National Seminar on Pandit Madhusudan Ojha’s Life and Works & Rishi Samman Ceremony

In collaboration with Varanasi’s Jnana Pravaha, Shri Shankar Shikshayatan organised a national seminar on Pandit Madhusudan Ojha’s Life and Works at Varanasi on November 17, 2024. The inaugural session was presided over by Prof. Hriday Ranjan Sharma, Vice Chairman, Maharshi Sandipani Rashtriya Veda Vidya, Ujjain. He said that in Vedic science, history has been presented in the light of Vedic context. As chief guest, Prof. Bal Shastri, former Head of Faculty, Faculty of Sanskrit Vidya Dharmavijnana, Benaras Hindu University, Varanasi, said that at a time when Indian scholars were forbidden to undertake sea voyages, Pandit Ojha ji went to England with Maharaja Madhav Singh and proved the relevance of travelling abroad with the help of shastras. While giving the welcome address, Prof. Yugal Kishore Mishra, former Vice Chancellor, Jagadguru Ramanandacharya Rajasthan Sanskrit University said that Pandit Madhusudan Ojha’s place of study was Kashi itself where Kashi’s eminent scholar Mahamahopadhyay Shivkumar Shastri ji was Ojha ji’s teacher. In the course of introducing the topic, Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawahar Lal Nehru University, New Delhi, and Convener of Shri Shankar Shikshayatan, presented his views on the personality and work of Pandit Ojha ji in detail. In this national seminar, about 20 scholars presented research papers in two academic sessions. In the evening, Shri Shankar Shikshayatan honoured Mahamahopadhyay Acharya Vashisht Tripathi, renowned logician and Padma Bhushan awardee and Prof. Ram Chandra Pandey, former Dean, Faculty of Sanskritvidya and Dharmavijnana, Benaras Hindu University, Varanasi, with Rishi Samman. In this programme, many research scholars of Varanasi and eminent Vedic teachers and scholars made their invaluable contribution in making the programme a success.

Read More

राष्ट्रीय संगोष्ठी-पण्डित मधुसूदन ओझा का व्यक्तित्व एवं कृतित्व एवं ऋषिसम्मान समारोह

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली एवं ज्ञानप्रवाह सास्कृतिक अध्ययन केन्द्र, वाराणसी के संयुक्त तत्त्वावधान में दिनांक १७ नवम्बर २०२४, रविवार को ज्ञानप्रवाह के सभागार में ‘पण्डित मधुसूदन ओझा का व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी । उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता प्रो. हृदय रञ्जन शर्मा, उपाध्यक्ष, म. सा. राष्ट्रीय वेद विद्याप्रतिष्ठान, उज्जैन ने की। उन्होंने कहा कि वैदिकविज्ञान में इतिहास को वैदिकसन्दर्भ के आलोक में उपस्थापित किया गया है। मुख्य अतुथि के रूप में प्रो. बाल शास्त्री, पूर्व संकाय प्रमुख, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने कहा कि जिस समय भारतीय विद्वान् समुद्रयात्रा नहीं करते थे। उस समय पण्डित ओझा जी ने महाराजा माधव सिंह के साथ इंग्लैण्ड गये और शास्त्रप्रमाण से विदेशयात्रा की प्रासंगिकता को सिद्ध किया । स्वागत वक्त प्रदान करते हुए प्रो. युगल किशोर मिश्र, पूर्व कुलपति, ज. रा.  राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय ने कहा कि पण्डित मधुसूदन ओझा का  अध्ययन स्थान काशी ही था। जहाँ काशी के मूर्धन्य विद्वान् महामहोपाध्याय शिवकुमारशास्त्री  जी ओझा जी के गुरु थे। विषय प्रवर्तन के क्रम में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने विस्तार से पण्डित ओझा जी के  व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपना विचार रखा। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में दो शैक्षणिक सत्र में लगभग २० विद्वानों ने शोधपत्र को प्रस्तुत किया। सायंकाल ऋषिसम्मान समारोह का समायोजन किया गया । जिस में महामहोपाध्याय आचार्य वशिष्ठ त्रिपाठी, प्रख्यात नैयायिक एवं पद्द्मभूषण सम्मान से सम्मानित आचार्य को श्रीशंकर शिक्षायतन ने ऋषि सम्मान से संम्मानित किया।  प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय, पूर्व संकाय प्रमुख,      संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी को भी ऋषिसम्मान से सम्मानित किया गया। अंगवस्त्र, फल, अभिनन्दनपत्र, प्रमाणपत्र आदि से दोनों विद्वानों को यथोचित सम्मानित किया गया। इस कार्यकार्यक्रम में  वाराणसी के अनेक शोधछात्र और महनीय आचार्य वृन्द एवं श्रीलाल बहादुर सास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय वैदिक विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भागग्रहण कर कार्यक्रम को सफल बनाने में अपना अप्रतिम योगदान किया।

Read More

National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Part X

Report Shri Shankar Shikshayatan organised a national seminar online on October 26,2024. The seminar was based on various subjects contained in the fourth chapter of Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The seminar was the tenth meeting as part of our year-long discussion on Indravijaya. Prof. Ramanuj Upadhyay, Department of Vedas, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi said that in Indravijaya’s fourth chapter titled Dasyunigraha, the great deeds of Indra have been described. The chapter explained how Indra resolved the animosity between Dasyus and Aryas. Prof. Chandrashekhar Pandey, Acharya, Faculty of Ayurveda, Faculty of Medical Sciences, Kashi Hindu University, Varanasi said termed Pandit Madhusudan Ojha’s book as the history and geography of Bharatavarsha. Dr. Abha Dwivedi, Assistant Acharya, Sanskrit Department, Siddharth University, Siddharth Nagar, Kapilvastu and Dr. Swarg Kumar Mishra, Assistant Professor, Department of Literature, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, explained Indra’s exploits in countering the adversarial Dasyus and how he achieved his victory over them. Dr. Shweta Tiwari, Senior Research Scholar, Vedic Research Institute, Jaipur said that in the book named Indravijay, an innovative explanation of bandits has been given in the chapter named Dasyunigraha. To harass the Arya, the non-Aryan bandits created a big ruckus. Pandit Ojha has identified these bandits and Arya by name on the basis of vedic references. Prof. Santosh Kumar Shukla, Centre of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, while presiding over the programme, said that Arya lived in a country called Gandharva. ‘Apagan’ people came to Gandharva to trouble them. He pointed out that ‘Afghan’ is derived from the word ‘Apgan’. Prof. Ramraj Upadhyay,Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi, recited Vedic Mangala Charan. The programme was conducted by Dr. Laxmi Kant Vimal, Research Officer of Sri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. Several professors, research scholars, scholars from universities and colleges of many states participated enthusiastically to make the seminar a success.

Read More

राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-१०)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा २६ अक्टूम्बर, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तकअन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ के चतुर्थ अध्याय के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई ।प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेदविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि इस दस्युनिग्रह नामक चौथे प्रक्रम में इन्द्र के महान् कार्यों का निरूपण किया गया है। सबसे पहले पुरूरवा के पुत्र आयु था। उसके शत्रु का नाम वेश था। उस वेश को इन्द्र ने संयमित किया । उसके बादसव्यनामक आर्य का शत्रु षड्गृभि था। इन्द्र ने षड्गृभि का भी दमन किया। इस प्रक्रम में सभी दस्यूओं का आर्योंके बीच में शत्रुभाव था। उस शत्रुभाव को इन्द्र ने दूर किया।पौरूरवसस्यायोः शत्रुं वेशं तु नम्रतानमयत् ।षड्गृभिमरन्धयत् तं यः सव्यायार्द्दयत्पूर्वम् ॥ ॥ इन्द्रविजय पृ. ४६९, का. १ प्रो. चन्द्रशेखर पाण्डेय, आचार्य, आयुर्वेद संकाय, चिकित्सा विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी ने कहा कि यह इन्द्रविजय ग्रन्थ भरतवर्ष का इतिहास और भूगोल है। उन्होंने पीपीटी के माध्यम सेअपना व्याख्यान प्रदान किया। इन्द्रविजय ग्रन्थ के चौथे अध्याय में आयुराज का परिचय प्राप्त होता है। आयुगन्धर्वराज का पौत्र था तथा पुरूरवा का बेटा था। पुरूरवा बुध का बेटा था। वह आयु प्रतिष्ठान नगर का गन्धर्वका राजा था। गन्धर्वराजपौत्रो बुधपुत्रो यः पुरूरवा राजा ।तत्पुत्र आयुरासीत् गन्धर्वेशः प्रतिष्ठाने ॥ वही, पृ. ४४२, का. १ प्रतिष्ठानपुर की भौगोलिकी सीमा इस प्रकार की थी। इस का वर्णन यहाँ अत्यन्त ही विस्तार से किया गया है।गौरी नामक नदी के समीप में मूजवान् नामक पर्वत था। उस पर्वत के बगल में गान्धार नामक प्रदेश था।गान्धारदेश में ही आयुराज का प्रतिष्ठान नगर था। गौरीनदीसमीपे मूजवतः पर्वतादर्वाग्देशे।गान्धारे प्रागासीदिदं प्रतिष्ठानमायुपुरम् ॥ वही, पृ. ४४२, का.२ डॉ. आभा द्विवेदी, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, सिद्धार्थ नगर, कपिलवस्तु ने कहाकि दस्युनिग्रह नामक इस प्रक्रम में इन्द्र के लिए ऋग्वेद से सूक्ति उद्धृत किया गया है। इस सूक्ति के क्रम में नीपातिथि नामक ऋषि ने इन्द्र की स्तुति की है। इन्द्र का निवास स्थान द्युलोक है। इन्द्र द्युलोक से आकरदस्युओंका संहार किया फिर अपने निवास स्थान द्युलोक को चला गया।एन्द्र याहि हरिभिरुप कण्वस्य सुष्टुतिम्।दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥ वही, पृ. ४१७ डॉ. स्वर्ग कुमार मिश्र, सहायक अचार्य, साहित्य विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर,त्रिपुरा ने कहा कि दस्युनिग्रह नामक इस प्रक्रम में कहा गया है कि कुत्स नामक आर्य का मित्र इन्द्र था।सिन्धुनदीके पश्चिम तट पर कुत्स की राजधानी थी। अनेक दस्यूओं ने वहाँ आकर खेती को नष्ट करने लगा तथा नदी केजलस्रोत को रोक दिया। तब राजा कुत्स ने देवराज इन्द्र की प्रार्थना की। इन्द्र ने अपने मित्र कुत्स को अपनेपराक्रम से रक्षा की । दस्युनिग्रह नामक प्रक्रम में कहा गया है कि इन्द्र जिस जिस स्थान पर गया था उस उसस्थान का विस्तृत वर्णन इन्द्रविजय के इस प्रक्रम में किया गया है।। कौत्से राष्ट्रे दस्युभिः सिन्धुपश्चात्प्रान्ते नानोपद्रवा अक्रियन्त ।क्षेत्राणां चाप्स्रोतसां चावरोधास्तार्णान्नादिस्तूपदुर्निग्रहाश्च ॥ वही, पृ. ४२२, का. १डॉ. श्वेता तिवारी, वरिष्ठ अध्येता, वैदिक शोध संस्थान, जयपुर ने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में दस्युनिग्रहनामक अध्याय में दस्यूओं की अभिनव व्याख्या की गयी है। आर्य को प्रताडित करने के लिए अनार्य दस्यु ने बड़ाउपद्रव किया। षड्गृभि नामक दस्यु और शुष्ण नामक दस्यु ने आर्य सव्य को प्रताडित किया, वेश नामक दस्युने पुरूरवा के पुत्र आयुराज को प्रताडित किया, पिप्रु नामक दस्यु ने वैदथिन नामक आर्य को और ऋजिश्वान्नामक आर्य को कष्ट पहुँचाया, महाबली मृगय नामक दस्यु ने शूशुव नामक आर्य को दुःख पहुँचाया। सव्यं षड्गृभिशुष्णौ वेशस्त्वायुं पुरूरवःपुत्रम्।वैदथिनमृजिश्वानं पिप्रुर्मृगयश्च शूशुवान् व्यरुजन् ॥ वही, पृ. ४०२, का. ४ इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के इस अध्याय में अनेक दस्यूओं के नामों का संकल किया गया है। उसी प्रकार अर्यों केभी नामों का संकलन किया गया है। इसके लिए ग्रन्थकार पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने वैदिकसूक्ति को उद्धृतकिया है।प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि गन्धर्व नामक देश में आर्यलोग निवास करते थे।। उसआर्य को कष्ट पहुँचाने के लिए ‘अपगण’ लोग गन्धर्वदेश में आकर अनेक प्रकार के मानव विरुद्ध कार्य को करनेलगे। ‘अपगण’ शब्द से ही ‘अफगान’ यह नाम बना है। एतेऽपगण-प्रमुखा आर्यान् गन्धर्व-देश-वास्तव्यान् ।शश्वत् प्रपीडयन्तो व्याकुलयाञ्चक्रुरत्युग्राः ॥ वही, का. २ प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नईदिल्ली ने सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण का गायन किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोधसंस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल औरमहाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण करसंगोष्ठी को सफल बनाया।

Read More

Krishnarahasya series

Eight commentaries were written by Pandit Motilal Shastri based on Pandit Madhusudan Ojha’s Gitavijnana Bhashya in Sanskrit. The commentary has three parts – Rahasya Khanda, Mool Khanda, and Acharya Khanda. Ojha ji has described various forms of Shri Krishna in Acharya khanda.The ultimate principle in Vedic literature is truth and this has been revealed in Manushottam Krishnarahasya. Pandit Motilal Shastri has presented the Krishnarahasya series in the form of small books on the basis of Ojha ji’s Sanskrit commentary. These are eight respectively- Manushottamkrishnarahasya, Satyakrishnarahasya, Pratishtakrishnarahasya,Jyotikrishnarahasya,Ishwarkrishnarahasya, Paramesththikrishnarahasya,Chakshushkrishnarahasya and Vaihayakrishnarahasya. कृष्णरहस्य शृंखला पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने  संस्कृत में गीताविज्ञानभाष्य लिखा है। विज्ञानभाष्य के तीन भाग हैं- रहस्यकाण्ड, मूलकाण्ड, और आचार्यकाण्ड। आचार्यकाण्ड में श्रीकृष्ण के विविध स्वरूपों का वर्णन ओझा जी ने  किया है।  वैदिक साहित्य में परम तत्त्व सत्य है।  उस सत्य तत्त्व का अवतरण क्रमशः मानुषोत्तम कृष्ण में हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्यों में सबसे उत्तम हैं।  पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ओझा जी के संस्कृत भाष्य के आधार पर कृष्णरहस्य शृंखला को लघुग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। ये क्रमशः आठ हैं- मानुषोत्तमकृष्णरहस्य सत्यकृष्णरहस्य प्रतिष्ठाकृष्णरहस्य ज्योतिकृष्णरहस्य ईश्वरकृष्णरहस्य परमेष्ठीकृष्णरहस्य चाक्षुषकृष्णरहस्य वैहायसकृष्णरहस्य Manushottamkrishnarahasya Pandit Madhusudan Ojha has described the mystery of Manushottam Krishna in the Acharya khanda of Gitavijnanabhashya. This is the first book in the Krishnarahasya series written by his disciple, Pandit Motilal Shastri. Just as the word Purushottam is formed, similarly the word Manushottam is formed. Bhagwan Sri Krishna is Manushottam (supreme human being). Pandit Ojha ji has determined on the basis of the quotations from Gita that the word used by Bhagwan Krishna for himself in Gita has been used to describe Sri Krishna. मानुषोत्तमकृष्णरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड में मानुषोत्तमकृष्णरहस्य का वर्णन है। पण्डितमोतीलाल शास्त्री ने कृष्णरहस्य शृंखला में यह पहला है। जिस प्रकार पुरुषोत्तम शब्द बनता है उसी प्रकारमानुषोत्तम शब्द है। भगवान् श्रीकृष्ण मानुषोत्तम हैं। पण्डित ओझा जी ने गीता के उद्धरणों के आधार पर यहनिश्चित किया है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने लिए जो शब्द गीता में प्रयोग किया है उसी को आधार बना करश्रीकृष्ण का निरूपण किया गया है।मानुष अवतार कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- ग्रन्थकार ने १२ उद्धरण यहाँ संकलित किया है।ये मे मत मिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। गीता ३.३१कर्तव्यानीति मे पार्थ! निश्चितं मतमुत्तमम्। गीता १८.६ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.१)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मैं’ शब्द है उसका अर्थ मेरा है। यह मेरा शब्द मनुष्य के अर्थ में है।ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- अभुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। गीता ४.७ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्ततथैव भजाम्यम्। गीता ४.११ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.२)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वरकृष्ण के अर्थ में है।अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। गीता ३.३०न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ गीता ४.१४ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मयि’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्ययकृष्ण के अर्थ में है।मानुष और ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- मम देहे गुडाकेश ! यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि । गीता ११.७न च मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्। गीता. ११.८ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मम’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष ईश्वर कृष्ण के अर्थ में है।मानुष और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- न त्वेवाहं जातु नाम न त्वं नेमे जनाधिपाः। गीता २.१२अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते। गीता ३.२७ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष अव्यय कृष्ण के अर्थ में है। ईश्वर और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। गीता २.६१सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। गीता ५.२९ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मत्’ और ‘माम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वर अव्यय कृष्ण के अर्थ मेंहै।अव्यय, ईश्वर और मानुष कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। गीता ३.२२उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। गीता ३.२४ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मे’ और ‘अहम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्यय ईश्वर कृष्ण के अर्थ मेंहै।इस प्रकार इस ग्रन्थ में कृष्ण के अनेक स्वरूपों को उद्घाटित किया गया है। Read/Download Satyakrishnarahasya Satyakrishnarahasya is the second part in Acharya khanda of Gitavijnanabhashya written by Pandit Madhusudan Ojha. The true substance in the world is Krishna. Every living being in the world has a kind of destiny. Water always goes downwards. Fire always moves upwards. Air always moves diagonally. This is called destiny. This is the form of truth. The substance which never changes is called truth. This principle of destiny has been going on for millions of years. It is the same even today. Destiny is the truth and that is also Krishna. The thing which is not bound in the past, future and present is called truth. This thing is true, it never changes, this is the sign of truth.  Brahma is everything, this is the meaning of Shruti. The whole universe has originated from this one Brahman. This whole world has originated from that one Brahman. Various thoughts have originated from that one. Brahman is the truth. The universe is the second thought of truth. Creation and dissolution – these two thoughts exist. In Vedic definition, these two are called Sanchara-Pratisanchara. The true Brahman itself transforms into the form of creation. The world is created from the order of Sanchara in Brahman.  सत्यकृष्णरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के अन्तर्गत सत्यकृष्णरहस्य दूसरे स्थान पर है। संसार में जो सत्य पदार्थ है वही कृष्ण है। संसार के प्राणिमात्र में  एक प्रकार की नियति होती है। पानी सदा नीचे की ओर जाता है ।अग्नि की गति सदा ऊपर की ओर ही होती है। वायु सदा तिरझा ही चलता है। इसी को नियति कहते हैं। यही सत्य का स्वरूप है। जो पदार्थ कभी नहीं बदलता उसी का नाम सत्य है। नियति का यह सिद्धान्त लाखों वर्ष पहले से चलता हुआ आ रहा है। आज भी वही है। नियति ही सत्य है वही कृष्ण भी है। (सत्यकृष्ण रहस्य पृ. १)                                                             जिस वस्तु का भूत, भविष्यत्,…

Read More

National Seminar on Indravijaya: Bharatavarsha–Part-IX

A national webinar was organised by Shri Shankar Shikshayatan on September 30. . This national seminar focused on the third chapter of Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. Prof. Ranjit Kumar Mishra, Hansraj College, Delhi University said that the diverse form of Usha has been revealed in the third chapter of Indravijaya. There are many sages who praise Usha whose names have been mentioned by the author. They are: Vishwamitra, Vashishtha, Praskanva Kanva, Kakshivan Dirghatama, Ashtadashtra Vairup and Aptya. Several sages have praised Usha in the Rigveda. Usha is imagined in human form, yet Usha is treated at a divine level. At the time of sunrise, Usha comes near a man riding on a chariot made of deer. Hundred chariots driven by the deities follow Usha. Dr. Govind Shukla, Assistant Professor, Department of Grammar, Central Sanskrit University, Vedvyas Campus said that the name of the third chapter of Indravijaya was Vigyan Bhavan. In this chapter, the establishment of Surya Sadan has been extensively discussed by Ojha ji. Names of rivers and introduction of places along the rivers are also available here. Just as there is a lake named Bindusar towards the north from Kashmir. That lake is currently known by the name ‘Sarpas’. Many scholars also interpret this lake by the name Saraswati. There was Saraswati city in the east part of the confluence of Indus river and Saraswati city on the west bank. This house of Surya was established there. Dr. Radhavallabh Sharma, Assistant Professor, Department of Literature, Haryana Sanskrit Vidyapeeth, Palwal, said that Suryasanstha has been described in detail in Indravijaya. There were two chakras of Surya in Surya Sadan. Indra bravely took a Chakra from the bandits to place it in the celestial world. This Chakra was kept near a person named Kutsa. In the same context, Vishtap has also been described by Pandit Madhusudan Ojha. Vishtap means svarga. There was a displacement of the moon in the north-east direction from Aparajita place. Brahma’s Vishtap was in the south direction and Vishnu’s Vishtap was in the north. Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, presided over the programme. He said that a unique explanation of Surya Bhavan can be seen in the third chapter of Indravijaya. In the third chapter, the knowledge of Sun and the knowledge of Usha have been described in detail. In the very beginning the author writes that Surya Sadan was established by Indra on the banks of river Saraswati. This Surya Sadan was established under the leadership of sage Vasishtha. Surya Sadan was there only to know the knowledge of Sun’s light and dawn. Dr. Praveen Koirala, Samveda Professor, Dharmodaya Vedvigyan Gurukul, Manipur, recited Vedic Mangalacharan . The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. Students and teachers from various universities of different states participated in the programme.

Read More

राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-९)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० सितम्बर, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तकअन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ के तृतीय अध्याय के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई । प्रो. रञ्जीत कुमार मिश्र, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ केतीसरे अध्याय में उषा के विविध स्वरूप को उद्घाटित किया गया है। उषा के स्तुति करने वाले अनेक ऋषि हैं।जिनके नाम ग्रन्थकार ने उल्लिखित किया है। यथा- विश्वामित्र, वसिष्ठ, प्रस्कण्व काण्व, कक्षीवान् दीर्घतमा,अष्टादंष्ट्र वैरूप और आप्त्य। इतने ऋषियों ने ऋग्वेद में उषा की स्तुति की है। उषा के मनुष्यरूप की परिकल्पनाहै फिर भी आधिदैविक के स्तर पर उषा का व्यवहार किया जाता है। सूर्योदयकाल में हिरण्यमय रथ पर आरूढहोकर उषा मनुष्य के समीप आती है। देवताओं के द्वारा सञ्चालित सौ रथ उषा के पीछे पीछे चलते हैं। सूर्योदयादेव रथं हिरण्मयं सारुह्य दूरानभियाति मानुषान् ।अध्यासितं तत्सहचारि दैवतैः शतं रथानामनुयापि पृष्ठतः॥ इन्द्रविजय पृ. ३६९, का.१ ऋषि वसिष्ठ राजा वरुण के पुरोहित थे। सूर्यभवन में वसिष्ठ की नियुक्ति की गयी। वह वशिष्ठ ऋषि उषा कीस्तुति की है। ऋग्वेद के सन्दर्भित मण्डल में उषा की विशद व्याख्या मिलती है। डॉ. गोविन्द शुक्ल, सहायक आचार्य, व्याकरण विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर नेकहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के तृतीय अध्याय का नाम विज्ञानभवन है। इस अध्याय में सूर्यसदन की संस्थापना कीबड़ी चर्चा ग्रन्थकार पं. ओझा जी ने की है। नदियों के नामों का उल्लेख और उस नदी के साथ स्थान का परिचयभी यहाँ उपलब्ध होता है। जिस प्रकार काश्मीर से उत्तरदिशा की ओर बिन्दुसार नामक सरोवर है। वह सरोवरइस समय ‘सरपस’ इस नाम से जाना जाता है। कई विद्वान् इस सरोवर को सरस्वती नाम से भी व्याख्यायितकरते हैं। काश्मीरादुत्तरतो बिन्दुसरस्तत्सरीकुलेत्युक्तम्।‘सरपस’ नाम च तस्मात् सरस्वतीत्याहुरन्ये तु ॥ वही, पृ. ३४४, का. ७ सिन्धुनदी के सङ्गमस्थल से पूर्व भाग में और पश्चिमतटभाग पर सरस्वती नगरी थी। वहीं सूर्य का यह सदनसंस्थापित हुआ था। सिन्धोः सङ्गमदेशे तस्या वामे च दक्षिणे च तटे ।यासीत्सरस्वती पूस्तस्यां सूर्यप्रतिष्ठाऽऽसीत्॥ वही, पृ. ३४६, का.८ डॉ. राधावल्लभ शर्मा, सहायक आचार्य, साहित्य विभाग, हरियाणा संस्कृत विद्यापीठ, पलबल ने कहा किइन्द्रविजय ग्रन्थ की सूर्यसंस्था का विस्तार से समीक्षा की गयी है । सूर्यसदन में सूर्य के दो चक्र थे। एक चक्रद्युलोक में लगाने के लिए दस्युओं से इन्द्र पराक्रम पूर्वक लिया था। कुत्स नामक व्यक्ति के समीप यह चक्र रखागया। ये द्वे चक्रे सूर्यस्तत्रैकं दिवि समाधातुम् ।दस्योः शङ्कित इन्द्रो हत्वाऽन्यत् कुत्सरक्षणे न्यदधात् ॥ वही, पृ. ३८९, का. १ इसी प्रसंग में विष्टप का भी वर्णन ग्रन्थकार पण्डित मधुसूदन ओझा ने किया है।विष्टप का अर्थ स्वर्ग होता है।अपराजिता स्थान से ईशान दिशाया में चन्द्रमा का विष्टप था। दक्षिण दिशा में ब्रह्मा का विष्टप और उत्तर दिशामें विष्णु का विष्टप था। डॉ. शर्मा ने कहा कि इन्द्रविजय में वर्णित विष्टप का स्वरूप भारतीय भूगोल पक्ष काउद्घाटन करता है। स्वर्गस्त्रिविष्टपाख्यो विष्टपमेतस्य मण्डलं खण्डम् ।ऐशान्यामपराजितदिशि चैन्द्रं विष्टपं त्वासीत् ॥प्राग्मेरुलक्षित तु ब्राह्मं विष्टपमवाग् दिशि प्रथितम् ।तत उत्तरदिक्प्रथितं नाकारब्धं विष्टपं विष्णोः॥ वही, पृ. ३९६, का १ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के तृतीय अध्याय में सूर्यभवन कीअपूर्व व्याख्या देखने को मिलती है । तृतीय अध्याय में सूर्य की विद्या और उषा की विद्या का विस्तार से वर्णनहुआ है। प्रारम्भ में ही ग्रन्थकार लिखते हैं कि सरस्वती नदी के तट पर सूर्यसदन इन्द्र के द्वारा संस्थापित कियागया था। इस सूर्यसदन का संस्थापना वसिष्ठ ऋषि की आध्यक्षता में हुई थी। सूर्य का ज्योति और उषा की विद्याको जानने के लिए ही सूर्यसदन था। वेत्तुं वसिष्ठमुख्याः सूर्यस्य गवां तथोषसो विद्याम् ।चक्रे सूर्यं नामाधिष्ठानं प्राक् सरस्वतीकूले ॥ वही, पृ. ३४५, का.२ डॉ. प्रवीण कोईराला, सामवेद प्राध्यापक, धर्मोदय वेदविज्ञान गुरुकुल, मणिपुर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरणकिया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्तविमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृतविद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

Read More

Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2024

Report Shri Shankar Shikshayatan organises Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture every year. This year, on September 28, this lecture was successfully conducted in the Vachaspati Auditorium of Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University.This lecture is organised every year as an annual festival of Shri Shankar Shikshayatan. In this lecture, two books were released by the guests present. One book is ‘Vedic Concept of Man and Universe’ written in English language. This book contains five lectures given by Pandit Motilal Shastri at the Rashtrapati Bhawan in 1956. The English translation of that lecture was done by Rishi Kumar Mishra. A detailed, newly edited version has been brought out again. The second book is Ahoratravada Vimarsh. It is a review of Pandit Madhusudan Ojha’s book named Ahoratravada. Both these books have been published in 2024 by DK Print World, Delhi. The keynote speaker in this lecture was Prof. Krishna Kant Sharma, former Faculty Head, Sanskrit Vidya Dharmavigyan Faculty, Banaras Hindu University, Varanasi. He revealed the contemporary importance of the book Indravijaya. He gave his lecture on various aspects of Indravijaya. Pandit Madhusudan Ojha accepts history in the Vedas. Other scholars do not accept history in the Vedas. If there is history in the Vedas, then the eternity of the Vedas will be destroyed. We read many stories in many verses of the Rigveda. In Indravijaya , Indra was the first king of our Bharat nation. Keeping Indra at the centre, the geography and history of Bharatavarsha has been revealed in this book. Prof. Rajdhar Mishra, Grammar Department, Jagadguru Ramanandacharya Rajasthan Sanskrit University, Jaipur, who was present as a special guest, said that Indravijaya not only determines the geographical boundaries of Bharatavarsha, but the description of the world is also given in Indravijaya. The entire history of Bharatavarsha is proved by Shruti Praman. He said that various aspects of naming Bharat have been analysed. Bharatavarsha has four names – Bharatavarsha, Nabhivarsha, Arshabhavarsha and Haimavatvarsha. Four proofs for naming Bharat have also been presented in the book. Agnidhra’s son was Nabhi, Nabhi’s son was Rishabh, Rishabh’s son was Bharat, Bharatavarsha was named after them. Dushyant and Shakuntala’s son was Bharat, Bharatavarsha is named after them. In Shatapath Brahman, Agni is called Bharat, on this basis also the name Bharatavarsha is derived. The name Bharat also means where sustenance and nourishment is provided for. Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, welcomed all the guests and introduced Shri Shankar Shikshayatan’s principal objectives. He said the institute was founded by Rishi Kumar Mishra. Mishraji’s guru was Pandit Motilal Shastri, Motilal Shastri’s guru was Pandit Madhusudan Ojha. In this way, Shri Shankar Shikshayatan is associated with the propagation of Vedic science through guru tradition. He gave a detailed presentation on Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The programme was presided over by Prof. Bhagirath Nand of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University. He explained the importance of Indravijaya. He said that iron was not invented in the Vedic period. But stone was available everywhere. Indra’s thunderbolt was made of stone. Here stone means the hardest substance. Kalidas has also said in his epic Raghuvansha that in the course of narration of Raghucharit, King Raghu’s horse came from Iran. This evidence proves that India’s borders were very wide. Mr Anand Bordia, trustee of Shri Shankar Shikshayatan, thanked all the scholars present. A The lecture began with the melodious singing of Vedic Mangalacharana by Prof. Gopal Prasad Sharma of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University and Prof. Mahanand Jha of Laukika Mangalacharana. The programme was conducted by Dr. Mani Shankar Dwivedi of Sanskrit Department of Jamia Millia Islamia University. Many scholars from Delhi University, Jawaharlal Nehru University, Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Jamia Millia Islamia University, research students and Sanskrit lovers participated enthusiastically in the lecture and made the programme a success.

Read More

पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान-2024

प्रतिवेदन  विसवीं शताब्दी के वैदिकविज्ञान के महान् शास्त्रचिन्तक पण्डित मोतीलाल शास्त्री संस्कृत जगत् में सुविख्यात हैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा में शतपथब्राह्मण का, उपनिषद् का और गीताविज्ञानभाष्य का अभिनव व्याख्या की है। उनकी उपलब्ध सभी रचना श्रीशंकर शिक्षायतन के वेबसाईट पर पढने के लिए रखा गया है। श्रीशंकर शिक्षायतन प्रतिवर्ष मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान का समायोजन करता है। इस वर्ष सितम्बर माह के  दिनांक २८ शनिवार को श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में यह व्याख्यान सुसंपन्न हुआ है।। श्रीशंकर शिक्षायतन का यह वार्षिक उत्सव के रूप में यह यह व्याख्यान प्रतिवर्ष समायोजित होता है। इस व्याख्यान में दो ग्रन्थों का लोकार्पण समागत अतिथियों के द्वारा किया गया। एक ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में लिखित ‘वैदिक कन्सेप्ट आफ मेन एन्ड यूनिवर्स’ है। यह  ग्रन्थ राष्ट्रपतिभवन में महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष  वैदिकविज्ञान के पाँच विषयों पर पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने १९५६ ई. में  व्याख्यान दिया था। उस व्याख्यान का अंग्रेजी अनुवाद ऋषि कुमार मिश्र जी ने किया था। पुन विस्तृत संस्करण निकाला गया है। दूसरा ग्रन्थ अहोरात्रवादविमर्श है। पण्डित मधुसूदन ओझा जी के  अहोरात्रवाद नामक ग्रन्थ की समीक्षा है। ये दोनों ग्रन्थ २०२४ ई. डी. के. प्रिन्ट वर्ल्ड, दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं। इस व्याख्यान में मुख्यवक्ता प्रो. कृष्ण कान्त शर्मा, पूर्वसंकाय अध्यक्ष, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी थे। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के समसामयिक महत्त्व को उद्घाटित किया। उन्होंने इन्द्रविजय के विविध पक्षों पर अपना व्याख्यान दिया। पण्डित मधुसूदन ओझा वेद में इतिहास को स्वीकार करते हैं । दूसरे विद्वान् वेद में इतिहास को  स्वीकार नहीं करते हैं। वेद में यदि इतिहास है तो वेद  की नित्यता भङ्ग हो जायेगी। ऋग्वेद के अनेक सूक्तयों में अनेक कथा हम लोग पढ़ते हैं। इन्द्रविजय ग्रन्थ में इन्द्र हमारे भारत राष्ट्र प्रथम राजा थे। इन्द्र को केन्द्र में रख कर भारतवर्ष का भूगोल और इतिहास का उद्घाटन इस ग्रन्थ में किया गया है। विशिष्ट अतिथि के रूप में  विराजमान प्रो. राजधर मिश्रः, व्याकरण विभाग, जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर ने कहा कि यह इन्द्रविजय ग्रन्थ भारतवर्ष  के भौगोलिक सीमा ही  निर्धारण नहीं करता है अपितु भूगल का वर्णन भी इन्द्रविजय में है। भारतवर्ष का समग्र इतिहास श्रुतिप्रमाण से प्रमाणित है। उन्होंने कहा कि भारत नामकरण के विविध पक्षों का विश्लेषण किया गया है। भारतवर्ष के चार नाम हैं भारतवर्ष, नाभिवर्ष, आर्षभवर्ष और हैमवतवर्ष। भारत नामकरण के लिए चार प्रमाण भी ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है। आग्नीध्र के पुत्र नाभि थे, नाभि के पुत्र ऋषभ, ऋषभ के पुत्र भरत थे, उन्हीं के नाम पर भारतवर्ष है।  दुष्यन्त और शकुन्तल के पुत्र भरत थे, उनके नाम पर यह भारतवर्ष है। शतपथब्राह्मण में अग्नि को भरत कहा गया है, इस आधार पर भी भारतवर्ष नाम है। भरण और पोषण करने के  कारण भी भारत यह नाम सिद्ध होता है। कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्लः, प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने  समागत सभी अतिथियों का स्वागत किया। प्रो. शुक्ल ने दृढता के साथ कहा कि  इस समय संपूर्ण भारतवर्ष में वैदिक विज्ञान के प्रमुख संस्थान श्रीशंकर शिक्षायतन है। इस शिक्षायतन की संस्थापना प्रख्यात शिक्षाविद् ऋषि कुमार मिश्र ने की थी। मिश्र के गुरु पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी थे, मोतीलाल शास्त्री के गुरु पण्डित मधुसूदन ओझा जी थे । इस प्रकार गुरु परम्परा से वैदिक विज्ञान का संप्रसार प्रचार संलग्न यह श्रीशंकर शिक्षायतन है। इतिहास दो प्रकार के होते हैं। एक  इतिहास सृष्टिपक्ष को उद्घाटित करता है। दूसरा पक्ष राजाओं के चरितवृत्तान्त समुद्घाटित करता है। जगद्गुरुवैभव नामक ग्रन्थ में स्वयं पण्डित मधुसूदन ओझा लिखा है।                       यद्विश्वसृष्टेरितिवृत्तिमासीत् पुरातनं तद्धि पुराणमाहुः।                      यच्चेतनानां नु नृणाम् चरित्रं पृथक् कृतं स्यात् स इहेतिहासः॥ कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. भागीरथ नन्द, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के शैक्षणिक पीठाध्यक्ष की थी। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के महत्त्व का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि वैदिककाल में लौहपदार्थ का आविष्कार नहीं हुआ था।  परन्तु पत्थर की उपलब्धता सभी जगहों पर थी। इन्द्र का वज्र पत्थर  से बना हुआ था । यहाँ पत्थर का अर्थ कठोरतम पदार्थ से है। कालिदास भी अपने रघुवंश नामक महाकाव्य में रघुचरित के वर्णन के क्रम में राजा रघु का अश्व ईरानदेश से आया था, यह कहा है। इस प्रमाण से  सिद्ध होता है कि भारतवर्ष की  सीमा बहुविस्तृत थी। श्रीशंकर शिक्षायतन के न्यासी श्रीमान् आनन्द बोर्दिया जी ने उपस्थित  सभी विद्वानों का धन्यवादज्ञापन किया । एवं अपने उद्बोधन में भारतवर्ष के व्यापक चिन्तन का महत्त्व का  निरूपण किया गया है। जहाँ  भारतवर्ष में वैदिककाल से  ज्ञान के विविध पक्ष का  विकास हुआ है । हमारे देश में शास्त्रचिन्तन की स्वतन्त्रता है। व्याख्यान के प्रारम्भ श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा वैदिक मङ्गलाचरण का एवं प्रो.महानन्द झा ने लौकिक मङ्गलाचरण का सुस्वर गायन किया। कार्यक्रम का सञ्चालन जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के डॉ. मणिशंकर द्विवेदी ने किया। व्याख्यान में दिल्ली विश्वविद्यालय के, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल के, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अनेक  विद्वानों ने, शोधछात्रों ने संस्कृतानुरागियों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के कार्यक्रम को सफल बनाने में बड़ा योगदान किया।

Read More

National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Part VIII

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the eighth seminar on August 31, 2024, as part of its vedic seminar series Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The seminar was organised on the basis of various topics from the last part of the second chapter of Indravijaya . Speaking on the topic as the chief guest, Prof. Shobha Mishra, Acharya, Sanskrit Department, Vikramajit Singh Sanatan Dharma Mahavidyalaya, Kanpur said that in Indravijaya, Pandit Madhusudan Ojha has presented elaborate discussion on ribhu. He has referred to the Rigveda notations on Ribhu. In the context of Ribhu, Ribhu was a craftsman who assisted man in his work. Ribhu had created two horses for Indra. Riding on those two horses, Indra killed the bandits. These references prove that Ribhu was a resident of Bharatavarsha. Prof. Anita Rajpal, Acharya, Department of Sanskrit, Hindu College, Delhi University, Delhi, also emphasised that Ribhu was a skilled sculptor and he was taught by Tvashta. Ribhu was endowed with three types of craftmanship. Dr. Jaya Sah, Assistant Acharya, Department of Sanskrit, Tripura University, Tripura, pointed out that Ojahji has collected the names of many rivers through the Bharatvarsha narrative of the book named Indravijaya. Not only are the names of the rivers mentioned, but a detailed outline of the geographical area situated on the river banks is described. In Rigveda, these names of Purvasaptanad are- Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri, Parushni, Asakni and Vitasta. In this, Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri Stoma, Sachta Purushnya are the names of Paschim Saptnad. There is another Saptnad from Panch Gaur country towards the north. Whose names are Kulishi, Veerpatni, Shifanjsi etc. Prof. Santosh Kumar Shukla, Acharya, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, chaired the session. He pointed out Pandit Madhusudan Ojha has listed the characteristics of a true Aryan. According to Ojhaji, the one whose deity is Omkar, whose shastra is Veda and whose deity is Ganga and cow, is the real Arya. He is a native of India. He has not come from outside in any way. The seminar was conducted by Dr. Laxmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. Professors, research scholars, and many people interested in the subject from various states participated enthusiastically and contributed to success of the seminar Please watch the proceedings of the seminar here– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I

Read More