प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० सितम्बर, मंगलवार २०२५ को सायंकाल
५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत
कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के प्रकीर्णाधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित
की गई थी।
डॉ. अभिषेक गौतम, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी
परिसर ने अपने वक्तव्य में कहा कि चन्द्रबिम्ब में दिखाई देने वाला चिह्न काक होता है। वह काक आकृति में
काला होता है, देखने में वह भयङ्कर होता है, वह त्रिकोण वाला होता है। गोलाई के बीच में काले रंग का
कीलक मण्डल होता है।
काकः कालाकृतिर्घोरस्त्रिकोणो वापि लक्ष्यते ।
मण्डलं कीलकं मध्ये मण्डलस्यासितो ग्रहः।। कादम्बिनी, पृ. १८०, का. ३१७
विश्वरूप वाला केतु की एक सौ बीस संख्या होती है । ये लाल रंग का, चमकने वाला, बिना चोटी वाला, ज्वाला
वाला तथा आकाश से अग्नि को उगलता हुआ और अग्नि की आभा वाला दिखाई देता है।
विश्वरूपाः शतं विंशं शोणा दीप्ता विचूलिनः ।
उद्गिरन्ति इवाग्निं खादग्निभा ज्वालामालिनः ।। तत्रैव, का. ३१८
श्रीगोविन्द नारायण दीक्षित, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,
वेदव्यास परिसर ने कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ के संपात का विचार विस्तार से किया गया है। चन्द्रमा का मार्ग
ऊँचा नीचा है, इनका आकार भिन्न भिन्न रूपों में बनता रहता है, ज्योतिष विद्या में प्रवीण लोग चन्द्र के साथ
पाँच पातकों को स्वयं जान जाते हैं।
उच्चावचश्चन्द्रमार्गो नित्यमेति विशेषताम् ।
तस्मात् तत्र गताः पाताः पञ्चलक्ष्याः स्वयं बुधैः॥ तत्रैव पृष्ठांकः १७८, का. २९५
कादम्बिनी ग्रन्थ में केतु के परिभाषा के क्रम में आकाश में विखरे हुए तेज वाले स्वप्रकाशमय पिण्ड दिखाई दिया
करता है। इस पिण्ड को ही केतु कहते हैं।
विकीर्णतेजसः केचित् स्वप्रकाशमया दिवि ।
दृश्यन्ते जातुचित् पिण्डापिण्डास्ते केतवो मताः ॥ तत्रैव, का. २९६
डॉ. नवीन पाण्डेय, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र-विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत
विश्वविद्यालय, ने अपने वक्तव्य में कहा कि उपमा के द्वारा केतु का स्वरूप का वर्णन किया गया है। आकाश में
यदि गुलहल, अग्नि, लाख जैसी कान्ति वाले, लाल, चमकदार, विचूली (बिना चोटी के) आकाश से अग्नि उगलते
हुए आग्नेय केतु पच्चीस प्रकार के होते हैं।
बन्धु-जीवाग्निलाक्षाभाः शोणा दीप्ता विचूलिनः।
उद्गिरन्ति इवाग्निं खादाग्नेयाः पञ्चविंशतिः ॥ तत्रैव, पृ. १७९, का. ३०५
रूखे, चोटी वाले, काले रंग के, मृत्यु देने वाले केतु पच्चीस प्रकार के होते हैं। पार्थिव केतु गोल, बिना चोटी वाला
और तैलजल के समान कान्ति वाले बाईस प्रकार के होते हैं।
रूक्षा वक्रशिखाः कृष्णा मृत्युदाः पञ्चविंशतिः ।
भौमा द्वाविंशतिर्वृत्ता विचूलास्तैलतोयभाः ॥ तत्रैव, का. ३०६
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि इस प्रकीर्णाध्याय में छः विकार हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं- राहु,
केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है।
राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।
भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६
इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं।
ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।
तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२
डॉ. प्रकाश रञ्जन मिश्र, सहायक आचार्य, वेद-पौरोहित्य-कर्मकाण्ड-विद्याशाखा विभाग, केन्द्रीय संस्कृत
विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर
शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक
प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने
उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।