National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VIII

Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute organised a National Seminar on 30 August 2025 (Saturday), 5–7 PM, through an online platform. The seminar was based on themes from the Ulka Adhikara section of Kadambini, authored by Pandit Madhusudan Ojha. The programme began with a vedic invocation by Dr. Satyavrat Pandey (Maharshi Panini Sanskrit and Vedic University, Ujjain) and was moderated by Dr. Lakshmikant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan. The seminar witnessed enthusiastic participation from professors, researchers, and Sanskrit scholars across various states, making the event a success.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-८)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० अगस्त, शनिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई थी। डॉ. अनिल कुमार, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय सूर्य का संपात है। शनि और सूर्य का संपात हस्त नक्षत्र के आधे व्यतीत होने पर और रेवती नक्षत्र के अन्त होने पर होता है । इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के अठारहवें अंश में संपात की स्थिति बनती है। बृहस्पति और सूर्य का संपात आर्द्रा नक्षत्र के तृतीय भाग और रेवती नक्षत्र के आदि भाग में होता है। इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के दशम अंश में संपात की स्थिति बनती है। आदित्यार्धं च पूषान्ते संपातः शनि-सूर्ययोः । राशेरष्टादशे त्वंशे तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ आर्द्रातृतीये पूषाद्ये संपातो गुरु-सूर्ययोः। अंशे तु दशमे राशेस्तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ –कादम्बिनी पृ. १७६, कारिका २७१-२७२ डॉ. चन्दन होता, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने कादम्बिनी ग्रन्थ के उल्काधिकरण पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आकाश में ग्रहगण जिस रास्ते से जाते हुए दिखाई देते हैं, वह रास्ता नाग नाम से जाना जाता है। उस रास्ते में जहाँ ग्रह रहता है, वह उस नाग का मुख कहलाता है। आकाश में जितने ग्रह हैं उतने नाग भी हैं। द्युलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्षलोक में अनन्त नाग हैं। किन्तु उन नागों में आठ नागों की प्रधानता है। येन येन यथा खेटाः गच्छन्तः प्रतिभान्ति ते ।स पन्था नाग इत्युक्तो यत्र खेटस्तदाननम्॥ खेचरा दिति यावन्तो नागास्तावन्त एव खे । दिवि भुव्यन्तरिक्षे च नागानन्त्येति तेऽष्टधा ॥ तत्रैव पृ. १७४, कारिका २५७-२५८ डॉ. मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिर्विज्ञान विभाग, महर्षि पाणिनि सस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय चन्द्रमा का संपात है। सूर्य के मार्ग में चन्द्रमार्ग का संपात होना चन्द्रपात कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है। इन में दक्षिण वाला राहु और उत्तर वाला केतु कहा जाता है। सूर्यमार्ग में राहु प्रतिदिन पश्चिम दिशा की तरफ जाता रहता है। इसकी नित्य की गति ३ कला और १०. ५० विकला होती है। सूर्यमार्गे चन्द्रमार्ग-संपातः पात उच्यते। स द्वेधा दक्षिणे राहुरुत्तरः केतुरुच्यते॥ रविमार्गेन्वहं राहुः पश्चिमामनुगच्छति । तिस्रः कलाः सार्धदश विकला गतिराह्निकी ॥ तत्रैव पृ. १७६, कारिका २७८-२७९ डॉ. योगेन्द्र कुमार शर्मा, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, ने अपने वक्तव्य में कहा कि सूर्य और चन्द्र के ग्रहण के विषय में शुभाशुभफल का विचार किया जा चुका है। अब तारा ग्रहों के ग्रहण का फल कहा जाता है। पातास्थानादविक्षिप्तश्चन्द्रेणार्केण वैकभः। ताराग्रहो ग्रस्तबिम्बो जायते ग्रहणं हि तत् ॥ तत्रैव पृ. १७५, कारिका २६३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझा जा सकता है। राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६ इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः। तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२ डॉ. सत्यव्रत पाण्डेय, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VII

A National Symposium organised by Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute was held online on Thursday, July 31, 2025, from 5:00 to 7:00 PM. The symposium was based on various topics from Kadambini, a text composed by Pandit Madhusudan Ojha, specifically from its section dealing with celestial phenomena. Dr. Yagyadatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Ved Vyasa Campus, said in his address that five types of fire originate in the sky. Their names are — Vajra, Vidyut, Maholka, Dhishnya, and Tara. In meteorology, all five are referred to as Ulkas (meteors). Dr. Suresh Sharma, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Shri Raghunath Kirti Campus, delivered his lecture on the Prakīrṇa Adhyāya (Miscellaneous Chapter) of Kadambini. He explained that the content of this chapter is divided into six topics: Rahu, Ketu, Tara, Digdaha (scorching of directions), Dust Rain (Pāṃsu), and Earthquake. The first topic of this chapter is Rahu. Rahu has neither its own light nor reflects another’s light. It does not shine. Even though it exists and moves in the sky, its movement leaves no visible trace. Dr. Ganesh Krishna Bhatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Guruvayur Campus, said that Rahu is also called Svarbhanu. If an eclipse occurs in the month of Mārgaśīrṣa, there will be no rain in the regions called Puṇḍraka, Kashmir, Kaushal, and the western part of India, but the rest of the country will have rain, prosperity, and abundance. If an eclipse occurs in Pausha month, it will harm the regions called Sindhu, Videha, and Kukur, and the rest of the country will suffer from low rainfall and famine. Dr. Ratish Kumar Jha, Assistant Professor, Department of Astrology, Dr. Jagannath Mishra Sanskrit College, Madhubani, Bihar, said that the dark, lightless half of celestial bodies such as the Earth, Moon, and Mercury is called Svarbhanu. The triangular shadow arising from this dark part is called Svarbhanu Rahu. Since the sun remains in their “Svar” (region), they are called Svarbhanu. Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, said that today’s topic is highly practical and can only be understood through observation. Pandit Ojha has mentioned many synonyms for Vajra. Analyzing these names is important because their meanings reveal the basis of their naming. The synonyms include: Hrādini, Vajra, Āpotra, Bhidira, Bhidura, Bhidu, Jambhāri, Jāmbavi, Dambha, Dambholi, Aśani, Pavi, Shatadhara, Shatara, Gau, Meghabhūti, Girijvara, Shatakoṭi, Svaru, Shamba, Kuliśa, Girikantaka. Dr. Ashish Mishra, Guest Lecturer, Department of Vedas, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, recited the Vedic invocation with intonation. The program was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. The symposium was attended by professors, research scholars, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-७)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई, बृहस्पतिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजेतक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीतकादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजितकी गई थी। डॉ. यज्ञदत्त, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेद व्यास परिसर, ने अपनेवक्तव्य में कहा कि अन्तरिक्ष में पाँच प्रकार की अग्नियाँ उत्पन्न होती हैं। इनके नाम हैं- वज्र, विद्युत्, महोल्का,धिष्ण्या और तारा । वृष्टिविद्या में इन पाँचों को उल्का नाम से प्रतिपादन किया जाता है। वज्रं विद्युन्महोल्का च धिष्ण्या तारेति पञ्चधा ।उल्केति संज्ञया ख्याता अन्तरिक्षोद्भवाग्नयः॥ कादम्बिनी पृष्ठ १६८ कारिका २०१ इन पाँच में विद्युत् नामवाली और तारा नामवाली उल्का छः दिन तक लगातार दिखाई दे, महोल्का पन्द्रह दिनतक दिखाई दे, वज्र और धिष्ण्या पैंतालिस दिन तक लगातार दिखाई दे तो उस वर्ष फसल की उपज अच्छीहोगी। विद्युत्तारादिनैः षड्भिरुल्का पक्षेण वीक्षिता ।वज्रं धिष्ण्या त्रिभिः पक्षैः फलपाकाय कल्पते ॥ वही, पृष्ठ १६८, कारिका २०२ डॉ. सुरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीरघुनाथकीर्ति परिसर नेकादम्बिनी ग्रन्थ के प्रकीर्णाध्याय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णअध्याय के विषयवस्तु को छः भागों में विभक्त किया गया है। ये हैं- राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, धूल की वर्षा(पांसु) और भूकम्प। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम् ।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः ।। वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१६ प्रकीर्ण अध्याय का पहला विषय राहु है। राहु में अपनी ज्योति और दूसरे की ज्योति नहीं रहती है। राहु प्रकाशनहीं करता है। ये आकाश में रहते भी हैं और चलते भी हैं, इसका बोध नहीं होता है ।अर्थात् राहु गति संबन्धीजो भी क्रिया को करता है, उसका कोई चिह्न नहीं बनता है। राहवः स्व-पर-ज्योतीराहित्यादप्रकाशिनः ।अपि सन्तोऽपि गच्छन्तो द्युमार्गेषु न भान्ति ये ॥ वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१७ डॉ. गणेश कृष्ण भट्ट, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, गुरुवायूर परिसर, नेअपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णाध्याय में राहु प्रथम विषय है। इसी राहु को स्वर्भानुराहु कहा जाता है। मार्गशीर्षमास में ग्रहण होने पर पुण्ड्रक नामक देश, काश्मीर नामक देश, कौशल नामक देश तथा भारत के पश्चिम भाग मेंवर्षा नहीं होगी और देश के दूसरे भाग में वृष्टि, क्षेम और सुभिक्ष होता है। मार्गे तु ग्रहणं हन्यात् मगधान् काशिकोशलान् ।तथाऽपरान्तकान् शेषे वृष्टि-क्षेम-सुभिक्षकृत्॥ वही, पृष्ठ १७३, कारिका २४५ पौष मास में ग्रहण होने से सिन्धु नामक देश, विदेह नामक देश, कुकुर नामक देश की हानि करता है और देश केदूसरे भाग में अल्पवृष्टि और दुर्भिक्ष होता है। पौषे दृष्टं हन्ति सिन्धून् विदेहान् कुकुरांस्तमः।देशान्तरे तु कुरुते दुर्भिक्षं स्वल्प-वर्षणम्॥ वही, पृष्ठ १७३., कारिका २४६ डॉ. रतीश कुमार झा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, डॉ. जगन्नाथ मिश्र संस्कृत महाविद्यालय मधुवनी,बिहार ने अपने वक्तव्य में कहा कि पृथ्वी, चन्द्रमा और बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधेभाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ॥ वही, पृष्ठ १७२, कारिका २३२ तमोमय भाग से उत्पन्न तीन कोण वाली छाया को स्वर्भानु नाम के राहु कहते हैं। इनके स्वर्भाग में भानु रहता है,इससे इनको स्वर्भानु कहते हैं। तज्जाश्छायामयास्त्र्यस्त्रा उक्ताः स्वर्भानुराहवः।स्वर्भागे भानुरस्त्येषा तस्मात् स्वर्भानवः स्मृताः॥ वही, पृष्ठ १७२., कारिका २३३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझाजा सकता है। पण्डित ओझा जी ने वज्र के अनेक पर्याय शब्दों का उल्लेख किया है। इन शब्दों का विश्लेषण अर्थकी दृष्टि से करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसका नाम अर्थ के आधार पर ही बना होगा। ह्रादिनी, वज्र,आपोत्र, भिदिर, भिदुर, भिदु, जम्भारी, जाम्बवि, दम्भ, दम्भोलि, अशनि, पवि, शतधार, शतार, गौ, मेघ-भूति, गिरिज्वर, शतकोटि, स्वरु, शम्ब, कुलिश, गिरिकण्टक इतने वज्र के नाम हैं । ह्रादिनी वज्रमापोत्रं भिदिरं भिदुरं भिदुः।जम्भारिर्जाम्बविर्दम्भो दम्भोलिरशनिः पविः॥शतधारं शतारङ्गौ मेघ-भूतिर्गिरि-ज्वरः।शतकोटिः स्वरुः शम्बः कुलिशं गिरिकण्टकः॥ वही, पृष्ठ १६८., कारिका २०५-२०६ डॉ. आशीष मिश्र, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान केशोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल औरमहाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों

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Seven-day National Workshop on Vijnanavidyut

July 14-20,2025 A seven-day national online workshop was organized by Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute, New Delhi, from July 14 to 20, 2025. The theme of the workshop was the text Vijnanavidyut authored by Pandit Madhusudan Ojha. This concise text, written by Pt. Ojha, serves as an introductory treatise to Brahmavidya (the science of Brahman). The text comprises five chapters (prakāśas), exploring the concept of the fourfold Brahman in the forms of Pura (Body), Purusha (Person), Parātpara (Transcendent), and Nirvisheṣa (Attribute-less). Each chapter of the text was elaborated upon by subject experts during the workshop. Every day, two expert lectures were delivered along with a presiding address. A detailed account of the seven-day proceedings is given below: Day 1 (14.07.2025): Topic – Chatushpada Brahma Day 2 (15.07.2025): Topic – Concept of Akshara tattva Day 3 (16.07.2025): Topic – Concept of Avyaya (Immutable) Principle Day 4 (17.07.2025): Topic – Concept of Parameṣṭhī Day 5 (18.07.2025): Topic – Concept of the Seven Realms (Saptalokavichāra) Day 6 (19.07.2025): Topic – Concept of Bhutatma Day 7 (20.07.2025): Topic – Concept of Saptakosha The workshop concluded under the chairmanship of Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi. In his daily summaries, he emphasized the concept of Chatushpada-Brahma as central to Vijnanavidyut, detailing the fourfold nature: The inaugural Vedic chanting was conducted by Dr. Dharmendra Kumar Pathak, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Lucknow Campus. The proceedings were conducted by Dr. Lakshmikant Vimal and Dr. Mani Shankar Dwivedi, Research Officers at Shri Shankar Shikshayatan. Held via Google Meet, the workshop witnessed enthusiastic participation from over a hundred scholars, students, and Vedic science enthusiasts from various universities and institutions, making it a grand success.

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सप्तदिवसीय राष्ट्रीय वैदिकविज्ञानविद्युत्-कार्यशाला

July 14-20,2025 प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली के द्वारा दिनांक 14-20 जुलाई 2025 तक अन्तर्जालीय माध्यम से सप्तदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का समायोजन किया गया। यह कार्यशाला पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत विज्ञानविद्युत् ग्रन्थ पर आयोजित थी। पं. ओझा के द्वारा प्रणीत यह लघु ग्रन्थ ब्रह्मविज्ञान में प्रवेश के लिए प्रारम्भिक ग्रन्थ है।  इस ग्रन्थ में पाँच प्रकाश हैं। जिसमें पुर, पुरुष, परात्पर एवं निर्विशेष के रूप में चतुष्पाद् ब्रह्म का विवेचन हुआ है। यह ग्रन्थ कुल पाँच प्रकाशों में विभक्त है। कार्यशाला में प्रत्येक प्रकाश के विषय-वस्तु का विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा उद्घाटन किया गया। प्रत्येक दिन दो विषय-विशेषज्ञों ने विषय पर व्याख्यान दिये एवं अध्यक्षीय वक्तव्य हुआ। इस सप्तदिवसीय कार्यशाला का विस्तृत विवरण अधोलिखित है- प्रथम दिवस (14.07.2025) : कार्यशाला के पहले दिन का विषय चतुष्पाद्-ब्रह्म विचार था जिसमें विषय विशेषज्ञ के रूप में बोलते हुए प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि यह विज्ञानविद्युत् अत्यन्त पठनीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ चतुष्पाद् ब्रह्म से हुआ है। चतुष्पाद् का अर्थ है, जिसमें चार विषयरूपी पाद हों। ये पाद हैं- पुर, पुरुष, परात्पर और निर्विशेष। इस सृष्टि में जो कुछ भी पदार्थ बाह्य जगत् में देखा जाता है, वह सभी विकारों का समूह है। भूतग्राम और आत्मग्राम को पुर कहा गया है। भूतग्राम से तात्पर्य आकाश, वायु,  अग्नि, जल और पृथ्वी है।  आत्मग्राम से तात्पर्य  ज्ञानेन्द्रिय से है। शास्त्र में आत्मा शब्द का अर्थ बुद्धि भी होता है। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में भी प्रज्ञामात्रा और भूतमात्रा की चर्चा मिलती है-‘तथा हि इदं यावद् इह किञ्चिद् बहिर्धा दृश्यते, सर्वोऽयं विकार-संघो भूतग्रामत्वाद् आत्मग्रामत्वात् च पुरम् इति अभिधीयते।’,विज्ञानविद्युत् पृ. २ दूसरे विषयविशेषज्ञ प्रो. श्यामदेव मिश्र, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने कहा कि पुर का ही अर्थ शरीर होता है। विकारों का समूह ही शरीर है। यह विकार क्षरपुरुष में आश्रित रहता है। इस शरीर का प्रतिक्षण क्षरण होते रहता है। अव्ययपुरुष, अक्षरपुरुष और क्षरपुरुष इन तीन पुरुषों में क्षरपुरुष में शरीर को रखा जाता है। इन तीन पुरुषों से भिन्न यह शरीर नहीं है-‘क्षरपुरुषाश्रितोऽयं विकारसंघः शरीरम् उच्यते, इति उक्तम्, तच्च क्षरात्मकत्वात्, क्षरपुरुषेऽन्तर्भूतम् इति त्रिपुरुषात् न अतिरिच्यते किञ्चित्।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. ८ द्वितीय दिवस (15.07.2025) : दूसरे दिन का विषय अक्षरतत्त्व विचार था जिसमें प्रो. विष्णुपद महापात्र, आचार्य, न्याय विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि अक्षर पुरुष पाँच प्रकार के हैं- ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम। इन पाँचो को दो भागों में केन्द्र और बाह्य रूप में विभक्त किया गया है। केन्द्र के लिए हृद्य शब्द का और बाह्य के लिए पृष्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है। ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र ये तीन हृद्य हैं एवं अग्नि-सोम पृष्ठ्य हैं। इनमें ब्रह्मा को प्रतिष्ठाप्राण, विष्णु को आकर्षण प्राण और इन्द्र को उत्क्षेपण प्राण कहा गया है। उत्क्षेपण के द्वारा जो प्रतिष्ठित होता है, वह अग्नितत्त्व है। आकर्षण के द्वारा जो तत्त्व प्रतिष्ठित होता है वह सोम तत्त्व है। इस को एक सरल उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। प्रतिष्ठा का अर्थ आधार होता है। ब्रह्मा रूप आधार पर विष्णु और इन्द्र प्रतिष्ठित हैं। विष्णु बाहर से तत्त्व को लाते हैं जस तत्त्व को विष्णु लाते हैं वह सोम है अर्थात् अन्न है। इन्द्र जिस तत्त्व को बाहर ले जाते हैं वह तत्त्व अग्नि है। यह मानव के शरीर में एवं प्रत्येक जीव के शरीर में घटित होता है- ‘तत्र प्रतिष्ठाप्राणं ब्रह्माणम् आहुः, आकर्षणप्राणं विष्णुः आहुः, उत्क्षेपणप्राणं तु इन्द्रम् आहुः, उत्क्षिप्तः प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषोऽग्निः उच्यते, आकृष्टस्तु प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषः सोम इति उच्यते।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. १३ द्वितीय वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रो. सतीश कुमार मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने कहा कि इस प्रकाश में अक्षर का ही विस्तार से वर्णन किया गया है। ब्रह्मा को वेद, विष्णु को यज्ञ, इन्द्र को प्रजा, अग्नि को लोक और सोम को धर्म कहा गया है। इस प्रारूप में अक्षर की व्याख्या की गयी है-‘एषु च पञ्चाक्षरेषु ब्रह्मा वेदमयः विष्णुर्यज्ञमयः इन्द्रः प्रजामयः अग्निर्लोकमयः सोमो धर्ममयः प्रतिपद्यते।’, वही, पृ. १९ तृतीय दिवस (16.07.2025) : तीसरे दिन का विषय अव्यय तत्त्व विचार था जिसमें अपने वक्तव्य में प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने बतलाया कि क्षरपुरुष को परिणामी कारण कहा गया है और अक्षर पुरुष को निमित्त कारण कहा गया है। इन दोनों तत्त्वों से विशिष्ट अव्यय पुरुष है। वह अव्यय पुरुष न कार्य है और न कारण है। यहाँ अव्यय पुरुष की कारणता का निषेध किया गया है परन्तु दूसरे प्रकार से अव्यय पुरुष को ही सर्वकारण कहा गया है-‘उक्तं पूर्वम्, क्षरपुरुषः परिणामि-कारणम्, अक्षरपुरुषो निमित्त-कारणम्, ताभ्यां यदन्यत्सोऽव्ययः पुरुषो न कार्यं न कारणम् इति। यद्यपि एवम् अस्मिन् अव्ययपुरुषे कारणत्वं निषिध्यते, तथापि प्रकारान्तरेण अस्य अव्ययपुरुषस्य एव सर्वकारणत्वं प्रत्येतव्यम्।’, वही, पृ २७ दूसरे वक्ता डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला ने कहा कि अव्यय की पाँच कलाएँ हैं- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्।  इन पाँच कलाओं को दो भागों में विभाजित करते हैं। एक भाग में आनन्द, विज्ञान और मन है, दूसरे विभाग में प्राण, वाक् और मन है। दूसरा विभाग प्राण, वाक् और मन ये तीनों सृष्टि के कारण हैं। सृष्टि के लिए प्राण-वाक् उपादान है और विज्ञान-आनन्द सहकारी कारण है। विज्ञान और आनन्द के साथ मन-वाक् अनेक प्रकार के प्राण को उत्पन्न करता हुआ अनेक प्रकार की सृष्टि को उत्पन्न करता है। तथा विज्ञान, एवं आनन्द के साथ मन संसार से मुक्ति का कारण होता है-‘एषु पञ्चसु अव्ययधातुषु उत्तराभ्यां प्राण-वाग्भ्यां सहितं मनः संसाराय हेतुर्भवति। तत्र प्राण-वाग्भ्यां जगदुपादाने विज्ञानानन्दौ सहकारिणौ भवतः। विज्ञानेनान्देन च सहकृतं मनो वाचि भिन्न-विधान् प्राणान् सन्निवेश्य नानविधान् भावान् उत्पादयति। अथ विज्ञानानन्दाभ्यां सहितं मनो निस्ताराय हेतुर्भवति।’,वही, पृ. ३२ चतुर्थ दिवस (17.07.2025) :    चौथे दिन का विषय परमेष्ठी तत्त्व विचार था जिसमें प्रथम वक्ता के रूप में प्रो. प्रयाग नारायण मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, इलाहावाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज ने परमेष्ठी के स्वरूप पर अपना विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि एक ईश्वर के शरीर में नाना विध स्वरूप वाला ब्रह्मा स्थित रहता है। उस ब्रह्मा का परमेष्ठी में, सूर्य में, पृथ्वी में एवं चन्द्रमा में स्थित रहने के काराण ही ब्रह्मा नानविध स्वरूप वाला बनता है। ईश्वर के शरीर में ब्रह्मा से प्रारम्भ करके चन्द्रमा तक अनेक शाखा…

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National Seminar on Kadambini–Ravikaradhyaya Part VI

The sixth discussion in the annual series of seminars on Pandit Madhusudan Ojha’s excellent work on meteorology, Kadambini, was organised by Shri Shankar Shikshaytan on June 30, 2025. The focus of the discussion on the chapter on Ravikara. The seminar saw discussion on Pratyarkavidhi, Parivesh, Indrayudha, Danda, Trishul, Matsya and Amogha mentioned in the chapter . Dr. Nigam Pandey, Assistant Professor, Department of Jyotish, Dharma Samaj Sanskrit Mahavidyalaya, Muzaffarpur, Bihar, in his presentation explained the concept of pratyarkaparidhi. It means each circumference of the sun. Paridhi means the circular expansion of the sun rays. If the sun rays are in the same mood, smooth and according to the seasons, then that pratyarkparidhi is auspicious. If the outer circumference of the aura is clean and white, there will be good rainfall and it will be beneficial. The book clarifies that wind has a telling influence on the sun and moon. Dr. Naresh Sharma, Assistant Professor, Department of Jyotish, Maharishi Valmiki Sanskrit University, Kaithal, Haryana, said that if two small and big coils are formed due to the rays of the sun and the moon, there will be good rainfall. It is said that if the coils are in  five colours, there would be good rainfall for three days. Dr. Vinod Sharma, Assistant Professor, Department of Jyotish, Central Sanskrit University, Vedavyas Campus, Himachal Pradesh said that Indrayudha is of two types – in the form of a bow and in the form of an elephant Airavata. Prana resides in the sun’s rays. It is known as Indra. The sun’s rays penetrate the water with the force of wind and seven colours are developed due to this combination. It is called rainbow.  Dr. Divesh Sharma, Assistant Professor, Department of Jyotish, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, explained the chapter under discussion was on the rays of the sun. The line coming from the sun is called amogha. If the line is broken, it is called danda. If there are three lines, it is called trishul.  Two amogha lines emanating from the other side and forming the shape of fish provide clues about the rain. Prof. Santosh Kumar Shukla of  Jawaharlal Nehru University, New Delhi, presiding over the seminar, said good rainfall can be predicted by looking at the circumference created by the sun’s rays. If the  circumference touches the objects situated on either side of the sun then there is a likelihood of good rain and if this circumference happens to be around the sun, good rain is highly unlikely. Dr. Rahul Kumar Mishra, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Lucknow Campus recited the Mangalacharan. The programme was organised by Dr Lakshmi Kant Vimal of Shri Shikshayatan  Vedic Research Institute.Professors, research scholars and scholars interested in Sanskrit studies from various universities and colleges from different states participated.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : रविकराध्याय विमर्श (शृंखला-०६)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० जून, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में रविकराध्याय में वर्णित प्रत्यर्कविधि,परिवेष, इन्द्रायुध, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य, अमोघ विषयों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. निगम पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहारने वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि प्रत्यर्कपरिधि नामक शीर्षक का अर्थ है कि सूर्यकी एक एक परिधि। परिधि का अर्थ सूर्य किरणों का गोलाकार रूप में विस्तार है। सूर्य किरण यदि समान भावमें हो, चिकनापन वाला हो और ऋतुओं के अनुरूप वाली हो, तो वह प्रत्यर्कपरिधि शुभप्रद होती है। वैदूर्य मणिकी आभा वाली प्रत्यर्कपरिधि स्वच्छ और श्वेत हो तो अच्छी वृष्टि होगी एवं कल्याणप्रद होगी। प्रतिसूर्यः समः स्निग्धः स्वर्तुवर्णः प्रशस्यते।वैदूर्याभः सितः स्वच्छः सुभिक्षं क्षेममावहेत् ॥–कादम्बिनी पृ. १५६ का.१४६ परिवेष को स्पष्ट करते हुए कादम्बिनी ग्रन्थ में कहा गया है कि आकाश में सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं। हवा केद्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें प्रतिमूर्छित होते हैं। हवा और किरणों के परस्पर प्रतिघात से एक गोलाकारपिण्ड बनता है, उन्हें परिवेष कहते हैं। परिवेष के आधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। रवेरिन्दोः करा व्योम्नि वायुना प्रतिमूर्छिताः।सूक्ष्मेऽभ्रे मण्डलीभूताः परिवेषाख्यया मताः॥–वही, पृ. १५६ का.१४९ डॉ. नरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय, कैथल, हरियाणा नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि परिवेष के क्रम में ग्रन्थकार ने लिखा है कि सूर्य और चन्द्रमा की किरणों केद्वारा यदि दो छोटे-बड़े कुण्डल जैसा आकार बनता है तो उस स्थान में वृष्टि अच्छी होगी। सूर्य और चन्द्रमा की किरणों से निर्मित कुण्डल यदि पाँच रंगों का हो तो तीन दिनों तक अच्छी वृष्टि होगी, ऐसी परिकल्पना कीजाती है। द्वे द्वे क्षुद्रविशाले चेत् कुण्डले सूर्यचन्द्रयोः।बहुवृष्टिरनेकाहं तदा तत्र भविष्यति ॥द्वे द्वे सूर्यस्य चन्द्रस्य कुण्डले पञ्चवर्णके ।त्र्यहं यावत्तदा तत्र बहुवृष्टिर्भविष्यति ॥ वही, पृ. १५७ का.१६१-१६२ डॉ. विनोद शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर,हिमाचल प्रदेश ने कहा कि इन्द्रायुध दो प्रकार का होता है -धनुष के रूप में और ऐरावत हाथी के रूप में। सूर्यकी किरणों में प्राण स्थित रहता है। यह किरण प्रकाशक है, वही इन्द्र कहलाता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने इन्द्रकी व्युत्पत्ति की है। हवा के बल से सूर्य की किरणें जल के भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। उस जल और हवा केसंमिलित रूप में सात रंगों का विकास होता है। वही इन्द्रधनुष कहलाता है। इन्द्रायुधं तु द्विविधं धनुरैरावतं तथा ।इन्द्रः सूर्यकरस्थानः प्राणे योऽयं प्रकाशते॥नीरांतराः करा भानोः पवनेन विघट्टिताः।सप्तवर्णा धनुःसंस्था दृष्टा इन्द्रधनुर्मतम्॥–वही, पृ. १५८ का.१७४-१७५ डॉ. दिवेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेवक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ का यह विषय सूर्य की किरणों परआधारित है। सूर्य से निकलने वाली रेखा का नाम अमोघ है। यदि उस रेखा का अगला भाग खण्डित है तो उसीका नाम दण्ड है। यदि उस रेखा की संख्या तीन है तो वह त्रिशूल नाम से जाना जाता है। दूसरी दिशा से निकलीहुई दो अमोघ रेखाओं से मत्स्य का स्वरूप बनता है। इस प्रकार इन चारों तत्त्वों के आधार पर वृष्टि की कल्पनाकी जाती है। सूर्यात् समुत्थिता रेखाऽमोघ इत्यभिधीयते ।सोऽग्रेण खण्डिता दण्डस्तिस्रो रेखास्त्रिशूलकम्॥द्वाभ्याममोघ-रेखाभ्यां भिन्नदिग्भ्यां तु मस्तकः।सत्स्वप्येवं विशेषेषु सांकर्येणोच्यते फलम्॥ वही, पृ. १६० का.१८६ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि सूर्य की किरण के आधार पर परिधि का निर्माण होता है। सूर्यबिम्ब है और उसी सूर्य का प्रतिबिम्ब दूसरे स्थान पर होता है। बिम्बात्मक सूर्य की किरणों से परिधि बनती है।यदि यह परिधि सूर्य के दोनों ओर स्थित बिम्ब को स्पर्श करती है तो अच्छी वृष्टि होगी और यदि यही परिधिसूर्य के चारों ओर हो तो अच्छी वृष्टि नहीं होगी। बिम्बान्वितौ तु परिधी रवेरुभयपाश्वर्गौ ।बहुतोयौ निर्जलस्तु सर्वदिक्पर्यवस्थितः॥–वही, पृ. १५६ का.१४८ सूर्य की किरणों से ही कुण्डल जैसा आकार आकाश में बनता है। यदि यह कुण्डल सूर्य के पाँच वर्णों वाला है तोआकाश में घने मेघ लगे रहेंगे और वृष्टि अच्छी होगी। सूर्यस्य कुण्डलं पञ्चवर्णं चेद् बहुविस्तृतम् ।तदा घनघटाटोपो बहुवृष्टिश्च जायते ॥–वही, पृ. १५८ का.१६८ डॉ. राहुल कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Discourse on Vikaradhyaya-Part V

The fifth seminar on Kadambini was organised on May 31, 2025. This was part of the Shri Shankar Shikshayatan’s annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s great work on meteorology, Kadambini.  The focus of the seminar was on the book’s Vaikarikadhyaya under which six subjects were discussed. Karikas from 107 to 145 from Kadambini were discussed. The invited scholars presented their lectures based on the topics covered in these karikas. Prof. Madan Mohan Pathak, Central Sanskrit University, Lucknow, was the keynote speaker. Referring to the term, `khapur`, Prof. Pathak said the term meant a city appearing in the sky. Kha means sky and Pur means city. A city-like mark is formed in the clouds. The Gandharva city appearing in the sky with many colours and shapes like a city and  with flags and festoons is called Khapur. खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् । वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७ अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः । युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ The term ‘abhrataru’ means a tree-like mark appearing in the clouds. Abhra means cloud and taru means tree.The one which has a branch is called Shakhi. शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च । दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ Dr. Subhash Chandra Mishra, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, explained the term, karka`. It means hail. He spoke about several synonyms of the term mentioned in the book–dharankur, radharanku, varshopal, ghanopal, meghopal,meghasthi, matchi, punjika, bijodak, ghankaf and varchar. He pointed out that if there was excessive hail, there was little chance of rain.  धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः। मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥ बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च । भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ Dr. Brajesh Pathak, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, in his presentation pointed out there were seven impediments against good monsoon caused by the rays of the sun . These  are ravikaradhyaya, sandhya, kundal, danda, trishul, matsya and amogha. सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् । मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी । नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ Dr. Naveen Tiwari, Central Sanskrit University, Ranvir Campus, spoke about sandhya as a comprehensive idea in the science of monsoon. If in the evening, a `mountain range` is visible in the sky in the northern direction, it is bound to rain in that area on the third day. When the `mountain range` is visible in the north-west, it rains day and night. When the `mountain range` is visible in the west, it is expected to rain for seven or three days. उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका । तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् । सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, presiding over the seminar, pointed out that agni, vayu, surya and soma are key elements of monsoon.  These four elements enable water to rise to the sky, form into clouds, hold water and then fall as rain. It is no different from the modern scientific concept. The scientists today estimate rainfall on the basis of wind.  अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् । उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ Dr. Rajnish Kumar Pandey, Central Sanskrit University, Jaipur Campus recited the Vedic Manglacharan. The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. The seminar was attended by acharyas, research scholars, students and scholars interested in Sanskrit studies from universities and colleges from several states across the country. 

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राष्ट्रीय संगोष्ठी- कादम्बिनी : विकाराध्याय विमर्श (शृंखला-०५)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मई, शनिवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत वैकारिकाध्याय है। इस वैकारिकाध्याय में मुख्यरूप से खपुरम्, अभ्रतरु,परिघ, निर्घात करका और हिम ये छः विषय आते हैं। खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् ।वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में कादम्बिनी ग्रन्थ से १०७ से १४५ तक की कारिकाएँ पर विमर्श किया गया। इनकारिकाओं में निबद्ध विषयों को आधार बना कर आमन्त्रित विद्वानों ने अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया ।प्रो. मदन मोहन पाठक, वरिष्ठ आचार्य एवं अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊपरिसर ने मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि खपुर का अर्थ आकाश में नगरदिखाई देना है। मेघ में नगर जैसा एक चिह्न बनता है। ख का अर्थ आकाश होता है और पुर का अर्थ नगर होताहै। आकाश में नगर जैसा अनेक रंग और आकृति वाला तथा पताका, ध्वजा और तोरण से युक्त जो गन्धर्व नगरदिखाई देता है. वह खपुर कहलाता है। अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः ।युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ ‘अभ्रतरु’ का अर्थ मेघ में वृक्ष जैसा चिह्न दिखाई देना। अभ्र का अर्थ मेघ और तरु का अर्थ वृक्ष होता है।, अभ्रतरुको शाखी नाम दिया है। जिसकी शाखा होती है वह शाखी कहालाता है। आकाश में वृक्ष के आकार के मेघों केलिए शाखी, खशाखी, खतरु और अग्रतरु आदि शब्दों के प्रयोग होते हैं।शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च ।दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ डॉ. सुभाष चन्द्र मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर, नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि करका का अर्थ ओला होता है। जिसे पत्थर भी कहते हैं। इस करका केअनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख ग्रन्थ में किया गया है। धाराङ्कुर, राधरङ्कु, वर्षोपल, घनोपल, मेघोपल,मेघास्थि, मटची, पुञ्जिका, बीजोदक, घनकफ, वार्चर और करका ये करका के नाम हैं। अधिक ओले गिरने सेवृष्टि नहीं होती है। धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः।मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च ।भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ डॉ. ब्रजेश पाठक, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी परिसर नेकहा कि निमित्ताध्याय के अन्तर्गत विकाराध्याय आता है और उस विकाराध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है।सन्ध्या, कुण्डल, इन्द्रधनुष, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य और अमोघ ये सात विकार सूर्य के किरणों से उत्पन्न होते हैं। सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् ।मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ दिन और रात्रि की सन्धि का नाम सन्ध्या है। दो अथवा तीन नाड़ीमात्र के समय को सन्ध्या कहते हैं। जब तकआकाश में ताराओं के दर्शन होते रहते हैं उतने काल को सन्ध्या कहते हैं।सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी ।नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ डॉ. नवीन तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने वक्ताके रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टिविचार में सन्ध्या एक व्यापक विचार है। सन्ध्या के समयआकाश में उत्तर दिशा में यदि पर्वतपंक्ति दिखाई देता है तो उस क्षेत्र में तीसरे दिन वृष्टि होगी । उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका ।तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ सन्ध्या के समय वायव्य कोण में पर्वतपंक्ति दिखाई देने से रातदिन वर्षा होती है। पश्चिम दिशा में पर्वतपंक्तिदिखाई देने पर सात दिन तक अथवा तीन दिन तक वर्षा होती रहती है।वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् ।सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा। क्योंकि यह विषय समसामयिक है। अग्नि, वायु, सूर्य और सोम ये सभी वृष्टि में कारण हैं। इन चार तत्त्वों केद्वारा ही जल आकाश में जाता है, ठहरता है, और आकाश के स्थान से गिरता हुआ बरसता है। सोम तत्त्वआर्द्रभाव है। यह अग्नि के द्वारा ऊपर की ओर जाता है। सूर्य वृष्टि के स्वामी वायु के द्वारा वर्षा करता है। यहप्रक्रिया सर्वथा वैज्ञानिक है। आज के मौसमवैज्ञानिक भी वायु के आधार पर ही वृष्टि का अनुमान करता है। अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् ।उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ डॉ. रजनीश कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोधअधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल केआचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफलबनाया।

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