सप्तदिवसीय राष्ट्रीय वैदिकविज्ञानविद्युत्-कार्यशाला

July 14-20,2025

प्रतिवेदन

श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली के द्वारा दिनांक 14-20 जुलाई 2025 तक अन्तर्जालीय माध्यम से सप्तदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का समायोजन किया गया। यह कार्यशाला पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत विज्ञानविद्युत् ग्रन्थ पर आयोजित थी। पं. ओझा के द्वारा प्रणीत यह लघु ग्रन्थ ब्रह्मविज्ञान में प्रवेश के लिए प्रारम्भिक ग्रन्थ है।  इस ग्रन्थ में पाँच प्रकाश हैं। जिसमें पुर, पुरुष, परात्पर एवं निर्विशेष के रूप में चतुष्पाद् ब्रह्म का विवेचन हुआ है। यह ग्रन्थ कुल पाँच प्रकाशों में विभक्त है। कार्यशाला में प्रत्येक प्रकाश के विषय-वस्तु का विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा उद्घाटन किया गया। प्रत्येक दिन दो विषय-विशेषज्ञों ने विषय पर व्याख्यान दिये एवं अध्यक्षीय वक्तव्य हुआ। इस सप्तदिवसीय कार्यशाला का विस्तृत विवरण अधोलिखित है-

प्रथम दिवस (14.07.2025) :

कार्यशाला के पहले दिन का विषय चतुष्पाद्-ब्रह्म विचार था जिसमें विषय विशेषज्ञ के रूप में बोलते हुए प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि यह विज्ञानविद्युत् अत्यन्त पठनीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ चतुष्पाद् ब्रह्म से हुआ है। चतुष्पाद् का अर्थ है, जिसमें चार विषयरूपी पाद हों। ये पाद हैं- पुर, पुरुष, परात्पर और निर्विशेष। इस सृष्टि में जो कुछ भी पदार्थ बाह्य जगत् में देखा जाता है, वह सभी विकारों का समूह है। भूतग्राम और आत्मग्राम को पुर कहा गया है। भूतग्राम से तात्पर्य आकाश, वायु,  अग्नि, जल और पृथ्वी है।  आत्मग्राम से तात्पर्य  ज्ञानेन्द्रिय से है। शास्त्र में आत्मा शब्द का अर्थ बुद्धि भी होता है। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में भी प्रज्ञामात्रा और भूतमात्रा की चर्चा मिलती है-‘तथा हि इदं यावद् इह किञ्चिद् बहिर्धा दृश्यते, सर्वोऽयं विकार-संघो भूतग्रामत्वाद् आत्मग्रामत्वात् च पुरम् इति अभिधीयते।’,विज्ञानविद्युत् पृ. २

दूसरे विषयविशेषज्ञ प्रो. श्यामदेव मिश्र, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने कहा कि पुर का ही अर्थ शरीर होता है। विकारों का समूह ही शरीर है। यह विकार क्षरपुरुष में आश्रित रहता है। इस शरीर का प्रतिक्षण क्षरण होते रहता है। अव्ययपुरुष, अक्षरपुरुष और क्षरपुरुष इन तीन पुरुषों में क्षरपुरुष में शरीर को रखा जाता है। इन तीन पुरुषों से भिन्न यह शरीर नहीं है-‘क्षरपुरुषाश्रितोऽयं विकारसंघः शरीरम् उच्यते, इति उक्तम्, तच्च क्षरात्मकत्वात्, क्षरपुरुषेऽन्तर्भूतम् इति त्रिपुरुषात् न अतिरिच्यते किञ्चित्।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. ८

द्वितीय दिवस (15.07.2025) :

दूसरे दिन का विषय अक्षरतत्त्व विचार था जिसमें प्रो. विष्णुपद महापात्र, आचार्य, न्याय विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि अक्षर पुरुष पाँच प्रकार के हैं- ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम। इन पाँचो को दो भागों में केन्द्र और बाह्य रूप में विभक्त किया गया है। केन्द्र के लिए हृद्य शब्द का और बाह्य के लिए पृष्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है। ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र ये तीन हृद्य हैं एवं अग्नि-सोम पृष्ठ्य हैं। इनमें ब्रह्मा को प्रतिष्ठाप्राण, विष्णु को आकर्षण प्राण और इन्द्र को उत्क्षेपण प्राण कहा गया है। उत्क्षेपण के द्वारा जो प्रतिष्ठित होता है, वह अग्नितत्त्व है। आकर्षण के द्वारा जो तत्त्व प्रतिष्ठित होता है वह सोम तत्त्व है। इस को एक सरल उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। प्रतिष्ठा का अर्थ आधार होता है। ब्रह्मा रूप आधार पर विष्णु और इन्द्र प्रतिष्ठित हैं। विष्णु बाहर से तत्त्व को लाते हैं जस तत्त्व को विष्णु लाते हैं वह सोम है अर्थात् अन्न है। इन्द्र जिस तत्त्व को बाहर ले जाते हैं वह तत्त्व अग्नि है। यह मानव के शरीर में एवं प्रत्येक जीव के शरीर में घटित होता है- ‘तत्र प्रतिष्ठाप्राणं ब्रह्माणम् आहुः, आकर्षणप्राणं विष्णुः आहुः, उत्क्षेपणप्राणं तु इन्द्रम् आहुः, उत्क्षिप्तः प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषोऽग्निः उच्यते, आकृष्टस्तु प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषः सोम इति उच्यते।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. १३

द्वितीय वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रो. सतीश कुमार मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने कहा कि इस प्रकाश में अक्षर का ही विस्तार से वर्णन किया गया है। ब्रह्मा को वेद, विष्णु को यज्ञ, इन्द्र को प्रजा, अग्नि को लोक और सोम को धर्म कहा गया है। इस प्रारूप में अक्षर की व्याख्या की गयी है-‘एषु च पञ्चाक्षरेषु ब्रह्मा वेदमयः विष्णुर्यज्ञमयः इन्द्रः प्रजामयः अग्निर्लोकमयः सोमो धर्ममयः प्रतिपद्यते।’, वही, पृ. १९

तृतीय दिवस (16.07.2025) :

तीसरे दिन का विषय अव्यय तत्त्व विचार था जिसमें अपने वक्तव्य में प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने बतलाया कि क्षरपुरुष को परिणामी कारण कहा गया है और अक्षर पुरुष को निमित्त कारण कहा गया है। इन दोनों तत्त्वों से विशिष्ट अव्यय पुरुष है। वह अव्यय पुरुष न कार्य है और न कारण है। यहाँ अव्यय पुरुष की कारणता का निषेध किया गया है परन्तु दूसरे प्रकार से अव्यय पुरुष को ही सर्वकारण कहा गया है-‘उक्तं पूर्वम्, क्षरपुरुषः परिणामि-कारणम्, अक्षरपुरुषो निमित्त-कारणम्, ताभ्यां यदन्यत्सोऽव्ययः पुरुषो न कार्यं न कारणम् इति। यद्यपि एवम् अस्मिन् अव्ययपुरुषे कारणत्वं निषिध्यते, तथापि प्रकारान्तरेण अस्य अव्ययपुरुषस्य एव सर्वकारणत्वं प्रत्येतव्यम्।’, वही, पृ २७

दूसरे वक्ता डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला ने कहा कि अव्यय की पाँच कलाएँ हैं- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्।  इन पाँच कलाओं को दो भागों में विभाजित करते हैं। एक भाग में आनन्द, विज्ञान और मन है, दूसरे विभाग में प्राण, वाक् और मन है। दूसरा विभाग प्राण, वाक् और मन ये तीनों सृष्टि के कारण हैं। सृष्टि के लिए प्राण-वाक् उपादान है और विज्ञान-आनन्द सहकारी कारण है। विज्ञान और आनन्द के साथ मन-वाक् अनेक प्रकार के प्राण को उत्पन्न करता हुआ अनेक प्रकार की सृष्टि को उत्पन्न करता है। तथा विज्ञान, एवं आनन्द के साथ मन संसार से मुक्ति का कारण होता है-‘एषु पञ्चसु अव्ययधातुषु उत्तराभ्यां प्राण-वाग्भ्यां सहितं मनः संसाराय हेतुर्भवति। तत्र प्राण-वाग्भ्यां जगदुपादाने विज्ञानानन्दौ सहकारिणौ भवतः। विज्ञानेनान्देन च सहकृतं मनो वाचि भिन्न-विधान् प्राणान् सन्निवेश्य नानविधान् भावान् उत्पादयति। अथ विज्ञानानन्दाभ्यां सहितं मनो निस्ताराय हेतुर्भवति।’,वही, पृ. ३२

चतुर्थ दिवस (17.07.2025) :   

चौथे दिन का विषय परमेष्ठी तत्त्व विचार था जिसमें प्रथम वक्ता के रूप में प्रो. प्रयाग नारायण मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, इलाहावाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज ने परमेष्ठी के स्वरूप पर अपना विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि एक ईश्वर के शरीर में नाना विध स्वरूप वाला ब्रह्मा स्थित रहता है। उस ब्रह्मा का परमेष्ठी में, सूर्य में, पृथ्वी में एवं चन्द्रमा में स्थित रहने के काराण ही ब्रह्मा नानविध स्वरूप वाला बनता है। ईश्वर के शरीर में ब्रह्मा से प्रारम्भ करके चन्द्रमा तक अनेक शाखा का निर्माण होता है। जिस पृथ्वी पर हम लोग स्थित हैं। उस पृथ्वी का आधार भी ब्रह्मा ही है। इस रूप में  पञ्च अक्षरों के आधार पर आगे की व्याख्या ग्रन्थकार ने किया है-‘एकस्मिन् ईश्वर-शरीरे नाना-ब्रह्मणस्तत्र तत्रोपतिष्ठन्ते। एकैकं च तं तं ब्रह्माणं विष्णु-प्रभृतयोऽक्षराः क्रमेणावलम्बन्ते। तथा चास्मिन् ईश्वर-शरीरे तदेकैकब्रह्मणा समारब्धाः पञ्चाक्षरपुण्डीरा बह्व्यो बल्शाः संपद्यन्ते। तत्र यस्यां बल्शायां ममैषा पृथिवी संप्रथते तादृक्-शाखा-प्रवर्तकं ब्रह्माणम् एव इह अधिकृत्य सर्वम् उत्तरतो निरूपयिष्यामः।’,वही, पृ. ३६

दूसरे वक्ता डॉ. यदुवीर स्वरूप शास्त्री, सहायक अचार्य, व्याकरण विभाग, कामेश्वरसिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा ने कहा कि वरुण प्राण में एक रस विशेष रहता है। उस रस से आदित्य और यम का स्वरूप निर्धारित होता है। इसी लिए सूर्य रूप आदित्य उस वरुण का चारों ओर से परिक्रमा करता है। सूर्य वरुण की परिक्रमा करता है-‘अथान्ये पुनरन्यथा पश्यन्ति अस्य वरुणस्य आङ्गरसेभ्योऽङ्गिरसोऽमी आदित्य-यमाग्नयः प्रादुर्भूताः इत्यतः स सूर्य आदित्यस्तं वरुणं परितः परिक्रामति। सूर्यो वरुणं परिक्रामति।’ वही, पृ. ४२

पञ्चम दिवस (18.07.2025) :    

पाँचवें दिन का विषय सप्तलोक विचार था जिसमें विषयविशेषज्ञ के रूप में बोलते हुए प्रो. भारत भूषण त्रिपाठी, आचार्य, व्याकरण विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने कहा कि स्वयम्भूमण्डल, परमेष्ठीमण्डल, सूर्यमण्डल, पृथ्वीमण्डल और चन्द्रमण्डल ये पाँच मण्डल हैं। चन्द्रमा  पृथ्वीविश्वरूप में रहता है, पृथ्वी सूर्य के विश्वरूप में रहता है।  सूर्य परमेष्ठी के विश्वरूप में रहता है, परमेष्ठी स्वयम्भू के विश्वरूप में रहता है और  स्वयम्भू परोरजा के विश्वरूप में अवस्थित रहता है। इन सभी मण्डलों का आश्रय परोरजा स्वरूप अव्यय ही है-‘तत्तद् ब्रह्मणो रश्मि-मण्डलम् एतस्य स्वं स्वं वैश्वरूप्यं विज्ञायते। तत्रोत्तरम् उत्तरं ब्रह्मक्रमेण पूर्वस्मिन् वैश्वरूप्ये संनिविशते। यथाऽयं चन्द्रमाः पृथ्वीवैश्वरूप्येऽनतर्धत्ते। एवम् इयं पृथिवी सूर्यवैश्वरूप्ये। तच्च परमेष्ठिवैश्वरूप्ये, तदपि वेदमये सयंभू-वैश्वरूप्ये, तदापि च पुनः परोरजसो रश्मि-मण्डलेऽन्तर्धत्ते। न ततो बहिर्धा भवति। तदित्थम् उत्तरोत्तराणां पूर्व-पूर्व-मण्डल आलम्बितत्वात् सर्वेषाम् एषां स परोरजा अव्यय एव परमालम्बनं भवति।’, वही, पृ. ४९

दूसरे वक्ता के रूप में डॉ. राजीव लोचन शर्मा, सहायक अचार्य, न्याय विभाग, कुमार भास्कर वर्मा पुरातन  अध्ययन विश्वविद्यालय, असम ने  विज्ञानात्मा के स्वरूप पर अपना विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि विज्ञानात्मा के स्वरूप निर्धारण में ब्रह्मा और विष्णु का योगदान है। ब्रह्मा शान्तात्मा है और विष्णु यज्ञात्मा है। सूर्य का ही दूसरा नाम इन्द्र है। ब्रह्मा और विष्णु को आधार बना कर सूर्य विज्ञान को उत्पन्न करता है।  यहाँ विज्ञान का अर्थ बुद्धि है। वह इन्द्र ज्योति स्तोम और गो स्तोम एवं आयु स्तोम के भेद से तीन स्तोम वाले हैं। यज्ञ में सूर्य से रस लेता हुआ शरीर में प्राण बन कर स्थित रहता है। यही विज्ञात्मा क्षेत्रज्ञ आत्मा कहलाता है-‘अथैतं सान्तात्मानं ब्रह्माणमेतं यज्ञात्मानं विष्णुं चालम्ब्य सूर्यादुपस्थित इन्द्रो विज्ञानं शरीरे जनयति। स खल्विन्द्रो ज्योतिष्टोम-गोष्टोमायुष्टोम-भेदात् त्रिस्तोमः सूर्यरसः शरीरस्थे यज्ञे प्राणोऽभूत्वावतिष्ठते। एष एव च विज्ञानात्मा क्षेत्रज्ञात्मा इत्युच्यते।’, वही, पृ. ५७

षष्ठ दिवस (19.07.2025) :    

छठे दिन का विषय भूतात्मा विचार था जिसमें वक्तव्य देते हुए प्रो. सत्यप्रकाश दुबे, पूर्व अचार्य, संस्कृत विभाग, जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर ने बतलाया कि अग्नि स्वरूप पृथ्वी के रस से भूतात्मा बनता है। वह तीन प्रकार का है- शरीरात्मा, हंसात्मा और दिव्यात्मा।  आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच महाभूतों के कारण शरीर का एक आकार बनता है। उस शरीर में जो आत्मा रहता है वह शरीरात्मा कहलाता है। ये आकाश आदि भूत मर्त्य अग्नि स्वरूप पृथ्वी के रस का ही परिणाम है। भूतात्मा के भेद में यह पहला भूतात्मा शरीरात्मा मर्त्य अग्नि है-‘अथाग्निमयः पृथ्वीरसरूपः पञ्चम आत्मा भूतात्मा नाम। स तावत् त्रिविधः- शरीरात्मा,  हंसात्मा, दिव्यात्मा चेति । तत्र पञ्चभूतानि एव सरीराकरेण विशेष-सन्निवेश-युक्तानि शरीरात्मा भवति। तत्रैतानि भूतानि मर्त्याग्निः पृथ्वीरसरूपो द्रष्टव्यः। स भूतात्मभेदेषु प्रथमो भूतात्मा शरीरात्मा मर्त्योऽग्निः।’, वही, पृ. ६३

दूसरे वक्ता डॉ. अरविन्द कुमार तिवारी, प्रवक्ता, संस्कृत, आदर्श वैदिक वैदिक इण्टर कॉलेज, बागपत, उत्तर प्रदेश ने आत्मगति विषय को स्पष्ट करते हुए कहा कि जब शरीरात्मा जीव को छोड़ता है तब शरीरात्मा की क्या स्थिति होती है? शरीर में स्थित पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। इन भूतों के आधार पर ही शरीर में चमड़ा और हड्डी का निर्माण होता है। पञ्च महाभूत से आत्मा पृथक् हो जाता है। ज्ञानेन्द्रिय को बताते हुए ओझाजी कहते हैं कि वाक् अग्नि में, प्राण वायु में, चक्षु आदित्य में, श्रोत्र दिशा में और चन्द्रमा मन में, मन ब्रह्मणस्पति और चन्द्रमा में क्रमपूर्वक विलीन होते हुए आध्यात्मिक स्वरूप से पृथक् हो जाते हैं। यह शरीर में स्थित पञ्च देवताओं की पञ्चत्व गति होती है। यह सूक्ष्म तथा स्थूल भेद से विभक्त शरीरात्मा की पञ्चत्व गति है-‘मरणोत्तरं शरीरात्मा पञ्चत्वं याति। अर्थात् पृथिव्यादयः पञ्च धातवः शरीरस्था विश्लथाः सन्तः शरीरात् पृथग्भूय पृथिव्यादिषु यथायथं संसृज्य शरीर-स्वरूपाणि चर्मत्वास्थित्वादीनि त्यजन्ति। सैषा शरीरस्थ-भूतानां पञ्चत्व-गतिर्भवति। अथ वागह्नौ, प्राणो वायौ, चक्षुरादित्ये, श्रोत्रं दिक्चन्द्रे, मनो ब्रह्मणस्पतिचन्द्रे च यथायथं संसृज्याध्यात्मिक-स्वरूपतरश्च्यवन्ते। सैषा सरीरस्थ-दैवतानां पञ्चत्व-गतिर्भवति। तथा च सूक्ष्मस्थूलभेदाद्विभक्तस्य शरीरात्मनः पञ्चत्व-गतिर्व्याख्याता।’,वही, पृ. ६८

सप्तम दिवस (20.07.2025) :     

सातवें दिन का विषय सप्तकोश विचार था जिसमें विषयविशेषज्ञ के रूप में प्रो. सतीश के. एस्. आचार्य, अद्वैतवेदान्त विभाग, राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपति ने अव्यय के पाँच कलाओं का अध्यात्म के स्तर पर पाँच कोशों के रूप का वर्णन किया। उन्होंने बतलाया कि अव्यय की पाँच कलाएँ हैं-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्। इन पाँच कलाओं को ही पञ्चकोश कहते हैं। मनुष्य के शरीर में इन पाँचों कोशों का स्थान निर्धारित है। आनन्दमयकोश में आत्मा का निवास रहता है-‘अत एवैतस्याऽव्यय-पुरुषस्यैताः पञ्च भक्तयः पञ्च कोशा उच्यन्ते- अन्नमयकोशः प्राणमयकोशः मनोमयकोशः विज्ञानमयकोशः आनन्दमयकोशः इति तैत्तिरीयके प्रपञ्चितम्।’, वही, पृ. ७२

दूसरे वक्ता प्रो. मैत्रेयी कुमारी, आचार्य, संस्कृत विभाग, कमला नेहरू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने चयन विषय पर बोलते हुएखा कि चिति का अर्थ चयन होता है और चयन को सृष्टि कहते हैं। सृष्टि के कार्य में परात्पर का संबन्ध नहीं होता है। परात्पर पुरुष अव्यय पुरुष से संबन्ध बनाता है। अव्यय पुरुष अक्षर पुरुष से संबन्ध बनाता है और अक्षरपुरुष क्षरपुरुष से संबन्ध बनता है। एक पुरुष का दूसरे पुरुष से जो संबन्ध बनता है वही चिति है-‘परात्परस्य पुरुषस्य च सर्व-विधि-बल-वैशिष्ट्य-साम्येऽपि पुरुषे तावच्चिति-संबन्धेन सर्व-विधि-बलानि परस्परतः संबध्नन्ति। चयनाच्च बल-संपन्नं रूपं जगत्-सृष्टिम् अधिकुरुते। चितिरेव सृष्टिः।’वही, पृ. ८१ 

यह सप्तदिवसीय कार्यशाला जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं प्राच्य अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली के आचार्य प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल की अध्यक्षता में सम्पन्न हुयी । वे अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रत्येक दिवस के अन्त में उस दिन के निर्धारित विषय का सार प्रस्तुत करते थे। उन्होंने कहा कि चतुष्पाद् ब्रह्म का वर्णन विज्ञानविद्युत् ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है। चतुष्पाद् में पुर, पुरुष, परात्पर और निर्विशेष  ये चार तत्त्व हैं।

पुर- पुर का ही दूसरा नाम शरीर है। यह शरीर विकारों का समूह है। (इदं पुरं विग्रह इत्युच्यते। वही, पृ.४)

पुरुष- पुरुष तीन प्रकार के हैं- क्षररपुरुष, अक्षर पुरुष और अव्यय पुरुष। इन तीनों को क्रमशः अवर, परावर और पर कहते हैं। यह क्षरपुरुष सभी विकारों समूहों का उपादान कारण है। (‘तत्र क्षरपुरुषः सर्वेषां विकार-संघानाम् उपादान-कारणम्।’, वही, पृ. ४)

परात्पर- क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष, अव्यय पुरुष ये तीनों परस्पर एक साथ रहते हैं। ये तीनों अलग-अलग नहीं रह सकते हैं। इन तीनो से मिल कर एक पुरुष का स्वरूप बनता है। वह गूढोत्मा नामक प्रजापति है। इसी से परात्पर का स्वरूप निर्धारित होता है।

निर्विशेष-  रस और बल का ही दूसरा नाम अमृत और मृत्यु है। रस और बल ये दोनों हमेशा एक साथ रहते हैं। यदि मनुष्य अपनी बुद्धि से बल से रस को अलग कर के जानता है तो रस के उस स्वरूप को निर्विशेष कहते हैं। सारांश यह है कि बल से रहित जो रस है वही निर्विशेष कहलाता है-‘यद्यपि रस-बलयोः अनयोः अमृतमृत्युर्ऊपयोः मध्ये नैकम् अपि अन्येन विनाकृत भवति, उभयोः अयुत-सिद्धत्वात्, तथापि यदि बुद्ध्या बलोपाधिकं विशुद्धं रसमात्रं पृथक् भाव्यते, तदा स रसो निर्विशेष इत्युच्यते।’,वही, पृ. ७

इस कार्यशाला का शुभारम्भ डॉ. धर्मेन्द्र कुमार पाठक, सहायक आचार्य, वेद विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर के सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण से हुआ। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मीकान्त विमल एवं डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने किया। गूगलमीट के माध्यम से ऑनलाईन समायोजित इस कार्यशाला में प्रत्येक दिन विविध विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों के आचार्यों, शोधछात्रों एवं वैदिकविज्ञान में रुचि रखने वाले शताधिक विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग लेकर इसे अत्यन्त सफल बनाया ।

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