पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान-2025
‘परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व : समुद्रयात्रा’ प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी प्रतिवेदन बीसवीं शताब्दी के वैदिकविज्ञान के महान् शास्त्रचिन्तक पण्डित मोतीलाल शास्त्री संस्कृत जगत् में सुविख्यातहैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा में एक सौ से अधिक ग्रन्थों को लिख कर एक अभिनव दृष्टि विद्वानों के सामने रखा है।उनकी व्याख्या शैली सर्वथा नयी है। वैदिकविज्ञान में पारिभाषिक शब्दों का विश्लेषण महत्त्वपूर्ण है। इसकीव्याख्या पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी ने की है। इस वर्ष २८ सितम्बर २०२५, रविवार को श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में यह स्मारक व्याख्यान सुसंपन्न हुआ है। श्रीशंकर शिक्षायतन इस कार्यक्रम को वार्षिक उत्सव के रूप में मनाता है। इस व्याख्यान में‘दशवादरहस्य : वैदिकसृष्टिवाद’ इस ग्रन्थ का विमोचन समागत अतिथियों के द्वारा किया गया। यह ग्रन्थ हिन्दीभाषा में लिखा गया है। यह ग्रन्थ २०२५ में विद्यानिधि प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । दशवादरहस्यग्रन्थ का अन्वय, हिन्दीभाषा में अनुवाद एवं कारिका के ऊपर व्याख्या की गयी है एवं दशवाद सिद्धान्त सेसंबन्धित विद्वानों के आलेख समाहित हैं। इस व्याख्यान में पूर्वकुलपति प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने‘परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व : समुद्रयात्रा’ इस विषय पर अपना सारगर्भित व्याख्यान दिया है। इसविषय का संबन्ध पण्डित मधुसूदन ओझा के ‘प्रत्यन्तप्रस्थान-मीमांसा’ नामक ग्रन्थ के साथ है। १९०२ ई. मेंपण्डित मधुसूदन ओझा राजस्थान के महाराजा माधव सिंह के साथ इंगलैण्ड देश गये थे, वहाँ के महारानी केराज्याभिषेक महोत्सव का समायोजन हुआ था । उस समय समुद्रयात्रा विद्वत्समाज में निषिद्ध था। पण्डित ओझाजी ने वहाँ से लौटकर अपने देश भारत आकर समुद्रयात्रा के विषय की प्रासंगिकता के लिए इस ग्रन्थ की रचनाकी। प्रत्यन्त-प्रस्थान मीमांसा ग्रन्थ के प्रथम अध्याय का नाम सम्रुद्रयात्रा की कलिवर्ज्यता, द्वितीय अध्यायका नाम समुद्रयात्री के श्राद्धवर्ज्यता और तृतीय अध्याय का नाम ब्राह्मणवर्ज्यता है । इस लघुकाय ग्रन्थ में अनेकस्मृति वचनों को उधृत किया गया है। प्रो. त्रिपाठी जी ने कहा कि समुद्रयात्रा ऋग्वैदिककाल में, स्मृतिकाल में, मत्स्यावतार में एवंसंस्कृतसाहित्य में भी इस का प्रचुर सन्दर्भ प्राप्त होता है। प्रो. त्रिपाठी जी ने कहा कि जो कोई व्यक्ति समुद्रय यान से विदेश जाता था। उस गमन से तीन प्रकारके पातक होते थे। समुद्रयात्रा से उत्पन्न महापातक, विदेशयात्रा से महापातक, अन्यदेश वासियों के साथ संपर्कहोने से महापातक । यह व्यवस्था आधुनिक समय में भी प्रासंगिक है। सभी व्यक्ति सभी के साथ नहीं मिलताहै, सभी के साथ मिलकर खाना नहीं खाता है और न सभी के साथ मिलर बातचित करता है। अभी भी समाज मेंव्याहारिक असमानता दिखाई देती है । समुद्रयाने प्रत्यन्तदेशं गतवतैस्त्रैवर्णिकस्यावश्यं त्रेधा महापातक-सम्बन्धः संभाव्यते-समुद्रयात्रानिबन्धनः, प्रत्यन्त-देश-गमन-निबन्धनः, पतित-संसर्ग-निबन्धनश्च।प्रत्यन्तप्रस्थानमीमांसा पृ. ३ कार्यक्रम के प्रारम्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं प्राच्य विद्याध्ययन संस्थान केआचार्य प्रो. सन्तोष कुमार शुक्लः महोदय ने समागत अतिथियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि जिस देशमें जो विहित है उस का पालन उसी देश में होता है। दूसरे देश में उस नियम का पालन नहीं होता है। जिसप्रकार दाक्षिण भारत में माम की बेटी से विवाह होता है, उत्तर भारत में यह नियम नहीं चलता है। वहाँ उसकानिषेध है। उसी प्रकार समुद्रयात्रा विषय में भी सभी नियम सभी स्थानों के लिए मान्य नहीं है। उत्तर भारत केलोगों के लिए समुद्रयात्रा सर्वथा निषिद्ध है । विधान-पारिजाते तु पञ्चधा विप्रतिपत्तिः इति आदिबौधायन-वचन-सिद्धं दाक्षिणात्यानां प्रकृत्यतादृश-विवाहस्य कलियुगेऽप्यादरनीयत्वं महत्याऽभटया प्रपञ्चितम्। तथाहि-इदञ्च यस्मिन् देशे अवगीतं तत्रैव कार्यं नान्यत्र तथाप्ययं मातुल-कन्याविवाहो यद्देशेऽविगीतःतद्देशीयैः एव कार्यः। तदुक्तं नृसिंहचर्यायां बौधायनेन-दक्षिण-देशे अनुपनीतेन भार्यया च सह भोजनम् । प्रत्यन्तप्रस्थानमीमांसा पृ. ४५ गोरखपुर पारिवारिक न्यायलय के प्रधान न्यायाधीशः श्रीमान् राजेश्वर शुक्ल ने मुख्य अतिथि के रूप मेंअपना उद्गार प्रकट किया। उन्होंने कहाँ कि हमलोगों के लिए जो प्राचीन नियम है उस नियम का ज्ञान आवश्यकहै। प्राचीन विषय इस समय हमलोग जान रहे हैं, यही आधुनिकता है। प्राचीन ज्ञान ही परम्परा है। इन दोनोंपरम्परा और आधुनिकता के मेल से हमलोगों का ज्ञान बढ़ेगा । प्रो. भारतेन्दु पाण्डेय महोदयः आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कार्यक्रमकी आध्यक्षता की । उन्होंने कहाँ कि समुद्रायात्रा प्रतिपादक प्रत्यन्तप्रस्थान मीमांसा पुस्तक से विषय काउद्घाटन किया । उन्होंने कहा कि कोई विद्वान् विषयविशेष के अनुरोध से समुद्रयात्रा की कलिवर्ज्यता कीव्यवस्था को उद्घाटित करते हैं। किसी किसी आचार्य ने कलियुग में समुद्रयात्रा की निषिद्धता को सिद्ध करते हैं।(क) कहीं पर सामान्य शास्त्रं को मान कर समुद्रयात्रा का निषेध किया गया है। (ख) कहीं पर रागवशसमुद्रयात्रा का प्रतिषेध किया गया है । (ग) कहीं दोषप्रसङ्ग के आधार पर निषेध हुआ है। (घ) कहीं परसामान्यजन के संपत्तिहीन होने से सामुद्रयात्रा का निषेध किया गया है। अथ अभियुक्तास्तु यावत् कलिवर्ज्य-साधारण्येन विषय-विशेष-व्यवस्थानमभ्यनुजानाना इत्थम्आचक्षते। एतस्मिन् कलिवर्ज्य-प्रकरणे नैकरूपेण सर्वे सर्वत्र निषेधाः प्रवर्तन्ते। क्वचित् तुसामान्यशास्त्रविहिता एवार्था विशेषे निवर्त्यन्तो क्वचिच्च रागप्राप्ताः। क्वचित् पुनर्दृष्ट-दोष-प्रसञ्जकाः।अथैवं क्वचित् शक्तिवैकल्यादिना सामान्यमनुष्यैः कर्तुम् अशक्या एव अर्थानुग्रहेण अभ्यनुज्ञारूपेणनिवर्त्यन्ते। प्रत्यन्तप्रस्थानमीमांसा पृ. २२ व्याख्यान के प्रारम्भ में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्य प्रो. सुन्दर नारायण झाने वैदिक मङ्गलाचरण को एवं प्रो. महानन्द झा ने लौकिक मङ्गलाचरण को प्रस्तुत किया । कार्यक्रम कासञ्चालन जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अतिथि अध्यापक डॉ. मणि शंकरद्विवेदी ने किया । श्रीशंकर शिक्षायतन के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मीकन्त विमल समागात विद्वानों का धन्यवादज्ञापन किया।इस व्याख्यान में दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल, श्री लाल बहादुर शास्त्रीराष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालयके अनेक विद्वानों ने, शिक्षकों ने,शोधच्छात्रों ने तथा संस्कृत में अनुराग रखने वाले लोगों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के कार्यक्रम को सफलबनाने में अपना अप्रतिम योगदान किया।