National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VIII

Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute organised a National Seminar on 30 August 2025 (Saturday), 5–7 PM, through an online platform. The seminar was based on themes from the Ulka Adhikara section of Kadambini, authored by Pandit Madhusudan Ojha. The programme began with a vedic invocation by Dr. Satyavrat Pandey (Maharshi Panini Sanskrit and Vedic University, Ujjain) and was moderated by Dr. Lakshmikant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan. The seminar witnessed enthusiastic participation from professors, researchers, and Sanskrit scholars across various states, making the event a success.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-८)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० अगस्त, शनिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई थी। डॉ. अनिल कुमार, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय सूर्य का संपात है। शनि और सूर्य का संपात हस्त नक्षत्र के आधे व्यतीत होने पर और रेवती नक्षत्र के अन्त होने पर होता है । इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के अठारहवें अंश में संपात की स्थिति बनती है। बृहस्पति और सूर्य का संपात आर्द्रा नक्षत्र के तृतीय भाग और रेवती नक्षत्र के आदि भाग में होता है। इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के दशम अंश में संपात की स्थिति बनती है। आदित्यार्धं च पूषान्ते संपातः शनि-सूर्ययोः । राशेरष्टादशे त्वंशे तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ आर्द्रातृतीये पूषाद्ये संपातो गुरु-सूर्ययोः। अंशे तु दशमे राशेस्तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ –कादम्बिनी पृ. १७६, कारिका २७१-२७२ डॉ. चन्दन होता, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने कादम्बिनी ग्रन्थ के उल्काधिकरण पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आकाश में ग्रहगण जिस रास्ते से जाते हुए दिखाई देते हैं, वह रास्ता नाग नाम से जाना जाता है। उस रास्ते में जहाँ ग्रह रहता है, वह उस नाग का मुख कहलाता है। आकाश में जितने ग्रह हैं उतने नाग भी हैं। द्युलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्षलोक में अनन्त नाग हैं। किन्तु उन नागों में आठ नागों की प्रधानता है। येन येन यथा खेटाः गच्छन्तः प्रतिभान्ति ते ।स पन्था नाग इत्युक्तो यत्र खेटस्तदाननम्॥ खेचरा दिति यावन्तो नागास्तावन्त एव खे । दिवि भुव्यन्तरिक्षे च नागानन्त्येति तेऽष्टधा ॥ तत्रैव पृ. १७४, कारिका २५७-२५८ डॉ. मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिर्विज्ञान विभाग, महर्षि पाणिनि सस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय चन्द्रमा का संपात है। सूर्य के मार्ग में चन्द्रमार्ग का संपात होना चन्द्रपात कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है। इन में दक्षिण वाला राहु और उत्तर वाला केतु कहा जाता है। सूर्यमार्ग में राहु प्रतिदिन पश्चिम दिशा की तरफ जाता रहता है। इसकी नित्य की गति ३ कला और १०. ५० विकला होती है। सूर्यमार्गे चन्द्रमार्ग-संपातः पात उच्यते। स द्वेधा दक्षिणे राहुरुत्तरः केतुरुच्यते॥ रविमार्गेन्वहं राहुः पश्चिमामनुगच्छति । तिस्रः कलाः सार्धदश विकला गतिराह्निकी ॥ तत्रैव पृ. १७६, कारिका २७८-२७९ डॉ. योगेन्द्र कुमार शर्मा, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, ने अपने वक्तव्य में कहा कि सूर्य और चन्द्र के ग्रहण के विषय में शुभाशुभफल का विचार किया जा चुका है। अब तारा ग्रहों के ग्रहण का फल कहा जाता है। पातास्थानादविक्षिप्तश्चन्द्रेणार्केण वैकभः। ताराग्रहो ग्रस्तबिम्बो जायते ग्रहणं हि तत् ॥ तत्रैव पृ. १७५, कारिका २६३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझा जा सकता है। राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६ इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः। तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२ डॉ. सत्यव्रत पाण्डेय, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VII

A National Symposium organised by Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute was held online on Thursday, July 31, 2025, from 5:00 to 7:00 PM. The symposium was based on various topics from Kadambini, a text composed by Pandit Madhusudan Ojha, specifically from its section dealing with celestial phenomena. Dr. Yagyadatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Ved Vyasa Campus, said in his address that five types of fire originate in the sky. Their names are — Vajra, Vidyut, Maholka, Dhishnya, and Tara. In meteorology, all five are referred to as Ulkas (meteors). Dr. Suresh Sharma, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Shri Raghunath Kirti Campus, delivered his lecture on the Prakīrṇa Adhyāya (Miscellaneous Chapter) of Kadambini. He explained that the content of this chapter is divided into six topics: Rahu, Ketu, Tara, Digdaha (scorching of directions), Dust Rain (Pāṃsu), and Earthquake. The first topic of this chapter is Rahu. Rahu has neither its own light nor reflects another’s light. It does not shine. Even though it exists and moves in the sky, its movement leaves no visible trace. Dr. Ganesh Krishna Bhatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Guruvayur Campus, said that Rahu is also called Svarbhanu. If an eclipse occurs in the month of Mārgaśīrṣa, there will be no rain in the regions called Puṇḍraka, Kashmir, Kaushal, and the western part of India, but the rest of the country will have rain, prosperity, and abundance. If an eclipse occurs in Pausha month, it will harm the regions called Sindhu, Videha, and Kukur, and the rest of the country will suffer from low rainfall and famine. Dr. Ratish Kumar Jha, Assistant Professor, Department of Astrology, Dr. Jagannath Mishra Sanskrit College, Madhubani, Bihar, said that the dark, lightless half of celestial bodies such as the Earth, Moon, and Mercury is called Svarbhanu. The triangular shadow arising from this dark part is called Svarbhanu Rahu. Since the sun remains in their “Svar” (region), they are called Svarbhanu. Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, said that today’s topic is highly practical and can only be understood through observation. Pandit Ojha has mentioned many synonyms for Vajra. Analyzing these names is important because their meanings reveal the basis of their naming. The synonyms include: Hrādini, Vajra, Āpotra, Bhidira, Bhidura, Bhidu, Jambhāri, Jāmbavi, Dambha, Dambholi, Aśani, Pavi, Shatadhara, Shatara, Gau, Meghabhūti, Girijvara, Shatakoṭi, Svaru, Shamba, Kuliśa, Girikantaka. Dr. Ashish Mishra, Guest Lecturer, Department of Vedas, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, recited the Vedic invocation with intonation. The program was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. The symposium was attended by professors, research scholars, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-७)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई, बृहस्पतिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजेतक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीतकादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजितकी गई थी। डॉ. यज्ञदत्त, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेद व्यास परिसर, ने अपनेवक्तव्य में कहा कि अन्तरिक्ष में पाँच प्रकार की अग्नियाँ उत्पन्न होती हैं। इनके नाम हैं- वज्र, विद्युत्, महोल्का,धिष्ण्या और तारा । वृष्टिविद्या में इन पाँचों को उल्का नाम से प्रतिपादन किया जाता है। वज्रं विद्युन्महोल्का च धिष्ण्या तारेति पञ्चधा ।उल्केति संज्ञया ख्याता अन्तरिक्षोद्भवाग्नयः॥ कादम्बिनी पृष्ठ १६८ कारिका २०१ इन पाँच में विद्युत् नामवाली और तारा नामवाली उल्का छः दिन तक लगातार दिखाई दे, महोल्का पन्द्रह दिनतक दिखाई दे, वज्र और धिष्ण्या पैंतालिस दिन तक लगातार दिखाई दे तो उस वर्ष फसल की उपज अच्छीहोगी। विद्युत्तारादिनैः षड्भिरुल्का पक्षेण वीक्षिता ।वज्रं धिष्ण्या त्रिभिः पक्षैः फलपाकाय कल्पते ॥ वही, पृष्ठ १६८, कारिका २०२ डॉ. सुरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीरघुनाथकीर्ति परिसर नेकादम्बिनी ग्रन्थ के प्रकीर्णाध्याय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णअध्याय के विषयवस्तु को छः भागों में विभक्त किया गया है। ये हैं- राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, धूल की वर्षा(पांसु) और भूकम्प। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम् ।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः ।। वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१६ प्रकीर्ण अध्याय का पहला विषय राहु है। राहु में अपनी ज्योति और दूसरे की ज्योति नहीं रहती है। राहु प्रकाशनहीं करता है। ये आकाश में रहते भी हैं और चलते भी हैं, इसका बोध नहीं होता है ।अर्थात् राहु गति संबन्धीजो भी क्रिया को करता है, उसका कोई चिह्न नहीं बनता है। राहवः स्व-पर-ज्योतीराहित्यादप्रकाशिनः ।अपि सन्तोऽपि गच्छन्तो द्युमार्गेषु न भान्ति ये ॥ वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१७ डॉ. गणेश कृष्ण भट्ट, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, गुरुवायूर परिसर, नेअपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णाध्याय में राहु प्रथम विषय है। इसी राहु को स्वर्भानुराहु कहा जाता है। मार्गशीर्षमास में ग्रहण होने पर पुण्ड्रक नामक देश, काश्मीर नामक देश, कौशल नामक देश तथा भारत के पश्चिम भाग मेंवर्षा नहीं होगी और देश के दूसरे भाग में वृष्टि, क्षेम और सुभिक्ष होता है। मार्गे तु ग्रहणं हन्यात् मगधान् काशिकोशलान् ।तथाऽपरान्तकान् शेषे वृष्टि-क्षेम-सुभिक्षकृत्॥ वही, पृष्ठ १७३, कारिका २४५ पौष मास में ग्रहण होने से सिन्धु नामक देश, विदेह नामक देश, कुकुर नामक देश की हानि करता है और देश केदूसरे भाग में अल्पवृष्टि और दुर्भिक्ष होता है। पौषे दृष्टं हन्ति सिन्धून् विदेहान् कुकुरांस्तमः।देशान्तरे तु कुरुते दुर्भिक्षं स्वल्प-वर्षणम्॥ वही, पृष्ठ १७३., कारिका २४६ डॉ. रतीश कुमार झा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, डॉ. जगन्नाथ मिश्र संस्कृत महाविद्यालय मधुवनी,बिहार ने अपने वक्तव्य में कहा कि पृथ्वी, चन्द्रमा और बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधेभाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ॥ वही, पृष्ठ १७२, कारिका २३२ तमोमय भाग से उत्पन्न तीन कोण वाली छाया को स्वर्भानु नाम के राहु कहते हैं। इनके स्वर्भाग में भानु रहता है,इससे इनको स्वर्भानु कहते हैं। तज्जाश्छायामयास्त्र्यस्त्रा उक्ताः स्वर्भानुराहवः।स्वर्भागे भानुरस्त्येषा तस्मात् स्वर्भानवः स्मृताः॥ वही, पृष्ठ १७२., कारिका २३३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझाजा सकता है। पण्डित ओझा जी ने वज्र के अनेक पर्याय शब्दों का उल्लेख किया है। इन शब्दों का विश्लेषण अर्थकी दृष्टि से करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसका नाम अर्थ के आधार पर ही बना होगा। ह्रादिनी, वज्र,आपोत्र, भिदिर, भिदुर, भिदु, जम्भारी, जाम्बवि, दम्भ, दम्भोलि, अशनि, पवि, शतधार, शतार, गौ, मेघ-भूति, गिरिज्वर, शतकोटि, स्वरु, शम्ब, कुलिश, गिरिकण्टक इतने वज्र के नाम हैं । ह्रादिनी वज्रमापोत्रं भिदिरं भिदुरं भिदुः।जम्भारिर्जाम्बविर्दम्भो दम्भोलिरशनिः पविः॥शतधारं शतारङ्गौ मेघ-भूतिर्गिरि-ज्वरः।शतकोटिः स्वरुः शम्बः कुलिशं गिरिकण्टकः॥ वही, पृष्ठ १६८., कारिका २०५-२०६ डॉ. आशीष मिश्र, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान केशोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल औरमहाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : रविकराध्याय विमर्श (शृंखला-०६)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० जून, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में रविकराध्याय में वर्णित प्रत्यर्कविधि,परिवेष, इन्द्रायुध, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य, अमोघ विषयों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. निगम पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहारने वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि प्रत्यर्कपरिधि नामक शीर्षक का अर्थ है कि सूर्यकी एक एक परिधि। परिधि का अर्थ सूर्य किरणों का गोलाकार रूप में विस्तार है। सूर्य किरण यदि समान भावमें हो, चिकनापन वाला हो और ऋतुओं के अनुरूप वाली हो, तो वह प्रत्यर्कपरिधि शुभप्रद होती है। वैदूर्य मणिकी आभा वाली प्रत्यर्कपरिधि स्वच्छ और श्वेत हो तो अच्छी वृष्टि होगी एवं कल्याणप्रद होगी। प्रतिसूर्यः समः स्निग्धः स्वर्तुवर्णः प्रशस्यते।वैदूर्याभः सितः स्वच्छः सुभिक्षं क्षेममावहेत् ॥–कादम्बिनी पृ. १५६ का.१४६ परिवेष को स्पष्ट करते हुए कादम्बिनी ग्रन्थ में कहा गया है कि आकाश में सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं। हवा केद्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें प्रतिमूर्छित होते हैं। हवा और किरणों के परस्पर प्रतिघात से एक गोलाकारपिण्ड बनता है, उन्हें परिवेष कहते हैं। परिवेष के आधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। रवेरिन्दोः करा व्योम्नि वायुना प्रतिमूर्छिताः।सूक्ष्मेऽभ्रे मण्डलीभूताः परिवेषाख्यया मताः॥–वही, पृ. १५६ का.१४९ डॉ. नरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय, कैथल, हरियाणा नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि परिवेष के क्रम में ग्रन्थकार ने लिखा है कि सूर्य और चन्द्रमा की किरणों केद्वारा यदि दो छोटे-बड़े कुण्डल जैसा आकार बनता है तो उस स्थान में वृष्टि अच्छी होगी। सूर्य और चन्द्रमा की किरणों से निर्मित कुण्डल यदि पाँच रंगों का हो तो तीन दिनों तक अच्छी वृष्टि होगी, ऐसी परिकल्पना कीजाती है। द्वे द्वे क्षुद्रविशाले चेत् कुण्डले सूर्यचन्द्रयोः।बहुवृष्टिरनेकाहं तदा तत्र भविष्यति ॥द्वे द्वे सूर्यस्य चन्द्रस्य कुण्डले पञ्चवर्णके ।त्र्यहं यावत्तदा तत्र बहुवृष्टिर्भविष्यति ॥ वही, पृ. १५७ का.१६१-१६२ डॉ. विनोद शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर,हिमाचल प्रदेश ने कहा कि इन्द्रायुध दो प्रकार का होता है -धनुष के रूप में और ऐरावत हाथी के रूप में। सूर्यकी किरणों में प्राण स्थित रहता है। यह किरण प्रकाशक है, वही इन्द्र कहलाता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने इन्द्रकी व्युत्पत्ति की है। हवा के बल से सूर्य की किरणें जल के भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। उस जल और हवा केसंमिलित रूप में सात रंगों का विकास होता है। वही इन्द्रधनुष कहलाता है। इन्द्रायुधं तु द्विविधं धनुरैरावतं तथा ।इन्द्रः सूर्यकरस्थानः प्राणे योऽयं प्रकाशते॥नीरांतराः करा भानोः पवनेन विघट्टिताः।सप्तवर्णा धनुःसंस्था दृष्टा इन्द्रधनुर्मतम्॥–वही, पृ. १५८ का.१७४-१७५ डॉ. दिवेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेवक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ का यह विषय सूर्य की किरणों परआधारित है। सूर्य से निकलने वाली रेखा का नाम अमोघ है। यदि उस रेखा का अगला भाग खण्डित है तो उसीका नाम दण्ड है। यदि उस रेखा की संख्या तीन है तो वह त्रिशूल नाम से जाना जाता है। दूसरी दिशा से निकलीहुई दो अमोघ रेखाओं से मत्स्य का स्वरूप बनता है। इस प्रकार इन चारों तत्त्वों के आधार पर वृष्टि की कल्पनाकी जाती है। सूर्यात् समुत्थिता रेखाऽमोघ इत्यभिधीयते ।सोऽग्रेण खण्डिता दण्डस्तिस्रो रेखास्त्रिशूलकम्॥द्वाभ्याममोघ-रेखाभ्यां भिन्नदिग्भ्यां तु मस्तकः।सत्स्वप्येवं विशेषेषु सांकर्येणोच्यते फलम्॥ वही, पृ. १६० का.१८६ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि सूर्य की किरण के आधार पर परिधि का निर्माण होता है। सूर्यबिम्ब है और उसी सूर्य का प्रतिबिम्ब दूसरे स्थान पर होता है। बिम्बात्मक सूर्य की किरणों से परिधि बनती है।यदि यह परिधि सूर्य के दोनों ओर स्थित बिम्ब को स्पर्श करती है तो अच्छी वृष्टि होगी और यदि यही परिधिसूर्य के चारों ओर हो तो अच्छी वृष्टि नहीं होगी। बिम्बान्वितौ तु परिधी रवेरुभयपाश्वर्गौ ।बहुतोयौ निर्जलस्तु सर्वदिक्पर्यवस्थितः॥–वही, पृ. १५६ का.१४८ सूर्य की किरणों से ही कुण्डल जैसा आकार आकाश में बनता है। यदि यह कुण्डल सूर्य के पाँच वर्णों वाला है तोआकाश में घने मेघ लगे रहेंगे और वृष्टि अच्छी होगी। सूर्यस्य कुण्डलं पञ्चवर्णं चेद् बहुविस्तृतम् ।तदा घनघटाटोपो बहुवृष्टिश्च जायते ॥–वही, पृ. १५८ का.१६८ डॉ. राहुल कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Discourse on Vikaradhyaya-Part V

The fifth seminar on Kadambini was organised on May 31, 2025. This was part of the Shri Shankar Shikshayatan’s annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s great work on meteorology, Kadambini.  The focus of the seminar was on the book’s Vaikarikadhyaya under which six subjects were discussed. Karikas from 107 to 145 from Kadambini were discussed. The invited scholars presented their lectures based on the topics covered in these karikas. Prof. Madan Mohan Pathak, Central Sanskrit University, Lucknow, was the keynote speaker. Referring to the term, `khapur`, Prof. Pathak said the term meant a city appearing in the sky. Kha means sky and Pur means city. A city-like mark is formed in the clouds. The Gandharva city appearing in the sky with many colours and shapes like a city and  with flags and festoons is called Khapur. खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् । वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७ अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः । युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ The term ‘abhrataru’ means a tree-like mark appearing in the clouds. Abhra means cloud and taru means tree.The one which has a branch is called Shakhi. शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च । दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ Dr. Subhash Chandra Mishra, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, explained the term, karka`. It means hail. He spoke about several synonyms of the term mentioned in the book–dharankur, radharanku, varshopal, ghanopal, meghopal,meghasthi, matchi, punjika, bijodak, ghankaf and varchar. He pointed out that if there was excessive hail, there was little chance of rain.  धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः। मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥ बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च । भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ Dr. Brajesh Pathak, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, in his presentation pointed out there were seven impediments against good monsoon caused by the rays of the sun . These  are ravikaradhyaya, sandhya, kundal, danda, trishul, matsya and amogha. सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् । मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी । नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ Dr. Naveen Tiwari, Central Sanskrit University, Ranvir Campus, spoke about sandhya as a comprehensive idea in the science of monsoon. If in the evening, a `mountain range` is visible in the sky in the northern direction, it is bound to rain in that area on the third day. When the `mountain range` is visible in the north-west, it rains day and night. When the `mountain range` is visible in the west, it is expected to rain for seven or three days. उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका । तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् । सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, presiding over the seminar, pointed out that agni, vayu, surya and soma are key elements of monsoon.  These four elements enable water to rise to the sky, form into clouds, hold water and then fall as rain. It is no different from the modern scientific concept. The scientists today estimate rainfall on the basis of wind.  अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् । उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ Dr. Rajnish Kumar Pandey, Central Sanskrit University, Jaipur Campus recited the Vedic Manglacharan. The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. The seminar was attended by acharyas, research scholars, students and scholars interested in Sanskrit studies from universities and colleges from several states across the country. 

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राष्ट्रीय संगोष्ठी- कादम्बिनी : विकाराध्याय विमर्श (शृंखला-०५)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मई, शनिवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत वैकारिकाध्याय है। इस वैकारिकाध्याय में मुख्यरूप से खपुरम्, अभ्रतरु,परिघ, निर्घात करका और हिम ये छः विषय आते हैं। खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् ।वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में कादम्बिनी ग्रन्थ से १०७ से १४५ तक की कारिकाएँ पर विमर्श किया गया। इनकारिकाओं में निबद्ध विषयों को आधार बना कर आमन्त्रित विद्वानों ने अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया ।प्रो. मदन मोहन पाठक, वरिष्ठ आचार्य एवं अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊपरिसर ने मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि खपुर का अर्थ आकाश में नगरदिखाई देना है। मेघ में नगर जैसा एक चिह्न बनता है। ख का अर्थ आकाश होता है और पुर का अर्थ नगर होताहै। आकाश में नगर जैसा अनेक रंग और आकृति वाला तथा पताका, ध्वजा और तोरण से युक्त जो गन्धर्व नगरदिखाई देता है. वह खपुर कहलाता है। अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः ।युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ ‘अभ्रतरु’ का अर्थ मेघ में वृक्ष जैसा चिह्न दिखाई देना। अभ्र का अर्थ मेघ और तरु का अर्थ वृक्ष होता है।, अभ्रतरुको शाखी नाम दिया है। जिसकी शाखा होती है वह शाखी कहालाता है। आकाश में वृक्ष के आकार के मेघों केलिए शाखी, खशाखी, खतरु और अग्रतरु आदि शब्दों के प्रयोग होते हैं।शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च ।दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ डॉ. सुभाष चन्द्र मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर, नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि करका का अर्थ ओला होता है। जिसे पत्थर भी कहते हैं। इस करका केअनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख ग्रन्थ में किया गया है। धाराङ्कुर, राधरङ्कु, वर्षोपल, घनोपल, मेघोपल,मेघास्थि, मटची, पुञ्जिका, बीजोदक, घनकफ, वार्चर और करका ये करका के नाम हैं। अधिक ओले गिरने सेवृष्टि नहीं होती है। धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः।मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च ।भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ डॉ. ब्रजेश पाठक, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी परिसर नेकहा कि निमित्ताध्याय के अन्तर्गत विकाराध्याय आता है और उस विकाराध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है।सन्ध्या, कुण्डल, इन्द्रधनुष, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य और अमोघ ये सात विकार सूर्य के किरणों से उत्पन्न होते हैं। सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् ।मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ दिन और रात्रि की सन्धि का नाम सन्ध्या है। दो अथवा तीन नाड़ीमात्र के समय को सन्ध्या कहते हैं। जब तकआकाश में ताराओं के दर्शन होते रहते हैं उतने काल को सन्ध्या कहते हैं।सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी ।नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ डॉ. नवीन तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने वक्ताके रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टिविचार में सन्ध्या एक व्यापक विचार है। सन्ध्या के समयआकाश में उत्तर दिशा में यदि पर्वतपंक्ति दिखाई देता है तो उस क्षेत्र में तीसरे दिन वृष्टि होगी । उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका ।तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ सन्ध्या के समय वायव्य कोण में पर्वतपंक्ति दिखाई देने से रातदिन वर्षा होती है। पश्चिम दिशा में पर्वतपंक्तिदिखाई देने पर सात दिन तक अथवा तीन दिन तक वर्षा होती रहती है।वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् ।सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा। क्योंकि यह विषय समसामयिक है। अग्नि, वायु, सूर्य और सोम ये सभी वृष्टि में कारण हैं। इन चार तत्त्वों केद्वारा ही जल आकाश में जाता है, ठहरता है, और आकाश के स्थान से गिरता हुआ बरसता है। सोम तत्त्वआर्द्रभाव है। यह अग्नि के द्वारा ऊपर की ओर जाता है। सूर्य वृष्टि के स्वामी वायु के द्वारा वर्षा करता है। यहप्रक्रिया सर्वथा वैज्ञानिक है। आज के मौसमवैज्ञानिक भी वायु के आधार पर ही वृष्टि का अनुमान करता है। अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् ।उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ डॉ. रजनीश कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोधअधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल केआचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफलबनाया।

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National Seminar on Kadambini: Discourse on Nimittadhyaya–Part IV

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the fourth National Seminar on Kadambini on April 30,2025 as part of its annual discourse on Pandit Madhusudan Ojha’s noteworthy work on weather science, Kadambini. The discussion was based on the Nimittādhyāya of the text Kādambinī, composed by Pandit Madhusudan Ojha. This chapter discusses subjects like cloud formation (garbha-rūpa), wind (vāta), generation (utpādaka), sustenance (sthāpaka), cloud (megha), lightning (vidyut), thunder (garjita), and rain (vṛṣṭi). The specified portion of the text contains 106 verses (kārikās), and this symposium focused on the topics described therein. Prof. Phanindra Kumar Chaudhary, Professor, Department of Astrology, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi, delivered the keynote lecture. He stated that thunder is the fourth form of the cloud’s womb. The sound heard in the sky during the rainy season has three sources: clouds, lightning, and wind. The author of the text mentions four terms for this: garjita (roaring), stanita (rumbling), meghanirghoṣa (cloud-sound), and rasita (resonance). मेघाद् वज्राच्च वाताच्च शब्दस्त्रेधाऽन्तरिक्षजः।गर्जितं स्तनितं मेघनिर्घोषो रसितं च तत्॥ कादम्बिनी पृ. १३९, का.९३meghād vajrāc ca vātāc ca śabdas tredhā’ntarikṣajaḥ |garjitaṃ stanitaṃ meghanirghoṣo rasitaṃ ca tat || (Kādambinī, p. 139, kā. 93) In Sanskrit, the words vṛṣṭi and varṣa refer to rain. For the absence of rain, the terms avagraha and vagraha are used. For other forms of rain, words like karakā (hail) and himapāta (snowfall) are employed. वृष्टिर्वर्षं तद्विघातेऽवग्रहवग्रहौ समौ ।करका हिमपाताश्च वृष्टेरेवापरा विधा ॥ वही, पृ. १४०, का.१०६vṛṣṭir varṣaṃ tad-vighāte’vagraha-vagrahau samau |karakā himapātāś ca vṛṣṭer evāparā vidhā || (ibid., p. 140, kā. 106) Dr. Balkaram Saraswat, Assistant Professor, Department of Astrology, National Sanskrit University, Tirupati, emphasized the importance of the Kādambinī text. He elaborated on the lightning-related terms used in the text, identifying 29 different names for lightning—many of which are not found collectively even in Amarakosha (a renowned Sanskrit lexicon). Only 10 of these are listed in Amarakosha. विद्युत् क्षणप्रभा मेघप्रभा वीपाऽचिरप्रभा । ह्रादिन्यैरावती चम्पा शम्पा सौदामिनी तडित् ॥ आकालिकी शतावर्ता जलदा जलपालिका । क्षणांशु क्षणिका राधा चटुला चिलमीलिका ॥ सर्जूरचिररोचिश्च चपला चञ्चला चला । शतह्रदाऽशनिर्नीलाञ्जना च तडिदस्थिरा॥ वही, पृ. १३७, का.७२-७४ vidyut kṣhaṇaprabha meghaprabha vīpā’ciraprabha |hrādinī airāvatī campā śampā saudāminī taḍit ||ākālikī śatāvartā jaladā jalapālikā |kṣaṇāṃśu kṣaṇikā rādhā caṭulā cilamīlikā ||sarjūracirarociś ca capalā cañcalā calā |śatahradā’śanir nīlāñjanā ca taḍid asthirā || (ibid., p. 137, kā. 72–74) Dr. Bhupendra Kumar Pandey, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Bhopal Campus, discussed the types of clouds and rainfall in winter. He identified different types of clouds: Puṣkara, Āvarta, Sanvarta, and Droṇa. हिमवृष्टिं तु कुर्वन्ति शीतकाले हि दिग्गजाः। पुष्करावर्तसंवर्तद्रोणाः स्युर्मेघजातयः ॥पुष्करो दुष्करोदः स्यादावर्तो निर्जलो घनः। बहूदकस्तु संवर्तो द्रोणः सस्यप्रपूरकः॥ वही, पृ. १३५, का.४२-४३     himavṛṣṭiṃ tu kurvanti śītakāle hi diggajāḥ |puṣkarāvartasaṃvartadroṇāḥ syur meghajātayaḥ ||puṣkaro duṣkarodaḥ syād āvarto nirjalo ghanaḥ |bahūdakas tu sanvarto droṇaḥ sasyaprapūrakḥ || (ibid., p. 135, kā. 42–43) Dr. Varun Kumar Jha, Assistant Professor, Department of Astrology, Kameshwar Singh Darbhanga Sanskrit University, elaborated on how clouds conceive to produce rain. He explained the five forms of cloud pregnancy: wind, cloud, lightning, thunder, and rain. These also go by the names mahāvāta (great wind) and jhañjāvāta (whirlwind), among others. गर्भरूपाणि वाताभ्रविद्युत्स्तनित-वृष्टयः।एषां भेदा महावाताझञ्झावातादयः पृथक्॥ वही, पृ. १३१, का.४garbharūpāṇi vātābhra-vidyut-stanita-vṛṣṭayaḥ |eṣāṃ bhedā mahāvātā-jhañjāvātādayaḥ pṛthak || (ibid., p. 131, kā. 4) Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, presided over the event. He mentioned that in the previous chapters of the text, rules were laid out for determining cloud conception based on lunar months. Along with Akṣayatṛtīyā, topics like sign analysis through animals (śakuna), sounds (amitra), crows (kāka), discs (bimba), grains (dhānya), clods (loṣṭa), constellations (nakṣatra), cloud pregnancy (garbha), wind (vāyu), and extreme winds (atyugravāta) were discussed. The current Nimittādhyāya chapter focuses on various forms and behaviors of wind. Dr. Sudhakar Kumar Pandey, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, began the program with a melodious Vedic invocation. Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute, conducted the event. Scholars, researchers, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states participated enthusiastically, contributing to the success of the symposium.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी (शृंखला-०३)

श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मार्च, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के मासिकाध्याय के वैशाख मास से प्रारम्भ होकर आश्विन मास तक के छः मासों के आधार पर वृष्टिविषयक विचार किया गया है। निर्धारित ग्रन्थांश में ४३१ कारिकाएँ समाहित हैं। उन्हीं कारिकाओं में निबद्धविषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई । प्रो. परमान्द भारद्वाज, आचार्य, ज्योतिष विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नईदिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि इस कादम्बिनी नामक ग्रन्थ मेंवैशाख मास को मेघनिर्माण की पूर्वकल्पना एवं नियम के लिए अक्षय तृतीय को आधार बनाया गया है। अक्षयतृतीया के आलोक में शकुन परीक्षा, अमत्र परीक्षा, काक परीक्षा, बिम्ब परीक्षा, धान्य परीक्षा, लोष्ठ परीक्षा,नक्षत्र परीक्षा, गर्भ परीक्षा, वायु परीक्षा और उग्रवात परीक्षा समाहित है। बिम्ब परीक्षा के विषय में इस प्रकारका वर्णन है- अक्षयायां तृतीयायां पूरयेद् भाण्डमम्बुना ।रविं विलोकयेन्मध्ये तत्स्वरूपं विमर्शयेत्॥रक्ते सूर्ये विग्रहः स्यान्नीले पीते महारुजः।श्वेते सुभिक्षं विज्ञेयं धूसरो दुःखमूषकाः॥ –कादम्बिनी, पृ.५५, कारिका २२८-२२९ अक्षय तृतीया तिथि को किसी पात्र में जल भर कर उस में सूर्य के प्रतिबिम्ब को देखा जाता है। उस बिम्ब केआधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि लाल रंग का हो तो उसका फल युद्ध है।सूर्य का बिम्ब यदि नीला और पीला हो तो उसका फल रोग है। सूर्य का बिम्ब यदि सफेद रंग का हो तो उसकाफल अच्छी वृष्टि होती है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि धूसर रंग का हो तो उसका फल चूहे आदि से होने वालादुःख है। प्रो.विष्णु कुमार निर्मल, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर ने अपनेसारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि कि इस ग्रन्थ में जेष्ठ माससे संबन्धित अनेक विषयों को समाहित किया गया है। जिससें मासादिरोहिणी, पवनधारणा, प्रवर्षणमिति,मासान्तरोहिणी प्रमुख विषय हैं। पवनधारणा पर ग्रन्थकार पं. ओझाजी ने इस प्रकार वर्णन किया है। चतस्रस्तिथयो वायुधारणा अष्टमीमुखाः।ज्यैष्ठशुक्ले मृदु-स्निग्ध-स्थगिताभ्रोऽनिलः शुभः॥स विद्युतः सपृषतः सपांशूत्करमारुताः।सार्कचन्द्रपरिच्छन्ना धारणाः शुभधारणाः॥ -कादम्बिनी, पृ.६५, कारिका २८३-२८४ ज्येष्ठ शुक्ल की अष्टमी तिथि से एकादशी तिथि तक चार तिथियाँ वायु धारण करती हैं। इनमें मृदु, स्निग्ध औरस्थगित इन तीन प्राकर के वायु का स्वरूप निर्धारित किया गया है। इन तिथियों को बिजलियाँ, जल की बूँदे,धूलि युक्त हवा का चलना चन्द्रमा पर बादल छा जाना ये सब वृष्टि के लिए मेघ धारण का शुभ संकेत है।डॉ. रूपेश कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय,उज्जैन ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि आषाढ मास का विषयवस्तु इस प्रकार हैं-स्वातियोग, आषाढी परीक्षा और रोहिणीयोग । आषाढी परीक्षा के विषय में ग्रन्थकार ने लिखा है- गर्भाः पुष्टिकराः सर्वे सुयोगा विलयं गताः।आषाढ्यां तु विनष्टायां सर्वमेवाशुभं भवेत्॥गर्भनाशकराः सर्वे कुयोगा विलयं गताः।यद्याषाठी शुभा जाता तदा सर्वं शुभं भवेत् ॥ -कादम्बिनी, पृ.८५, कारिका ४१७-४१८ आषाढ शुक्ल पूर्णिमा तिथि के निर्धारित मेघ गर्भ धारण के लक्षण नष्ट हो जाने पर मेघ का गर्भधारण नहीं होपाता है। यदि इस पूर्णिमा तिथि को योग अच्छे हों तो गर्भ धारण के कुयोग भी सुयोग में बदल जाता है।इसीलिए इस आषाढ परीक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। डॉ. ब्रह्मानन्द मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रघुनाथ कीर्ति परिसर,देवप्रयाग ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टि के लिए श्रावण मास का विशेष महत्त्वहै। श्रावण मास के विषय में ग्रन्थकार ने कहा है कि सूर्य की स्थिति से ही वर्षा का योग बनता है। श्रावणे शुक्लपक्षे तु सिंहसंक्रान्तिसम्भवः।समुद्रे पूर्णवृष्टिः स्यादन्यदेशे तु कुत्रचित् ॥कर्कसंक्रमणे वृष्टिरवृष्टिः सिंहसंक्रमे।कर्णपूरे वहेत् कन्या तुले निर्वातवृष्टयः॥ –कादम्बिनी, पृ.१०८, कारिका ५२१-५२२ श्रावण शुक्लपक्ष में यदि सिंह राशि के ऊपर सूर्य का संक्रमण अर्थात् आगमन हो तो समुद्र में अर्थात् प्रान्त देशोंमें पूर्ण वृष्टि होगी परन्तु दूसरे जगहों पर कहीं कहीं वर्षा होगी। प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि वृष्टि के लिए भाद्रपद का विशेषमहत्त्व है। ग्रन्थकार पं. ओझा जी नेभाद्रपद के विषय में लिखते हैं- प्रतिपत् सप्तमी भाद्रे द्वादशी च त्रयोदशी।पूर्णिमा चासु वारुण्यां श्रितैर्मेघैः प्रवर्षणम् ॥भाद्र-शुक्ल-द्वितीयायां यदि चन्द्रो न दृश्यते।तदा तेन भवेद् वर्षे सस्यसंपत्तिरुत्तमा ॥ –कादम्बिनी, पृ.११४, कारिका ५५२-५५३ भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, सप्तमी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा के दिन पश्चिम में मेघ के होने से अच्छी वृष्टिहोती है। भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को चन्द्रमा यदि न दिखे तो वर्ष बहर फसल अच्छी होगी।आश्विन मास के विषय में कहा गया है – नापेक्षते गर्भसिद्धिं चतुर्थी पञ्चमी तिथिः।ग्रहयोगवशादेवाश्विने वर्षति तच्छुभम् ॥चतुर्थ्यामपि पञ्चम्यामाश्विने शीघगर्भता ।पञ्चभिः सप्तभिर्वा स्याद्दिनैरेकार्णवा मही॥-कादम्बिनी, पृ.११८, कारिका ५७९-५८० आश्विनमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी और पञ्चमी तिथि में मेघ के गर्भ निर्धारण की अपेक्षा नहीं है। तात्कालिकग्रहयोग से इन दोनों में जो वृष्टि होती है वह शुभप्रद होता है। आश्विन शुक्ल चतुर्थी पञ्चमी में शीघ्र ही मेघ कागर्भ निर्धारण हो जाता है और पाँच से सात दिनों में ही पृथ्वी पर अच्छी वृष्टि होने लगती है। डॉ. अनयमणि त्रिपाठी, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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