प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० अगस्त, शनिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई थी।
डॉ. अनिल कुमार, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय सूर्य का संपात है। शनि और सूर्य का संपात हस्त नक्षत्र के आधे व्यतीत होने पर और रेवती नक्षत्र के अन्त होने पर होता है । इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के अठारहवें अंश में संपात की स्थिति बनती है। बृहस्पति और सूर्य का संपात आर्द्रा नक्षत्र के तृतीय भाग और रेवती नक्षत्र के आदि भाग में होता है। इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के दशम अंश में संपात की स्थिति बनती है।
आदित्यार्धं च पूषान्ते संपातः शनि-सूर्ययोः ।
राशेरष्टादशे त्वंशे तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥
आर्द्रातृतीये पूषाद्ये संपातो गुरु-सूर्ययोः।
अंशे तु दशमे राशेस्तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ –कादम्बिनी पृ. १७६, कारिका २७१-२७२
डॉ. चन्दन होता, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने कादम्बिनी ग्रन्थ के उल्काधिकरण पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आकाश में ग्रहगण जिस रास्ते से जाते हुए दिखाई देते हैं, वह रास्ता नाग नाम से जाना जाता है। उस रास्ते में जहाँ ग्रह रहता है, वह उस नाग का मुख कहलाता है। आकाश में जितने ग्रह हैं उतने नाग भी हैं। द्युलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्षलोक में अनन्त नाग हैं। किन्तु उन नागों में आठ नागों की प्रधानता है।
येन येन यथा खेटाः गच्छन्तः प्रतिभान्ति ते ।
स पन्था नाग इत्युक्तो यत्र खेटस्तदाननम्॥
खेचरा दिति यावन्तो नागास्तावन्त एव खे ।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च नागानन्त्येति तेऽष्टधा ॥ तत्रैव पृ. १७४, कारिका २५७-२५८
डॉ. मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिर्विज्ञान विभाग, महर्षि पाणिनि सस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय चन्द्रमा का संपात है। सूर्य के मार्ग में चन्द्रमार्ग का संपात होना चन्द्रपात कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है। इन में दक्षिण वाला राहु और उत्तर वाला केतु कहा जाता है। सूर्यमार्ग में राहु प्रतिदिन पश्चिम दिशा की तरफ जाता रहता है। इसकी नित्य की गति ३ कला और १०. ५० विकला होती है।
सूर्यमार्गे चन्द्रमार्ग-संपातः पात उच्यते।
स द्वेधा दक्षिणे राहुरुत्तरः केतुरुच्यते॥
रविमार्गेन्वहं राहुः पश्चिमामनुगच्छति ।
तिस्रः कलाः सार्धदश विकला गतिराह्निकी ॥ तत्रैव पृ. १७६, कारिका २७८-२७९
डॉ. योगेन्द्र कुमार शर्मा, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, ने अपने वक्तव्य में कहा कि सूर्य और चन्द्र के ग्रहण के विषय में शुभाशुभफल का विचार किया जा चुका है। अब तारा ग्रहों के ग्रहण का फल कहा जाता है।
पातास्थानादविक्षिप्तश्चन्द्रेणार्केण वैकभः।
ताराग्रहो ग्रस्तबिम्बो जायते ग्रहणं हि तत् ॥ तत्रैव पृ. १७५, कारिका २६३
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझा जा सकता है। राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है।
राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।
भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६
इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं।
ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।
तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२
डॉ. सत्यव्रत पाण्डेय, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।