Sattanirapeksha Sanskriti Shabda Evam Sattasapeksha Sabhyata Shabda ka Chirantan Itivritti

In this book written by Pandit Motilal Shastri, ‘Culture’ and ‘Civilization’ have been described from the point of view of Indian tradition. The author himself has written that after reading the book ‘Sanskriti ke Char’ Adhyay by Ramdhari Singh Dinkar, he felt that Dinkar’s thoughts are influenced by the western countries. What could be its Indian form? He has tried to explain this in one thousand pages of the book. He has tried to explain a mantra of Yajurveda ‘sa sanskritih prathama vishwavara‘ on the basis. He has also mentioned the thoughts of Nehru etc. keeping in view the contemporary politics. Shastri ji believes that knowledge of civilization can be obtained from archaeology and knowledge of culture can be obtained only from original scientific literature. In this regard, he has said that the ancient ruins, statues, buildings, pots, skulls and skeletons etc. related to archaeology are not called culture. All these can be called symbols of civilization. ‘Culture’ cannot be considered to have any relation with these. If you want to see the form of ‘culture’ then you will have to take refuge in the original literature based on Indian thinking, knowledge and science. Literature is considered to be the only living symbol. You can know your civilization by seeing the remains of archaeology. But you cannot understand the nature of culture through a rigid philosophy. सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द एवं सत्तासापेक्ष सभ्यता शब्द का चिरन्तन इतिवृत्त पण्डित मोतीलाल शास्त्री द्वार लिखित इस ग्रन्थ में भारतीय परम्परा की दृष्टि से ‘संस्कृति’और ‘सभ्यता’ का वर्ण किया गया है। स्वयं लेखक ने लिखा है कि रामधारी सिंह दिनकर के ‘संस्कृति के चार’ अध्याय नामक ग्रन्थ को पढकर उन्हें ऐसा लगा कि यह दिनकर जी का विचार तो पश्चिम के देशों से प्रभावित है।( सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, प्रस्तावना पृ. ७) इसका भारतीय क्या स्वरूप हो  सकता है । इसका प्रयास ग्रन्थ के एक हजार पृष्ठों में यहाँ किया है। उन्होंने यजुर्वेद के एक मन्त्र ‘सा संस्कृतिः प्रथमा विश्ववारा’ को आधर बना कर व्याख्या करने का प्रयास किया है। उन्होंने तात्कालिक राजनीति को भी दृष्टि में रख कर नेहरू आदि के विचारों का उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी एवं पाठक की जिज्ञासा को बढ़ाता है। सभ्यता और संस्कृति के विषय में कहा गया है कि मानव के आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक स्वरूप से संबन्ध रखने वाले अन्तः और बाह्य आचार ही मानव की संस्कृति और सभ्यता है। (सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. ४) शास्त्री जी मानते हैं कि पुरातत्त्व से सभ्यताअ का ज्ञान हो सकता है और संस्कृति का ज्ञान विज्ञानात्मक मौलिक साहित्य से ही हो सकता है। इसके संबन्ध में उन्होंने कहा है कि पुरातत्त्व से संबन्ध रखनेवाले प्राचीन खण्डहरों, मूर्तियों, भवनों, घट, कपाल और कंकालों आदि का नाम संस्कृति नहीं है। ये सभी सभ्यता के प्रतीक कहे जा सकते हैं। ‘संस्कृति’ का तो इन से थोड़ा भी सम्बन्ध नहीं माना जा सकता। यदि आपको ‘संस्कृति’ के स्वरूप का दर्शन करना है तो आपको भारतीय चिन्तन ज्ञान-विज्ञानात्मक मौलिक साहित्य के शरण में ही आना पड़ेगा। साहित्य ही एकमात्र प्राणवान् प्रतीक माना गया है। पुरातत्त्व  के अवशेषों के दर्शन से आप अपनी सभ्यता को जान सकते हैं। किन्तु जड़ दर्शन से आप संस्कृति का स्वरूपबोध प्राप्त नहीं कर सकते हैं।( सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. ७) सभा का सभ्य सदस्य ही मन्त्रभाषा में सभेय कहलाता है। इसके लिए उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्र को उद्धृत किया है कि  यजमान के युवा पुत्र  सभा में भाग लेने वाला हो।( सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्, यजुर्वेद २२.२२) छान्दोग्योपनिषद् का एक मन्त्र उद्धृत किया है  जिसमें सभा का वर्णन है। मैं प्रजापति के सभागृह को प्राप्त होता हूँ, मैं यशःसंज्ञक आत्मा हूँ, मैं ब्राह्मणों के यश, क्षत्रियों के यश और वैश्यों के यश को प्राप्त होना चाहता हूँ।( आत्मा प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानां यशो राज्ञां यशो विशां यशोऽहम्। छा.उ.८.१४.१) आगे विषय को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जिस समिति में, समूह में, समाज में, गण में, अनेक मानव साथ सम्मिलित होकर प्रतिभा को विकसित करते हैं वही समिति है वही सभा है। सभा की व्युत्पत्ति बतलाते हैं कि जिसमें समान भाव से सभी सुशोभित होते हैं वही सभा है। सभा का सदस्य ही सभ्य कहलाता है। ऐसे सभ्यों के सभास्वरूप आचार-व्यवहार, नियम-उपनियम, विधि, विधान ही सभ्यता कहलाती है।( सह भान्ति यस्यां सा सभा। सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. २३) उपनिषद् के मन्त्र में आत्मा और प्रजापति शब्द एक ही अर्थ का वाचक है। इसी प्रमाण के आधार पर सभ्यता और संस्कृति की दार्शनिक व्याख्या इस ग्रन्थ में हुआ है। यह हिन्दी भाषा में लिखित बहुत बड़ा ग्रन्थ है। इसमें  प्रस्तावना १४१ पृष्ठ की और गन्थ में ७७२ पृष्ठ हैं। कुल९१३ पृष्ठ हैं। इसी से इस की व्यापकता का परिचय मिलता है।  Read/Download

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Digdeshakalasvarupamimasa Part I

Pandit Motilal Shastri started a series of books based on many subjects under the title ‘Indian Hindu Manav aur uski Bhavukta’. The fourth part of this series is named ‘Digdeshkaalsvrupamimansa’. Three elements have been considered in this text. . Dik means direction. For example, east, west, north and south are the names of directions. Desh means place. For example, Delhi, Patna, India. Kaal means time. For example, past, present and future. One or two points are being presented here from the viewpoint of Vedic science of time. In Vedic science, the sun is time, the moon is direction and the earth is the country. The body is made from the earth, hence the body is called country, intelligence is obtained from the sun, hence intelligence is time. Time is calculated from the sun. Hence the sun is time. There is a relation between the mind and the moon, hence the mind is the direction. दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा-1  पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ‘भारतीय हिन्दू मानव और उसकी भावुकता’  नामक शीर्षक से अनेक विषयों को आधार बनाकर ग्रन्थ शृंखला का प्रारम्भ किया था। इस शृङ्खला के चतुर्थ खण्ड का नाम ‘दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा’ है।    दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा में तीन तत्त्वों पर विचार किया गया है। दिक् का अर्थ है दिशा। जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ये दिशाओं के नाम हैं। देश का अर्थ स्थान है। जैसे दिल्ली, पटना, भारत। काल का अर्थ समय है। जैसे भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यत्काल। इन तीनों विषयों पर विचार इस ग्रन्थ में किया गया है। काल के वैदिकविज्ञान की दृष्टि से एक-दो बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। वैदिकविज्ञान में सूर्य काल है, चन्द्रमा दिशा है और पृथ्वी ही देश है। पृथ्वी से शरीर बनता है अत एव शरीर देश  कहलाता है,  सूर्य से बुद्धि की प्राप्ति होती है अत एव बुद्धि ही काल है। सूर्य से ही काल की गणना होती है। अत एव  सूर्य काल है।  चन्द्रमा से मन का संबन्ध है अत एव मन दिशा है।( दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ७०, ७१) शरीर पृथ्वी देश बुद्धि सूर्य काल मन चन्द्रमा दिशा अथर्ववेदीय कालसूक्त में स्पष्ट वर्णन है कि काल एक तत्त्व है जिससे सृष्टि होती है। सूक्त के एक मन्त्र का अर्थ यहाँ शास्त्री जी के ही शब्दों में  प्रस्तुत है। काल से ‘आप्’ तत्त्व उत्पन्न हुआ है। काल से ब्रह्म उत्पन्न हुआ है। काल से दिशाएँ उत्पन्न हुई हैं। काल से ही सूर्य उत्पन्न हुआ है। काल में ही सूर्य पुनः प्रवेश कर जाता है। कालादापः समभवन्, कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः॥ अथर्ववेद १९.५४, दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा,  पृ. ३०९   व्याख्या क्रम में   शास्त्री जी ने कहा है कि काल का महाकालस्वरूप है क्योंकि उसी में देश और दिशा  मिल जाता है और एक मात्र काल तत्त्व ही बचता है। (दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ८५) इस ग्रन्थ की विशालता का अनुभव पृष्ठों के आधार पर किया जा सकता है, क्योंकि इस में ९०० पृष्ठ हैं।  इसकी प्रस्तावना में २०६ उपशिर्षकों को समाहित किया गया है। पारिभाषिक प्रकरण में १८५ बिन्दूओं पर चर्चा की गयी है। ग्रन्थ में  दिग्देशकाल का विस्तृत स्वरूप विवेचित है। वेद पुराणों को आधार बनाकर विषयों को लोकोपकारी एवं सर्वजन्यग्राह्य बनाने का सफल प्रयास किया गया है।  यह तीनों विषय पर वर्तमान समय में भी विद्वानों के द्वारा गहन चिन्तन किया जा रहा है। इस ग्रन्थ को एक बार पढने मात्र से  विषय का सहज  बोध हो जाता है। Read/Download

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Ishvarkrishnarahasya

In this commentary on Bhagavad Gita, Pandit Motilal Shastri has given a vivid explanation of the elemental force of Shri Krishna. Topics like saptaloka vijnana,rodasi-krandasi-samyati vijnana,shatasanst prajapati vijnana,panchapundeer vijnana,panchachiti vijnana, saptdwipa and saptamudra are described in detail. In this volume, Shastriji has explained the difference between ishvar and parameshvar. We cannot explain parameshvar but we can find a meaning for ishvar because of one of its forms is prajapati. ईश्वरकृष्णरहस्य भगवत गीता की इस टीका में पंडित मोतीलाल शास्त्री ने श्रीकृष्ण की तात्विक शक्ति की विशद व्याख्या की है। सप्तलोक विज्ञान, रोदसी-क्रांदसी-संयति विज्ञान, शतसंस्त प्रजापति विज्ञान, पंचपुंडीर विज्ञान, पंचचिति विज्ञान, सप्तद्वीप और सप्तमुद्रा जैसे विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस खंड में शास्त्रीजी ने ईश्वर और परमेश्वर के बीच का अंतर बताया है। हम परमेश्वर की व्याख्या तो नहीं कर सकते लेकिन हम ईश्वर का एक अर्थ ढूंढ सकते हैं क्योंकि इसका एक रूप प्रजापति है। Read/Download

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