National Seminar on Kadambini-Part I

This was the first seminar in the annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s Kadambini which Shri Shankar Shikshayatan had decided to hold this year to highlight his exemplary work on vedic science . Kadambini explores in great detail the ancient Indian weather science envisioned by our seer-scientists of yore for forecasting normal, abnormal and excessive rain-fall as also drought in the rainy season of a year on the basis of close and careful observation of the four kinds of causes. The good and adverse impact of the various kinds of comets has also been discussed in this treatise. It serves as a conclusive proof of Pandit Madhusudan Ojha’s profound scholarship in astronomy, astrology and other related ancient sciences. The seminar was held on January 31, 2025.  Prof. Shyamdev Mishra, Acharya, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Lucknow Campus, pointed out  that the root cause of rain was the sun. The sun plays an important role in creating clouds. In vedic science, this phenomenon is known by two terms–rit and satya. The element which has a centre and body is satya tattva. The element which does not have a centre and body is called the rit tattva. Water is the symbol of the rit element.  Water has no centre or body. Kadambini is a book related to rain and it is about the rit tattva. Pro. Subhash Pandey, Acharya, Faculty of Sanskrit Vidya Theology, Kashi Hindu University, Varanasi said that the book explains the period when monsoon womb is created in the month of Magha (February-March). मृदुः प्रसादको वायुः सोमेशानेन्द्रदिग्भवः।परिवेषः सितः स्निग्धो विपुलः शशिसूर्ययोः॥ –कादम्बिनी पृ. १३, कारिका ४५mridhu prasadako vayuha someshanendradigbhavapariveshaha sitaha snigdho vipulaha shashisuryayoha. –Kadambini p. 13, Karika 45 The nourishing period of cloud’s formation is summer. In summer, if the wind blows in the north, north-east and east, then that wind is gentle and pleasant.The formation of the cloud is strengthened by this wind. If there is sun and moon around this wind, their light is in a wide circle, white and smooth, then the formation of the cloud is very strong. There is a greater possibility of heavy rainfall.  Dr. Rameshwar Dayal Sharma, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, said in his presentation that the gestation period of the cloud is in these four months– from Agrahan month (December-January)  to Falgun month (March-April). The nurturing period of the cloud is from Chaitra month (April-May)  to Ashadha month (July-August). The natal period of the cloud is from Shravan month (August-September)  to Kartik month (November-December). The natal period means the rainy season. Thus, winter is the gestation period, summer is the nurturing period and rainy season is the natal period. सूर्ये दक्षिणगोलस्थे गर्भितं चोत्तरायणे।नक्षत्रमष्टमावृत्तौ गत्वा चन्द्रः प्रवर्षति॥ –कादम्बिनी पृ. ७, कारिका २४suryae dakshingolasthe garbhitam chottarayanenakshatra mashtamaavrittau gatva chandrah pravarshati –Kadambini page 7, Karika 24 The meaning of this karika is that the sun should be in Dakshinayan. But from a microscopic point of view, it should be in Uttarayan. During this period, when the moon comes for the eighth time in the same constellation on which the formation of the cloud is fixed, then good rain occurs. Prof. Santosh Kumar Shukla, Acharya, Sanskrit and Oriental Studies Institute, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, and convener, Shri Shankar Shikshayatan, said that modern climate analysts normally predict the rainfall for one week and at most for a fortnight only. But in our country, the rainfall has been estimated one year in advance. What was our ancient method for this consideration? What experiment was done for that? We will be able to understand all these subjects of interest through the Kadambini seminar. Dr. Madhusudan Sharma, Guest Professor, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, recited the vedic mangalacharan. Dr. Laxmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan, conducted the programme which was attended online by  research scholars, professors and seekers interested in Sanskrit studies from universities and colleges from across the country. Visit our Youtube Channel for recordings of these presentations https://www.youtube.com/@shrishankarshikshayatan2753

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Gitavijnana Bhashya Rahasya Series

Pandit Madhusudan Ojha has collected his commentaries on Bhagavad Gita as Gitavijnana Bhashya. These books are under four classifications – Rahasyakhand, Shirshakhand, Hridyakhand and Acharakhand. Hridyakhand has not been published. Pandit Motilal Shastri has written a series of six books on these subjects in Hindi –Atmadarshan Rahasya, Brahmakarma Rahasya, Karmayoga Rahasya, Jnanayoga Rahasya,Upasana Rahasya and Budhiyoga Rahasya. पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य का प्रणयन किया है। इसमें चार काण्ड हैं- रहस्यकाण्ड, शीर्षकाण्ड, हृदयकाण्ड और आचारकाण्ड। हृदयकाण्ड अभी प्रकाशित नहीं है। रहस्यकाण्ड के पृष्ठ संख्या १७४ पर विषयरहस्य समाहित है। पण्डित मोतीलाल सास्त्री ने इन विषयों को आधार बना कर ६ ग्रन्थों की शृंखला हिन्दी भाषा माध्यम से लिखी है। जो इस प्रकार है- आत्मदर्शनरहस्य, ब्रह्मकर्मरहस्य, कर्मयोगरहस्य,  ज्ञानयोगरहस्य, उपासनारहस्य और बुद्धियोगरहस्य। आत्मदर्शनरहस्य गीता मायावच्छिन्न अव्यय तत्त्व का प्रतिपादन करती है।  (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ३) वैशेषिकदर्शन, सांख्यदर्शन और वेदान्तदर्शन इन तीनों दर्शनों के विचार का विषय आत्मा है, इस दृष्टि से ये तीनों दर्शन एक हैं।  इन तीनों दर्शनों का आत्मप्रतिपादन की शैली भिन्न भिन्न होने से ये तीनों  पृथक् है। (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ९) एक एव इदं दर्शनशास्त्रं त्रेधा विभज्योपदिश्यते। वैशेषिकशास्त्रम् अन्यत्, प्राधानिकं शास्त्रम् अन्यत्, शारीरकशास्त्रम् अन्यत्।  ( गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७६) इस संसार में आत्मा शब्द तीन तत्त्वों के माध्यम से ज्ञात होता है। ये हैं- अव्यय, अक्षर और क्षर।                                                                                                  (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ११) क्षर- संसार के सभी प्रकार के विकारों का उपादानकारण और हमेशा विकृत होने वाला जो एक अव्यक्त पुरुष है वही क्षर कहलाता है। मिट्टी उपादान कारण है और घड़ा आदि विकार है। इसका दूसरा नाम आत्मक्षर है। (वही, पृ.११)                   मृत्तिकावद् विकारोपादानभूतः परिणामी कश्चिदव्यक्तः क्षरपुरुषः- इत्येकः। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७८) अक्षर-कुम्भकार के समान जगत् को बनाने वाला अन्तर्यामी, नियन्ता, निर्विकार, और अपरिणामी जो एक अव्यक्ततत्त्व है वही अक्षर पुरुष कहलाता है।(वही, पृ.१२) कुम्भकारवन्निर्माता सर्वशक्तिघनोऽन्तर्यामी नियन्ता निर्विकारोऽपरिणामी कश्चिदव्यक्तोऽक्षरपुरुषो द्वितीयः।  (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७८) अव्यय- कार्य और कारण से अतीत और असंग जो एक अव्यक्त तत्त्व है वही अव्ययपुरुष कहलाता है।  (वही, पृ.१२)                      कार्यकारणातीतोऽसङ्गः आलम्बनभूतः सर्वाधारो निराधारः कश्चिदव्यक्तोऽव्ययपुरुषस्तृतीयः। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७९) इस लघुकाय ग्रन्थ में ७२ पृष्ठ हैं एवं वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन और वैदिक विज्ञान का विस्तार से प्रस्तुति की गयी है। Read/Download Atmadarshan Rahasya ब्रह्मकर्मरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के रहस्य काण्ड की पृष्ठसंख्या २०६ पर ब्रह्मकर्म की समीक्षा है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने  ब्रह्मकर्मरहस्य नामक लघु ग्रन्थ का प्रणयन किया है। जिसमें ६२ पृष्ठ हैं। इस  ग्रन्थ में पाँच सिद्धान्तों का विश्लेषण किया गया है- त्रिसत्यवाद- जिस सिद्धान्त में तीन तत्त्व सत्य हैं, वह त्रिसत्यवाद है। प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो शब्द हैं। प्रवृत्ति का अर्थ है कर्म में लगना। जैसे नौकरी करना, पैसा कमाना, गाड़ी खरीदना ये सभी कार्य प्रवृत्ति कहलाते हैं। जो इस प्रकार के कर्म में नहीं लगता है वह निवृत्ति मार्ग है।  निवृत्ति कर्म ज्ञानयोग है, प्रवृत्ति कर्म कर्मयोग है और प्रवृत्ति-निवृत्ति ही बुद्धियोग है। इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग और बुद्धियोग ये तीनों  त्रिसत्यवाद है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ४) ब्रह्म के तीन रूप हैं- अव्यय, अक्षर और क्षर। कर्म के तीन रूप हैं- ज्ञान, कर्म और बुद्धि। ये तीन विभाग हो जाते हैं। पुनः ब्रह्म और कर्म में संबन्ध बनाने वाला तत्त्व अभ्व है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ६) इस ग्रन्थ में त्रिसत्यवाद का वर्णन पृष्ठ संख्या १ से ११ तक किया गया है। पं ओझा जी ने लिखा है कि कतिपय विद्वान् के अनुसार ब्रह्म, कर्म और अभ्व ये तीन तत्त्व हैं, ब्रह्म ज्ञान है, कर्म क्रिया है, जो दिखाई देता है, किन्तु तर्क से सिद्ध नहीं होता, वह अभ्व है। ये नाम-रूप ही अभ्व हैं, यह मत है। ब्रह्म, कर्म, अभ्वमिति त्रीणि तत्त्वानि। ब्रह्म ज्ञानम्, कर्म क्रिया, अथ यद् दृश्यते, किन्तु नोपपद्यते तदभ्वम्, नामरूपे हीमे अभ्वमित्येकं मतं भवति। (गीताविज्ञानभाष्य,  रहस्यकाण्ड, पृ २०७) द्विसत्यवाद- ब्रह्म और कर्म ये दो ही तत्त्व इस में माने जाते हैं। तीसरा अभ्व की आवश्यकता नहीं है। कर्म में ही अभ्व का समाहित है। मायामय कर्म दोनों एक ही वस्तु है।  (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ११) कर्म का अर्थ क्रिया है। क्रिया की तीन अवस्था होती है। प्रवृत्ति, निवृत्ति और स्तम्भ। घर में प्रवेश करना प्रवृत्ति है और घर से बाहर निकलना निवृत्ति है। इन दोनों क्रियाओं का योग स्तम्भन कहलाता है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ११) इस ग्रन्थ में ब्रह्म और कर्म का वर्णन पृष्ठ संख्या ११ से १३ तक हुआ है। पं. ओझा जी लिखते हैं कि ब्रह्म और कर्म ये दो तत्त्व हैं, अभ्व नामक कोई तीसरा तत्त्व नहीं है। मायामय अभ्व का कर्म में अन्तर्भाव हो जाता है।          ब्रह्मकर्मणी द्वे एव तत्त्वे नाभ्वम्, मायामयस्यैतस्याभ्वस्य कर्मण्येवान्तर्भावात्। (गीताविज्ञानभाष्य,  रहस्यकाण्ड, पृ २०७) असद्वाद- इस सिद्धान्त के अनुसार कर्म ही प्रधान है। ब्रह्म तत्त्व की आवश्यकता नहीं है। कर्म को बल कहा गया है। बल ही श्रम अर्थात् परिश्रम का आधार है। श्रम को स्वीकार करने वाले को श्रमणक कहा गया है। ‘कर्मैवेदं सर्वम्’ है। संपूर्ण जगत् का मूल असत् तत्त्व कर्म ही है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. १३-१४) इस ग्रन्थ में असद्वाद का वर्णन पृष्ठ संख्या १३ से २३ तक है।          पं. ओझा जी लिखते हैं कि इन ब्रह्म और कर्म में केवल कर्म ही एक तत्त्व है, इसको श्रमण लोग मान्ते हैं। यह संपूर्ण जगत् कर्म के रूप में ही दिखता है। ब्रह्म नामक कोई अतिरिक्त पदार्थ नहीं है। अथैतयोरपि ब्रह्मकर्मणोः कर्मैव तत्त्वमिति श्रमणा आतिष्ठन्ते। तथा हि कर्मैवेदं सर्वं पश्यामि। न ब्रह्म नामातिरिच्यते कश्चिदर्थः।(गीताविज्ञानभाष्य,  रहस्यकाण्ड, पृ २०७) सदसद्वाद- जो प्रतिक्षण बदलता है वह कर्म है। जो कभी नहीं बदलता है, वह ब्रह्म है। इस जगत् में इन दोनों भावों का साम्राज्य है। इस आधार पर इन दोनों तत्त्वों को स्वीकार करना  आवश्यक है। ये दोनों तत्त्व सत् और असत् नाम से भी जाने जाते हैं। इन दोनों का संबन्ध नित्य है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ३०)                               असन्नेव स भवति असद्ब्रह्मेति वेद चेत् ।                         अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद  सन्तमेनं ततो विदुः॥ तैत्तिरीयोपनिषद् २..६.१सद्वाद-  ज्ञान का ही नाम ब्रह्म है। कर्म की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है, ब्रह्म में ही कर्म आश्रित रहता है और ब्रह्म में ही कर्म का प्रलय भी होता अहि। इस दृष्टि से ब्रह्म ही सत् है।   (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ६१)   Read/Download Brahmakarma Rahasya कर्मयोगरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा के गीताविज्ञानभाष्य- रहस्यकाण्ड में पृष्ठ संख्या२२० पर कर्मयोगसमीक्षा है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने इसी को आधार बना कर  १४२ पृष्ठ वाली कर्मयोगरहस्य नामक किताब लिखी है। रहस्य ग्रन्थ शृंखला में यह ग्रन्थ तीसरे स्थान…

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Rajarshividya series

There are eight Upanishads and 50 teachings in Rajarshividya. In this series, there are three texts– Rajarshividya First, Second and Third. These three contain three Upanishads and 21 teachings. राजर्षिविद्या शृखंला राजर्षिविद्या में ८ उपनिषद् हैं और ५० उपदेश हैं। राजर्षिविद्या प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय ये तीन ग्रन्थ है। इन तीनों में ३ उपनिषद् और २१ उपदेशों को समाहित किया गया है। राजर्षिविद्या -प्रथम पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीता विज्ञानभाष्य के मूलकाण्ड में गीता के दो भाग में विभाजित किया है। एक का नाम ऐतिहासिक है और दूसरे भाग का नाम वैज्ञानिक है। गीता में ७०० श्लोक हैं। ऐतिहासिक भाग मे ६४ श्लोक और वैज्ञानिक भाग में ६३७ श्लोक हैं।                            गीताशास्त्र-प्रकरणं द्वेधा तावद् विभज्यते।                            ऐतिहासिकमस्त्यन्यदन्यद् वैज्ञानिकं पृथक् ॥                            चतुःषष्टिमिताः श्लोका इतिहास-प्रसङ्गगाः।                            वैज्ञानिकास्तु षट्त्रिंशत्-पर-षट्शत-संख्यकाः॥ —गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ २-३ वैज्ञानिक भाग में छः  विभाग हैं- उपक्रम, राजर्षिविद्या, सिद्धविद्या, राजविद्या, आर्षविद्या और उपसंहार ।                            वैज्ञानिकप्रबन्धस्य मध्ये विद्याचतुष्टयी ।                            उपक्रमोपसंहारौ तस्या आन्तयोः पृथक्॥ —गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३ अब ये जो छः भाग उपक्रम और राजर्षिविद्या आदि हैं। इसके दो भाग हैं- एक भाग में उपनिषद् है और दूसरे भाग में उपदेश है।  संपूर्ण गीता के वैज्ञानिक भाग में २४ उपनिषद् हैं और १६० उपदेश हैं। उपनिषद् २४ का विभाग इस प्रकार है-१+८+२+३+७+३=२४)                                तेषु षट्सु विभागेषु वरोपनिषदः स्थिताः।                                एका-ष्टौ द्वे- च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात् ॥ –गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३                                तत्रोपनिषदां संख्या चतुर्विंशतिरिष्यते। –वही, पृ. ४                            विद्याचतुष्टयी गीता तत्रोपनिषदः स्मृताः।                            एकाऽष्टौ द्वे च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात्। –वही, पृ. २१ उपदेश १६० हैं- उपक्रम में २ उपदेश, राजर्षिविद्या में ५० उपदेश, सिद्धविद्या में १९ उपदेश, राजविद्या में ३२ उपदेश, आर्षविद्या में ४९ उपदेश और उपसंहार में ८ उपदेश ।                            इत्थं गीतोपदेशानां संख्या षष्ट्यधिकं शतम् ।– वही, पृ. ४ उपक्रम में २ उपदेश हैं।                            चातुर्विद्योपक्रमे तूपदेशौ द्वौ प्रतिष्ठितौ। –वही, पृ. ४ राजर्षिविद्या में ५० उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-७+७+७+३+३+५+९+९=५०                            पञ्चाशदुपदेशास्तु सप्त सप्त च सप्त च ।                            त्रयस्त्रयः पञ्च नव नवेत्यष्टासु ते क्रमात्॥– वही, पृ.३ सिद्धविद्या में १९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं- १०+९=१९                            क्षमाद् दश-नवेत्येवं द्वयोस्तत्रोनविंशतिः।– वही, पृ. ३ राजविद्या में ३२ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-११+१५+६=३२                            तिसृषूपनिषत्स्वेकादश पञ्चदशाथ षट् ।– वही, पृ.३ आर्षविद्या में ४९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-९+५+७+४+२०+२+२=४९ अथ सप्तोपनिषदां नव पञ्च च सप्त च । चत्वारो विंशतिर्द्वौ द्वावुपदेशाः प्रकीर्तिताः॥– वही, पृ. ३-४ उपसंहार में ८ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-४+२+२=८                            चातुर्विद्योपसंहारे चतुष्कं च द्विकं द्विकम्। –वही, पृ.४ जो व्यक्ति राजा और ऋषि दोनों हो वह राजर्षि कहलाता है। राजा जनक को राजर्षि कहा जाता है। राजर्षि शब्द का प्रयोग गीता में हुआ है-                             एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। –गीता ४.२ किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।–गीता ९.३३ राजर्षिविद्या नामक ग्रन्थ प्रथम भाग में एक उपनिषद् है।  जिसका नाम है-ज्ञानयोगिनोऽनुशो कानौचित्य । जो ज्ञानयोगी है उसको  शोक नहीं करना चाहिए। ज्ञानयोगी के लिए शोका का अनौचित्य है।        पहला उपदेश इस क नाम देहभृत्यव्ययात्मनि जन्ममरणद्वन्द्वाभावः है। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में जन्म मृत्यु लक्षण द्वन्द्व का सर्वथा अभाव है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ११ वें, १२वें और १३ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। दूसरा उपदेश इस क नाम अस्ति हि ‘देहभृत्यव्ययात्मनि सुखदुःखद्वन्द्वस्य संयोगजत्वेनागमापायित्वम्, तस्मात् समदुःखसुखाभाविनां भूतात्मनाम् अव्ययात्म-साधर्म्य-लाभाद् अमृतत्व-संपत्तिः’। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में संयोग से उत्पन्न होने वाले सुखदुःखादि द्वन्द्व आने जाने वाले, अत एव अनित्य हैं। यदि सुखदुःखों का अनुभव करने वाले भूतात्मा के साथ अव्ययात्मा (परमात्मा) का योग कर दिया जाता है तो भूतात्मा अमृतभाव को प्राप्त करता हुआ निर्द्वन्द्व बन कर द्वन्द्वमूलक सुखदुःखादि से विमुक्त हो जाता है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १४ वें और १५वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में ८५ पृष्ठ हैं। ७ उपदेश होने के कारण इसे सप्तोपदेशी कहा गया है। तीसरा उपदेश (क) इस क नाम अस्ति हि देहभृत्यव्ययात्मनि सदसद्द्वन्द्वे असतः शरीरादेः कार्यस्य सत्त्वम्। सतस्तु कारणस्यात्मनोऽसत्त्वमनुपपन्नमिति विज्ञानसिद्धान्तः। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में प्रतिष्ठित  सदसद् द्वन्द्व  में असत् शरीर कभी सत् नहीं बन सकता है, सत् आत्मा कभी असत् नहीं बन सकता –यह निश्चित सिद्धान्त है। अर्थात् सल्लक्षण आत्मा का कभी अभाव नहीं होता एवं  असल्लक्षण  शरीर की कभी सत्ता न्हीं होती। वैज्ञानिकों ने पूर्ण परीक्षा के अनन्तर सदसद् द्वन्द्व के संबन्ध में अपना उक्त सिद्धान्त प्रकट किया है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १६ वां श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।  (ख) इस क नाम तस्माद् अस्य विकुर्वाण-विनश्वर-शरीर-योगिनोऽप्यत्मनो निर्विकारत्वाद् अविनाशित्वाच्चानुशोकानौचित्यम्। सत् आत्मा का कभी विनाश नहीं हो सकता एवं असत् शरीर कभी नित्य नहीं हो सकता, इसलिए सर्वथा परिवर्तनशील, अत एव विनश्वर सरीर के साथ नित्य युक्त रहने वाले आत्मा के सर्वथा निर्विकार एवं अविनाशी रहने से तुझे अनुशोक नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा और शरीर यद्यपि नित्यसंबद्ध हैं। तथापि आत्मा कभी नष्ट नहीं होता, शरीर कभी रहता नहीं है, इसलिए शरीर के नाश के लिए अनिशोक करना व्यर्थ है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १७ वें, १८वें और १९ वें श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है। चौथा उपदेश (क) इस क नाम अपि चौतस्य विनश्वर-शरेर-योगिनोऽप्यव्ययस्य जन्म-मृत्यु-द्वन्द्व-रहितत्वेन हननासम्भवाद् अनुशोकानौचित्यम् है। सर्वथा विनाशशाली सरीर से युक्त पुरुष जन्म मृत्यु रूप सदसद् द्वन्द्व से सर्वथा रहित हैं। ऐसी अवस्था में जन्ममृत्युरहित अव्यय का नास सर्वथा असंभव है। जब अव्ययात्मा का कभी नाश संभव नहीं है तो फिर नाशजनित तेरा अनुशोक सर्वथा अनुचित है। तुझे आत्मनित्यता को समाने रखते हुए अनुशोक का परित्याग कर देना चाहिए। इस में गीता के दूसरे अध्याय के २० वें और ११वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। (ख) इस क नाम अपि चैतस्मिन्नव्यये महतोऽक्षरात्मनो मूर्ति-योनित्व-स्वाभाव्याच्छरीर-विधरण-परित्याग-लक्षणयोर्जन्म-मरणयोः पौनःपुनिकत्वनियमाद् अनुशोकानौचित्यम् है। व्यापक अव्यय- पुरुष पराप्रकृति नाम से प्रसिद्ध अक्षरब्रह्म एवं अपरा प्रकृति नाम से प्रसिद्ध क्षरनामक महद्ब्रह्म के साथ नित्य युक्त रहता है । अक्षरानुगृहीत महद्ब्रह्म ही मूर्ति (शरीर) भाव की योनि है । इसके इस स्वभावधर्म से नवीन नवीन शरीर उत्पन्न होता रहता है, पुराने शरीर नष्ट होते रहते हैं। इस क्रम से अव्यय के साथ नश्वर शरीर का योगरूप जन्म भाव, वियोगरूप मृत्यु- भाव धारावाहिक रूप से बार बार चक्रवत् परिवर्तित होता ही रहता है। इन आगन्तुक, उत्पन्न विनाश- शाली द्वन्द्वों से न अव्यय की हानि होती, न ह्रास होता । फलतः अव्ययानुगामी के लिए…

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Krishnarahasya series

Eight commentaries were written by Pandit Motilal Shastri based on Pandit Madhusudan Ojha’s Gitavijnana Bhashya in Sanskrit. The commentary has three parts – Rahasya Khanda, Mool Khanda, and Acharya Khanda. Ojha ji has described various forms of Shri Krishna in Acharya khanda.The ultimate principle in Vedic literature is truth and this has been revealed in Manushottam Krishnarahasya. Pandit Motilal Shastri has presented the Krishnarahasya series in the form of small books on the basis of Ojha ji’s Sanskrit commentary. These are eight respectively- Manushottamkrishnarahasya, Satyakrishnarahasya, Pratishtakrishnarahasya,Jyotikrishnarahasya,Ishwarkrishnarahasya, Paramesththikrishnarahasya,Chakshushkrishnarahasya and Vaihayakrishnarahasya. कृष्णरहस्य शृंखला पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने  संस्कृत में गीताविज्ञानभाष्य लिखा है। विज्ञानभाष्य के तीन भाग हैं- रहस्यकाण्ड, मूलकाण्ड, और आचार्यकाण्ड। आचार्यकाण्ड में श्रीकृष्ण के विविध स्वरूपों का वर्णन ओझा जी ने  किया है।  वैदिक साहित्य में परम तत्त्व सत्य है।  उस सत्य तत्त्व का अवतरण क्रमशः मानुषोत्तम कृष्ण में हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्यों में सबसे उत्तम हैं।  पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ओझा जी के संस्कृत भाष्य के आधार पर कृष्णरहस्य शृंखला को लघुग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। ये क्रमशः आठ हैं- मानुषोत्तमकृष्णरहस्य सत्यकृष्णरहस्य प्रतिष्ठाकृष्णरहस्य ज्योतिकृष्णरहस्य ईश्वरकृष्णरहस्य परमेष्ठीकृष्णरहस्य चाक्षुषकृष्णरहस्य वैहायसकृष्णरहस्य Manushottamkrishnarahasya Pandit Madhusudan Ojha has described the mystery of Manushottam Krishna in the Acharya khanda of Gitavijnanabhashya. This is the first book in the Krishnarahasya series written by his disciple, Pandit Motilal Shastri. Just as the word Purushottam is formed, similarly the word Manushottam is formed. Bhagwan Sri Krishna is Manushottam (supreme human being). Pandit Ojha ji has determined on the basis of the quotations from Gita that the word used by Bhagwan Krishna for himself in Gita has been used to describe Sri Krishna. मानुषोत्तमकृष्णरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड में मानुषोत्तमकृष्णरहस्य का वर्णन है। पण्डितमोतीलाल शास्त्री ने कृष्णरहस्य शृंखला में यह पहला है। जिस प्रकार पुरुषोत्तम शब्द बनता है उसी प्रकारमानुषोत्तम शब्द है। भगवान् श्रीकृष्ण मानुषोत्तम हैं। पण्डित ओझा जी ने गीता के उद्धरणों के आधार पर यहनिश्चित किया है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने लिए जो शब्द गीता में प्रयोग किया है उसी को आधार बना करश्रीकृष्ण का निरूपण किया गया है।मानुष अवतार कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- ग्रन्थकार ने १२ उद्धरण यहाँ संकलित किया है।ये मे मत मिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। गीता ३.३१कर्तव्यानीति मे पार्थ! निश्चितं मतमुत्तमम्। गीता १८.६ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.१)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मैं’ शब्द है उसका अर्थ मेरा है। यह मेरा शब्द मनुष्य के अर्थ में है।ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- अभुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। गीता ४.७ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्ततथैव भजाम्यम्। गीता ४.११ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.२)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वरकृष्ण के अर्थ में है।अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। गीता ३.३०न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ गीता ४.१४ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मयि’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्ययकृष्ण के अर्थ में है।मानुष और ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- मम देहे गुडाकेश ! यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि । गीता ११.७न च मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्। गीता. ११.८ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मम’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष ईश्वर कृष्ण के अर्थ में है।मानुष और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- न त्वेवाहं जातु नाम न त्वं नेमे जनाधिपाः। गीता २.१२अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते। गीता ३.२७ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष अव्यय कृष्ण के अर्थ में है। ईश्वर और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। गीता २.६१सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। गीता ५.२९ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मत्’ और ‘माम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वर अव्यय कृष्ण के अर्थ मेंहै।अव्यय, ईश्वर और मानुष कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। गीता ३.२२उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। गीता ३.२४ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मे’ और ‘अहम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्यय ईश्वर कृष्ण के अर्थ मेंहै।इस प्रकार इस ग्रन्थ में कृष्ण के अनेक स्वरूपों को उद्घाटित किया गया है। Read/Download Satyakrishnarahasya Satyakrishnarahasya is the second part in Acharya khanda of Gitavijnanabhashya written by Pandit Madhusudan Ojha. The true substance in the world is Krishna. Every living being in the world has a kind of destiny. Water always goes downwards. Fire always moves upwards. Air always moves diagonally. This is called destiny. This is the form of truth. The substance which never changes is called truth. This principle of destiny has been going on for millions of years. It is the same even today. Destiny is the truth and that is also Krishna. The thing which is not bound in the past, future and present is called truth. This thing is true, it never changes, this is the sign of truth.  Brahma is everything, this is the meaning of Shruti. The whole universe has originated from this one Brahman. This whole world has originated from that one Brahman. Various thoughts have originated from that one. Brahman is the truth. The universe is the second thought of truth. Creation and dissolution – these two thoughts exist. In Vedic definition, these two are called Sanchara-Pratisanchara. The true Brahman itself transforms into the form of creation. The world is created from the order of Sanchara in Brahman.  सत्यकृष्णरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के अन्तर्गत सत्यकृष्णरहस्य दूसरे स्थान पर है। संसार में जो सत्य पदार्थ है वही कृष्ण है। संसार के प्राणिमात्र में  एक प्रकार की नियति होती है। पानी सदा नीचे की ओर जाता है ।अग्नि की गति सदा ऊपर की ओर ही होती है। वायु सदा तिरझा ही चलता है। इसी को नियति कहते हैं। यही सत्य का स्वरूप है। जो पदार्थ कभी नहीं बदलता उसी का नाम सत्य है। नियति का यह सिद्धान्त लाखों वर्ष पहले से चलता हुआ आ रहा है। आज भी वही है। नियति ही सत्य है वही कृष्ण भी है। (सत्यकृष्ण रहस्य पृ. १)                                                             जिस वस्तु का भूत, भविष्यत्,…

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