Rajarshividya series
There are eight Upanishads and 50 teachings in Rajarshividya. In this series, there are three texts– Rajarshividya First, Second and Third. These three contain three Upanishads and 21 teachings. राजर्षिविद्या शृखंला राजर्षिविद्या में ८ उपनिषद् हैं और ५० उपदेश हैं। राजर्षिविद्या प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय ये तीन ग्रन्थ है। इन तीनों में ३ उपनिषद् और २१ उपदेशों को समाहित किया गया है। राजर्षिविद्या -प्रथम पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीता विज्ञानभाष्य के मूलकाण्ड में गीता के दो भाग में विभाजित किया है। एक का नाम ऐतिहासिक है और दूसरे भाग का नाम वैज्ञानिक है। गीता में ७०० श्लोक हैं। ऐतिहासिक भाग मे ६४ श्लोक और वैज्ञानिक भाग में ६३७ श्लोक हैं। गीताशास्त्र-प्रकरणं द्वेधा तावद् विभज्यते। ऐतिहासिकमस्त्यन्यदन्यद् वैज्ञानिकं पृथक् ॥ चतुःषष्टिमिताः श्लोका इतिहास-प्रसङ्गगाः। वैज्ञानिकास्तु षट्त्रिंशत्-पर-षट्शत-संख्यकाः॥ —गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ २-३ वैज्ञानिक भाग में छः विभाग हैं- उपक्रम, राजर्षिविद्या, सिद्धविद्या, राजविद्या, आर्षविद्या और उपसंहार । वैज्ञानिकप्रबन्धस्य मध्ये विद्याचतुष्टयी । उपक्रमोपसंहारौ तस्या आन्तयोः पृथक्॥ —गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३ अब ये जो छः भाग उपक्रम और राजर्षिविद्या आदि हैं। इसके दो भाग हैं- एक भाग में उपनिषद् है और दूसरे भाग में उपदेश है। संपूर्ण गीता के वैज्ञानिक भाग में २४ उपनिषद् हैं और १६० उपदेश हैं। उपनिषद् २४ का विभाग इस प्रकार है-१+८+२+३+७+३=२४) तेषु षट्सु विभागेषु वरोपनिषदः स्थिताः। एका-ष्टौ द्वे- च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात् ॥ –गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३ तत्रोपनिषदां संख्या चतुर्विंशतिरिष्यते। –वही, पृ. ४ विद्याचतुष्टयी गीता तत्रोपनिषदः स्मृताः। एकाऽष्टौ द्वे च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात्। –वही, पृ. २१ उपदेश १६० हैं- उपक्रम में २ उपदेश, राजर्षिविद्या में ५० उपदेश, सिद्धविद्या में १९ उपदेश, राजविद्या में ३२ उपदेश, आर्षविद्या में ४९ उपदेश और उपसंहार में ८ उपदेश । इत्थं गीतोपदेशानां संख्या षष्ट्यधिकं शतम् ।– वही, पृ. ४ उपक्रम में २ उपदेश हैं। चातुर्विद्योपक्रमे तूपदेशौ द्वौ प्रतिष्ठितौ। –वही, पृ. ४ राजर्षिविद्या में ५० उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-७+७+७+३+३+५+९+९=५० पञ्चाशदुपदेशास्तु सप्त सप्त च सप्त च । त्रयस्त्रयः पञ्च नव नवेत्यष्टासु ते क्रमात्॥– वही, पृ.३ सिद्धविद्या में १९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं- १०+९=१९ क्षमाद् दश-नवेत्येवं द्वयोस्तत्रोनविंशतिः।– वही, पृ. ३ राजविद्या में ३२ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-११+१५+६=३२ तिसृषूपनिषत्स्वेकादश पञ्चदशाथ षट् ।– वही, पृ.३ आर्षविद्या में ४९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-९+५+७+४+२०+२+२=४९ अथ सप्तोपनिषदां नव पञ्च च सप्त च । चत्वारो विंशतिर्द्वौ द्वावुपदेशाः प्रकीर्तिताः॥– वही, पृ. ३-४ उपसंहार में ८ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-४+२+२=८ चातुर्विद्योपसंहारे चतुष्कं च द्विकं द्विकम्। –वही, पृ.४ जो व्यक्ति राजा और ऋषि दोनों हो वह राजर्षि कहलाता है। राजा जनक को राजर्षि कहा जाता है। राजर्षि शब्द का प्रयोग गीता में हुआ है- एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। –गीता ४.२ किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।–गीता ९.३३ राजर्षिविद्या नामक ग्रन्थ प्रथम भाग में एक उपनिषद् है। जिसका नाम है-ज्ञानयोगिनोऽनुशो कानौचित्य । जो ज्ञानयोगी है उसको शोक नहीं करना चाहिए। ज्ञानयोगी के लिए शोका का अनौचित्य है। पहला उपदेश इस क नाम देहभृत्यव्ययात्मनि जन्ममरणद्वन्द्वाभावः है। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में जन्म मृत्यु लक्षण द्वन्द्व का सर्वथा अभाव है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ११ वें, १२वें और १३ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। दूसरा उपदेश इस क नाम अस्ति हि ‘देहभृत्यव्ययात्मनि सुखदुःखद्वन्द्वस्य संयोगजत्वेनागमापायित्वम्, तस्मात् समदुःखसुखाभाविनां भूतात्मनाम् अव्ययात्म-साधर्म्य-लाभाद् अमृतत्व-संपत्तिः’। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में संयोग से उत्पन्न होने वाले सुखदुःखादि द्वन्द्व आने जाने वाले, अत एव अनित्य हैं। यदि सुखदुःखों का अनुभव करने वाले भूतात्मा के साथ अव्ययात्मा (परमात्मा) का योग कर दिया जाता है तो भूतात्मा अमृतभाव को प्राप्त करता हुआ निर्द्वन्द्व बन कर द्वन्द्वमूलक सुखदुःखादि से विमुक्त हो जाता है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १४ वें और १५वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में ८५ पृष्ठ हैं। ७ उपदेश होने के कारण इसे सप्तोपदेशी कहा गया है। तीसरा उपदेश (क) इस क नाम अस्ति हि देहभृत्यव्ययात्मनि सदसद्द्वन्द्वे असतः शरीरादेः कार्यस्य सत्त्वम्। सतस्तु कारणस्यात्मनोऽसत्त्वमनुपपन्नमिति विज्ञानसिद्धान्तः। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में प्रतिष्ठित सदसद् द्वन्द्व में असत् शरीर कभी सत् नहीं बन सकता है, सत् आत्मा कभी असत् नहीं बन सकता –यह निश्चित सिद्धान्त है। अर्थात् सल्लक्षण आत्मा का कभी अभाव नहीं होता एवं असल्लक्षण शरीर की कभी सत्ता न्हीं होती। वैज्ञानिकों ने पूर्ण परीक्षा के अनन्तर सदसद् द्वन्द्व के संबन्ध में अपना उक्त सिद्धान्त प्रकट किया है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १६ वां श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। (ख) इस क नाम तस्माद् अस्य विकुर्वाण-विनश्वर-शरीर-योगिनोऽप्यत्मनो निर्विकारत्वाद् अविनाशित्वाच्चानुशोकानौचित्यम्। सत् आत्मा का कभी विनाश नहीं हो सकता एवं असत् शरीर कभी नित्य नहीं हो सकता, इसलिए सर्वथा परिवर्तनशील, अत एव विनश्वर सरीर के साथ नित्य युक्त रहने वाले आत्मा के सर्वथा निर्विकार एवं अविनाशी रहने से तुझे अनुशोक नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा और शरीर यद्यपि नित्यसंबद्ध हैं। तथापि आत्मा कभी नष्ट नहीं होता, शरीर कभी रहता नहीं है, इसलिए शरीर के नाश के लिए अनिशोक करना व्यर्थ है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १७ वें, १८वें और १९ वें श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है। चौथा उपदेश (क) इस क नाम अपि चौतस्य विनश्वर-शरेर-योगिनोऽप्यव्ययस्य जन्म-मृत्यु-द्वन्द्व-रहितत्वेन हननासम्भवाद् अनुशोकानौचित्यम् है। सर्वथा विनाशशाली सरीर से युक्त पुरुष जन्म मृत्यु रूप सदसद् द्वन्द्व से सर्वथा रहित हैं। ऐसी अवस्था में जन्ममृत्युरहित अव्यय का नास सर्वथा असंभव है। जब अव्ययात्मा का कभी नाश संभव नहीं है तो फिर नाशजनित तेरा अनुशोक सर्वथा अनुचित है। तुझे आत्मनित्यता को समाने रखते हुए अनुशोक का परित्याग कर देना चाहिए। इस में गीता के दूसरे अध्याय के २० वें और ११वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। (ख) इस क नाम अपि चैतस्मिन्नव्यये महतोऽक्षरात्मनो मूर्ति-योनित्व-स्वाभाव्याच्छरीर-विधरण-परित्याग-लक्षणयोर्जन्म-मरणयोः पौनःपुनिकत्वनियमाद् अनुशोकानौचित्यम् है। व्यापक अव्यय- पुरुष पराप्रकृति नाम से प्रसिद्ध अक्षरब्रह्म एवं अपरा प्रकृति नाम से प्रसिद्ध क्षरनामक महद्ब्रह्म के साथ नित्य युक्त रहता है । अक्षरानुगृहीत महद्ब्रह्म ही मूर्ति (शरीर) भाव की योनि है । इसके इस स्वभावधर्म से नवीन नवीन शरीर उत्पन्न होता रहता है, पुराने शरीर नष्ट होते रहते हैं। इस क्रम से अव्यय के साथ नश्वर शरीर का योगरूप जन्म भाव, वियोगरूप मृत्यु- भाव धारावाहिक रूप से बार बार चक्रवत् परिवर्तित होता ही रहता है। इन आगन्तुक, उत्पन्न विनाश- शाली द्वन्द्वों से न अव्यय की हानि होती, न ह्रास होता । फलतः अव्ययानुगामी के लिए…