National Seminar-Kadambini-Ulkadhikara Part 9

Report The Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute organised a national seminar online on Tuesday, September 30, 2025, from 5:00 to 7:00 p.m. The seminar was based on various topics discussed in the Prakīrṇādhikāra (Miscellaneous Section) of Kādambinī, a text composed by Pandit Madhusudan Ojha. Dr. Abhishek Gautam, Assistant Professor, Department of Jyotiṣa, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, said in his address that the mark visible on the moon’s surface is in the shape of a crow (kāka). It is dark in color, appears fearsome, and triangular in shape. In the middle of the round lunar disk, there is a black, wedge-shaped spot. काकः कालाकृतिर्घोरस्त्रिकोणो वापि लक्ष्यते ।मण्डलं कीलकं मध्ये मण्डलस्यासितो ग्रहः ॥(Kādambinī, p. 180, kārikā 317) He explained that Ketu, which assumes a vast and many-formed appearance (Viśvarūpa), exists in 120 forms. These are red, shining, without crests, blazing, and appear to emit fire from the sky, surrounded by flames. विश्वरूपाः शतं विंशं शोणा दीप्ता विचूलिनः ।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादग्निभा ज्वालामालिनः ॥(ibid., kārikā 318) Shri Govind Narayan Dixit, Assistant Professor, Department of Jyotiṣa, Central Sanskrit University, Vedavyasa Campus, said that the section of Kādambinī dealing with the Saṃpāta (intersection) has been elaborated in great detail. The path of the Moon is uneven, rising and falling; its form continuously changes. Astrologers well-versed in Jyotiṣa can recognize the five Pātakas (points of fall) associated with the Moon. उच्चावचश्चन्द्रमार्गो नित्यमेति विशेषताम् ।तस्मात् तत्र गताः पाताः पञ्चलक्ष्याः स्वयं बुधैः ॥(ibid., p. 178, kārikā 295) He further explained that in the Kādambinī, while defining Ketu, the text describes self-luminous masses of scattered light appearing in the sky, and these luminous bodies are known as Ketus. विकीर्णतेजसः केचित् स्वप्रकाशमया दिवि ।दृश्यन्ते जातुचित् पिण्डापिण्डास्ते केतवो मताः ॥(ibid., kārikā 296) Dr. Naveen Pandey, Assistant Professor, Department of Vāstuśāstra, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, explained that Kādambinī describes Ketu’s form through various similes (upamā). In the sky, Ketus appear fiery and red like hibiscus, fire, or lac, shining and crestless, spewing flames. Such fiery (āgneyāḥ) Ketus are said to be of twenty-five types. बन्धु-जीवाग्निलाक्षाभाः शोणा दीप्ता विचूलिनः ।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादाग्नेयाः पञ्चविंशतिः ॥(ibid., p. 179, kārikā 305) Rough, crested, black, death-giving Ketus are of twenty-five kinds. Earthly (pārthiva) Ketus are round, crestless, and have a shining appearance like oil or water, numbering twenty-two types. रूक्षा वक्रशिखाः कृष्णा मृत्युदाः पञ्चविंशतिः ।भौमा द्वाविंशतिर्वृत्ता विचूलास्तैलतोयभाः ॥(ibid., kārikā 306) Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, Centre for Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, said that in the Prakīrṇādhyāya there are six natural phenomena or transformations (vikāras) described:Rāhu, Ketu, Tārā (stars), Dig-dāha (directional heat), Pāṃsu-varṣa (dust storms or showers), and Bhūkampa (earthquakes). राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम् ।भूकम्पश्चेति षड्भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः ॥(ibid., p. 171, kārikā 216) Among these, the dark, unilluminated halves of celestial bodies such as the Earth, Moon, and Mercury are referred to as Svaṛbhānu, the shadowy aspect opposed to light. ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः ।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ॥(ibid., p. 172, kārikā 232) Dr. Prakash Ranjan Mishra, Assistant Professor, Department of Veda, Paurāhitya, and Karmakāṇḍa, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, began the session with a Mangalacharaṇ chanted melodiously. The session was conducted by Dr. Lakshmikant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. The seminar saw enthusiastic participation of professors, research scholars, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states of India. Their contributions and discussions made the symposium a great success.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-९)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० सितम्बर, मंगलवार २०२५ को सायंकाल५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीतकादम्बिनी नामक ग्रन्थ के प्रकीर्णाधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजितकी गई थी। डॉ. अभिषेक गौतम, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधीपरिसर ने अपने वक्तव्य में कहा कि चन्द्रबिम्ब में दिखाई देने वाला चिह्न काक होता है। वह काक आकृति मेंकाला होता है, देखने में वह भयङ्कर होता है, वह त्रिकोण वाला होता है। गोलाई के बीच में काले रंग काकीलक मण्डल होता है। काकः कालाकृतिर्घोरस्त्रिकोणो वापि लक्ष्यते ।मण्डलं कीलकं मध्ये मण्डलस्यासितो ग्रहः।। कादम्बिनी, पृ. १८०, का. ३१७ विश्वरूप वाला केतु की एक सौ बीस संख्या होती है । ये लाल रंग का, चमकने वाला, बिना चोटी वाला, ज्वालावाला तथा आकाश से अग्नि को उगलता हुआ और अग्नि की आभा वाला दिखाई देता है। विश्वरूपाः शतं विंशं शोणा दीप्ता विचूलिनः ।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादग्निभा ज्वालामालिनः ।। तत्रैव, का. ३१८ श्रीगोविन्द नारायण दीक्षित, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,वेदव्यास परिसर ने कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ के संपात का विचार विस्तार से किया गया है। चन्द्रमा का मार्गऊँचा नीचा है, इनका आकार भिन्न भिन्न रूपों में बनता रहता है, ज्योतिष विद्या में प्रवीण लोग चन्द्र के साथपाँच पातकों को स्वयं जान जाते हैं। उच्चावचश्चन्द्रमार्गो नित्यमेति विशेषताम् ।तस्मात् तत्र गताः पाताः पञ्चलक्ष्याः स्वयं बुधैः॥ तत्रैव पृष्ठांकः १७८, का. २९५ कादम्बिनी ग्रन्थ में केतु के परिभाषा के क्रम में आकाश में विखरे हुए तेज वाले स्वप्रकाशमय पिण्ड दिखाई दियाकरता है। इस पिण्ड को ही केतु कहते हैं। विकीर्णतेजसः केचित् स्वप्रकाशमया दिवि ।दृश्यन्ते जातुचित् पिण्डापिण्डास्ते केतवो मताः ॥ तत्रैव, का. २९६ डॉ. नवीन पाण्डेय, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र-विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, ने अपने वक्तव्य में कहा कि उपमा के द्वारा केतु का स्वरूप का वर्णन किया गया है। आकाश मेंयदि गुलहल, अग्नि, लाख जैसी कान्ति वाले, लाल, चमकदार, विचूली (बिना चोटी के) आकाश से अग्नि उगलतेहुए आग्नेय केतु पच्चीस प्रकार के होते हैं। बन्धु-जीवाग्निलाक्षाभाः शोणा दीप्ता विचूलिनः।उद्गिरन्ति इवाग्निं खादाग्नेयाः पञ्चविंशतिः ॥ तत्रैव, पृ. १७९, का. ३०५ रूखे, चोटी वाले, काले रंग के, मृत्यु देने वाले केतु पच्चीस प्रकार के होते हैं। पार्थिव केतु गोल, बिना चोटी वालाऔर तैलजल के समान कान्ति वाले बाईस प्रकार के होते हैं। रूक्षा वक्रशिखाः कृष्णा मृत्युदाः पञ्चविंशतिः ।भौमा द्वाविंशतिर्वृत्ता विचूलास्तैलतोयभाः ॥ तत्रैव, का. ३०६ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि इस प्रकीर्णाध्याय में छः विकार हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं- राहु,केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६ इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२ डॉ. प्रकाश रञ्जन मिश्र, सहायक आचार्य, वेद-पौरोहित्य-कर्मकाण्ड-विद्याशाखा विभाग, केन्द्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकरशिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेकप्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों नेउत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी कादंबिनी– श्रृंखला IX

30 सितम्बर, 2025 श्री शंकर शिक्षायतन, पंडित मधुसूदन ओझा के मौसम विज्ञान पर असाधारण ग्रंथ पर चर्चा की अपनी वार्षिक श्रृंखला के भाग के रूप में 30 सितंबर, 2025 को कादम्बिनी पर नौवीं संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है। अध्यक्ष: प्रोफेसर संतोष कुमार शुक्ला,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, संयोजक, श्री शंकर शिक्षायतन। वक्ता: डॉ. नीलांबर दाश, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, सदाशिव परिसर, पुरी, उड़ीसा।श्रीगोविंद नारायण दीक्षित, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर, हिमाचल प्रदेश।डॉ. अभिषेक गौतम, राजीव गांधी परिसर, श्रृंगेरी, कर्नाटक।डॉ. नवीन पाण्डेय श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली।

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National Seminar on Kadambini Part IX

September 30,2025 Shri Shankar Shikshayatan is organising the ninth seminar on Kadambini on September 30,2025 as part of its annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s extraordinary treatise on weather science. Chair: Professor Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, Convener, Shri Shankar Shikshayatan. Speakers: Dr. Nilambar Dash, Central Sanskrit University, Sadashiv Campus, Puri, Odisha.Shri Govind Narayan Dixit, Central Sanskrit University, Vedavyas Campus, Himachal Pradesh.Dr. Abhishek Gautam, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, Sringeri, Karnataka.Dr. Naveen Pandey, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, Delhi.

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National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VIII

Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute organised a National Seminar on 30 August 2025 (Saturday), 5–7 PM, through an online platform. The seminar was based on themes from the Ulka Adhikara section of Kadambini, authored by Pandit Madhusudan Ojha. The programme began with a vedic invocation by Dr. Satyavrat Pandey (Maharshi Panini Sanskrit and Vedic University, Ujjain) and was moderated by Dr. Lakshmikant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan. The seminar witnessed enthusiastic participation from professors, researchers, and Sanskrit scholars across various states, making the event a success.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-८)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० अगस्त, शनिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई थी। डॉ. अनिल कुमार, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय सूर्य का संपात है। शनि और सूर्य का संपात हस्त नक्षत्र के आधे व्यतीत होने पर और रेवती नक्षत्र के अन्त होने पर होता है । इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के अठारहवें अंश में संपात की स्थिति बनती है। बृहस्पति और सूर्य का संपात आर्द्रा नक्षत्र के तृतीय भाग और रेवती नक्षत्र के आदि भाग में होता है। इसके साथ ही कर्क राशि और मकर राशि के दशम अंश में संपात की स्थिति बनती है। आदित्यार्धं च पूषान्ते संपातः शनि-सूर्ययोः । राशेरष्टादशे त्वंशे तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ आर्द्रातृतीये पूषाद्ये संपातो गुरु-सूर्ययोः। अंशे तु दशमे राशेस्तुर्य्यस्य दशमस्य च ॥ –कादम्बिनी पृ. १७६, कारिका २७१-२७२ डॉ. चन्दन होता, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर ने कादम्बिनी ग्रन्थ के उल्काधिकरण पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आकाश में ग्रहगण जिस रास्ते से जाते हुए दिखाई देते हैं, वह रास्ता नाग नाम से जाना जाता है। उस रास्ते में जहाँ ग्रह रहता है, वह उस नाग का मुख कहलाता है। आकाश में जितने ग्रह हैं उतने नाग भी हैं। द्युलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्षलोक में अनन्त नाग हैं। किन्तु उन नागों में आठ नागों की प्रधानता है। येन येन यथा खेटाः गच्छन्तः प्रतिभान्ति ते ।स पन्था नाग इत्युक्तो यत्र खेटस्तदाननम्॥ खेचरा दिति यावन्तो नागास्तावन्त एव खे । दिवि भुव्यन्तरिक्षे च नागानन्त्येति तेऽष्टधा ॥ तत्रैव पृ. १७४, कारिका २५७-२५८ डॉ. मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिर्विज्ञान विभाग, महर्षि पाणिनि सस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेरा विषय चन्द्रमा का संपात है। सूर्य के मार्ग में चन्द्रमार्ग का संपात होना चन्द्रपात कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है। इन में दक्षिण वाला राहु और उत्तर वाला केतु कहा जाता है। सूर्यमार्ग में राहु प्रतिदिन पश्चिम दिशा की तरफ जाता रहता है। इसकी नित्य की गति ३ कला और १०. ५० विकला होती है। सूर्यमार्गे चन्द्रमार्ग-संपातः पात उच्यते। स द्वेधा दक्षिणे राहुरुत्तरः केतुरुच्यते॥ रविमार्गेन्वहं राहुः पश्चिमामनुगच्छति । तिस्रः कलाः सार्धदश विकला गतिराह्निकी ॥ तत्रैव पृ. १७६, कारिका २७८-२७९ डॉ. योगेन्द्र कुमार शर्मा, सहायक आचार्य, वास्तुशास्त्र विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, ने अपने वक्तव्य में कहा कि सूर्य और चन्द्र के ग्रहण के विषय में शुभाशुभफल का विचार किया जा चुका है। अब तारा ग्रहों के ग्रहण का फल कहा जाता है। पातास्थानादविक्षिप्तश्चन्द्रेणार्केण वैकभः। ताराग्रहो ग्रस्तबिम्बो जायते ग्रहणं हि तत् ॥ तत्रैव पृ. १७५, कारिका २६३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझा जा सकता है। राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, पांसु, वर्षा और भूकंप ये छः वैकारिक भाव प्रकीर्णाध्याय में है। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम्।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः॥ तत्रैव पृ. १७१, कारिका २१६ इन भावों में पृथ्वी, चन्द्रमा, बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधे भाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः। तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ।। तत्रैव पृ. १७२, कारिका २३२ डॉ. सत्यव्रत पाण्डेय, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Ulkadhikara Part VII

A National Symposium organised by Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute was held online on Thursday, July 31, 2025, from 5:00 to 7:00 PM. The symposium was based on various topics from Kadambini, a text composed by Pandit Madhusudan Ojha, specifically from its section dealing with celestial phenomena. Dr. Yagyadatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Ved Vyasa Campus, said in his address that five types of fire originate in the sky. Their names are — Vajra, Vidyut, Maholka, Dhishnya, and Tara. In meteorology, all five are referred to as Ulkas (meteors). Dr. Suresh Sharma, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Shri Raghunath Kirti Campus, delivered his lecture on the Prakīrṇa Adhyāya (Miscellaneous Chapter) of Kadambini. He explained that the content of this chapter is divided into six topics: Rahu, Ketu, Tara, Digdaha (scorching of directions), Dust Rain (Pāṃsu), and Earthquake. The first topic of this chapter is Rahu. Rahu has neither its own light nor reflects another’s light. It does not shine. Even though it exists and moves in the sky, its movement leaves no visible trace. Dr. Ganesh Krishna Bhatt, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Guruvayur Campus, said that Rahu is also called Svarbhanu. If an eclipse occurs in the month of Mārgaśīrṣa, there will be no rain in the regions called Puṇḍraka, Kashmir, Kaushal, and the western part of India, but the rest of the country will have rain, prosperity, and abundance. If an eclipse occurs in Pausha month, it will harm the regions called Sindhu, Videha, and Kukur, and the rest of the country will suffer from low rainfall and famine. Dr. Ratish Kumar Jha, Assistant Professor, Department of Astrology, Dr. Jagannath Mishra Sanskrit College, Madhubani, Bihar, said that the dark, lightless half of celestial bodies such as the Earth, Moon, and Mercury is called Svarbhanu. The triangular shadow arising from this dark part is called Svarbhanu Rahu. Since the sun remains in their “Svar” (region), they are called Svarbhanu. Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, said that today’s topic is highly practical and can only be understood through observation. Pandit Ojha has mentioned many synonyms for Vajra. Analyzing these names is important because their meanings reveal the basis of their naming. The synonyms include: Hrādini, Vajra, Āpotra, Bhidira, Bhidura, Bhidu, Jambhāri, Jāmbavi, Dambha, Dambholi, Aśani, Pavi, Shatadhara, Shatara, Gau, Meghabhūti, Girijvara, Shatakoṭi, Svaru, Shamba, Kuliśa, Girikantaka. Dr. Ashish Mishra, Guest Lecturer, Department of Vedas, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, recited the Vedic invocation with intonation. The program was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute. The symposium was attended by professors, research scholars, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी कादम्बिनी : उल्काधिकार विमर्श (शृंखला-७)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई, बृहस्पतिवार २०२५ को सायंकाल ५-७ बजेतक अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीतकादम्बिनी नामक ग्रन्थ के उल्काधिकार के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजितकी गई थी। डॉ. यज्ञदत्त, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेद व्यास परिसर, ने अपनेवक्तव्य में कहा कि अन्तरिक्ष में पाँच प्रकार की अग्नियाँ उत्पन्न होती हैं। इनके नाम हैं- वज्र, विद्युत्, महोल्का,धिष्ण्या और तारा । वृष्टिविद्या में इन पाँचों को उल्का नाम से प्रतिपादन किया जाता है। वज्रं विद्युन्महोल्का च धिष्ण्या तारेति पञ्चधा ।उल्केति संज्ञया ख्याता अन्तरिक्षोद्भवाग्नयः॥ कादम्बिनी पृष्ठ १६८ कारिका २०१ इन पाँच में विद्युत् नामवाली और तारा नामवाली उल्का छः दिन तक लगातार दिखाई दे, महोल्का पन्द्रह दिनतक दिखाई दे, वज्र और धिष्ण्या पैंतालिस दिन तक लगातार दिखाई दे तो उस वर्ष फसल की उपज अच्छीहोगी। विद्युत्तारादिनैः षड्भिरुल्का पक्षेण वीक्षिता ।वज्रं धिष्ण्या त्रिभिः पक्षैः फलपाकाय कल्पते ॥ वही, पृष्ठ १६८, कारिका २०२ डॉ. सुरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीरघुनाथकीर्ति परिसर नेकादम्बिनी ग्रन्थ के प्रकीर्णाध्याय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णअध्याय के विषयवस्तु को छः भागों में विभक्त किया गया है। ये हैं- राहु, केतु, तारा, दिग्दाह, धूल की वर्षा(पांसु) और भूकम्प। राहवः केतवस्तारा दिग्दाहः पांसुवर्षणम् ।भूकम्पश्चेति षड् भावा उक्ता वैकारिकाह्वयाः ।। वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१६ प्रकीर्ण अध्याय का पहला विषय राहु है। राहु में अपनी ज्योति और दूसरे की ज्योति नहीं रहती है। राहु प्रकाशनहीं करता है। ये आकाश में रहते भी हैं और चलते भी हैं, इसका बोध नहीं होता है ।अर्थात् राहु गति संबन्धीजो भी क्रिया को करता है, उसका कोई चिह्न नहीं बनता है। राहवः स्व-पर-ज्योतीराहित्यादप्रकाशिनः ।अपि सन्तोऽपि गच्छन्तो द्युमार्गेषु न भान्ति ये ॥ वही, पृष्ठ १७१, कारिका २१७ डॉ. गणेश कृष्ण भट्ट, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, गुरुवायूर परिसर, नेअपने वक्तव्य में कहा कि प्रकीर्णाध्याय में राहु प्रथम विषय है। इसी राहु को स्वर्भानुराहु कहा जाता है। मार्गशीर्षमास में ग्रहण होने पर पुण्ड्रक नामक देश, काश्मीर नामक देश, कौशल नामक देश तथा भारत के पश्चिम भाग मेंवर्षा नहीं होगी और देश के दूसरे भाग में वृष्टि, क्षेम और सुभिक्ष होता है। मार्गे तु ग्रहणं हन्यात् मगधान् काशिकोशलान् ।तथाऽपरान्तकान् शेषे वृष्टि-क्षेम-सुभिक्षकृत्॥ वही, पृष्ठ १७३, कारिका २४५ पौष मास में ग्रहण होने से सिन्धु नामक देश, विदेह नामक देश, कुकुर नामक देश की हानि करता है और देश केदूसरे भाग में अल्पवृष्टि और दुर्भिक्ष होता है। पौषे दृष्टं हन्ति सिन्धून् विदेहान् कुकुरांस्तमः।देशान्तरे तु कुरुते दुर्भिक्षं स्वल्प-वर्षणम्॥ वही, पृष्ठ १७३., कारिका २४६ डॉ. रतीश कुमार झा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, डॉ. जगन्नाथ मिश्र संस्कृत महाविद्यालय मधुवनी,बिहार ने अपने वक्तव्य में कहा कि पृथ्वी, चन्द्रमा और बुध आदि परज्योति पिण्डों के प्रकाशरहित तमोमय आधेभाग को स्वर्भानु कहते हैं। ये परज्योतिषः पिण्डाः पृथ्वी-चन्द्र-बुधादयः।तेषां प्रकाशितादर्द्धादर्द्धमन्यत् तमोमयम् ॥ वही, पृष्ठ १७२, कारिका २३२ तमोमय भाग से उत्पन्न तीन कोण वाली छाया को स्वर्भानु नाम के राहु कहते हैं। इनके स्वर्भाग में भानु रहता है,इससे इनको स्वर्भानु कहते हैं। तज्जाश्छायामयास्त्र्यस्त्रा उक्ताः स्वर्भानुराहवः।स्वर्भागे भानुरस्त्येषा तस्मात् स्वर्भानवः स्मृताः॥ वही, पृष्ठ १७२., कारिका २३३ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही प्रायोगिक है। प्रयोग के आधार पर ही इस विषय को समझाजा सकता है। पण्डित ओझा जी ने वज्र के अनेक पर्याय शब्दों का उल्लेख किया है। इन शब्दों का विश्लेषण अर्थकी दृष्टि से करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसका नाम अर्थ के आधार पर ही बना होगा। ह्रादिनी, वज्र,आपोत्र, भिदिर, भिदुर, भिदु, जम्भारी, जाम्बवि, दम्भ, दम्भोलि, अशनि, पवि, शतधार, शतार, गौ, मेघ-भूति, गिरिज्वर, शतकोटि, स्वरु, शम्ब, कुलिश, गिरिकण्टक इतने वज्र के नाम हैं । ह्रादिनी वज्रमापोत्रं भिदिरं भिदुरं भिदुः।जम्भारिर्जाम्बविर्दम्भो दम्भोलिरशनिः पविः॥शतधारं शतारङ्गौ मेघ-भूतिर्गिरि-ज्वरः।शतकोटिः स्वरुः शम्बः कुलिशं गिरिकण्टकः॥ वही, पृष्ठ १६८., कारिका २०५-२०६ डॉ. आशीष मिश्र, अतिथि अध्यापक, वेद विभग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान केशोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल औरमहाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : रविकराध्याय विमर्श (शृंखला-०६)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० जून, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में रविकराध्याय में वर्णित प्रत्यर्कविधि,परिवेष, इन्द्रायुध, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य, अमोघ विषयों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. निगम पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहारने वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि प्रत्यर्कपरिधि नामक शीर्षक का अर्थ है कि सूर्यकी एक एक परिधि। परिधि का अर्थ सूर्य किरणों का गोलाकार रूप में विस्तार है। सूर्य किरण यदि समान भावमें हो, चिकनापन वाला हो और ऋतुओं के अनुरूप वाली हो, तो वह प्रत्यर्कपरिधि शुभप्रद होती है। वैदूर्य मणिकी आभा वाली प्रत्यर्कपरिधि स्वच्छ और श्वेत हो तो अच्छी वृष्टि होगी एवं कल्याणप्रद होगी। प्रतिसूर्यः समः स्निग्धः स्वर्तुवर्णः प्रशस्यते।वैदूर्याभः सितः स्वच्छः सुभिक्षं क्षेममावहेत् ॥–कादम्बिनी पृ. १५६ का.१४६ परिवेष को स्पष्ट करते हुए कादम्बिनी ग्रन्थ में कहा गया है कि आकाश में सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं। हवा केद्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें प्रतिमूर्छित होते हैं। हवा और किरणों के परस्पर प्रतिघात से एक गोलाकारपिण्ड बनता है, उन्हें परिवेष कहते हैं। परिवेष के आधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। रवेरिन्दोः करा व्योम्नि वायुना प्रतिमूर्छिताः।सूक्ष्मेऽभ्रे मण्डलीभूताः परिवेषाख्यया मताः॥–वही, पृ. १५६ का.१४९ डॉ. नरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय, कैथल, हरियाणा नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि परिवेष के क्रम में ग्रन्थकार ने लिखा है कि सूर्य और चन्द्रमा की किरणों केद्वारा यदि दो छोटे-बड़े कुण्डल जैसा आकार बनता है तो उस स्थान में वृष्टि अच्छी होगी। सूर्य और चन्द्रमा की किरणों से निर्मित कुण्डल यदि पाँच रंगों का हो तो तीन दिनों तक अच्छी वृष्टि होगी, ऐसी परिकल्पना कीजाती है। द्वे द्वे क्षुद्रविशाले चेत् कुण्डले सूर्यचन्द्रयोः।बहुवृष्टिरनेकाहं तदा तत्र भविष्यति ॥द्वे द्वे सूर्यस्य चन्द्रस्य कुण्डले पञ्चवर्णके ।त्र्यहं यावत्तदा तत्र बहुवृष्टिर्भविष्यति ॥ वही, पृ. १५७ का.१६१-१६२ डॉ. विनोद शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर,हिमाचल प्रदेश ने कहा कि इन्द्रायुध दो प्रकार का होता है -धनुष के रूप में और ऐरावत हाथी के रूप में। सूर्यकी किरणों में प्राण स्थित रहता है। यह किरण प्रकाशक है, वही इन्द्र कहलाता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने इन्द्रकी व्युत्पत्ति की है। हवा के बल से सूर्य की किरणें जल के भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। उस जल और हवा केसंमिलित रूप में सात रंगों का विकास होता है। वही इन्द्रधनुष कहलाता है। इन्द्रायुधं तु द्विविधं धनुरैरावतं तथा ।इन्द्रः सूर्यकरस्थानः प्राणे योऽयं प्रकाशते॥नीरांतराः करा भानोः पवनेन विघट्टिताः।सप्तवर्णा धनुःसंस्था दृष्टा इन्द्रधनुर्मतम्॥–वही, पृ. १५८ का.१७४-१७५ डॉ. दिवेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेवक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ का यह विषय सूर्य की किरणों परआधारित है। सूर्य से निकलने वाली रेखा का नाम अमोघ है। यदि उस रेखा का अगला भाग खण्डित है तो उसीका नाम दण्ड है। यदि उस रेखा की संख्या तीन है तो वह त्रिशूल नाम से जाना जाता है। दूसरी दिशा से निकलीहुई दो अमोघ रेखाओं से मत्स्य का स्वरूप बनता है। इस प्रकार इन चारों तत्त्वों के आधार पर वृष्टि की कल्पनाकी जाती है। सूर्यात् समुत्थिता रेखाऽमोघ इत्यभिधीयते ।सोऽग्रेण खण्डिता दण्डस्तिस्रो रेखास्त्रिशूलकम्॥द्वाभ्याममोघ-रेखाभ्यां भिन्नदिग्भ्यां तु मस्तकः।सत्स्वप्येवं विशेषेषु सांकर्येणोच्यते फलम्॥ वही, पृ. १६० का.१८६ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि सूर्य की किरण के आधार पर परिधि का निर्माण होता है। सूर्यबिम्ब है और उसी सूर्य का प्रतिबिम्ब दूसरे स्थान पर होता है। बिम्बात्मक सूर्य की किरणों से परिधि बनती है।यदि यह परिधि सूर्य के दोनों ओर स्थित बिम्ब को स्पर्श करती है तो अच्छी वृष्टि होगी और यदि यही परिधिसूर्य के चारों ओर हो तो अच्छी वृष्टि नहीं होगी। बिम्बान्वितौ तु परिधी रवेरुभयपाश्वर्गौ ।बहुतोयौ निर्जलस्तु सर्वदिक्पर्यवस्थितः॥–वही, पृ. १५६ का.१४८ सूर्य की किरणों से ही कुण्डल जैसा आकार आकाश में बनता है। यदि यह कुण्डल सूर्य के पाँच वर्णों वाला है तोआकाश में घने मेघ लगे रहेंगे और वृष्टि अच्छी होगी। सूर्यस्य कुण्डलं पञ्चवर्णं चेद् बहुविस्तृतम् ।तदा घनघटाटोपो बहुवृष्टिश्च जायते ॥–वही, पृ. १५८ का.१६८ डॉ. राहुल कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Discourse on Vikaradhyaya-Part V

The fifth seminar on Kadambini was organised on May 31, 2025. This was part of the Shri Shankar Shikshayatan’s annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s great work on meteorology, Kadambini.  The focus of the seminar was on the book’s Vaikarikadhyaya under which six subjects were discussed. Karikas from 107 to 145 from Kadambini were discussed. The invited scholars presented their lectures based on the topics covered in these karikas. Prof. Madan Mohan Pathak, Central Sanskrit University, Lucknow, was the keynote speaker. Referring to the term, `khapur`, Prof. Pathak said the term meant a city appearing in the sky. Kha means sky and Pur means city. A city-like mark is formed in the clouds. The Gandharva city appearing in the sky with many colours and shapes like a city and  with flags and festoons is called Khapur. खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् । वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७ अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः । युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ The term ‘abhrataru’ means a tree-like mark appearing in the clouds. Abhra means cloud and taru means tree.The one which has a branch is called Shakhi. शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च । दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ Dr. Subhash Chandra Mishra, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, explained the term, karka`. It means hail. He spoke about several synonyms of the term mentioned in the book–dharankur, radharanku, varshopal, ghanopal, meghopal,meghasthi, matchi, punjika, bijodak, ghankaf and varchar. He pointed out that if there was excessive hail, there was little chance of rain.  धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः। मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥ बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च । भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ Dr. Brajesh Pathak, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, in his presentation pointed out there were seven impediments against good monsoon caused by the rays of the sun . These  are ravikaradhyaya, sandhya, kundal, danda, trishul, matsya and amogha. सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् । मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी । नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ Dr. Naveen Tiwari, Central Sanskrit University, Ranvir Campus, spoke about sandhya as a comprehensive idea in the science of monsoon. If in the evening, a `mountain range` is visible in the sky in the northern direction, it is bound to rain in that area on the third day. When the `mountain range` is visible in the north-west, it rains day and night. When the `mountain range` is visible in the west, it is expected to rain for seven or three days. उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका । तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् । सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, presiding over the seminar, pointed out that agni, vayu, surya and soma are key elements of monsoon.  These four elements enable water to rise to the sky, form into clouds, hold water and then fall as rain. It is no different from the modern scientific concept. The scientists today estimate rainfall on the basis of wind.  अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् । उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ Dr. Rajnish Kumar Pandey, Central Sanskrit University, Jaipur Campus recited the Vedic Manglacharan. The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. The seminar was attended by acharyas, research scholars, students and scholars interested in Sanskrit studies from universities and colleges from several states across the country. 

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