National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Part X

Report Shri Shankar Shikshayatan organised a national seminar online on October 26,2024. The seminar was based on various subjects contained in the fourth chapter of Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The seminar was the tenth meeting as part of our year-long discussion on Indravijaya. Prof. Ramanuj Upadhyay, Department of Vedas, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi said that in Indravijaya’s fourth chapter titled Dasyunigraha, the great deeds of Indra have been described. The chapter explained how Indra resolved the animosity between Dasyus and Aryas. Prof. Chandrashekhar Pandey, Acharya, Faculty of Ayurveda, Faculty of Medical Sciences, Kashi Hindu University, Varanasi said termed Pandit Madhusudan Ojha’s book as the history and geography of Bharatavarsha. Dr. Abha Dwivedi, Assistant Acharya, Sanskrit Department, Siddharth University, Siddharth Nagar, Kapilvastu and Dr. Swarg Kumar Mishra, Assistant Professor, Department of Literature, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, explained Indra’s exploits in countering the adversarial Dasyus and how he achieved his victory over them. Dr. Shweta Tiwari, Senior Research Scholar, Vedic Research Institute, Jaipur said that in the book named Indravijay, an innovative explanation of bandits has been given in the chapter named Dasyunigraha. To harass the Arya, the non-Aryan bandits created a big ruckus. Pandit Ojha has identified these bandits and Arya by name on the basis of vedic references. Prof. Santosh Kumar Shukla, Centre of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, while presiding over the programme, said that Arya lived in a country called Gandharva. ‘Apagan’ people came to Gandharva to trouble them. He pointed out that ‘Afghan’ is derived from the word ‘Apgan’. Prof. Ramraj Upadhyay,Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi, recited Vedic Mangala Charan. The programme was conducted by Dr. Laxmi Kant Vimal, Research Officer of Sri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. Several professors, research scholars, scholars from universities and colleges of many states participated enthusiastically to make the seminar a success.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-१०)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा २६ अक्टूम्बर, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तकअन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ के चतुर्थ अध्याय के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई ।प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेदविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि इस दस्युनिग्रह नामक चौथे प्रक्रम में इन्द्र के महान् कार्यों का निरूपण किया गया है। सबसे पहले पुरूरवा के पुत्र आयु था। उसके शत्रु का नाम वेश था। उस वेश को इन्द्र ने संयमित किया । उसके बादसव्यनामक आर्य का शत्रु षड्गृभि था। इन्द्र ने षड्गृभि का भी दमन किया। इस प्रक्रम में सभी दस्यूओं का आर्योंके बीच में शत्रुभाव था। उस शत्रुभाव को इन्द्र ने दूर किया।पौरूरवसस्यायोः शत्रुं वेशं तु नम्रतानमयत् ।षड्गृभिमरन्धयत् तं यः सव्यायार्द्दयत्पूर्वम् ॥ ॥ इन्द्रविजय पृ. ४६९, का. १ प्रो. चन्द्रशेखर पाण्डेय, आचार्य, आयुर्वेद संकाय, चिकित्सा विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी ने कहा कि यह इन्द्रविजय ग्रन्थ भरतवर्ष का इतिहास और भूगोल है। उन्होंने पीपीटी के माध्यम सेअपना व्याख्यान प्रदान किया। इन्द्रविजय ग्रन्थ के चौथे अध्याय में आयुराज का परिचय प्राप्त होता है। आयुगन्धर्वराज का पौत्र था तथा पुरूरवा का बेटा था। पुरूरवा बुध का बेटा था। वह आयु प्रतिष्ठान नगर का गन्धर्वका राजा था। गन्धर्वराजपौत्रो बुधपुत्रो यः पुरूरवा राजा ।तत्पुत्र आयुरासीत् गन्धर्वेशः प्रतिष्ठाने ॥ वही, पृ. ४४२, का. १ प्रतिष्ठानपुर की भौगोलिकी सीमा इस प्रकार की थी। इस का वर्णन यहाँ अत्यन्त ही विस्तार से किया गया है।गौरी नामक नदी के समीप में मूजवान् नामक पर्वत था। उस पर्वत के बगल में गान्धार नामक प्रदेश था।गान्धारदेश में ही आयुराज का प्रतिष्ठान नगर था। गौरीनदीसमीपे मूजवतः पर्वतादर्वाग्देशे।गान्धारे प्रागासीदिदं प्रतिष्ठानमायुपुरम् ॥ वही, पृ. ४४२, का.२ डॉ. आभा द्विवेदी, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, सिद्धार्थ नगर, कपिलवस्तु ने कहाकि दस्युनिग्रह नामक इस प्रक्रम में इन्द्र के लिए ऋग्वेद से सूक्ति उद्धृत किया गया है। इस सूक्ति के क्रम में नीपातिथि नामक ऋषि ने इन्द्र की स्तुति की है। इन्द्र का निवास स्थान द्युलोक है। इन्द्र द्युलोक से आकरदस्युओंका संहार किया फिर अपने निवास स्थान द्युलोक को चला गया।एन्द्र याहि हरिभिरुप कण्वस्य सुष्टुतिम्।दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥ वही, पृ. ४१७ डॉ. स्वर्ग कुमार मिश्र, सहायक अचार्य, साहित्य विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर,त्रिपुरा ने कहा कि दस्युनिग्रह नामक इस प्रक्रम में कहा गया है कि कुत्स नामक आर्य का मित्र इन्द्र था।सिन्धुनदीके पश्चिम तट पर कुत्स की राजधानी थी। अनेक दस्यूओं ने वहाँ आकर खेती को नष्ट करने लगा तथा नदी केजलस्रोत को रोक दिया। तब राजा कुत्स ने देवराज इन्द्र की प्रार्थना की। इन्द्र ने अपने मित्र कुत्स को अपनेपराक्रम से रक्षा की । दस्युनिग्रह नामक प्रक्रम में कहा गया है कि इन्द्र जिस जिस स्थान पर गया था उस उसस्थान का विस्तृत वर्णन इन्द्रविजय के इस प्रक्रम में किया गया है।। कौत्से राष्ट्रे दस्युभिः सिन्धुपश्चात्प्रान्ते नानोपद्रवा अक्रियन्त ।क्षेत्राणां चाप्स्रोतसां चावरोधास्तार्णान्नादिस्तूपदुर्निग्रहाश्च ॥ वही, पृ. ४२२, का. १डॉ. श्वेता तिवारी, वरिष्ठ अध्येता, वैदिक शोध संस्थान, जयपुर ने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में दस्युनिग्रहनामक अध्याय में दस्यूओं की अभिनव व्याख्या की गयी है। आर्य को प्रताडित करने के लिए अनार्य दस्यु ने बड़ाउपद्रव किया। षड्गृभि नामक दस्यु और शुष्ण नामक दस्यु ने आर्य सव्य को प्रताडित किया, वेश नामक दस्युने पुरूरवा के पुत्र आयुराज को प्रताडित किया, पिप्रु नामक दस्यु ने वैदथिन नामक आर्य को और ऋजिश्वान्नामक आर्य को कष्ट पहुँचाया, महाबली मृगय नामक दस्यु ने शूशुव नामक आर्य को दुःख पहुँचाया। सव्यं षड्गृभिशुष्णौ वेशस्त्वायुं पुरूरवःपुत्रम्।वैदथिनमृजिश्वानं पिप्रुर्मृगयश्च शूशुवान् व्यरुजन् ॥ वही, पृ. ४०२, का. ४ इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के इस अध्याय में अनेक दस्यूओं के नामों का संकल किया गया है। उसी प्रकार अर्यों केभी नामों का संकलन किया गया है। इसके लिए ग्रन्थकार पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने वैदिकसूक्ति को उद्धृतकिया है।प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि गन्धर्व नामक देश में आर्यलोग निवास करते थे।। उसआर्य को कष्ट पहुँचाने के लिए ‘अपगण’ लोग गन्धर्वदेश में आकर अनेक प्रकार के मानव विरुद्ध कार्य को करनेलगे। ‘अपगण’ शब्द से ही ‘अफगान’ यह नाम बना है। एतेऽपगण-प्रमुखा आर्यान् गन्धर्व-देश-वास्तव्यान् ।शश्वत् प्रपीडयन्तो व्याकुलयाञ्चक्रुरत्युग्राः ॥ वही, का. २ प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नईदिल्ली ने सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण का गायन किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोधसंस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल औरमहाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण करसंगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Part VIII

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the eighth seminar on August 31, 2024, as part of its vedic seminar series Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The seminar was organised on the basis of various topics from the last part of the second chapter of Indravijaya . Speaking on the topic as the chief guest, Prof. Shobha Mishra, Acharya, Sanskrit Department, Vikramajit Singh Sanatan Dharma Mahavidyalaya, Kanpur said that in Indravijaya, Pandit Madhusudan Ojha has presented elaborate discussion on ribhu. He has referred to the Rigveda notations on Ribhu. In the context of Ribhu, Ribhu was a craftsman who assisted man in his work. Ribhu had created two horses for Indra. Riding on those two horses, Indra killed the bandits. These references prove that Ribhu was a resident of Bharatavarsha. Prof. Anita Rajpal, Acharya, Department of Sanskrit, Hindu College, Delhi University, Delhi, also emphasised that Ribhu was a skilled sculptor and he was taught by Tvashta. Ribhu was endowed with three types of craftmanship. Dr. Jaya Sah, Assistant Acharya, Department of Sanskrit, Tripura University, Tripura, pointed out that Ojahji has collected the names of many rivers through the Bharatvarsha narrative of the book named Indravijaya. Not only are the names of the rivers mentioned, but a detailed outline of the geographical area situated on the river banks is described. In Rigveda, these names of Purvasaptanad are- Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri, Parushni, Asakni and Vitasta. In this, Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri Stoma, Sachta Purushnya are the names of Paschim Saptnad. There is another Saptnad from Panch Gaur country towards the north. Whose names are Kulishi, Veerpatni, Shifanjsi etc. Prof. Santosh Kumar Shukla, Acharya, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, chaired the session. He pointed out Pandit Madhusudan Ojha has listed the characteristics of a true Aryan. According to Ojhaji, the one whose deity is Omkar, whose shastra is Veda and whose deity is Ganga and cow, is the real Arya. He is a native of India. He has not come from outside in any way. The seminar was conducted by Dr. Laxmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. Professors, research scholars, and many people interested in the subject from various states participated enthusiastically and contributed to success of the seminar Please watch the proceedings of the seminar here– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I

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राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान -शृंखला-८

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ अगस्त को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केद्वितीय अध्याय के अन्तिम भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गईथी । प्रो. शोभा मिश्रा, आचार्या, संस्कृत विभाग, विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय, कानपुर नेमुख्य अतिथि के रूप में विषय पर बोलती हुई कही कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में ऋभु विषय पर व्यापकविचार किया गया है। ऋग्वेद में दीर्घतमा द्वारा किया गया कीर्तिसूक्त, वामदेव द्वारा ऋभु विषय परवामदेवसूक्त प्राप्त होता है। ऋभु के प्रसंग में ऋभु मनुष्य का कार्यसहायक शिल्पी था, मनुष्य होने से वह ऋभुभारतवर्ष का ही निवासी था। ऋभु ने दो घोड़ों का निमार्ण किया था, उन दोनों घोड़ों पर चढकर देवराज इन्द्रने दस्युओं का संहार किया था। इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि ऋभु भारतवर्ष का ही निवसी था। मनुष्यलोक मेंसुधन्वा ऋभु के पिता थे, इस प्रमाण से ऋभु आर्य था जिसका निवासस्थान भारतवर्ष ही था। इत्थमृभूणामेषां शिल्पं शृणुमः पुरा मनुष्याणाम् ।भारतवर्षाभिजना ध्रुवमासंस्ते मनुष्यत्वात् ॥एभिश्च निर्मितौ तावश्वौ हरिसंज्ञकौ समारुह्य ।इन्द्रो दस्यूनवधीत् तस्मादृभवः पुरैवासन् ।।एष सुधन्वा राजा जनक ऋभूणां च मानुषे लोके ।आसीद् भारतवर्षे तस्मादार्याः पुराप्यासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३४३, कारिका१-३ प्रो. अनीता राजपाल, आचार्या, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली नेइन्द्रविजय ग्रन्थ में वर्णित ऋभु के परिचय के क्रम में ऋभु के पिता का नाम सुधन्वा था। ऋभु के गुरु त्वष्टा थे।त्वष्टा ने ऋभु को शिल्प कर्म में पूर्ण शिक्षित किया था। भारत के इतिहास में दस्युयुद्ध अत्यन्त प्रसिद्ध है, दस्युके युद्ध से पूर्व एव ऋभु का सन्दर्भ ऋग्वेद में देखने को मिलता है। दस्युनियुद्धादस्माद् बहुपूर्वं भारते वर्षे ।आसीन्नृपः सुधन्वा पुत्रास्तस्य त्रयस्त्वासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२०, कारिका २ ऋभु के तीन प्रकार के शिल्प थे। ये हैं-परोक्ष के लिए पाँच शिल्प, मित्रता के लिए दश शिल्प और यशः कीप्राप्ति के लिए अनेक शिल्प। अथ कुशला ऋभवस्ते त्रेधा शिल्पानि कल्पयामासुः।पञ्च परोक्षार्थेऽपि च दश सख्यार्थे बहूनि कीर्त्यर्थे ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२४, कारिका १ डॉ. जया साह, सहायका आचार्या, संस्कृत विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, त्रिपुरा ने इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केभारतवर्ष आख्यान के माध्यम से अनेक नदियों के नामों का संग्रह किया गया है। न केवल नदियों के नाम हैं,अपितु नदीतट पर स्थित भौगोलिक क्षेत्र की विस्तृत रूपरेखा वर्णित है। ऋग्वेद में पूर्वसप्तनद के ये नाम हैं- गङ्गा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री, परुष्णि, असक्नी और वितस्ता ।इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या । असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयाऽर्जीकीये शृणुह्या सुषोमया। ऋग्वेदः १०.७५.५ पश्चिमसप्तनद के नाम हैं। जैसे- हे सिन्धो ! तुम गमनशील गोमती नदी को मिलाने के लिए पहले तुष्टामा नदी केसाथ चली। फिर तुम सुसर्तु, रसा श्वेती, कुभा और मेहन्तु नदियों के साथ मिलती है। इस के बाद तुम इन सबके साथ एक रथ पर आरूढ होकर चलती है। तृष्टा मया प्रथमं यातवे सजूः सु सर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे ॥ ऋग्वेदः १०.७५.६ उत्तरसप्तनद के नाम इस प्रकार हैं- पाँच गौर देश से उत्तर की दिशा की ओर दूसरा एक सप्तनद है। जिसका नामकुलिशी, वीरपत्नी, शिफांजसी आदि हैं। तत्पञ्चगौरदेशादुत्तरतोऽन्योऽस्ति सप्त नददेशः ।कुलिशी च वीरपत्नी शिफाञ्जसीत्यादिभिः क्लृप्तः॥ इन्द्रविजयः पृ. ३१०, कारिका १ डॉ. दीपमाला, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, राजकीय महाविद्यालय, जोधपुर, ने अपने वक्तव्य में कही किदास दो प्रकार के होते हैं। मनुष्यदास और अमनुष्यदास । दास न देव थे, न दानव थे और न ही मनुष्य थे। उनकाआर्यों के साथ विद्वेष था, वह कोई आनार्यविशेष ही था। स एष दासस्तु न देव आसीन्न दानवो नापि मनुष्य आसीत्।आर्यैर्द्विषन् कश्चिदनार्यः पृथग्वदेवैष विभाग आसीत्॥ इन्द्रविजयः पृ. ३०३, कारिका १ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,कार्यक्रम के अध्यक्ष थे।उन्होंने कहा कि आर्यों का स्वभाव कैसा था, इस विषय पर ग्रन्थकार पण्डित ओझा नेलिखा है कि जिसके आराध्य ओङ्कार हो, जिसका शास्त्र वेद हो और जसकी आराध्या गङ्गा एवं गाय हो,वही वास्तविक आर्य है। वही भारतवर्ष का मूलनिवासी है। वह किसी भी प्रकार से बाह्य भाग से नहीं आया है। ओङ्कार एष येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः। येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ इन्द्रविजयः पृ. २५८, कारिका १ डॉ. मधुसूदन शर्मा, अतिथि प्रध्यापक, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय , नईदिल्ली ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का गान किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिकशोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्यालऔर महाविद्याल के आचार्य, शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भागग्रहण कर के संगोष्ठी को सफल बनाया में अपना योगदान दिया। कृपया सेमिनार की कार्यवाही यहां देखें– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-७)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केद्वितीय अध्याय के प्रारम्भिक भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित कीगई थी । प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्यविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, ने सोमवल्ली के परिप्रेक्ष्य में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। पण्डित ओझा जी ने इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ में सोमवल्ली की अभिनव व्याख्या की है, जो पाठकों के लिए सर्वथा नवीन है। हेमकूट नामक एकपर्वत है। उस पर्वत पर चन्द्रमा ही सोमवल्ली के रूप में अवस्थित हैं। सोम तत्त्व से ही यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञका साधन सोम है। जब देवों के साथ असुर का युद्ध हुआ, तब उस युद्ध में असुर ने उस सोमवल्ली नष्ट कर दिया । चन्द्रस्तु सोमवल्लीरूपो यो हेमकूटाद्रौ।यज्ञैकसाधनं तद्देवानामुदखनन्नसुराः॥ इन्द्रविजय, पृ. २८७, कारिका १ इस प्रसङ्ग में यज्ञ का महत्त्व रेखांकित किया गया है। देवता ने यज्ञ के माध्यम से ही विविध प्रकार की सिद्धियाँप्राप्त की थी। असुर भी यज्ञ को करने के लिए प्रयत्न किया था। परन्तु वे असुर यज्ञविधि ठीक से नहीं जानने केकारण सिद्ध को प्राप्त नहीं हुए। अत एव वे असुर यज्ञ से होने वाली सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सके। यज्ञात् सिद्धीर्देवतानामनेका दृष्ट्वा यज्ञं कर्तुमैच्छन्नदेवाः।किन्त्वस्मिंस्ते यज्ञविज्ञानशिक्षाशून्यः सिद्धिं नाप्नुवन् विध्यबोधात्॥ वही, कारिका २ प्रो. विजय गर्ग, आचार्य, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने देवयजनभूमि नामकविषय को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया था। उन्होंने कहा कि स्वर्गशब्द का पर्याय त्रिविष्टप है।वैदिकविज्ञान में त्रिलोकी एक प्रधान विषय है। त्रिलोकी में पहला पृथ्वीलोक भारतवर्ष है। दूसरा अन्तरिक्ष औरतीसरा हैमवतवर्ष द्युलोक है। यही तीनों लोक मिल कर त्रिविष्टप है । यहाँ पर पण्डित ओझा जी ने त्रिविष्टप कास्थाननिर्धारण किया है। उत्तर समुद्र से लेकर कुरुवर्ष पर्यन्त स्थान त्रिविष्टप कहलाता है। इस प्रकार त्रिविष्टप को ही द्युलोक कहा गया है। जिस प्रकार एक पृथ्वी है। उस पृथिवी के एक भाग का राजा देवदत्त है, दूसरे भागका राजा कोई अन्य व्यक्ति है। तीसरे भाग का राजा कोई दूसरा ही है। एक ही भूपिण्ड का राजा के भेद से राज्यका भेद होता है। उसी प्रकार स्वर्ग के एक भाग का राजा ब्रह्मा है। ब्रह्मा जिस भाग का राजा है, वह भाग ब्रह्माका विष्टप कहलाता है, स्वर्ग के दूसरे भाग का राजा विष्णु है, वह भाग विष्णुविष्टप कहलाता है। तीसरे भागका राजा इन्द्र, वह भाग इन्द्र का विष्टप कहलाता है। भारतवर्षं पृथ्वी हैमवतं वर्षमन्तरिक्षं स्यात् ।उत्तरमब्धिं यावत् कुरुवर्षान्तं त्रिविष्टपं तु द्यौः॥ब्रह्मण एकं विष्टपमपरं विष्णोस्तृतीयमिन्द्रस्य।एभिस्त्रिभिरधिपतिभिः स्वर्गो लोकस्त्रिविष्टपं भवति॥ वही पृ. २७१, कारिका१-२ डॉ. रितेश कुमार पाण्डेय, सह आचार्य, व्याकरण विभाग, श्रीरङ्ग लक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, वृन्दावनने सुरा की उत्पत्तिप्रसंग के ऊपर अपना स्वव्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि जब असुर सोमरस को प्राप्त नहींकर पाया तब उन्होंने अपने राजा वरुण के समीप जाकर प्रार्थना की । वरुण ने एक मादक पदार्थ को बना करअसुरों को दे दिया। वरुण के प्रयास से निर्मित मादक पदार्थ को असुर ने स्वीकार किया। वे असुर कहने लगे किहम लोग सुरा को पिते हैं, इस प्रकार से सुरा शब्द लोक में मदिरा के अर्थ में प्रचलित हो गया। अप्राप्य सोममसुराः सोमविधं मादकं विधापयितुम्।असुराधीशं वरुणं राजानं प्रार्थयामासुः॥वरुणस्ततः प्रयत्नाद् विनिर्ममे वारुणीं मदिराम्।पास्यामस्त्वसुरानिति सुरामिमां नातश्चक्रुः॥ वही, पृ. २९४, कारिका १-२ डॉ. नीरजा कुमारी, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, महन्त दर्शन दास महाविद्यालय. मुजफ्फरपुर, बिहार नेइन्द्रविजय ग्रन्थ के दूसरे अध्याय के विषयवस्तु पर अपना व्याख्यान प्रदान की। उन्होंने कही कि भरतीयज्ञानपरम्परा में ओङ्कार का महत्त्व अधिक है। भारतवर्ष का महत्त्व कैसा था इस के विषय में ग्रन्थकार स्वयंलिखते हैं कि जहाँ वेद शास्त्र है, भारतवर्ष के निवासी में धर्म के अनुरूप चार वर्णों का विभाग है। गाय एवंपवित्र गंगा पूजनीय है। वह देश ही भारतवर्ष है। ओङ्कार एव येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः।येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ वही, पृ. २५८, कारिका१-२ डॉ. रवीन्द्र ओझा, श्रीलक्ष्मी नारायण वेदपाठशाला, सूरत, ने अपने छात्रों के साथ सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ.लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के संगोष्ठी को सफलबनाया में अपना योगदान दिया।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान – धर्म एवं विद्या प्रसङ्ग

श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा  दिनांक २९ जून २०२४ को सायंकाल ५ बजे से ७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। यह संगोष्ठी पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के धर्मप्रसङ्ग और विद्याप्रसङ्ग को आधार बना कर समायोजित थी।   संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में आचार्य प्रो. शिवराम शर्मा, साहित्य विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने विद्याप्रसङ्ग के विविध विषयों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में अनेक विद्याओं का उल्लेख प्राप्त होता है।  उन विद्याओं में प्राकृत विद्या, लौकिक विद्या, पार्थिव विषय से संबन्धित विद्या, दिव्या विद्या, वैदिक विद्या, सूर्यरसविद्या वर्णित है। उनमें प्राकृत विद्या ही निगम और आगम भेद से दो प्रकार की है। जिस के विषय में कहा गया है-                     ‘तत्र प्राकृतविद्या निगमागमभेदतो द्विविधा।’, इन्द्रविजय, पृ. १९९ निगमविद्या के  अठारह प्रभेद हैं, एवं आगम विद्या की  संख्या  १२० है।                     ‘नैगमविद्यास्तत्र च मुख्यतयाऽष्टादशः प्रथिताः।                    आगमविद्या विंशशतमित्थं सर्वविद्यानाम् ।।’, वही दिव्यविद्या के चार विभाग हैं। प्रत्येक विभाग में सोलह संख्या हैं। इस प्रकार दिव्यविद्या के ६४ प्रभेद वर्णित हैं। मानस बल जिसे बुद्धीन्द्रिय बल भी कहते हैं, यह पहला विभाग है। दूसरे विभाग में आठ दिव्यदृष्टि सिद्धियाँ हैं। जिस को  देवबल सिद्धि नाम से भी प्रस्तुत किया गया है। तीसरे विभाग में आठ कर्मेन्द्रिय बल हैं, जिनका भूतबल के नाम से प्रतिपादन किया गया है। चौथे विभाग में  आठ आगमीय मन्त्रबलसिद्धियाँ हैं। जिन्हें यन्त्रबलसिद्धि नाम से भी व्याख्यायित किया गया है। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित प्रो. ललित कुमार पटेल, आचार्य, साहित्य विभाग, सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में विद्याप्रसङ्ग में वर्णित आठ नैगमीय मन्त्रबलसिद्धि, आठ आगमीयमन्त्र बलसिसिद्धि,  आठ महौषधि बलसिद्धि को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इस प्रसङ्ग में एक सर्पाकर्षिणी विद्या का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारतकाल यह विद्या थी। इस विद्या में मन्त्रबल से दूर स्थित सर्प का अभीष्ट स्थान  पर आकर्षण किया जाता है।  जनमेजय के  सर्पयज्ञ में इस मन्त्रविद्या से सर्पों का आकर्षण किया गया था। डॉ. सतीश कुमार मिश्र, सहाचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में कहा कि स्वयंवह विद्या एक यन्त्रविद्या है।  स्वयंवह  इस शब्द का अर्थ स्वचालित यन्त्र है।  इस विद्या में दिन के षष्ठिघटिका के पल विपल आदि  ज्योतिषशास्त्रीय  नियमों के आलोक में ज्ञान का वर्णन है। प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने कार्यक्रम की अध्यक्ष्यता की । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्राचीनकाल में भारत का ज्ञान अत्यन्त समुन्नत था।  संपूर्ण विश्व  को ज्ञान प्रदान करने के कारण भारतदेश को शिक्षक कहा गया है-                     ‘अपि पूर्वस्मिन् काले परमोन्नतिशिखरमायाताः।                    एते तु भारतीयाः विशेषां शिक्षका अभवन्।।’, वही, पृ.१७७ न केवल ज्ञान के क्षेत्र में अपितु बल और पराक्रम में भी भातवर्ष का महत्त्व प्रसिद्ध है। इस भारत देश में अनेक चक्रवर्ती राजा लोग हुए हैं।  जिन्होंने इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर अपना शासन किया था।  उन राजाओं में मान्धाता प्रमुख थे। विष्णुपुराण में इसका  सन्दर्भ प्राप्त होता है-                     ‘यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतिष्ठति।                    सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥’,  वही, पृ. १७७  अमेरीका, अफरीका, यूरोप और एशिया इन सभी देशों पर मान्धाता की शासन व्यवस्था थी-                     ‘अमरीकाख्यो देशो देशो योऽफरीकाख्यः।                    यूरोप एशिया तान् सर्वान् शास्ति स्म मान्धाता॥’, वही डॉ. ओङ्कार सेल्यूकर, वेदविभाग, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण से संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ।  कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोधसंस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में विविध प्रान्त के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के आचार्यों एवं  शोधच्छात्रों ने उत्साह पूर्वक सहभागिता की। 

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