व्याख्यायित किया जाता है।
दृष्टि के भेद से आत्मा की पाँच संस्था नामक उपशीर्षक में प्राण, महिमा, अन्न, परिग्रह और पाप इन पाँच का वर्णन है।

पाँच प्रकार के आत्मशास्त्र में सात प्रकार की आत्मसंस्थाओं का विषय नामक उपशीर्षक में वेद, उपनिषद्, दर्शन, मीमांसा और गीता को आत्माशास्त्र कहा गया है। वेद में प्रजापति का, उपनिषद् में गूढोत्मा का, दर्शन में गूढोत्मा की प्रकृति और प्रकृतिविकार का, मीमांसा में आत्मसंबन्धी विरोधाभास का समन्वय, गीता में अव्यय ब्रह्म का स्पष्ट रूप से वर्णन प्राप्त होता है।
संस्था के भेद से आत्मभेद का प्रतिपादन होने पर भी ऐकात्म्य का सिद्धान्त नामक उपशीर्षक में कहा गया है कि उपनिषद् के द्वारा ही आत्मतत्त्व का विस्तार से निरूपण हुआ है। फिर दर्शन, मीमांसा और गीता का क्या प्रयोजन है, इस प्रश्न के उत्तर में ग्रन्थकार ने लिखा है कि वेद और उपनिषद् (वेदान्त) श्रुति शब्द से अभिहित हैं। इन्हीं का विस्तार दर्शन, मीमांसा एवं गीता में किया गया है।

इस संगोष्ठी में प्रथम वक्ता के रूप में डॉ. के. एस्. महेश्वरन्, सहायक आचार्य, मद्रास संस्कृत महाविद्यालय, चेन्नई ने अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से निर्विशेष तत्त्व का एवं ब्रह्म के स्वरूपलक्षण तथा तटस्थलक्षण पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया।
द्वितीय वक्ता के रूप में प्रो. सुन्दर नारायण झा, आचार्य, वेदविभाग, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने अपने व्याख्यान में अव्ययपुरुष का विस्तार से वर्णन किया।

तृतीय वक्ता के रूप में डॉ. मणि शंकर द्विवेदी, शोध अधिकारी, श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली ने शारीरक विमर्श के बारहवें प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय को पी.पी.टी के माध्यम से प्रदर्शित करते हुए व्याख्यान दिया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जे.एन.यू., नई दिल्ली के आचार्य एवं श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि यह ग्रन्थ अत्यन्त ही सारगर्भित है। इसमें अनेक विषयों को समाहित किया गया है। इस ग्रन्थ के १२वें प्रकरण के प्रारंभ में लिखा गया है कि सबसे पहले शास्त्रब्रह्म में प्रतिपादित विषयों के परस्पर विरोध निवारण के लिए अनन्त विश्वसृष्टियों का वर्णन किया गया है। इस विश्वसृष्टि का जो मूल कारण विशुद्ध आत्मब्रह्म है। उसी आत्मब्रह्मके तटस्थ लक्षण से एवं स्वरूप लक्षण से संस्था भेद होने से नानात्व का प्रदर्शन किया गया है।

कार्यक्रम का प्रारंभ डॉ. ओंकार यशवंत सेलूकर, सहायकाचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली द्वारा प्रस्तुत वैदिक मंगलाचरण से तथा समापन वैदिक शान्तिपाठ से हुआ। संगोष्ठी का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ.लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। देश के विविध विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों के शताधिक विद्वानों, शोधछात्रों एवं इस विद्या के अध्येताओं ने अपनी सक्रिय सहभागिता द्वारा इस इस संगोष्ठी को अत्यन्त सफल बनाया।