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Category: Seminars
National Seminar-Kadambini-Ulkadhikara Part 9
Report The Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute organised a national seminar online on Tuesday, September 30, 2025, from 5:00 to 7:00 p.m. The seminar was based on various topics discussed in the Prakīrṇādhikāra (Miscellaneous Section) of Kādambinī, a text composed by Pandit Madhusudan Ojha. Dr. Abhishek Gautam, Assistant Professor, Department of Jyotiṣa, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, said in his address that the mark visible on the moon’s surface is in the shape of a crow (kāka). It is dark in color, appears fearsome, and triangular in shape. In the middle of the round lunar disk, there is a black, wedge-shaped spot. काकः कालाकृतिर्घोरस्त्रिकोणो वापि लक्ष्यते ।मण्डलं कीलकं मध्ये मण्डलस्यासितो ग्रहः ॥(Kādambinī, p. 180, kārikā 317) He explained that Ketu, which assumes a vast and many-formed appearance (Viśvarūpa), exists in 120 forms. These are red, shining, without crests, blazing, and appear to emit fire from the sky, surrounded by flames. विश्वरूपाः शतं विंशं शोणा दीप्ता विचूलिनः ।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादग्निभा ज्वालामालिनः ॥(ibid., kārikā 318) Shri Govind Narayan Dixit, Assistant Professor, Department of Jyotiṣa, Central Sanskrit University, Vedavyasa Campus, said that the section of Kādambinī dealing with the Saṃpāta (intersection) has been elaborated in great detail. The path of the Moon is uneven, rising and falling; its form continuously changes. Astrologers well-versed in Jyotiṣa can recognize the five Pātakas (points of fall) associated with the Moon. उच्चावचश्चन्द्रमार्गो नित्यमेति विशेषताम् ।तस्मात् तत्र गताः पाताः पञ्चलक्ष्याः स्वयं बुधैः ॥(ibid., p. 178, kārikā 295) He further explained that in the Kādambinī, while defining Ketu, the text describes self-luminous masses of scattered light appearing in the sky, and these luminous bodies are known as Ketus. विकीर्णतेजसः केचित् स्वप्रकाशमया दिवि ।दृश्यन्ते जातुचित् पिण्डापिण्डास्ते केतवो मताः ॥(ibid., kārikā 296) Dr. Naveen Pandey, Assistant Professor, Department of Vāstuśāstra, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, explained that Kādambinī describes Ketu’s form through various similes (upamā). In the sky, Ketus appear fiery and red like hibiscus, fire, or lac, shining and crestless, spewing flames. Such fiery (āgneyāḥ) Ketus are said to be of twenty-five types. बन्धु-जीवाग्निलाक्षाभाः शोणा दीप्ता विचूलिनः ।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादाग्नेयाः पञ्चविंशतिः ॥(ibid., p. 179, kārikā 305) Rough, crested, black, death-giving Ketus are of twenty-five kinds. Earthly (pārthiva) Ketus are round, crestless, and have a shining appearance like oil or water, numbering twenty-two types. रूक्षा वक्रशिखाः कृष्णा मृत्युदाः पञ्चविंशतिः ।भौमा द्वाविंशतिर्वृत्ता विचूलास्तैलतोयभाः ॥(ibid., kārikā 306) Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, Centre for Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, said that in the Prakīrṇādhyāya there are six natural phenomena or transformations (vikāras) described:Rāhu, Ketu, Tārā (stars), Dig-dāha (directional heat), Pāṃsu-varṣa (dust storms or showers), and Bhūkampa (earthquakes). राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम् ।भूकम्पश्चेति षड्भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः ॥(ibid., p. 171, kārikā 216) Among these, the dark, unilluminated halves of celestial bodies such as the Earth, Moon, and Mercury are referred to as Svaṛbhānu, the shadowy aspect opposed to light. ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः ।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ॥(ibid., p. 172, kārikā 232) Dr. Prakash Ranjan Mishra, Assistant Professor, Department of Veda, Paurāhitya, and Karmakāṇḍa, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, began the session with a Mangalacharaṇ chanted melodiously. The session was conducted by Dr. Lakshmikant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. The seminar saw enthusiastic participation of professors, research scholars, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states of India. Their contributions and discussions made the symposium a great success.
राष्ट्रीय संगोष्ठी कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-९)
प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० सितम्बर, मंगलवार २०२५ को सायंकाल५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीतकादम्बिनी नामक ग्रन्थ के प्रकीर्णाधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजितकी गई थी। डॉ. अभिषेक गौतम, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधीपरिसर ने अपने वक्तव्य में कहा कि चन्द्रबिम्ब में दिखाई देने वाला चिह्न काक होता है। वह काक आकृति मेंकाला होता है, देखने में वह भयङ्कर होता है, वह त्रिकोण वाला होता है। गोलाई के बीच में काले रंग काकीलक मण्डल होता है। काकः कालाकृतिर्घोरस्त्रिकोणो वापि लक्ष्यते ।मण्डलं कीलकं मध्ये मण्डलस्यासितो ग्रहः।। कादम्बिनी, पृ. १८०, का. ३१७ विश्वरूप वाला केतु की एक सौ बीस संख्या होती है । ये लाल रंग का, चमकने वाला, बिना चोटी वाला, ज्वालावाला तथा आकाश से अग्नि को उगलता हुआ और अग्नि की आभा वाला दिखाई देता है। विश्वरूपाः शतं विंशं शोणा दीप्ता विचूलिनः ।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादग्निभा ज्वालामालिनः ।। तत्रैव, का. ३१८ श्रीगोविन्द नारायण दीक्षित, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,वेदव्यास परिसर ने कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ के संपात का विचार विस्तार से किया गया है। चन्द्रमा का मार्गऊँचा नीचा है, इनका आकार भिन्न भिन्न रूपों में बनता रहता है, ज्योतिष विद्या में प्रवीण लोग चन्द्र के साथपाँच पातकों को स्वयं जान जाते हैं। उच्चावचश्चन्द्रमार्गो नित्यमेति विशेषताम् ।तस्मात् तत्र गताः पाताः पञ्चलक्ष्याः स्वयं बुधैः॥ तत्रैव पृष्ठांकः १७८, का. २९५ कादम्बिनी ग्रन्थ में केतु के परिभाषा के क्रम में आकाश में विखरे हुए तेज वाले स्वप्रकाशमय पिण्ड दिखाई दियाकरता है। इस पिण्ड को ही केतु कहते हैं। विकीर्णतेजसः केचित् स्वप्रकाशमया दिवि ।दृश्यन्ते जातुचित् पिण्डापिण्डास्ते केतवो मताः ॥ तत्रैव, का. २९६ डॉ. नवीन पाण्डेय, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र-विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, ने अपने वक्तव्य में कहा कि उपमा के द्वारा केतु का स्वरूप का वर्णन किया गया है। आकाश मेंयदि गुलहल, अग्नि, लाख जैसी कान्ति वाले, लाल, चमकदार, विचूली (बिना चोटी के) आकाश से अग्नि उगलतेहुए आग्नेय केतु पच्चीस प्रकार के होते हैं। बन्धु-जीवाग्निलाक्षाभाः शोणा दीप्ता विचूलिनः।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादाग्नेयाः पञ्चविंशतिः ॥ तत्रैव, पृ. १७९, का. ३०५ रूखे, चोटी वाले, काले रंग के, मृत्यु देने वाले केतु पच्चीस प्रकार के होते हैं। पार्थिव केतु गोल, बिना चोटी वालाऔर तैलजल के समान कान्ति वाले बाईस प्रकार के होते हैं। रूक्षा वक्रशिखाः कृष्णा मृत्युदाः पञ्चविंशतिः ।भौमा द्वाविंशतिर्वृत्ता विचूलास्तैलतोयभाः ॥ तत्रैव, का. ३०६ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि इस प्रकीर्णाध्याय में छः विकार हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं- राहु,केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६ इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२ डॉ. प्रकाश रञ्जन मिश्र, सहायक आचार्य, वेद-पौरोहित्य-कर्मकाण्ड-विद्याशाखा विभाग, केन्द्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकरशिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेकप्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों नेउत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।
Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2025
Journeying Overseas: A Clash Between Tradition and Modernity Prof. Radhavallabh Tripathi Report In the twentieth century, Pandit Motilal Shastri, a great thinker of Vedic science, became renowned in the world of Sanskrit. By writing over a hundred works in the national language (Hindi), he presented scholars with a new and original perspective. His style of interpretation is entirely novel, and his analysis of technical terms used in Vedic science holds particular importance. Pandit Motilal Shastri himself has provided clear explanations of these expressions. On Sunday, 28 September 2025, the Annual Motilal Shastri Memorial Lecture was held at the Vāchaspati Auditorium of Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi. Shri Shankar Shikshayatan celebrates this event annually as a festival of remembrance. During this lecture, the book “Dashavādarahasya: Vaidika Sṛiṣhṭivāda” was released by the invited guests. The book, written in Hindi, was published in 2025 by Vidyanidhi Prakashan, Delhi. It contains a Hindi translation, and detailed commentary on the kārikās of the Dashavādarahasya, along with articles by scholars discussing the doctrine of the “Ten Theories.” In this lecture, Prof. Radhavallabh Tripathi, former Vice-Chancellor of the Central Sanskrit University, New Delhi, delivered an insightful address on the topic Journeying Overseas: A Clash Between Tradition and Modernity. This theme relates to Pandit Madhusudan Ojha’s treatise titled “Pratyantaprasthāna-Mīmāṃsā.” In 1902, Pandit Ojha had accompanied Maharaja Madhav Singh of Rajasthan to England for the coronation ceremony of the British Emperor. At that time, sea voyage (samudra-yātrā) was considered forbidden by the scholarly and priestly community. Upon his return to India, Ojha composed this treatise to examine the relevance and rationale of that prohibition. The Pratyantaprasthāna-Mīmāṃsā consists of three chapters: Prof. Tripathi noted that references to sea voyage occur frequently in the Rigveda, the Smṛitis, in the story of Matsya Avatāra, and throughout Sanskrit literature.He explained that, according to tradition, a person who traveled abroad by sea incurred three kinds of grave sins (mahāpātakas):(1) by undertaking the sea voyage itself,(2) by entering foreign lands, and(3) by associating with non-Vedic peoples (mlecchas). He added that this framework still holds symbolic relevance today—since even now, people do not freely associate, dine, or mingle with everyone. Social distinctions and inequalities in conduct remain visible in society. A quotation from Pratyantaprasthāna-Mīmāṃsā (p. 3) illustrates this point: “For one belonging to the three higher varṇas who has crossed the ocean and reached a frontier land, three kinds of grave transgressions arise: (1) from the very act of sea voyage, (2) from entering border regions, and (3) from contact with the fallen.” At the beginning of the programme, Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, welcomed the assembled guests. He remarked that the observance of social and moral codes varies by region: what is prescribed in one land may not hold in another. For example, marriages between a maternal uncle’s daughter and a nephew are common and accepted in southern India, but prohibited in northern India. Similarly, the rules regarding sea voyage are not uniform everywhere—for the people of northern India, it was traditionally considered completely forbidden. Citing Vidhāna-Pārijāta and other authorities (Pratyantaprasthāna-Mīmāṃsā p. 45), he explained: “Where a custom has been sung or sanctified, it should be practiced only there, not elsewhere. Thus, a maternal-uncle’s-daughter marriage may be valid where recognised, but not in other regions.”“Therefore,” he added, “like such regional customs, the prohibition of sea voyage applied differently across India.” Shri Rajeshwar Shukla, Principal Judge of the Family Court, Gorakhpur, addressed the gathering as the Chief Guest. He said, “It is necessary for us to understand the ancient laws and rules that shaped our society. To study ancient ideas today is itself modernity. The ancient knowledge is our tradition; modernity lies in revisiting and reinterpreting it. The harmony between the two expands our understanding.” Prof. Bhartendu Pandey, Head of the Department of Sanskrit, University of Delhi, presided over the session. He opened the discussion by referring to the Pratyantaprasthāna-Mīmāṃsā and observed that different scholars explained the prohibition of sea voyage in the Kali age in various ways:(a) some accepted it as a general scriptural injunction;(b) some based it on emotional or ritual attachment;(c) some viewed it as dependent on the possibility of moral corruption or social fault;(d) and some saw it as a practical limitation for those lacking means or strength to perform the journey safely. The text itself (p. 22) states: “Not all prohibitions operate everywhere and for all. Some arise from general scriptural rules, some from attachment, others from observed faults or dangers, and still others from inability or limitation. Hence, exceptions are made in specific contexts.” At the beginning of the event, Prof. Sundar Narayan Jha of Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University recited the Vedic Mangalacharan, and Prof. Mahanand Jha offered the classical (laukika) Mangalacharan.The programme was conducted by Dr. Mani Shankar Dwivedi, Guest Lecturer in Sanskrit at Jamia Millia Islamia University. Dr. Lakshmikant Vimal, Research Officer of Shri Shankar Shikshayatan, delivered the vote of thanks. Scholars, teachers, research students, and Sanskrit enthusiasts from Delhi University, Jawaharlal Nehru University, Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, and Jamia Millia Islamia participated enthusiastically, contributing to the success of the event.
पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान-2025
‘परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व : समुद्रयात्रा’ प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी प्रतिवेदन बीसवीं शताब्दी के वैदिकविज्ञान के महान् शास्त्रचिन्तक पण्डित मोतीलाल शास्त्री संस्कृत जगत् में सुविख्यातहैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा में एक सौ से अधिक ग्रन्थों को लिख कर एक अभिनव दृष्टि विद्वानों के सामने रखा है।उनकी व्याख्या शैली सर्वथा नयी है। वैदिकविज्ञान में पारिभाषिक शब्दों का विश्लेषण महत्त्वपूर्ण है। इसकीव्याख्या पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी ने की है। इस वर्ष २८ सितम्बर २०२५, रविवार को श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में यह स्मारक व्याख्यान सुसंपन्न हुआ है। श्रीशंकर शिक्षायतन इस कार्यक्रम को वार्षिक उत्सव के रूप में मनाता है। इस व्याख्यान में‘दशवादरहस्य : वैदिकसृष्टिवाद’ इस ग्रन्थ का विमोचन समागत अतिथियों के द्वारा किया गया। यह ग्रन्थ हिन्दीभाषा में लिखा गया है। यह ग्रन्थ २०२५ में विद्यानिधि प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । दशवादरहस्यग्रन्थ का अन्वय, हिन्दीभाषा में अनुवाद एवं कारिका के ऊपर व्याख्या की गयी है एवं दशवाद सिद्धान्त सेसंबन्धित विद्वानों के आलेख समाहित हैं। इस व्याख्यान में पूर्वकुलपति प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने‘परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व : समुद्रयात्रा’ इस विषय पर अपना सारगर्भित व्याख्यान दिया है। इसविषय का संबन्ध पण्डित मधुसूदन ओझा के ‘प्रत्यन्तप्रस्थान-मीमांसा’ नामक ग्रन्थ के साथ है। १९०२ ई. मेंपण्डित मधुसूदन ओझा राजस्थान के महाराजा माधव सिंह के साथ इंगलैण्ड देश गये थे, वहाँ के महारानी केराज्याभिषेक महोत्सव का समायोजन हुआ था । उस समय समुद्रयात्रा विद्वत्समाज में निषिद्ध था। पण्डित ओझाजी ने वहाँ से लौटकर अपने देश भारत आकर समुद्रयात्रा के विषय की प्रासंगिकता के लिए इस ग्रन्थ की रचनाकी। प्रत्यन्त-प्रस्थान मीमांसा ग्रन्थ के प्रथम अध्याय का नाम सम्रुद्रयात्रा की कलिवर्ज्यता, द्वितीय अध्यायका नाम समुद्रयात्री के श्राद्धवर्ज्यता और तृतीय अध्याय का नाम ब्राह्मणवर्ज्यता है । इस लघुकाय ग्रन्थ में अनेकस्मृति वचनों को उधृत किया गया है। प्रो. त्रिपाठी जी ने कहा कि समुद्रयात्रा ऋग्वैदिककाल में, स्मृतिकाल में, मत्स्यावतार में एवंसंस्कृतसाहित्य में भी इस का प्रचुर सन्दर्भ प्राप्त होता है। प्रो. त्रिपाठी जी ने कहा कि जो कोई व्यक्ति समुद्रय यान से विदेश जाता था। उस गमन से तीन प्रकारके पातक होते थे। समुद्रयात्रा से उत्पन्न महापातक, विदेशयात्रा से महापातक, अन्यदेश वासियों के साथ संपर्कहोने से महापातक । यह व्यवस्था आधुनिक समय में भी प्रासंगिक है। सभी व्यक्ति सभी के साथ नहीं मिलताहै, सभी के साथ मिलकर खाना नहीं खाता है और न सभी के साथ मिलर बातचित करता है। अभी भी समाज मेंव्याहारिक असमानता दिखाई देती है । समुद्रयाने प्रत्यन्तदेशं गतवतैस्त्रैवर्णिकस्यावश्यं त्रेधा महापातक-सम्बन्धः संभाव्यते-समुद्रयात्रानिबन्धनः, प्रत्यन्त-देश-गमन-निबन्धनः, पतित-संसर्ग-निबन्धनश्च।प्रत्यन्तप्रस्थानमीमांसा पृ. ३ कार्यक्रम के प्रारम्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं प्राच्य विद्याध्ययन संस्थान केआचार्य प्रो. सन्तोष कुमार शुक्लः महोदय ने समागत अतिथियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि जिस देशमें जो विहित है उस का पालन उसी देश में होता है। दूसरे देश में उस नियम का पालन नहीं होता है। जिसप्रकार दाक्षिण भारत में माम की बेटी से विवाह होता है, उत्तर भारत में यह नियम नहीं चलता है। वहाँ उसकानिषेध है। उसी प्रकार समुद्रयात्रा विषय में भी सभी नियम सभी स्थानों के लिए मान्य नहीं है। उत्तर भारत केलोगों के लिए समुद्रयात्रा सर्वथा निषिद्ध है । विधान-पारिजाते तु पञ्चधा विप्रतिपत्तिः इति आदिबौधायन-वचन-सिद्धं दाक्षिणात्यानां प्रकृत्यतादृश-विवाहस्य कलियुगेऽप्यादरनीयत्वं महत्याऽभटया प्रपञ्चितम्। तथाहि-इदञ्च यस्मिन् देशे अवगीतं तत्रैव कार्यं नान्यत्र तथाप्ययं मातुल-कन्याविवाहो यद्देशेऽविगीतःतद्देशीयैः एव कार्यः। तदुक्तं नृसिंहचर्यायां बौधायनेन-दक्षिण-देशे अनुपनीतेन भार्यया च सह भोजनम् । प्रत्यन्तप्रस्थानमीमांसा पृ. ४५ गोरखपुर पारिवारिक न्यायलय के प्रधान न्यायाधीशः श्रीमान् राजेश्वर शुक्ल ने मुख्य अतिथि के रूप मेंअपना उद्गार प्रकट किया। उन्होंने कहाँ कि हमलोगों के लिए जो प्राचीन नियम है उस नियम का ज्ञान आवश्यकहै। प्राचीन विषय इस समय हमलोग जान रहे हैं, यही आधुनिकता है। प्राचीन ज्ञान ही परम्परा है। इन दोनोंपरम्परा और आधुनिकता के मेल से हमलोगों का ज्ञान बढ़ेगा । प्रो. भारतेन्दु पाण्डेय महोदयः आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कार्यक्रमकी आध्यक्षता की । उन्होंने कहाँ कि समुद्रायात्रा प्रतिपादक प्रत्यन्तप्रस्थान मीमांसा पुस्तक से विषय काउद्घाटन किया । उन्होंने कहा कि कोई विद्वान् विषयविशेष के अनुरोध से समुद्रयात्रा की कलिवर्ज्यता कीव्यवस्था को उद्घाटित करते हैं। किसी किसी आचार्य ने कलियुग में समुद्रयात्रा की निषिद्धता को सिद्ध करते हैं।(क) कहीं पर सामान्य शास्त्रं को मान कर समुद्रयात्रा का निषेध किया गया है। (ख) कहीं पर रागवशसमुद्रयात्रा का प्रतिषेध किया गया है । (ग) कहीं दोषप्रसङ्ग के आधार पर निषेध हुआ है। (घ) कहीं परसामान्यजन के संपत्तिहीन होने से सामुद्रयात्रा का निषेध किया गया है। अथ अभियुक्तास्तु यावत् कलिवर्ज्य-साधारण्येन विषय-विशेष-व्यवस्थानमभ्यनुजानाना इत्थम्आचक्षते। एतस्मिन् कलिवर्ज्य-प्रकरणे नैकरूपेण सर्वे सर्वत्र निषेधाः प्रवर्तन्ते। क्वचित् तुसामान्यशास्त्रविहिता एवार्था विशेषे निवर्त्यन्तो क्वचिच्च रागप्राप्ताः। क्वचित् पुनर्दृष्ट-दोष-प्रसञ्जकाः।अथैवं क्वचित् शक्तिवैकल्यादिना सामान्यमनुष्यैः कर्तुम् अशक्या एव अर्थानुग्रहेण अभ्यनुज्ञारूपेणनिवर्त्यन्ते। प्रत्यन्तप्रस्थानमीमांसा पृ. २२ व्याख्यान के प्रारम्भ में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्य प्रो. सुन्दर नारायण झाने वैदिक मङ्गलाचरण को एवं प्रो. महानन्द झा ने लौकिक मङ्गलाचरण को प्रस्तुत किया । कार्यक्रम कासञ्चालन जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अतिथि अध्यापक डॉ. मणि शंकरद्विवेदी ने किया । श्रीशंकर शिक्षायतन के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मीकन्त विमल समागात विद्वानों का धन्यवादज्ञापन किया।इस व्याख्यान में दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल, श्री लाल बहादुर शास्त्रीराष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालयके अनेक विद्वानों ने, शिक्षकों ने,शोधच्छात्रों ने तथा संस्कृत में अनुराग रखने वाले लोगों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के कार्यक्रम को सफलबनाने में अपना अप्रतिम योगदान किया।
National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VIII
Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute organised a National Seminar on 30 August 2025 (Saturday), 5–7 PM, through an online platform. The seminar was based on themes from the Ulka Adhikara section of Kadambini, authored by Pandit Madhusudan Ojha. The programme began with a vedic invocation by Dr. Satyavrat Pandey (Maharshi Panini Sanskrit and Vedic University, Ujjain) and was moderated by Dr. Lakshmikant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan. The seminar witnessed enthusiastic participation from professors, researchers, and Sanskrit scholars across various states, making the event a success.
राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-८)
प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० अगस्त, शनिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई थी। डॉ. अनिल कुमार, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय सूर्य का संपात है। शनि और सूर्य का संपात हस्त नक्षत्र के आधे व्यतीत होने पर और रेवती नक्षत्र के अन्त होने पर होता है । इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के अठारहवें अंश में संपात की स्थिति बनती है। बृहस्पति और सूर्य का संपात आर्द्रा नक्षत्र के तृतीय भाग और रेवती नक्षत्र के आदि भाग में होता है। इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के दशम अंश में संपात की स्थिति बनती है। आदित्यार्धं च पूषान्ते संपातः शनि-सूर्ययोः । राशेरष्टादशे त्वंशे तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ आर्द्रातृतीये पूषाद्ये संपातो गुरु-सूर्ययोः। अंशे तु दशमे राशेस्तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ –कादम्बिनी पृ. १७६, कारिका २७१-२७२ डॉ. चन्दन होता, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने कादम्बिनी ग्रन्थ के उल्काधिकरण पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आकाश में ग्रहगण जिस रास्ते से जाते हुए दिखाई देते हैं, वह रास्ता नाग नाम से जाना जाता है। उस रास्ते में जहाँ ग्रह रहता है, वह उस नाग का मुख कहलाता है। आकाश में जितने ग्रह हैं उतने नाग भी हैं। द्युलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्षलोक में अनन्त नाग हैं। किन्तु उन नागों में आठ नागों की प्रधानता है। येन येन यथा खेटाः गच्छन्तः प्रतिभान्ति ते ।स पन्था नाग इत्युक्तो यत्र खेटस्तदाननम्॥ खेचरा दिति यावन्तो नागास्तावन्त एव खे । दिवि भुव्यन्तरिक्षे च नागानन्त्येति तेऽष्टधा ॥ तत्रैव पृ. १७४, कारिका २५७-२५८ डॉ. मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिर्विज्ञान विभाग, महर्षि पाणिनि सस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय चन्द्रमा का संपात है। सूर्य के मार्ग में चन्द्रमार्ग का संपात होना चन्द्रपात कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है। इन में दक्षिण वाला राहु और उत्तर वाला केतु कहा जाता है। सूर्यमार्ग में राहु प्रतिदिन पश्चिम दिशा की तरफ जाता रहता है। इसकी नित्य की गति ३ कला और १०. ५० विकला होती है। सूर्यमार्गे चन्द्रमार्ग-संपातः पात उच्यते। स द्वेधा दक्षिणे राहुरुत्तरः केतुरुच्यते॥ रविमार्गेन्वहं राहुः पश्चिमामनुगच्छति । तिस्रः कलाः सार्धदश विकला गतिराह्निकी ॥ तत्रैव पृ. १७६, कारिका २७८-२७९ डॉ. योगेन्द्र कुमार शर्मा, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, ने अपने वक्तव्य में कहा कि सूर्य और चन्द्र के ग्रहण के विषय में शुभाशुभफल का विचार किया जा चुका है। अब तारा ग्रहों के ग्रहण का फल कहा जाता है। पातास्थानादविक्षिप्तश्चन्द्रेणार्केण वैकभः। ताराग्रहो ग्रस्तबिम्बो जायते ग्रहणं हि तत् ॥ तत्रैव पृ. १७५, कारिका २६३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझा जा सकता है। राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६ इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः। तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२ डॉ. सत्यव्रत पाण्डेय, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।
National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VII
A National Symposium organised by Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute was held online on Thursday, July 31, 2025, from 5:00 to 7:00 PM. The symposium was based on various topics from Kadambini, a text composed by Pandit Madhusudan Ojha, specifically from its section dealing with celestial phenomena. Dr. Yagyadatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Ved Vyasa Campus, said in his address that five types of fire originate in the sky. Their names are — Vajra, Vidyut, Maholka, Dhishnya, and Tara. In meteorology, all five are referred to as Ulkas (meteors). Dr. Suresh Sharma, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Shri Raghunath Kirti Campus, delivered his lecture on the Prakīrṇa Adhyāya (Miscellaneous Chapter) of Kadambini. He explained that the content of this chapter is divided into six topics: Rahu, Ketu, Tara, Digdaha (scorching of directions), Dust Rain (Pāṃsu), and Earthquake. The first topic of this chapter is Rahu. Rahu has neither its own light nor reflects another’s light. It does not shine. Even though it exists and moves in the sky, its movement leaves no visible trace. Dr. Ganesh Krishna Bhatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Guruvayur Campus, said that Rahu is also called Svarbhanu. If an eclipse occurs in the month of Mārgaśīrṣa, there will be no rain in the regions called Puṇḍraka, Kashmir, Kaushal, and the western part of India, but the rest of the country will have rain, prosperity, and abundance. If an eclipse occurs in Pausha month, it will harm the regions called Sindhu, Videha, and Kukur, and the rest of the country will suffer from low rainfall and famine. Dr. Ratish Kumar Jha, Assistant Professor, Department of Astrology, Dr. Jagannath Mishra Sanskrit College, Madhubani, Bihar, said that the dark, lightless half of celestial bodies such as the Earth, Moon, and Mercury is called Svarbhanu. The triangular shadow arising from this dark part is called Svarbhanu Rahu. Since the sun remains in their “Svar” (region), they are called Svarbhanu. Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, said that today’s topic is highly practical and can only be understood through observation. Pandit Ojha has mentioned many synonyms for Vajra. Analyzing these names is important because their meanings reveal the basis of their naming. The synonyms include: Hrādini, Vajra, Āpotra, Bhidira, Bhidura, Bhidu, Jambhāri, Jāmbavi, Dambha, Dambholi, Aśani, Pavi, Shatadhara, Shatara, Gau, Meghabhūti, Girijvara, Shatakoṭi, Svaru, Shamba, Kuliśa, Girikantaka. Dr. Ashish Mishra, Guest Lecturer, Department of Vedas, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, recited the Vedic invocation with intonation. The program was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. The symposium was attended by professors, research scholars, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states.
राष्ट्रीय संगोष्ठी कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-७)
प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई, बृहस्पतिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजेतक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीतकादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजितकी गई थी। डॉ. यज्ञदत्त, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेद व्यास परिसर, ने अपनेवक्तव्य में कहा कि अन्तरिक्ष में पाँच प्रकार की अग्नियाँ उत्पन्न होती हैं। इनके नाम हैं- वज्र, विद्युत्, महोल्का,धिष्ण्या और तारा । वृष्टिविद्या में इन पाँचों को उल्का नाम से प्रतिपादन किया जाता है। वज्रं विद्युन्महोल्का च धिष्ण्या तारेति पञ्चधा ।उल्केति संज्ञया ख्याता अन्तरिक्षोद्भवाग्नयः॥ कादम्बिनी पृष्ठ १६८ कारिका २०१ इन पाँच में विद्युत् नामवाली और तारा नामवाली उल्का छः दिन तक लगातार दिखाई दे, महोल्का पन्द्रह दिनतक दिखाई दे, वज्र और धिष्ण्या पैंतालिस दिन तक लगातार दिखाई दे तो उस वर्ष फसल की उपज अच्छीहोगी। विद्युत्तारादिनैः षड्भिरुल्का पक्षेण वीक्षिता ।वज्रं धिष्ण्या त्रिभिः पक्षैः फलपाकाय कल्पते ॥ वही, पृष्ठ १६८, कारिका २०२ डॉ. सुरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीरघुनाथकीर्ति परिसर नेकादम्बिनी ग्रन्थ के प्रकीर्णाध्याय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णअध्याय के विषयवस्तु को छः भागों में विभक्त किया गया है। ये हैं- राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, धूल की वर्षा(पांसु) और भूकम्प। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम् ।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः ।। वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१६ प्रकीर्ण अध्याय का पहला विषय राहु है। राहु में अपनी ज्योति और दूसरे की ज्योति नहीं रहती है। राहु प्रकाशनहीं करता है। ये आकाश में रहते भी हैं और चलते भी हैं, इसका बोध नहीं होता है ।अर्थात् राहु गति संबन्धीजो भी क्रिया को करता है, उसका कोई चिह्न नहीं बनता है। राहवः स्व-पर-ज्योतीराहित्यादप्रकाशिनः ।अपि सन्तोऽपि गच्छन्तो द्युमार्गेषु न भान्ति ये ॥ वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१७ डॉ. गणेश कृष्ण भट्ट, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, गुरुवायूर परिसर, नेअपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णाध्याय में राहु प्रथम विषय है। इसी राहु को स्वर्भानुराहु कहा जाता है। मार्गशीर्षमास में ग्रहण होने पर पुण्ड्रक नामक देश, काश्मीर नामक देश, कौशल नामक देश तथा भारत के पश्चिम भाग मेंवर्षा नहीं होगी और देश के दूसरे भाग में वृष्टि, क्षेम और सुभिक्ष होता है। मार्गे तु ग्रहणं हन्यात् मगधान् काशिकोशलान् ।तथाऽपरान्तकान् शेषे वृष्टि-क्षेम-सुभिक्षकृत्॥ वही, पृष्ठ १७३, कारिका २४५ पौष मास में ग्रहण होने से सिन्धु नामक देश, विदेह नामक देश, कुकुर नामक देश की हानि करता है और देश केदूसरे भाग में अल्पवृष्टि और दुर्भिक्ष होता है। पौषे दृष्टं हन्ति सिन्धून् विदेहान् कुकुरांस्तमः।देशान्तरे तु कुरुते दुर्भिक्षं स्वल्प-वर्षणम्॥ वही, पृष्ठ १७३., कारिका २४६ डॉ. रतीश कुमार झा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, डॉ. जगन्नाथ मिश्र संस्कृत महाविद्यालय मधुवनी,बिहार ने अपने वक्तव्य में कहा कि पृथ्वी, चन्द्रमा और बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधेभाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ॥ वही, पृष्ठ १७२, कारिका २३२ तमोमय भाग से उत्पन्न तीन कोण वाली छाया को स्वर्भानु नाम के राहु कहते हैं। इनके स्वर्भाग में भानु रहता है,इससे इनको स्वर्भानु कहते हैं। तज्जाश्छायामयास्त्र्यस्त्रा उक्ताः स्वर्भानुराहवः।स्वर्भागे भानुरस्त्येषा तस्मात् स्वर्भानवः स्मृताः॥ वही, पृष्ठ १७२., कारिका २३३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझाजा सकता है। पण्डित ओझा जी ने वज्र के अनेक पर्याय शब्दों का उल्लेख किया है। इन शब्दों का विश्लेषण अर्थकी दृष्टि से करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसका नाम अर्थ के आधार पर ही बना होगा। ह्रादिनी, वज्र,आपोत्र, भिदिर, भिदुर, भिदु, जम्भारी, जाम्बवि, दम्भ, दम्भोलि, अशनि, पवि, शतधार, शतार, गौ, मेघ-भूति, गिरिज्वर, शतकोटि, स्वरु, शम्ब, कुलिश, गिरिकण्टक इतने वज्र के नाम हैं । ह्रादिनी वज्रमापोत्रं भिदिरं भिदुरं भिदुः।जम्भारिर्जाम्बविर्दम्भो दम्भोलिरशनिः पविः॥शतधारं शतारङ्गौ मेघ-भूतिर्गिरि-ज्वरः।शतकोटिः स्वरुः शम्बः कुलिशं गिरिकण्टकः॥ वही, पृष्ठ १६८., कारिका २०५-२०६ डॉ. आशीष मिश्र, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान केशोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल औरमहाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों
Seven-day National Workshop on Vijnanavidyut
July 14-20,2025 A seven-day national online workshop was organized by Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute, New Delhi, from July 14 to 20, 2025. The theme of the workshop was the text Vijnanavidyut authored by Pandit Madhusudan Ojha. This concise text, written by Pt. Ojha, serves as an introductory treatise to Brahmavidya (the science of Brahman). The text comprises five chapters (prakāśas), exploring the concept of the fourfold Brahman in the forms of Pura (Body), Purusha (Person), Parātpara (Transcendent), and Nirvisheṣa (Attribute-less). Each chapter of the text was elaborated upon by subject experts during the workshop. Every day, two expert lectures were delivered along with a presiding address. A detailed account of the seven-day proceedings is given below: Day 1 (14.07.2025): Topic – Chatushpada Brahma Day 2 (15.07.2025): Topic – Concept of Akshara tattva Day 3 (16.07.2025): Topic – Concept of Avyaya (Immutable) Principle Day 4 (17.07.2025): Topic – Concept of Parameṣṭhī Day 5 (18.07.2025): Topic – Concept of the Seven Realms (Saptalokavichāra) Day 6 (19.07.2025): Topic – Concept of Bhutatma Day 7 (20.07.2025): Topic – Concept of Saptakosha The workshop concluded under the chairmanship of Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi. In his daily summaries, he emphasized the concept of Chatushpada-Brahma as central to Vijnanavidyut, detailing the fourfold nature: The inaugural Vedic chanting was conducted by Dr. Dharmendra Kumar Pathak, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Lucknow Campus. The proceedings were conducted by Dr. Lakshmikant Vimal and Dr. Mani Shankar Dwivedi, Research Officers at Shri Shankar Shikshayatan. Held via Google Meet, the workshop witnessed enthusiastic participation from over a hundred scholars, students, and Vedic science enthusiasts from various universities and institutions, making it a grand success.
सप्तदिवसीय राष्ट्रीय वैदिकविज्ञानविद्युत्-कार्यशाला
July 14-20,2025 प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली के द्वारा दिनांक 14-20 जुलाई 2025 तक अन्तर्जालीय माध्यम से सप्तदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का समायोजन किया गया। यह कार्यशाला पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत विज्ञानविद्युत् ग्रन्थ पर आयोजित थी। पं. ओझा के द्वारा प्रणीत यह लघु ग्रन्थ ब्रह्मविज्ञान में प्रवेश के लिए प्रारम्भिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में पाँच प्रकाश हैं। जिसमें पुर, पुरुष, परात्पर एवं निर्विशेष के रूप में चतुष्पाद् ब्रह्म का विवेचन हुआ है। यह ग्रन्थ कुल पाँच प्रकाशों में विभक्त है। कार्यशाला में प्रत्येक प्रकाश के विषय-वस्तु का विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा उद्घाटन किया गया। प्रत्येक दिन दो विषय-विशेषज्ञों ने विषय पर व्याख्यान दिये एवं अध्यक्षीय वक्तव्य हुआ। इस सप्तदिवसीय कार्यशाला का विस्तृत विवरण अधोलिखित है- प्रथम दिवस (14.07.2025) : कार्यशाला के पहले दिन का विषय चतुष्पाद्-ब्रह्म विचार था जिसमें विषय विशेषज्ञ के रूप में बोलते हुए प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि यह विज्ञानविद्युत् अत्यन्त पठनीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ चतुष्पाद् ब्रह्म से हुआ है। चतुष्पाद् का अर्थ है, जिसमें चार विषयरूपी पाद हों। ये पाद हैं- पुर, पुरुष, परात्पर और निर्विशेष। इस सृष्टि में जो कुछ भी पदार्थ बाह्य जगत् में देखा जाता है, वह सभी विकारों का समूह है। भूतग्राम और आत्मग्राम को पुर कहा गया है। भूतग्राम से तात्पर्य आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी है। आत्मग्राम से तात्पर्य ज्ञानेन्द्रिय से है। शास्त्र में आत्मा शब्द का अर्थ बुद्धि भी होता है। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में भी प्रज्ञामात्रा और भूतमात्रा की चर्चा मिलती है-‘तथा हि इदं यावद् इह किञ्चिद् बहिर्धा दृश्यते, सर्वोऽयं विकार-संघो भूतग्रामत्वाद् आत्मग्रामत्वात् च पुरम् इति अभिधीयते।’,विज्ञानविद्युत् पृ. २ दूसरे विषयविशेषज्ञ प्रो. श्यामदेव मिश्र, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने कहा कि पुर का ही अर्थ शरीर होता है। विकारों का समूह ही शरीर है। यह विकार क्षरपुरुष में आश्रित रहता है। इस शरीर का प्रतिक्षण क्षरण होते रहता है। अव्ययपुरुष, अक्षरपुरुष और क्षरपुरुष इन तीन पुरुषों में क्षरपुरुष में शरीर को रखा जाता है। इन तीन पुरुषों से भिन्न यह शरीर नहीं है-‘क्षरपुरुषाश्रितोऽयं विकारसंघः शरीरम् उच्यते, इति उक्तम्, तच्च क्षरात्मकत्वात्, क्षरपुरुषेऽन्तर्भूतम् इति त्रिपुरुषात् न अतिरिच्यते किञ्चित्।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. ८ द्वितीय दिवस (15.07.2025) : दूसरे दिन का विषय अक्षरतत्त्व विचार था जिसमें प्रो. विष्णुपद महापात्र, आचार्य, न्याय विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि अक्षर पुरुष पाँच प्रकार के हैं- ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम। इन पाँचो को दो भागों में केन्द्र और बाह्य रूप में विभक्त किया गया है। केन्द्र के लिए हृद्य शब्द का और बाह्य के लिए पृष्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है। ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र ये तीन हृद्य हैं एवं अग्नि-सोम पृष्ठ्य हैं। इनमें ब्रह्मा को प्रतिष्ठाप्राण, विष्णु को आकर्षण प्राण और इन्द्र को उत्क्षेपण प्राण कहा गया है। उत्क्षेपण के द्वारा जो प्रतिष्ठित होता है, वह अग्नितत्त्व है। आकर्षण के द्वारा जो तत्त्व प्रतिष्ठित होता है वह सोम तत्त्व है। इस को एक सरल उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। प्रतिष्ठा का अर्थ आधार होता है। ब्रह्मा रूप आधार पर विष्णु और इन्द्र प्रतिष्ठित हैं। विष्णु बाहर से तत्त्व को लाते हैं जस तत्त्व को विष्णु लाते हैं वह सोम है अर्थात् अन्न है। इन्द्र जिस तत्त्व को बाहर ले जाते हैं वह तत्त्व अग्नि है। यह मानव के शरीर में एवं प्रत्येक जीव के शरीर में घटित होता है- ‘तत्र प्रतिष्ठाप्राणं ब्रह्माणम् आहुः, आकर्षणप्राणं विष्णुः आहुः, उत्क्षेपणप्राणं तु इन्द्रम् आहुः, उत्क्षिप्तः प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषोऽग्निः उच्यते, आकृष्टस्तु प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषः सोम इति उच्यते।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. १३ द्वितीय वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रो. सतीश कुमार मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने कहा कि इस प्रकाश में अक्षर का ही विस्तार से वर्णन किया गया है। ब्रह्मा को वेद, विष्णु को यज्ञ, इन्द्र को प्रजा, अग्नि को लोक और सोम को धर्म कहा गया है। इस प्रारूप में अक्षर की व्याख्या की गयी है-‘एषु च पञ्चाक्षरेषु ब्रह्मा वेदमयः विष्णुर्यज्ञमयः इन्द्रः प्रजामयः अग्निर्लोकमयः सोमो धर्ममयः प्रतिपद्यते।’, वही, पृ. १९ तृतीय दिवस (16.07.2025) : तीसरे दिन का विषय अव्यय तत्त्व विचार था जिसमें अपने वक्तव्य में प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने बतलाया कि क्षरपुरुष को परिणामी कारण कहा गया है और अक्षर पुरुष को निमित्त कारण कहा गया है। इन दोनों तत्त्वों से विशिष्ट अव्यय पुरुष है। वह अव्यय पुरुष न कार्य है और न कारण है। यहाँ अव्यय पुरुष की कारणता का निषेध किया गया है परन्तु दूसरे प्रकार से अव्यय पुरुष को ही सर्वकारण कहा गया है-‘उक्तं पूर्वम्, क्षरपुरुषः परिणामि-कारणम्, अक्षरपुरुषो निमित्त-कारणम्, ताभ्यां यदन्यत्सोऽव्ययः पुरुषो न कार्यं न कारणम् इति। यद्यपि एवम् अस्मिन् अव्ययपुरुषे कारणत्वं निषिध्यते, तथापि प्रकारान्तरेण अस्य अव्ययपुरुषस्य एव सर्वकारणत्वं प्रत्येतव्यम्।’, वही, पृ २७ दूसरे वक्ता डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला ने कहा कि अव्यय की पाँच कलाएँ हैं- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्। इन पाँच कलाओं को दो भागों में विभाजित करते हैं। एक भाग में आनन्द, विज्ञान और मन है, दूसरे विभाग में प्राण, वाक् और मन है। दूसरा विभाग प्राण, वाक् और मन ये तीनों सृष्टि के कारण हैं। सृष्टि के लिए प्राण-वाक् उपादान है और विज्ञान-आनन्द सहकारी कारण है। विज्ञान और आनन्द के साथ मन-वाक् अनेक प्रकार के प्राण को उत्पन्न करता हुआ अनेक प्रकार की सृष्टि को उत्पन्न करता है। तथा विज्ञान, एवं आनन्द के साथ मन संसार से मुक्ति का कारण होता है-‘एषु पञ्चसु अव्ययधातुषु उत्तराभ्यां प्राण-वाग्भ्यां सहितं मनः संसाराय हेतुर्भवति। तत्र प्राण-वाग्भ्यां जगदुपादाने विज्ञानानन्दौ सहकारिणौ भवतः। विज्ञानेनान्देन च सहकृतं मनो वाचि भिन्न-विधान् प्राणान् सन्निवेश्य नानविधान् भावान् उत्पादयति। अथ विज्ञानानन्दाभ्यां सहितं मनो निस्ताराय हेतुर्भवति।’,वही, पृ. ३२ चतुर्थ दिवस (17.07.2025) : चौथे दिन का विषय परमेष्ठी तत्त्व विचार था जिसमें प्रथम वक्ता के रूप में प्रो. प्रयाग नारायण मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, इलाहावाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज ने परमेष्ठी के स्वरूप पर अपना विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि एक ईश्वर के शरीर में नाना विध स्वरूप वाला ब्रह्मा स्थित रहता है। उस ब्रह्मा का परमेष्ठी में, सूर्य में, पृथ्वी में एवं चन्द्रमा में स्थित रहने के काराण ही ब्रह्मा नानविध स्वरूप वाला बनता है। ईश्वर के शरीर में ब्रह्मा से प्रारम्भ करके चन्द्रमा तक अनेक शाखा…