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Vedic Concept of Man & Universe
English translation of Pandit Motilal Shastri’s Vyakhyana-panchakam (five discourses)
delivered at Rashtrapati Bhawan, New Delhi.
December14-18, 1956.

Translated by RISHI KUMAR MISHRA

Pandit Motilal Shastri was invited by India’s first President, Dr Rajendra Prasad, to give five discourses on vedic vijnana at the Rashtrapati Bhawan on December 14 to December 18, 1956. The  lectures were attended by several well-known scholars and acharyas (teachers) of Veda-shastra. 

Shastriji chose five themes for his discourses, focussing on distinct vidyas or knowledge systems,  all of which offered a unique insight into the mysteries of Creation. 

 Much of his knowledge came to him at the feet of his guru, Pandit Madhusudan Ojha, a savant unique in his approach to Vedic studies and wisdom. Ojhaji dedicated most of his life in pursuit of vedic vijnana and wrote over 200 books, of which only a few were published. Shastriji was one of his several disciples but stood out for his sharp intellect and absolute dedication to the guru’s path of knowledge. He wrote over 80000 pages of commentaries and texts articulating Ojhaji’s insightful dissemination of vedic science. Only a few of his works, about 10000 pages, are available to us in the form of books. This makes the five lectures he delivered at the Rashtrapati Bhawan an important testimony to the storehouse of vedic knowledge which has shaped and embellished a nation of over one billion people.

A remarkable achievement of Pandit Madhusudan Ojha had been to postulate that without understanding the true meaning of vedic terms, it was not possible to know the profound knowledge contained in the Vedas. He spent years delving into different ancient texts, to unearth terms which had fallen into disuse through neglect and poor scholarship, find their meaning and present the knowledge contained in the vedic texts in its true form. Shastriji, and subsequently his disciple Rishi Kumar Mishra, who translated the Panch-Vyakhyan into English, continued the guru’s noble mission.

It is therefore not surprising that in these five discourses, Pandit Shastriji has expounded on  select vedic terms to reflect upon their deeper meanings which illuminate the mysteries of Creation, and the universe.

In these five discourses, Shastriji has presented a kernel of Vedic wisdom, a tiny seed that contains the magnificent cosmic tree of creation. 

To be published DK Publishers n 2023


अहोरात्रवादविमर्श 

अहोरात्र शब्द अहः एवं रात्रि इन दो शब्दों से मिलकर बना है। ‘अहः च रात्रिः च’ ऐसा विग्रह द्वारा द्वन्द्व समास होकर ‘अहोरात्र’ शब्द निष्पन्न होता है। सृष्टि की उत्पत्ति विषयक अनेक सिद्धान्त आचार्यों द्वारा दिये गये हैं। उन सिद्धान्तों में से सृष्टि सम्बन्धी अहोरात्रविषयक सिद्धान्त अहोरात्रवाद के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टिविषयक अन्य सिद्धान्तों के साथ अहोरात्रवाद का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अघमर्षण सूक्त (१०.१९०.३) में कहा गया है कि निमेष मात्र में ही जगत् को वश में करने वाले परमपिता ने दिन और रात का विधान किया। श्रीमद्भगवद्गीता (८.१७) के अनुसार ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युग तक की अवधिवाला और रात्रि को भी एक हजार चतुर्युग तक की अवधि के रूप में जो जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्त्व को जानने वाले हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में भी सृष्टि प्रक्रिया के प्रसंग में अहोरात्र शब्द का अनेकत्र प्रयोग मिलता है। इस उपनिषद् के प्रारम्भ में यज्ञसम्बन्धी अश्व को आधार बना कर उसके अवयव का वर्णन किया गया है । तदनुसार उस यज्ञीय अश्व के सामने महिमारूप से दिन प्रकट हुआ । रात्रि इसके पीछे महिमा रूप से प्रकट हुई।

विद्यावाचस्पति पं. मधुसूदन ओझा ने सृष्टिविषयक अहोरात्रवाद मत के विषय में विविध वैदिक सन्दर्भों का आलोडन कर अहोरात्रवाद नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया है।  यह ग्रन्थ कुल १२ अधिकारणों में विभक्त  है। प्रतिज्ञा एवं उपसंहार को छोड़कर इस ग्रन्थ के १० अधिकरणों में ज्ञान-अज्ञान, शुक्ल-कृष्ण, प्रकाश-अन्धकार, भाव-अभाव, सृष्टि-प्रलय, द्यावा-पृथिवी, ऋत-सत्य, सप्ताह, यज्ञ और चातुर्होत्राधिकरण ये दस विषय वर्णित हैं।

अहोरात्रवादविमर्श नामक इस ग्रन्थमेंविद्यावाचस्पतिपं. मधुसूदन ओझाजी के द्वारा प्रणीत सृष्टि प्रतिपादक अहोरात्रवाद  नामक ग्रन्थ का विमर्श प्रस्तुत किया गया है। जिसमें अहोरात्रवाद के विविध विषयों को आधार बनाकर आमन्त्रित विद्वानों के द्वारा लिखे गये विमर्शात्मक शोधपत्रों का संकलन तथा अहोरात्रवाद ग्रन्थ की मूल प्रतिलिपि को कारिकानुक्रमणिका एवं शब्दानु-क्रमणिका के साथ समाहित किया गया है।                               


डीके पब्लिशर्स द्वारा 2023 में प्रकाशित

वैदिक सृष्टि प्रक्रिया : संशयतदुच्छेदवाद

विद्यावाचस्पति पं. मधुसूदन ओझा (सन् १८६६ - १९३६) विद्या विशारदों की तेजस्वी विद्वत्परम्परा में अग्रणी स्थान रखते हैं। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन वेदों के अध्ययन एवं व्याख्या में समर्पित किया है। उनके द्वारा प्रयुक्त वेद व्याख्या पद्धति अन्तर्दृष्टि एवं प्रौढ पाण्डित्य से युक्त होकर वैदिक संहिताओं एवं परम्पराओं का समन्वय करती हुयी तर्कसंगत व्याख्या करने की सतत प्रयत्न करती है। ओझाजी ने वैदिक विज्ञान पर लगभग २२८ ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इन्होंने अपने प्रतिपाद्य विषयों को पाँच वर्ग ब्रह्म, यज्ञ, इतिहास, वेदाङ्ग एवं आगम में विभक्त किया है। ब्रह्मविज्ञान के अन्तर्गत इनका एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ संशयतदुच्छेदवाद है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीन वैज्ञानिकों के सन्देहों का विस्तार से वर्णन एवं समाधान किया गया है। यह ब्रह्मविज्ञान वर्ग के उक्थवैराजिक विभाग का ग्रन्थ है। इस विभाग में सृष्टि के सम्बन्ध में दशवादों की चर्चा है। सदसद्वाद, रजोवाद, व्योमवाद, अपरवाद, आवरणवाद, अम्भोवाद, अमृतमृत्युवाद, अहोरात्रवाद, देववाद और संशयतदुच्छेदवाद नामक दशवाद हैं। ये दशवाद संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषदों में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं जिनका आलोड़न कर ओझाजी ने समुचित विवेचन अपने उक्थवैराजिक विभाग के अन्तर्गत लिखे गये ग्रन्थों में किया है।

प्रस्तुत ग्रन्थ में संशयतदुच्छेदवाद को आधार बनाकर लिखे गये विशिष्ट विद्वानों के आलेखों का संग्रह है। जिनमें आभु, अभ्व, रस, बल, आयु, अश्व, आत्मा, ब्रह्म, प्रकृति, जीव, ईश्वर, उपासना, भय, संहिता, ज्ञान, क्रिया, माया, महामाया, योगमाया, जागतिक मूल, पुरुष, प्रकृति, ब्रह्म-कर्म सम्बन्ध, सत्ता, दुःख, सृष्टि आदि प्रमुख तत्त्वों के विश्लेषण का विमर्श किया गया है।