राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी (शृंखला-०३)

श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मार्च, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के मासिकाध्याय के वैशाख मास से प्रारम्भ होकर आश्विन मास तक के छः मासों के आधार पर वृष्टिविषयक विचार किया गया है। निर्धारित ग्रन्थांश में ४३१ कारिकाएँ समाहित हैं। उन्हीं कारिकाओं में निबद्धविषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई । प्रो. परमान्द भारद्वाज, आचार्य, ज्योतिष विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नईदिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि इस कादम्बिनी नामक ग्रन्थ मेंवैशाख मास को मेघनिर्माण की पूर्वकल्पना एवं नियम के लिए अक्षय तृतीय को आधार बनाया गया है। अक्षयतृतीया के आलोक में शकुन परीक्षा, अमत्र परीक्षा, काक परीक्षा, बिम्ब परीक्षा, धान्य परीक्षा, लोष्ठ परीक्षा,नक्षत्र परीक्षा, गर्भ परीक्षा, वायु परीक्षा और उग्रवात परीक्षा समाहित है। बिम्ब परीक्षा के विषय में इस प्रकारका वर्णन है- अक्षयायां तृतीयायां पूरयेद् भाण्डमम्बुना ।रविं विलोकयेन्मध्ये तत्स्वरूपं विमर्शयेत्॥रक्ते सूर्ये विग्रहः स्यान्नीले पीते महारुजः।श्वेते सुभिक्षं विज्ञेयं धूसरो दुःखमूषकाः॥ –कादम्बिनी, पृ.५५, कारिका २२८-२२९ अक्षय तृतीया तिथि को किसी पात्र में जल भर कर उस में सूर्य के प्रतिबिम्ब को देखा जाता है। उस बिम्ब केआधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि लाल रंग का हो तो उसका फल युद्ध है।सूर्य का बिम्ब यदि नीला और पीला हो तो उसका फल रोग है। सूर्य का बिम्ब यदि सफेद रंग का हो तो उसकाफल अच्छी वृष्टि होती है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि धूसर रंग का हो तो उसका फल चूहे आदि से होने वालादुःख है। प्रो.विष्णु कुमार निर्मल, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर ने अपनेसारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि कि इस ग्रन्थ में जेष्ठ माससे संबन्धित अनेक विषयों को समाहित किया गया है। जिससें मासादिरोहिणी, पवनधारणा, प्रवर्षणमिति,मासान्तरोहिणी प्रमुख विषय हैं। पवनधारणा पर ग्रन्थकार पं. ओझाजी ने इस प्रकार वर्णन किया है। चतस्रस्तिथयो वायुधारणा अष्टमीमुखाः।ज्यैष्ठशुक्ले मृदु-स्निग्ध-स्थगिताभ्रोऽनिलः शुभः॥स विद्युतः सपृषतः सपांशूत्करमारुताः।सार्कचन्द्रपरिच्छन्ना धारणाः शुभधारणाः॥ -कादम्बिनी, पृ.६५, कारिका २८३-२८४ ज्येष्ठ शुक्ल की अष्टमी तिथि से एकादशी तिथि तक चार तिथियाँ वायु धारण करती हैं। इनमें मृदु, स्निग्ध औरस्थगित इन तीन प्राकर के वायु का स्वरूप निर्धारित किया गया है। इन तिथियों को बिजलियाँ, जल की बूँदे,धूलि युक्त हवा का चलना चन्द्रमा पर बादल छा जाना ये सब वृष्टि के लिए मेघ धारण का शुभ संकेत है।डॉ. रूपेश कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय,उज्जैन ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि आषाढ मास का विषयवस्तु इस प्रकार हैं-स्वातियोग, आषाढी परीक्षा और रोहिणीयोग । आषाढी परीक्षा के विषय में ग्रन्थकार ने लिखा है- गर्भाः पुष्टिकराः सर्वे सुयोगा विलयं गताः।आषाढ्यां तु विनष्टायां सर्वमेवाशुभं भवेत्॥गर्भनाशकराः सर्वे कुयोगा विलयं गताः।यद्याषाठी शुभा जाता तदा सर्वं शुभं भवेत् ॥ -कादम्बिनी, पृ.८५, कारिका ४१७-४१८ आषाढ शुक्ल पूर्णिमा तिथि के निर्धारित मेघ गर्भ धारण के लक्षण नष्ट हो जाने पर मेघ का गर्भधारण नहीं होपाता है। यदि इस पूर्णिमा तिथि को योग अच्छे हों तो गर्भ धारण के कुयोग भी सुयोग में बदल जाता है।इसीलिए इस आषाढ परीक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। डॉ. ब्रह्मानन्द मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रघुनाथ कीर्ति परिसर,देवप्रयाग ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टि के लिए श्रावण मास का विशेष महत्त्वहै। श्रावण मास के विषय में ग्रन्थकार ने कहा है कि सूर्य की स्थिति से ही वर्षा का योग बनता है। श्रावणे शुक्लपक्षे तु सिंहसंक्रान्तिसम्भवः।समुद्रे पूर्णवृष्टिः स्यादन्यदेशे तु कुत्रचित् ॥कर्कसंक्रमणे वृष्टिरवृष्टिः सिंहसंक्रमे।कर्णपूरे वहेत् कन्या तुले निर्वातवृष्टयः॥ –कादम्बिनी, पृ.१०८, कारिका ५२१-५२२ श्रावण शुक्लपक्ष में यदि सिंह राशि के ऊपर सूर्य का संक्रमण अर्थात् आगमन हो तो समुद्र में अर्थात् प्रान्त देशोंमें पूर्ण वृष्टि होगी परन्तु दूसरे जगहों पर कहीं कहीं वर्षा होगी। प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि वृष्टि के लिए भाद्रपद का विशेषमहत्त्व है। ग्रन्थकार पं. ओझा जी नेभाद्रपद के विषय में लिखते हैं- प्रतिपत् सप्तमी भाद्रे द्वादशी च त्रयोदशी।पूर्णिमा चासु वारुण्यां श्रितैर्मेघैः प्रवर्षणम् ॥भाद्र-शुक्ल-द्वितीयायां यदि चन्द्रो न दृश्यते।तदा तेन भवेद् वर्षे सस्यसंपत्तिरुत्तमा ॥ –कादम्बिनी, पृ.११४, कारिका ५५२-५५३ भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, सप्तमी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा के दिन पश्चिम में मेघ के होने से अच्छी वृष्टिहोती है। भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को चन्द्रमा यदि न दिखे तो वर्ष बहर फसल अच्छी होगी।आश्विन मास के विषय में कहा गया है – नापेक्षते गर्भसिद्धिं चतुर्थी पञ्चमी तिथिः।ग्रहयोगवशादेवाश्विने वर्षति तच्छुभम् ॥चतुर्थ्यामपि पञ्चम्यामाश्विने शीघगर्भता ।पञ्चभिः सप्तभिर्वा स्याद्दिनैरेकार्णवा मही॥-कादम्बिनी, पृ.११८, कारिका ५७९-५८० आश्विनमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी और पञ्चमी तिथि में मेघ के गर्भ निर्धारण की अपेक्षा नहीं है। तात्कालिकग्रहयोग से इन दोनों में जो वृष्टि होती है वह शुभप्रद होता है। आश्विन शुक्ल चतुर्थी पञ्चमी में शीघ्र ही मेघ कागर्भ निर्धारण हो जाता है और पाँच से सात दिनों में ही पृथ्वी पर अच्छी वृष्टि होने लगती है। डॉ. अनयमणि त्रिपाठी, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-१०)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा २६ अक्टूम्बर, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तकअन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ के चतुर्थ अध्याय के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई ।प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेदविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि इस दस्युनिग्रह नामक चौथे प्रक्रम में इन्द्र के महान् कार्यों का निरूपण किया गया है। सबसे पहले पुरूरवा के पुत्र आयु था। उसके शत्रु का नाम वेश था। उस वेश को इन्द्र ने संयमित किया । उसके बादसव्यनामक आर्य का शत्रु षड्गृभि था। इन्द्र ने षड्गृभि का भी दमन किया। इस प्रक्रम में सभी दस्यूओं का आर्योंके बीच में शत्रुभाव था। उस शत्रुभाव को इन्द्र ने दूर किया।पौरूरवसस्यायोः शत्रुं वेशं तु नम्रतानमयत् ।षड्गृभिमरन्धयत् तं यः सव्यायार्द्दयत्पूर्वम् ॥ ॥ इन्द्रविजय पृ. ४६९, का. १ प्रो. चन्द्रशेखर पाण्डेय, आचार्य, आयुर्वेद संकाय, चिकित्सा विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी ने कहा कि यह इन्द्रविजय ग्रन्थ भरतवर्ष का इतिहास और भूगोल है। उन्होंने पीपीटी के माध्यम सेअपना व्याख्यान प्रदान किया। इन्द्रविजय ग्रन्थ के चौथे अध्याय में आयुराज का परिचय प्राप्त होता है। आयुगन्धर्वराज का पौत्र था तथा पुरूरवा का बेटा था। पुरूरवा बुध का बेटा था। वह आयु प्रतिष्ठान नगर का गन्धर्वका राजा था। गन्धर्वराजपौत्रो बुधपुत्रो यः पुरूरवा राजा ।तत्पुत्र आयुरासीत् गन्धर्वेशः प्रतिष्ठाने ॥ वही, पृ. ४४२, का. १ प्रतिष्ठानपुर की भौगोलिकी सीमा इस प्रकार की थी। इस का वर्णन यहाँ अत्यन्त ही विस्तार से किया गया है।गौरी नामक नदी के समीप में मूजवान् नामक पर्वत था। उस पर्वत के बगल में गान्धार नामक प्रदेश था।गान्धारदेश में ही आयुराज का प्रतिष्ठान नगर था। गौरीनदीसमीपे मूजवतः पर्वतादर्वाग्देशे।गान्धारे प्रागासीदिदं प्रतिष्ठानमायुपुरम् ॥ वही, पृ. ४४२, का.२ डॉ. आभा द्विवेदी, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, सिद्धार्थ नगर, कपिलवस्तु ने कहाकि दस्युनिग्रह नामक इस प्रक्रम में इन्द्र के लिए ऋग्वेद से सूक्ति उद्धृत किया गया है। इस सूक्ति के क्रम में नीपातिथि नामक ऋषि ने इन्द्र की स्तुति की है। इन्द्र का निवास स्थान द्युलोक है। इन्द्र द्युलोक से आकरदस्युओंका संहार किया फिर अपने निवास स्थान द्युलोक को चला गया।एन्द्र याहि हरिभिरुप कण्वस्य सुष्टुतिम्।दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥ वही, पृ. ४१७ डॉ. स्वर्ग कुमार मिश्र, सहायक अचार्य, साहित्य विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर,त्रिपुरा ने कहा कि दस्युनिग्रह नामक इस प्रक्रम में कहा गया है कि कुत्स नामक आर्य का मित्र इन्द्र था।सिन्धुनदीके पश्चिम तट पर कुत्स की राजधानी थी। अनेक दस्यूओं ने वहाँ आकर खेती को नष्ट करने लगा तथा नदी केजलस्रोत को रोक दिया। तब राजा कुत्स ने देवराज इन्द्र की प्रार्थना की। इन्द्र ने अपने मित्र कुत्स को अपनेपराक्रम से रक्षा की । दस्युनिग्रह नामक प्रक्रम में कहा गया है कि इन्द्र जिस जिस स्थान पर गया था उस उसस्थान का विस्तृत वर्णन इन्द्रविजय के इस प्रक्रम में किया गया है।। कौत्से राष्ट्रे दस्युभिः सिन्धुपश्चात्प्रान्ते नानोपद्रवा अक्रियन्त ।क्षेत्राणां चाप्स्रोतसां चावरोधास्तार्णान्नादिस्तूपदुर्निग्रहाश्च ॥ वही, पृ. ४२२, का. १डॉ. श्वेता तिवारी, वरिष्ठ अध्येता, वैदिक शोध संस्थान, जयपुर ने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में दस्युनिग्रहनामक अध्याय में दस्यूओं की अभिनव व्याख्या की गयी है। आर्य को प्रताडित करने के लिए अनार्य दस्यु ने बड़ाउपद्रव किया। षड्गृभि नामक दस्यु और शुष्ण नामक दस्यु ने आर्य सव्य को प्रताडित किया, वेश नामक दस्युने पुरूरवा के पुत्र आयुराज को प्रताडित किया, पिप्रु नामक दस्यु ने वैदथिन नामक आर्य को और ऋजिश्वान्नामक आर्य को कष्ट पहुँचाया, महाबली मृगय नामक दस्यु ने शूशुव नामक आर्य को दुःख पहुँचाया। सव्यं षड्गृभिशुष्णौ वेशस्त्वायुं पुरूरवःपुत्रम्।वैदथिनमृजिश्वानं पिप्रुर्मृगयश्च शूशुवान् व्यरुजन् ॥ वही, पृ. ४०२, का. ४ इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के इस अध्याय में अनेक दस्यूओं के नामों का संकल किया गया है। उसी प्रकार अर्यों केभी नामों का संकलन किया गया है। इसके लिए ग्रन्थकार पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने वैदिकसूक्ति को उद्धृतकिया है।प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि गन्धर्व नामक देश में आर्यलोग निवास करते थे।। उसआर्य को कष्ट पहुँचाने के लिए ‘अपगण’ लोग गन्धर्वदेश में आकर अनेक प्रकार के मानव विरुद्ध कार्य को करनेलगे। ‘अपगण’ शब्द से ही ‘अफगान’ यह नाम बना है। एतेऽपगण-प्रमुखा आर्यान् गन्धर्व-देश-वास्तव्यान् ।शश्वत् प्रपीडयन्तो व्याकुलयाञ्चक्रुरत्युग्राः ॥ वही, का. २ प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नईदिल्ली ने सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण का गायन किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोधसंस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल औरमहाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण करसंगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Vedic Science–A Holistic View

Shri Shankar Shikshayatan and Prof. Rajendra Singh Bhayya University, Prayagraj, jointly organised a national seminar on vedic science as advanced by Pandit Madhusudan Ojha on October 19, 2024.The meeting was held online.  The meeting was chaired by Prof. Santosh Kumar Shukla, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawahar Lal Nehru University, Delhi. The chief guest was Dr Akhilesh Kumar, Chancellor, Prof. Rajendra Singh Bhayya University.  Pandit Madhusudan Ojha’s Vedic Science establishes a new way of thinking. To know the manifold creation from a single principle is vijnana or science, and to know the single principle from the manifold creation is jnana or knowledge. To substantiate this doctrine of knowledge and science, various principles have been compiled in Vedic Science. All these principles are based on the authority of the shastras.During the seminar,  scholars and researchers presented their papers based on the principles related to Brahma-Vijnana from a holistic perspective. The meeting was organised by Dr Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan and Dr Praveen Kumar Dwivedi of Prof. Rajendra Singh Bhaiyya University. The speakers included the following: Dr Yeesh Narain Dwivedi, Dr Manish Jha, Dr Priya Jha, Mr Nitin Tripathi, Mr Anant Mishra, Ms Sukhi Srivastava, Ms Mahima Tripathi, Dr Prachetas, Dr Raj Kishore Arya, Dr Chanda Jha, Dr Arunoya Mishra, Dr Premvallabh Devali, Ms Vidya Tiwari, Mr Anuraj Azad, Mr Prem Narain Pandey, Mr Chotey Lal Yadav, Mr Kamalendra Prof. Vinod Kumar Gupta and Dr Thakur Shivshankar Shandilya.

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National Seminar on Indravijaya: Bharatavarsha–Part-IX

A national webinar was organised by Shri Shankar Shikshayatan on September 30. . This national seminar focused on the third chapter of Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. Prof. Ranjit Kumar Mishra, Hansraj College, Delhi University said that the diverse form of Usha has been revealed in the third chapter of Indravijaya. There are many sages who praise Usha whose names have been mentioned by the author. They are: Vishwamitra, Vashishtha, Praskanva Kanva, Kakshivan Dirghatama, Ashtadashtra Vairup and Aptya. Several sages have praised Usha in the Rigveda. Usha is imagined in human form, yet Usha is treated at a divine level. At the time of sunrise, Usha comes near a man riding on a chariot made of deer. Hundred chariots driven by the deities follow Usha. Dr. Govind Shukla, Assistant Professor, Department of Grammar, Central Sanskrit University, Vedvyas Campus said that the name of the third chapter of Indravijaya was Vigyan Bhavan. In this chapter, the establishment of Surya Sadan has been extensively discussed by Ojha ji. Names of rivers and introduction of places along the rivers are also available here. Just as there is a lake named Bindusar towards the north from Kashmir. That lake is currently known by the name ‘Sarpas’. Many scholars also interpret this lake by the name Saraswati. There was Saraswati city in the east part of the confluence of Indus river and Saraswati city on the west bank. This house of Surya was established there. Dr. Radhavallabh Sharma, Assistant Professor, Department of Literature, Haryana Sanskrit Vidyapeeth, Palwal, said that Suryasanstha has been described in detail in Indravijaya. There were two chakras of Surya in Surya Sadan. Indra bravely took a Chakra from the bandits to place it in the celestial world. This Chakra was kept near a person named Kutsa. In the same context, Vishtap has also been described by Pandit Madhusudan Ojha. Vishtap means svarga. There was a displacement of the moon in the north-east direction from Aparajita place. Brahma’s Vishtap was in the south direction and Vishnu’s Vishtap was in the north. Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, presided over the programme. He said that a unique explanation of Surya Bhavan can be seen in the third chapter of Indravijaya. In the third chapter, the knowledge of Sun and the knowledge of Usha have been described in detail. In the very beginning the author writes that Surya Sadan was established by Indra on the banks of river Saraswati. This Surya Sadan was established under the leadership of sage Vasishtha. Surya Sadan was there only to know the knowledge of Sun’s light and dawn. Dr. Praveen Koirala, Samveda Professor, Dharmodaya Vedvigyan Gurukul, Manipur, recited Vedic Mangalacharan . The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. Students and teachers from various universities of different states participated in the programme.

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Yajnasarasvati

Dr Ramanuj Upadhyay translated the book on yajna by Pandit Madhusudan Ojha into Hindi. He teaches at Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapeeth, New Delhi. The book presents a comprehensive view of yajna vijnana or the science of yajna. This book is divided into two sections–somakhanda and agnichayankhanda. In Somakhanda, a comprehensive and yet simple description of ishti and rajasuya-yajna. In the agnichayankhanda, selection of material for yajna and preparation of the place of yajna have been described with colourful illustrations. यज्ञसरस्वतीयह यज्ञविज्ञान नामक ग्रन्थविभाग के अन्तर्गत लिखा गया याज्ञिक विषयों का प्रतिपादक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ के सोमकाण्ड एवं अग्निचयनकाण्ड नामक दो खण्ड हैं । सोमकाण्ड के अन्तर्गत जहाँ इष्टि से लेकर राजसूययज्ञ तक के यज्ञों की पद्धति सरल रीति से बतलायी गयी है वहीं अग्निचयनकाण्ड में चयनविद्या एवं उसकी पद्धति तथा चितियों का निर्माण सादा एवं रंगीन नक्शों के साथ बहुत ही सुन्दरता से प्रतिपादित किया गया है ।डॉ. रामानुज उपाध्याय, सहाचार्य, वेदविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली ने पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत यज्ञसरस्वती ग्रन्थ की हिन्दी व्याख्या की है।(This is a copyrighted material and cannot be reproduced)

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Purananirmanadhikaran

  This small book has been written by Ojhaji on the development of Puranas–where they originated, who were their first speakers, who were the authors of the current Puranas, etc. In this book, a very clear and detailed discussion of the above topics has been given on the basis of the Puranas. पुराणनिर्माणाधिकरण आज जो पुराण-ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनका विकास किस क्रम से हुआ, इनका मूल कहाँ से है, इनके प्रथम वक्ता कौन हैं, वर्तमान पुराण ग्रन्थों के कर्ता कौन हैं, आदि विषयों को लेकर ओझाजी द्वारा इस लघु ग्रन्थ का प्रणयन किया गया है । इस लघु ग्रन्थ में उक्त विषयों का बहुत स्पष्ट और विस्तृत विवेचन पुराणों के अधार पर ही किया गया है ।   Read/download

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Maharshikulavaibhavam 2

This is the second volume of Pandit Madhusudan Ojha’s work on rishis. Well-known acharya and disciple of Ojhaji, Pandit Giridhar Sharma Chaturvedi, translated the guru’s work with great care and clarity. Pandit Chaturvedi, at that time, was teaching Sanskrit at the Benares Hindu University, Varanasi. महर्षिकुलवैभम्यह पंडित मधुसूदन ओझा की ऋषियों पर लिखी कृति का दूसरा खंड है। Read/download

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-७)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केद्वितीय अध्याय के प्रारम्भिक भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित कीगई थी । प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्यविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, ने सोमवल्ली के परिप्रेक्ष्य में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। पण्डित ओझा जी ने इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ में सोमवल्ली की अभिनव व्याख्या की है, जो पाठकों के लिए सर्वथा नवीन है। हेमकूट नामक एकपर्वत है। उस पर्वत पर चन्द्रमा ही सोमवल्ली के रूप में अवस्थित हैं। सोम तत्त्व से ही यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञका साधन सोम है। जब देवों के साथ असुर का युद्ध हुआ, तब उस युद्ध में असुर ने उस सोमवल्ली नष्ट कर दिया । चन्द्रस्तु सोमवल्लीरूपो यो हेमकूटाद्रौ।यज्ञैकसाधनं तद्देवानामुदखनन्नसुराः॥ इन्द्रविजय, पृ. २८७, कारिका १ इस प्रसङ्ग में यज्ञ का महत्त्व रेखांकित किया गया है। देवता ने यज्ञ के माध्यम से ही विविध प्रकार की सिद्धियाँप्राप्त की थी। असुर भी यज्ञ को करने के लिए प्रयत्न किया था। परन्तु वे असुर यज्ञविधि ठीक से नहीं जानने केकारण सिद्ध को प्राप्त नहीं हुए। अत एव वे असुर यज्ञ से होने वाली सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सके। यज्ञात् सिद्धीर्देवतानामनेका दृष्ट्वा यज्ञं कर्तुमैच्छन्नदेवाः।किन्त्वस्मिंस्ते यज्ञविज्ञानशिक्षाशून्यः सिद्धिं नाप्नुवन् विध्यबोधात्॥ वही, कारिका २ प्रो. विजय गर्ग, आचार्य, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने देवयजनभूमि नामकविषय को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया था। उन्होंने कहा कि स्वर्गशब्द का पर्याय त्रिविष्टप है।वैदिकविज्ञान में त्रिलोकी एक प्रधान विषय है। त्रिलोकी में पहला पृथ्वीलोक भारतवर्ष है। दूसरा अन्तरिक्ष औरतीसरा हैमवतवर्ष द्युलोक है। यही तीनों लोक मिल कर त्रिविष्टप है । यहाँ पर पण्डित ओझा जी ने त्रिविष्टप कास्थाननिर्धारण किया है। उत्तर समुद्र से लेकर कुरुवर्ष पर्यन्त स्थान त्रिविष्टप कहलाता है। इस प्रकार त्रिविष्टप को ही द्युलोक कहा गया है। जिस प्रकार एक पृथ्वी है। उस पृथिवी के एक भाग का राजा देवदत्त है, दूसरे भागका राजा कोई अन्य व्यक्ति है। तीसरे भाग का राजा कोई दूसरा ही है। एक ही भूपिण्ड का राजा के भेद से राज्यका भेद होता है। उसी प्रकार स्वर्ग के एक भाग का राजा ब्रह्मा है। ब्रह्मा जिस भाग का राजा है, वह भाग ब्रह्माका विष्टप कहलाता है, स्वर्ग के दूसरे भाग का राजा विष्णु है, वह भाग विष्णुविष्टप कहलाता है। तीसरे भागका राजा इन्द्र, वह भाग इन्द्र का विष्टप कहलाता है। भारतवर्षं पृथ्वी हैमवतं वर्षमन्तरिक्षं स्यात् ।उत्तरमब्धिं यावत् कुरुवर्षान्तं त्रिविष्टपं तु द्यौः॥ब्रह्मण एकं विष्टपमपरं विष्णोस्तृतीयमिन्द्रस्य।एभिस्त्रिभिरधिपतिभिः स्वर्गो लोकस्त्रिविष्टपं भवति॥ वही पृ. २७१, कारिका१-२ डॉ. रितेश कुमार पाण्डेय, सह आचार्य, व्याकरण विभाग, श्रीरङ्ग लक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, वृन्दावनने सुरा की उत्पत्तिप्रसंग के ऊपर अपना स्वव्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि जब असुर सोमरस को प्राप्त नहींकर पाया तब उन्होंने अपने राजा वरुण के समीप जाकर प्रार्थना की । वरुण ने एक मादक पदार्थ को बना करअसुरों को दे दिया। वरुण के प्रयास से निर्मित मादक पदार्थ को असुर ने स्वीकार किया। वे असुर कहने लगे किहम लोग सुरा को पिते हैं, इस प्रकार से सुरा शब्द लोक में मदिरा के अर्थ में प्रचलित हो गया। अप्राप्य सोममसुराः सोमविधं मादकं विधापयितुम्।असुराधीशं वरुणं राजानं प्रार्थयामासुः॥वरुणस्ततः प्रयत्नाद् विनिर्ममे वारुणीं मदिराम्।पास्यामस्त्वसुरानिति सुरामिमां नातश्चक्रुः॥ वही, पृ. २९४, कारिका १-२ डॉ. नीरजा कुमारी, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, महन्त दर्शन दास महाविद्यालय. मुजफ्फरपुर, बिहार नेइन्द्रविजय ग्रन्थ के दूसरे अध्याय के विषयवस्तु पर अपना व्याख्यान प्रदान की। उन्होंने कही कि भरतीयज्ञानपरम्परा में ओङ्कार का महत्त्व अधिक है। भारतवर्ष का महत्त्व कैसा था इस के विषय में ग्रन्थकार स्वयंलिखते हैं कि जहाँ वेद शास्त्र है, भारतवर्ष के निवासी में धर्म के अनुरूप चार वर्णों का विभाग है। गाय एवंपवित्र गंगा पूजनीय है। वह देश ही भारतवर्ष है। ओङ्कार एव येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः।येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ वही, पृ. २५८, कारिका१-२ डॉ. रवीन्द्र ओझा, श्रीलक्ष्मी नारायण वेदपाठशाला, सूरत, ने अपने छात्रों के साथ सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ.लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के संगोष्ठी को सफलबनाया में अपना योगदान दिया।

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Chhandobhyasta

This is a volume on yajna-vijnana or the science of yajna. Here, Ojhaji has elucidated upon all subjects related to yajna. It is written in Vedic language and deals with havi (offerings), mahayana, atiyajna, shiroyajna and yajnaparishad. छन्दोभ्यस्तयह यज्ञविज्ञान का ग्रन्थ है जिसमें यज्ञीय विषयों का सम्यक् विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना वैदिक भाषा में की गयी है । यह ग्रन्थ हविर्यज्ञ, महायज्ञ, अतियज्ञ, शिरोयज्ञ एवं यज्ञपरिशिष्ट नामक पाँच प्रकरणों में विभक्त है । Read/download

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Brahmachatushpadi

Extremely difficult subjects need to be repeated and presented from different perspectives for a better grasp. Brahma-vijnana (science of the creator) is one such knowledge which requires several interpretations. Hence there are many works on different aspects of Brahma-vijnana. In this  volume, several aspects of creation have been explained. ब्रह्मचतुष्पदीउपनिषदों में आख्यायिका एवं उपदेश के रूप में चतुष्पाद् ब्रह्म का निरूपण है, उसी के आधार पर ब्रह्म के चार पादों की कल्पना कर इस ब्रह्मचतुष्पदी की रचना की गयी । यहाँ निर्गुण, निर्विशेष रसतत्त्व से प्रारम्भ कर संसार की वर्तमान स्थिति तक चार प्रकार की अवस्था मानी गयी है । गूढात्मा, शिपिविष्ट, अधियज्ञ एवं विराट् यही चार अवस्थाएँ एक-एक पाद मानी गयी हैं । Read/download

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