प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० जून, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीय
माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामक
ग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में रविकराध्याय में वर्णित प्रत्यर्कविधि,
परिवेष, इन्द्रायुध, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य, अमोघ विषयों का विश्लेषण किया गया है।
डॉ. निगम पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार
ने वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि प्रत्यर्कपरिधि नामक शीर्षक का अर्थ है कि सूर्य
की एक एक परिधि। परिधि का अर्थ सूर्य किरणों का गोलाकार रूप में विस्तार है। सूर्य किरण यदि समान भाव
में हो, चिकनापन वाला हो और ऋतुओं के अनुरूप वाली हो, तो वह प्रत्यर्कपरिधि शुभप्रद होती है। वैदूर्य मणि
की आभा वाली प्रत्यर्कपरिधि स्वच्छ और श्वेत हो तो अच्छी वृष्टि होगी एवं कल्याणप्रद होगी।
प्रतिसूर्यः समः स्निग्धः स्वर्तुवर्णः प्रशस्यते।
वैदूर्याभः सितः स्वच्छः सुभिक्षं क्षेममावहेत् ॥–कादम्बिनी पृ. १५६ का.१४६
परिवेष को स्पष्ट करते हुए कादम्बिनी ग्रन्थ में कहा गया है कि आकाश में सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं। हवा के
द्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें प्रतिमूर्छित होते हैं। हवा और किरणों के परस्पर प्रतिघात से एक गोलाकार
पिण्ड बनता है, उन्हें परिवेष कहते हैं। परिवेष के आधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है।
रवेरिन्दोः करा व्योम्नि वायुना प्रतिमूर्छिताः।
सूक्ष्मेऽभ्रे मण्डलीभूताः परिवेषाख्यया मताः॥–वही, पृ. १५६ का.१४९
डॉ. नरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय, कैथल, हरियाणा ने
अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि परिवेष के क्रम में ग्रन्थकार ने लिखा है कि सूर्य और चन्द्रमा की किरणों के
द्वारा यदि दो छोटे-बड़े कुण्डल जैसा आकार बनता है तो उस स्थान में वृष्टि अच्छी होगी। सूर्य और चन्द्रमा की
किरणों से निर्मित कुण्डल यदि पाँच रंगों का हो तो तीन दिनों तक अच्छी वृष्टि होगी, ऐसी परिकल्पना की
जाती है।
द्वे द्वे क्षुद्रविशाले चेत् कुण्डले सूर्यचन्द्रयोः।
बहुवृष्टिरनेकाहं तदा तत्र भविष्यति ॥
द्वे द्वे सूर्यस्य चन्द्रस्य कुण्डले पञ्चवर्णके ।
त्र्यहं यावत्तदा तत्र बहुवृष्टिर्भविष्यति ॥ वही, पृ. १५७ का.१६१-१६२
डॉ. विनोद शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर,
हिमाचल प्रदेश ने कहा कि इन्द्रायुध दो प्रकार का होता है -धनुष के रूप में और ऐरावत हाथी के रूप में। सूर्य
की किरणों में प्राण स्थित रहता है। यह किरण प्रकाशक है, वही इन्द्र कहलाता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने इन्द्र
की व्युत्पत्ति की है। हवा के बल से सूर्य की किरणें जल के भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। उस जल और हवा के
संमिलित रूप में सात रंगों का विकास होता है। वही इन्द्रधनुष कहलाता है।
इन्द्रायुधं तु द्विविधं धनुरैरावतं तथा ।
इन्द्रः सूर्यकरस्थानः प्राणे योऽयं प्रकाशते॥
नीरांतराः करा भानोः पवनेन विघट्टिताः।
सप्तवर्णा धनुःसंस्था दृष्टा इन्द्रधनुर्मतम्॥–वही, पृ. १५८ का.१७४-१७५
डॉ. दिवेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा ने
वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ का यह विषय सूर्य की किरणों पर
आधारित है। सूर्य से निकलने वाली रेखा का नाम अमोघ है। यदि उस रेखा का अगला भाग खण्डित है तो उसी
का नाम दण्ड है। यदि उस रेखा की संख्या तीन है तो वह त्रिशूल नाम से जाना जाता है। दूसरी दिशा से निकली
हुई दो अमोघ रेखाओं से मत्स्य का स्वरूप बनता है। इस प्रकार इन चारों तत्त्वों के आधार पर वृष्टि की कल्पना
की जाती है।
सूर्यात् समुत्थिता रेखाऽमोघ इत्यभिधीयते ।
सोऽग्रेण खण्डिता दण्डस्तिस्रो रेखास्त्रिशूलकम्॥
द्वाभ्याममोघ-रेखाभ्यां भिन्नदिग्भ्यां तु मस्तकः।
सत्स्वप्येवं विशेषेषु सांकर्येणोच्यते फलम्॥
वही, पृ. १६० का.१८६
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण
था । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि सूर्य की किरण के आधार पर परिधि का निर्माण होता है। सूर्य
बिम्ब है और उसी सूर्य का प्रतिबिम्ब दूसरे स्थान पर होता है। बिम्बात्मक सूर्य की किरणों से परिधि बनती है।
यदि यह परिधि सूर्य के दोनों ओर स्थित बिम्ब को स्पर्श करती है तो अच्छी वृष्टि होगी और यदि यही परिधि
सूर्य के चारों ओर हो तो अच्छी वृष्टि नहीं होगी।
बिम्बान्वितौ तु परिधी रवेरुभयपाश्वर्गौ ।
बहुतोयौ निर्जलस्तु सर्वदिक्पर्यवस्थितः॥–वही, पृ. १५६ का.१४८
सूर्य की किरणों से ही कुण्डल जैसा आकार आकाश में बनता है। यदि यह कुण्डल सूर्य के पाँच वर्णों वाला है तो
आकाश में घने मेघ लगे रहेंगे और वृष्टि अच्छी होगी।
सूर्यस्य कुण्डलं पञ्चवर्णं चेद् बहुविस्तृतम् ।
तदा घनघटाटोपो बहुवृष्टिश्च जायते ॥–वही, पृ. १५८ का.१६८
डॉ. राहुल कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने सस्वर
वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी
डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,
शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।