राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : रविकराध्याय विमर्श (शृंखला-०६)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० जून, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में रविकराध्याय में वर्णित प्रत्यर्कविधि,परिवेष, इन्द्रायुध, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य, अमोघ विषयों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. निगम पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहारने वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि प्रत्यर्कपरिधि नामक शीर्षक का अर्थ है कि सूर्यकी एक एक परिधि। परिधि का अर्थ सूर्य किरणों का गोलाकार रूप में विस्तार है। सूर्य किरण यदि समान भावमें हो, चिकनापन वाला हो और ऋतुओं के अनुरूप वाली हो, तो वह प्रत्यर्कपरिधि शुभप्रद होती है। वैदूर्य मणिकी आभा वाली प्रत्यर्कपरिधि स्वच्छ और श्वेत हो तो अच्छी वृष्टि होगी एवं कल्याणप्रद होगी। प्रतिसूर्यः समः स्निग्धः स्वर्तुवर्णः प्रशस्यते।वैदूर्याभः सितः स्वच्छः सुभिक्षं क्षेममावहेत् ॥–कादम्बिनी पृ. १५६ का.१४६ परिवेष को स्पष्ट करते हुए कादम्बिनी ग्रन्थ में कहा गया है कि आकाश में सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं। हवा केद्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें प्रतिमूर्छित होते हैं। हवा और किरणों के परस्पर प्रतिघात से एक गोलाकारपिण्ड बनता है, उन्हें परिवेष कहते हैं। परिवेष के आधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। रवेरिन्दोः करा व्योम्नि वायुना प्रतिमूर्छिताः।सूक्ष्मेऽभ्रे मण्डलीभूताः परिवेषाख्यया मताः॥–वही, पृ. १५६ का.१४९ डॉ. नरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय, कैथल, हरियाणा नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि परिवेष के क्रम में ग्रन्थकार ने लिखा है कि सूर्य और चन्द्रमा की किरणों केद्वारा यदि दो छोटे-बड़े कुण्डल जैसा आकार बनता है तो उस स्थान में वृष्टि अच्छी होगी। सूर्य और चन्द्रमा की किरणों से निर्मित कुण्डल यदि पाँच रंगों का हो तो तीन दिनों तक अच्छी वृष्टि होगी, ऐसी परिकल्पना कीजाती है। द्वे द्वे क्षुद्रविशाले चेत् कुण्डले सूर्यचन्द्रयोः।बहुवृष्टिरनेकाहं तदा तत्र भविष्यति ॥द्वे द्वे सूर्यस्य चन्द्रस्य कुण्डले पञ्चवर्णके ।त्र्यहं यावत्तदा तत्र बहुवृष्टिर्भविष्यति ॥ वही, पृ. १५७ का.१६१-१६२ डॉ. विनोद शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर,हिमाचल प्रदेश ने कहा कि इन्द्रायुध दो प्रकार का होता है -धनुष के रूप में और ऐरावत हाथी के रूप में। सूर्यकी किरणों में प्राण स्थित रहता है। यह किरण प्रकाशक है, वही इन्द्र कहलाता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने इन्द्रकी व्युत्पत्ति की है। हवा के बल से सूर्य की किरणें जल के भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। उस जल और हवा केसंमिलित रूप में सात रंगों का विकास होता है। वही इन्द्रधनुष कहलाता है। इन्द्रायुधं तु द्विविधं धनुरैरावतं तथा ।इन्द्रः सूर्यकरस्थानः प्राणे योऽयं प्रकाशते॥नीरांतराः करा भानोः पवनेन विघट्टिताः।सप्तवर्णा धनुःसंस्था दृष्टा इन्द्रधनुर्मतम्॥–वही, पृ. १५८ का.१७४-१७५ डॉ. दिवेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेवक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ का यह विषय सूर्य की किरणों परआधारित है। सूर्य से निकलने वाली रेखा का नाम अमोघ है। यदि उस रेखा का अगला भाग खण्डित है तो उसीका नाम दण्ड है। यदि उस रेखा की संख्या तीन है तो वह त्रिशूल नाम से जाना जाता है। दूसरी दिशा से निकलीहुई दो अमोघ रेखाओं से मत्स्य का स्वरूप बनता है। इस प्रकार इन चारों तत्त्वों के आधार पर वृष्टि की कल्पनाकी जाती है। सूर्यात् समुत्थिता रेखाऽमोघ इत्यभिधीयते ।सोऽग्रेण खण्डिता दण्डस्तिस्रो रेखास्त्रिशूलकम्॥द्वाभ्याममोघ-रेखाभ्यां भिन्नदिग्भ्यां तु मस्तकः।सत्स्वप्येवं विशेषेषु सांकर्येणोच्यते फलम्॥ वही, पृ. १६० का.१८६ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि सूर्य की किरण के आधार पर परिधि का निर्माण होता है। सूर्यबिम्ब है और उसी सूर्य का प्रतिबिम्ब दूसरे स्थान पर होता है। बिम्बात्मक सूर्य की किरणों से परिधि बनती है।यदि यह परिधि सूर्य के दोनों ओर स्थित बिम्ब को स्पर्श करती है तो अच्छी वृष्टि होगी और यदि यही परिधिसूर्य के चारों ओर हो तो अच्छी वृष्टि नहीं होगी। बिम्बान्वितौ तु परिधी रवेरुभयपाश्वर्गौ ।बहुतोयौ निर्जलस्तु सर्वदिक्पर्यवस्थितः॥–वही, पृ. १५६ का.१४८ सूर्य की किरणों से ही कुण्डल जैसा आकार आकाश में बनता है। यदि यह कुण्डल सूर्य के पाँच वर्णों वाला है तोआकाश में घने मेघ लगे रहेंगे और वृष्टि अच्छी होगी। सूर्यस्य कुण्डलं पञ्चवर्णं चेद् बहुविस्तृतम् ।तदा घनघटाटोपो बहुवृष्टिश्च जायते ॥–वही, पृ. १५८ का.१६८ डॉ. राहुल कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Discourse on Vikaradhyaya-Part V

The fifth seminar on Kadambini was organised on May 31, 2025. This was part of the Shri Shankar Shikshayatan’s annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s great work on meteorology, Kadambini.  The focus of the seminar was on the book’s Vaikarikadhyaya under which six subjects were discussed. Karikas from 107 to 145 from Kadambini were discussed. The invited scholars presented their lectures based on the topics covered in these karikas. Prof. Madan Mohan Pathak, Central Sanskrit University, Lucknow, was the keynote speaker. Referring to the term, `khapur`, Prof. Pathak said the term meant a city appearing in the sky. Kha means sky and Pur means city. A city-like mark is formed in the clouds. The Gandharva city appearing in the sky with many colours and shapes like a city and  with flags and festoons is called Khapur. खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् । वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७ अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः । युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ The term ‘abhrataru’ means a tree-like mark appearing in the clouds. Abhra means cloud and taru means tree.The one which has a branch is called Shakhi. शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च । दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ Dr. Subhash Chandra Mishra, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, explained the term, karka`. It means hail. He spoke about several synonyms of the term mentioned in the book–dharankur, radharanku, varshopal, ghanopal, meghopal,meghasthi, matchi, punjika, bijodak, ghankaf and varchar. He pointed out that if there was excessive hail, there was little chance of rain.  धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः। मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥ बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च । भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ Dr. Brajesh Pathak, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, in his presentation pointed out there were seven impediments against good monsoon caused by the rays of the sun . These  are ravikaradhyaya, sandhya, kundal, danda, trishul, matsya and amogha. सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् । मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी । नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ Dr. Naveen Tiwari, Central Sanskrit University, Ranvir Campus, spoke about sandhya as a comprehensive idea in the science of monsoon. If in the evening, a `mountain range` is visible in the sky in the northern direction, it is bound to rain in that area on the third day. When the `mountain range` is visible in the north-west, it rains day and night. When the `mountain range` is visible in the west, it is expected to rain for seven or three days. उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका । तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् । सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, presiding over the seminar, pointed out that agni, vayu, surya and soma are key elements of monsoon.  These four elements enable water to rise to the sky, form into clouds, hold water and then fall as rain. It is no different from the modern scientific concept. The scientists today estimate rainfall on the basis of wind.  अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् । उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ Dr. Rajnish Kumar Pandey, Central Sanskrit University, Jaipur Campus recited the Vedic Manglacharan. The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. The seminar was attended by acharyas, research scholars, students and scholars interested in Sanskrit studies from universities and colleges from several states across the country. 

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राष्ट्रीय संगोष्ठी- कादम्बिनी : विकाराध्याय विमर्श (शृंखला-०५)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मई, शनिवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत वैकारिकाध्याय है। इस वैकारिकाध्याय में मुख्यरूप से खपुरम्, अभ्रतरु,परिघ, निर्घात करका और हिम ये छः विषय आते हैं। खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् ।वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में कादम्बिनी ग्रन्थ से १०७ से १४५ तक की कारिकाएँ पर विमर्श किया गया। इनकारिकाओं में निबद्ध विषयों को आधार बना कर आमन्त्रित विद्वानों ने अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया ।प्रो. मदन मोहन पाठक, वरिष्ठ आचार्य एवं अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊपरिसर ने मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि खपुर का अर्थ आकाश में नगरदिखाई देना है। मेघ में नगर जैसा एक चिह्न बनता है। ख का अर्थ आकाश होता है और पुर का अर्थ नगर होताहै। आकाश में नगर जैसा अनेक रंग और आकृति वाला तथा पताका, ध्वजा और तोरण से युक्त जो गन्धर्व नगरदिखाई देता है. वह खपुर कहलाता है। अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः ।युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ ‘अभ्रतरु’ का अर्थ मेघ में वृक्ष जैसा चिह्न दिखाई देना। अभ्र का अर्थ मेघ और तरु का अर्थ वृक्ष होता है।, अभ्रतरुको शाखी नाम दिया है। जिसकी शाखा होती है वह शाखी कहालाता है। आकाश में वृक्ष के आकार के मेघों केलिए शाखी, खशाखी, खतरु और अग्रतरु आदि शब्दों के प्रयोग होते हैं।शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च ।दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ डॉ. सुभाष चन्द्र मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर, नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि करका का अर्थ ओला होता है। जिसे पत्थर भी कहते हैं। इस करका केअनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख ग्रन्थ में किया गया है। धाराङ्कुर, राधरङ्कु, वर्षोपल, घनोपल, मेघोपल,मेघास्थि, मटची, पुञ्जिका, बीजोदक, घनकफ, वार्चर और करका ये करका के नाम हैं। अधिक ओले गिरने सेवृष्टि नहीं होती है। धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः।मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च ।भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ डॉ. ब्रजेश पाठक, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी परिसर नेकहा कि निमित्ताध्याय के अन्तर्गत विकाराध्याय आता है और उस विकाराध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है।सन्ध्या, कुण्डल, इन्द्रधनुष, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य और अमोघ ये सात विकार सूर्य के किरणों से उत्पन्न होते हैं। सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् ।मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ दिन और रात्रि की सन्धि का नाम सन्ध्या है। दो अथवा तीन नाड़ीमात्र के समय को सन्ध्या कहते हैं। जब तकआकाश में ताराओं के दर्शन होते रहते हैं उतने काल को सन्ध्या कहते हैं।सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी ।नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ डॉ. नवीन तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने वक्ताके रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टिविचार में सन्ध्या एक व्यापक विचार है। सन्ध्या के समयआकाश में उत्तर दिशा में यदि पर्वतपंक्ति दिखाई देता है तो उस क्षेत्र में तीसरे दिन वृष्टि होगी । उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका ।तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ सन्ध्या के समय वायव्य कोण में पर्वतपंक्ति दिखाई देने से रातदिन वर्षा होती है। पश्चिम दिशा में पर्वतपंक्तिदिखाई देने पर सात दिन तक अथवा तीन दिन तक वर्षा होती रहती है।वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् ।सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा। क्योंकि यह विषय समसामयिक है। अग्नि, वायु, सूर्य और सोम ये सभी वृष्टि में कारण हैं। इन चार तत्त्वों केद्वारा ही जल आकाश में जाता है, ठहरता है, और आकाश के स्थान से गिरता हुआ बरसता है। सोम तत्त्वआर्द्रभाव है। यह अग्नि के द्वारा ऊपर की ओर जाता है। सूर्य वृष्टि के स्वामी वायु के द्वारा वर्षा करता है। यहप्रक्रिया सर्वथा वैज्ञानिक है। आज के मौसमवैज्ञानिक भी वायु के आधार पर ही वृष्टि का अनुमान करता है। अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् ।उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ डॉ. रजनीश कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोधअधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल केआचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफलबनाया।

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National Seminar on Kadambini: Discourse on Nimittadhyaya–Part IV

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the fourth National Seminar on Kadambini on April 30,2025 as part of its annual discourse on Pandit Madhusudan Ojha’s noteworthy work on weather science, Kadambini. The discussion was based on the Nimittādhyāya of the text Kādambinī, composed by Pandit Madhusudan Ojha. This chapter discusses subjects like cloud formation (garbha-rūpa), wind (vāta), generation (utpādaka), sustenance (sthāpaka), cloud (megha), lightning (vidyut), thunder (garjita), and rain (vṛṣṭi). The specified portion of the text contains 106 verses (kārikās), and this symposium focused on the topics described therein. Prof. Phanindra Kumar Chaudhary, Professor, Department of Astrology, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi, delivered the keynote lecture. He stated that thunder is the fourth form of the cloud’s womb. The sound heard in the sky during the rainy season has three sources: clouds, lightning, and wind. The author of the text mentions four terms for this: garjita (roaring), stanita (rumbling), meghanirghoṣa (cloud-sound), and rasita (resonance). मेघाद् वज्राच्च वाताच्च शब्दस्त्रेधाऽन्तरिक्षजः।गर्जितं स्तनितं मेघनिर्घोषो रसितं च तत्॥ कादम्बिनी पृ. १३९, का.९३meghād vajrāc ca vātāc ca śabdas tredhā’ntarikṣajaḥ |garjitaṃ stanitaṃ meghanirghoṣo rasitaṃ ca tat || (Kādambinī, p. 139, kā. 93) In Sanskrit, the words vṛṣṭi and varṣa refer to rain. For the absence of rain, the terms avagraha and vagraha are used. For other forms of rain, words like karakā (hail) and himapāta (snowfall) are employed. वृष्टिर्वर्षं तद्विघातेऽवग्रहवग्रहौ समौ ।करका हिमपाताश्च वृष्टेरेवापरा विधा ॥ वही, पृ. १४०, का.१०६vṛṣṭir varṣaṃ tad-vighāte’vagraha-vagrahau samau |karakā himapātāś ca vṛṣṭer evāparā vidhā || (ibid., p. 140, kā. 106) Dr. Balkaram Saraswat, Assistant Professor, Department of Astrology, National Sanskrit University, Tirupati, emphasized the importance of the Kādambinī text. He elaborated on the lightning-related terms used in the text, identifying 29 different names for lightning—many of which are not found collectively even in Amarakosha (a renowned Sanskrit lexicon). Only 10 of these are listed in Amarakosha. विद्युत् क्षणप्रभा मेघप्रभा वीपाऽचिरप्रभा । ह्रादिन्यैरावती चम्पा शम्पा सौदामिनी तडित् ॥ आकालिकी शतावर्ता जलदा जलपालिका । क्षणांशु क्षणिका राधा चटुला चिलमीलिका ॥ सर्जूरचिररोचिश्च चपला चञ्चला चला । शतह्रदाऽशनिर्नीलाञ्जना च तडिदस्थिरा॥ वही, पृ. १३७, का.७२-७४ vidyut kṣhaṇaprabha meghaprabha vīpā’ciraprabha |hrādinī airāvatī campā śampā saudāminī taḍit ||ākālikī śatāvartā jaladā jalapālikā |kṣaṇāṃśu kṣaṇikā rādhā caṭulā cilamīlikā ||sarjūracirarociś ca capalā cañcalā calā |śatahradā’śanir nīlāñjanā ca taḍid asthirā || (ibid., p. 137, kā. 72–74) Dr. Bhupendra Kumar Pandey, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Bhopal Campus, discussed the types of clouds and rainfall in winter. He identified different types of clouds: Puṣkara, Āvarta, Sanvarta, and Droṇa. हिमवृष्टिं तु कुर्वन्ति शीतकाले हि दिग्गजाः। पुष्करावर्तसंवर्तद्रोणाः स्युर्मेघजातयः ॥पुष्करो दुष्करोदः स्यादावर्तो निर्जलो घनः। बहूदकस्तु संवर्तो द्रोणः सस्यप्रपूरकः॥ वही, पृ. १३५, का.४२-४३     himavṛṣṭiṃ tu kurvanti śītakāle hi diggajāḥ |puṣkarāvartasaṃvartadroṇāḥ syur meghajātayaḥ ||puṣkaro duṣkarodaḥ syād āvarto nirjalo ghanaḥ |bahūdakas tu sanvarto droṇaḥ sasyaprapūrakḥ || (ibid., p. 135, kā. 42–43) Dr. Varun Kumar Jha, Assistant Professor, Department of Astrology, Kameshwar Singh Darbhanga Sanskrit University, elaborated on how clouds conceive to produce rain. He explained the five forms of cloud pregnancy: wind, cloud, lightning, thunder, and rain. These also go by the names mahāvāta (great wind) and jhañjāvāta (whirlwind), among others. गर्भरूपाणि वाताभ्रविद्युत्स्तनित-वृष्टयः।एषां भेदा महावाताझञ्झावातादयः पृथक्॥ वही, पृ. १३१, का.४garbharūpāṇi vātābhra-vidyut-stanita-vṛṣṭayaḥ |eṣāṃ bhedā mahāvātā-jhañjāvātādayaḥ pṛthak || (ibid., p. 131, kā. 4) Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, presided over the event. He mentioned that in the previous chapters of the text, rules were laid out for determining cloud conception based on lunar months. Along with Akṣayatṛtīyā, topics like sign analysis through animals (śakuna), sounds (amitra), crows (kāka), discs (bimba), grains (dhānya), clods (loṣṭa), constellations (nakṣatra), cloud pregnancy (garbha), wind (vāyu), and extreme winds (atyugravāta) were discussed. The current Nimittādhyāya chapter focuses on various forms and behaviors of wind. Dr. Sudhakar Kumar Pandey, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, began the program with a melodious Vedic invocation. Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute, conducted the event. Scholars, researchers, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states participated enthusiastically, contributing to the success of the symposium.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी (शृंखला-०३)

श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मार्च, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के मासिकाध्याय के वैशाख मास से प्रारम्भ होकर आश्विन मास तक के छः मासों के आधार पर वृष्टिविषयक विचार किया गया है। निर्धारित ग्रन्थांश में ४३१ कारिकाएँ समाहित हैं। उन्हीं कारिकाओं में निबद्धविषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई । प्रो. परमान्द भारद्वाज, आचार्य, ज्योतिष विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नईदिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि इस कादम्बिनी नामक ग्रन्थ मेंवैशाख मास को मेघनिर्माण की पूर्वकल्पना एवं नियम के लिए अक्षय तृतीय को आधार बनाया गया है। अक्षयतृतीया के आलोक में शकुन परीक्षा, अमत्र परीक्षा, काक परीक्षा, बिम्ब परीक्षा, धान्य परीक्षा, लोष्ठ परीक्षा,नक्षत्र परीक्षा, गर्भ परीक्षा, वायु परीक्षा और उग्रवात परीक्षा समाहित है। बिम्ब परीक्षा के विषय में इस प्रकारका वर्णन है- अक्षयायां तृतीयायां पूरयेद् भाण्डमम्बुना ।रविं विलोकयेन्मध्ये तत्स्वरूपं विमर्शयेत्॥रक्ते सूर्ये विग्रहः स्यान्नीले पीते महारुजः।श्वेते सुभिक्षं विज्ञेयं धूसरो दुःखमूषकाः॥ –कादम्बिनी, पृ.५५, कारिका २२८-२२९ अक्षय तृतीया तिथि को किसी पात्र में जल भर कर उस में सूर्य के प्रतिबिम्ब को देखा जाता है। उस बिम्ब केआधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि लाल रंग का हो तो उसका फल युद्ध है।सूर्य का बिम्ब यदि नीला और पीला हो तो उसका फल रोग है। सूर्य का बिम्ब यदि सफेद रंग का हो तो उसकाफल अच्छी वृष्टि होती है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि धूसर रंग का हो तो उसका फल चूहे आदि से होने वालादुःख है। प्रो.विष्णु कुमार निर्मल, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर ने अपनेसारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि कि इस ग्रन्थ में जेष्ठ माससे संबन्धित अनेक विषयों को समाहित किया गया है। जिससें मासादिरोहिणी, पवनधारणा, प्रवर्षणमिति,मासान्तरोहिणी प्रमुख विषय हैं। पवनधारणा पर ग्रन्थकार पं. ओझाजी ने इस प्रकार वर्णन किया है। चतस्रस्तिथयो वायुधारणा अष्टमीमुखाः।ज्यैष्ठशुक्ले मृदु-स्निग्ध-स्थगिताभ्रोऽनिलः शुभः॥स विद्युतः सपृषतः सपांशूत्करमारुताः।सार्कचन्द्रपरिच्छन्ना धारणाः शुभधारणाः॥ -कादम्बिनी, पृ.६५, कारिका २८३-२८४ ज्येष्ठ शुक्ल की अष्टमी तिथि से एकादशी तिथि तक चार तिथियाँ वायु धारण करती हैं। इनमें मृदु, स्निग्ध औरस्थगित इन तीन प्राकर के वायु का स्वरूप निर्धारित किया गया है। इन तिथियों को बिजलियाँ, जल की बूँदे,धूलि युक्त हवा का चलना चन्द्रमा पर बादल छा जाना ये सब वृष्टि के लिए मेघ धारण का शुभ संकेत है।डॉ. रूपेश कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय,उज्जैन ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि आषाढ मास का विषयवस्तु इस प्रकार हैं-स्वातियोग, आषाढी परीक्षा और रोहिणीयोग । आषाढी परीक्षा के विषय में ग्रन्थकार ने लिखा है- गर्भाः पुष्टिकराः सर्वे सुयोगा विलयं गताः।आषाढ्यां तु विनष्टायां सर्वमेवाशुभं भवेत्॥गर्भनाशकराः सर्वे कुयोगा विलयं गताः।यद्याषाठी शुभा जाता तदा सर्वं शुभं भवेत् ॥ -कादम्बिनी, पृ.८५, कारिका ४१७-४१८ आषाढ शुक्ल पूर्णिमा तिथि के निर्धारित मेघ गर्भ धारण के लक्षण नष्ट हो जाने पर मेघ का गर्भधारण नहीं होपाता है। यदि इस पूर्णिमा तिथि को योग अच्छे हों तो गर्भ धारण के कुयोग भी सुयोग में बदल जाता है।इसीलिए इस आषाढ परीक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। डॉ. ब्रह्मानन्द मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रघुनाथ कीर्ति परिसर,देवप्रयाग ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टि के लिए श्रावण मास का विशेष महत्त्वहै। श्रावण मास के विषय में ग्रन्थकार ने कहा है कि सूर्य की स्थिति से ही वर्षा का योग बनता है। श्रावणे शुक्लपक्षे तु सिंहसंक्रान्तिसम्भवः।समुद्रे पूर्णवृष्टिः स्यादन्यदेशे तु कुत्रचित् ॥कर्कसंक्रमणे वृष्टिरवृष्टिः सिंहसंक्रमे।कर्णपूरे वहेत् कन्या तुले निर्वातवृष्टयः॥ –कादम्बिनी, पृ.१०८, कारिका ५२१-५२२ श्रावण शुक्लपक्ष में यदि सिंह राशि के ऊपर सूर्य का संक्रमण अर्थात् आगमन हो तो समुद्र में अर्थात् प्रान्त देशोंमें पूर्ण वृष्टि होगी परन्तु दूसरे जगहों पर कहीं कहीं वर्षा होगी। प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि वृष्टि के लिए भाद्रपद का विशेषमहत्त्व है। ग्रन्थकार पं. ओझा जी नेभाद्रपद के विषय में लिखते हैं- प्रतिपत् सप्तमी भाद्रे द्वादशी च त्रयोदशी।पूर्णिमा चासु वारुण्यां श्रितैर्मेघैः प्रवर्षणम् ॥भाद्र-शुक्ल-द्वितीयायां यदि चन्द्रो न दृश्यते।तदा तेन भवेद् वर्षे सस्यसंपत्तिरुत्तमा ॥ –कादम्बिनी, पृ.११४, कारिका ५५२-५५३ भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, सप्तमी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा के दिन पश्चिम में मेघ के होने से अच्छी वृष्टिहोती है। भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को चन्द्रमा यदि न दिखे तो वर्ष बहर फसल अच्छी होगी।आश्विन मास के विषय में कहा गया है – नापेक्षते गर्भसिद्धिं चतुर्थी पञ्चमी तिथिः।ग्रहयोगवशादेवाश्विने वर्षति तच्छुभम् ॥चतुर्थ्यामपि पञ्चम्यामाश्विने शीघगर्भता ।पञ्चभिः सप्तभिर्वा स्याद्दिनैरेकार्णवा मही॥-कादम्बिनी, पृ.११८, कारिका ५७९-५८० आश्विनमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी और पञ्चमी तिथि में मेघ के गर्भ निर्धारण की अपेक्षा नहीं है। तात्कालिकग्रहयोग से इन दोनों में जो वृष्टि होती है वह शुभप्रद होता है। आश्विन शुक्ल चतुर्थी पञ्चमी में शीघ्र ही मेघ कागर्भ निर्धारण हो जाता है और पाँच से सात दिनों में ही पृथ्वी पर अच्छी वृष्टि होने लगती है। डॉ. अनयमणि त्रिपाठी, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini–Part II

Brief Report The second seminar of the annual discussions on Pandit Madhsudan Ojha’s Kadambini was organised on February 28,2025. The seminar focused on the Masikadhyaya of the book, a scientific treatise on monsoon. The first seminar was held in January this year.  Prof. Girija Shankar Shastri, Acharya, Department of Astrology, Faculty of Sanskrit Vidya Dharmavijnana, Kashi Hindu University, Varanasi presided over the programme. In his presidential address, he said that in Kadambini, the indications of rainfall during the monsoon season have been discussed from the position of the stars in the month of October-November (kartik month in the Hindu calendar). If there was rain on the second or third day of kartik month, there would be excessive rainfall that year. If there was no rain on either of these two dates, there is a greater possibility of the season experiencing no rain. कार्तिकस्य द्वितीया वा तृतीया वापि वर्षति।भाविवर्षे बहुजलं न चेत्तस्मिन्नवर्षणम्॥ कादम्बिनी पृष्ठ १७, कारिक ५kartikasya dwitiya or tritiya vapi varshatibhavivarshe bahujalam na chettasminnavarshanam.– Kadambini Page 17, karika 5 He said that Pandit Madhusudan Ojha had studied scientific principles given in a wide variety of vedic texts to present the relevant ones in a new manner in Kadambini. He has drawn from texts like Varshaprabodh and Vanmala and presented the summary of principles and conclusions in a simple manner. For instance, writing on the subject of Chaitramas, Ojhaji writes that in the month of  Chaitra, when the Sun is present on the Star Revati  and for thirteen days, wherever the wind blows, wherever clouds form and lightning flashes, there is a greater possibility of good rainfall during the monsoon.  रेवत्या अर्कभोग्येषु त्रयोदशदिनेष्वपि ।यत्राभ्रं पवनो विद्युत् तत्र गर्भः शुभावहः॥ कादम्बिनी पृष्ठ ४३, कारिक १५३revatya arkabhogyeshu trayodashdineshvapiyatrabhram pavano vidyut tatra garbhah shubhavah:॥ Kadambini page 43, Karika 153 Dr. Krishna Kumar Bhargava, Assistant Professor, Department of Astrology and Vastu, Rashtriya Sanskrit University, Tirupati, in his meaningful presentation, highlighted the importance of Kadambini. The description of the womb of a cloud in the context of months and the transformation of that womb of  cloud into the rainy season is a scientific theory related to water. तुषारमलिनौ ताम्रौ चन्द्रार्कौ मार्गतस्त्रये ।आषाढशुक्लसप्तम्यारब्धे वृष्टिर्दिनत्रये ॥ कादम्बिनी पृष्ठ २०, कारिक १९tusharmalinou tamrau chandrau margatastrayeashadhashuklasaptamyarbhe vrishtardinatraye.– Kadambini page 20, Karika 19 If the sky is always cloudy in the month of Phalgun (March-April) and it is not raining, then it should be considered as the womb of a cloud. This conception of a cloud creates the opportunity for good rainfall in the rainy season. फाल्गुने नित्यमभ्रं स्यान्न तु पातयते जलम् ।गर्भदोहद-सम्पत्तिं विद्याद् वृष्टिः शुभा भवेत्॥ कादम्बिनी पृष्ठ ३९, कारिक १२५falgune nityambhram syann tu patayate jalamgarbhadohad-sampattam vidyaad vrishtih shubha bhavet. –Kadambini page 39, Karika 125 Dr. Ashwini Pandey, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Bhopal Campus, highlighted the importance of rain and said that it was an essential element of life. Without water, life is not possible. Water is the reason for food. Pandit Madhusudan Ojha has explained the signs of rain bearing cloud. He has based his statement on the moon during  the month of Paush(January-February). This moon lasts from the constellation named Mool to the constellation named Bharani.  पौषे मूलाद् भरण्यन्तं चन्द्रचारेण गर्भति।आर्द्रादिभे विशाखान्ते सूर्यचारेण वर्षति॥ कादम्बिनी पृष्ठ २४, कारिक ४१paushe moolad bharanyantam chandracharen garbhatiardradibhe vishakhante suryacharen varshati.– Kadambini page 24, Karika 41 Dr. Ashish Kumar Chaudhary, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Bhopal Campus, pointed out that Ojhas has give considerable emphasis on the cause of rainfall. It has been discussed in detail that in which month, due to which cause, there will be good rainfall or no rainfall during the rainy season.  पौषारब्धोडुसंदोहे मूलाद्ये भरणीपरे।विद्युद्गर्जितवाताभ्रैरार्द्रार्कादिषु वृष्टयः॥ कादम्बिनी पृष्ठ ३२, कारिक ८८pausharabdhodusandohe muladhye bharniparevidyudgarjitvatabhrairardrarkadishu vrashtayaha.–Kadambini page 32, Karika 88 Dr. Prakash Ranjan Mishra, Assistant Professor and Coordinator, Veda-Priesthood-Ritual Branch, Central Sanskrit University, Eklavya campus recited the Vedic invocation. Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer of Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute, conducted the programme which was attended by professors, research scholars, scholars interested in Sanskrit studies from universities and colleges from many states across the country.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी -कादम्बिनी : (शृंखला-०२)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा २८ फरवरी, शुक्रवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के मासिकाध्याय के कार्तिक मास से प्रारम्भ होकर चैत्र मास तक के छः मासों के आधार पर वृष्टि विषयकविचार किया गया है। निर्धारित ग्रन्थांश में २१५ कारिकाएँ समाहित हैं। उन्हीं कारिकाओं में निबद्ध विषयों कोआधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई ।प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री, आचार्य, ज्योतिष विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दूविश्वविद्यालय, वाराणसी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि इसकादम्बिनी नामक ग्रन्थ में कार्तिकमास में नक्षत्र की स्थिति से वर्षा ऋतु में वर्षा के लक्षण पर विचार किया गयाहै। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष में द्वितीया तिथि को अथवा तृतीया तिथि को वर्षा होने से उस वर्ष अत्यधिक वर्षाका अनुमान किया जाता है। यदि इन दोनों तिथि को वर्षा न हो तो वर्षा ऋतु में भी वर्षा नहीं होगी। कार्तिकस्य द्वितीया वा तृतीया वापि वर्षति।भाविवर्षे बहुजलं न चेत्तस्मिन्नवर्षणम्॥ कादम्बिनी पृष्ठ १७, कारिक ५ उन्होंने कहा कि पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने पूर्ववर्ती ग्रन्थों का सम्यक् आलोडन कर के उन उन ग्रन्थों केसिद्धान्तों को समझ कर नवनीत के रूप में यह ग्रन्थ लिखा है। वर्षप्रबोध और वनमाला आदि ग्रन्थों में सन्निहितविषयों को सरलता पूर्वक यहाँ प्रस्तुत किया है। पं. ओझा जी ने चैत्रमास के विषय पर लिखते हुए कहा है किचैत्र मास में रेवती नक्षत्र पर सूर्य के विद्यमान रहने पर एवं तेरह दिन तक जिस जिस स्थान पर हवा चलती है,जिस जिस स्थान पर बादल बनता है और बिजलियाँ चमकती हैं। ऐसी सुयोग होने पर मेघ का गर्भ धारणअच्छा समझा जाता है। वर्षा ऋतु में अच्छी वृष्टि होगी। रेवत्या अर्कभोग्येषु त्रयोदशदिनेष्वपि ।यत्राभ्रं पवनो विद्युत् तत्र गर्भः शुभावहः॥ कादम्बिनी पृष्ठ ४३, कारिक १५३ डॉ. कृष्ण कुमार भार्गव, सहायक आचार्य, ज्योतिष एवं वास्तु विभाग, राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपतिने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मासों के सन्दर्भ में मेघ के गर्भ कानिरूपण और मेघ के उस गर्भ का वर्षा ऋतु में परिणत होना, यह एक जलसंबन्धी वैज्ञानिक सिद्धान्त है।अग्रहणमास के आलोक में बोलते हुए उन्होंने कहा कि अग्रहणमास में, पौषमास में और माघमास में बर्फ केगिरने से सूर्य और चन्द्रमा यदि मलिन होते हैं और लालरंग के होते हैं तो आषाढ मास के शुक्लपक्ष के सप्तमीतिथि से तीन दिन तक वर्षा नहीं होगी। तुषारमलिनौ ताम्रौ चन्द्रार्कौ मार्गतस्त्रये ।आषाढशुक्लसप्तम्यारब्धे वृष्टिर्दिनत्रये ॥ कादम्बिनी पृष्ठ २०, कारिक १९ फाल्गुन मास में हमेशा आकाश में बादल लगे रहे और वृष्टि नहीं हो रही हो तो मेघ का गर्भ समझना चाहिए।मेघ के इस गर्भ धारण से वर्षाऋतु में अच्छी वृष्टि का सुयोग बनता है। फाल्गुने नित्यमभ्रं स्यान्न तु पातयते जलम् ।गर्भदोहद-सम्पत्तिं विद्याद् वृष्टिः शुभा भवेत्॥ कादम्बिनी पृष्ठ ३९, कारिक १२५ डॉ. अश्विनी पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, नेवक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टि जीवन के किए आवश्यक तत्त्व है। बिना पानी काजीवन संभव नहीं है। पानी ही अन्न का कारण है। पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने मासिकाध्याय में प्रत्येक मास मेंमेघ के गर्भ निर्धारण के लक्षण का सुन्दर निरूपण किया है। पौषमास में चन्द्रमा को आधार बना कर विचारकिया गया है। यह चन्द्रमा मूल नामक नक्षत्र से लेकर भरणी नामक नक्षत्र तक रहता है। मूल, पूर्वाषाढ,उत्तराषाढ, श्रवणा, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र, रेवती, अश्विनी और भरणी कुल ग्यारह नक्षत्र हैं।सूर्य को आधार बना कर विचार किया गया है। सूर्य आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वफल्गुनी,उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती और विशाखा कुल ग्यारह नक्षत्र हैं। पौष मास में वर्णित नक्षत्रों में मेघ गर्भका धारण होता है और ज्येष्ठ मास में आर्द्रा नक्षत्र में अच्छी वृष्टि का योग बनता है। पौषे मूलाद् भरण्यन्तं चन्द्रचारेण गर्भति।आर्द्रादिभे विशाखान्ते सूर्यचारेण वर्षति॥ कादम्बिनी पृष्ठ २४, कारिक ४१ डॉ. आशीष कुमार चौधरी, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर,ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि इस ग्रन्थ में वृष्टि के निमित्त पर विशेष ध्यान दियागया है। किस मास में किस निमित्त के रहने पर वर्षाकाल में अच्छी वृष्टि होगी अथवा वृष्टि नहीं होगी इस परविस्तार से विचार किया गया है। माघमास में मूल नक्षत्र से भरणी नक्षत्र तक बिजली चमके, बिजली की गर्जनाहो, पूर्व दिशा वाली और उत्तर दिशा वाली हवा चलती हो तो वर्षा ऋतु में आर्द्रा नक्षत्र से विशाखा नक्षत्र तकसूर्य के आने पर अच्छी वृष्टि का योग बनता है। पौषारब्धोडुसंदोहे मूलाद्ये भरणीपरे।विद्युद्गर्जितवाताभ्रैरार्द्रार्कादिषु वृष्टयः॥ कादम्बिनी पृष्ठ ३२, कारिक ८८ डॉ. प्रकाश रञ्जन मिश्र, सहायक आचार्य एवं समन्वयक, वेद-पौरोहित्य-कर्मकाण्ड विद्याशाखा, केन्द्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकरशिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों नेउत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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