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राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श

प्रतिवेदन श्रीशंकर शंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० नवम्बर २०२३ को शारीरकविमर्श नामक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन अन्तर्जालीय माध्यम से किया गया। पं. मधुसूिन ओझा प्रणीत शारीरकशवमशशके १५वें प्रकरण को आधार बना कर यह संगोष्ठी समायोशजत हुई थी । इस प्रकरण में २७ शीर्षकों के माध्यम से ईश्वर का विस्तार से निरूपण किया गया है। ओझाजी ने इस प्रकरण में ईश्वर विषयक विविध वैदिक सन्दर्भों को उद्धृत करते हुए विविध आयामों से ईश्वर के विषय में विमर्श किया है। संगोष्ठी में प्रथम वक्ता के रूप में व्याख्यान करते हुए डॉ. सोमवीर सिंघल, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय ने सगुण और निर्गुण के माध्यम से ईश्वर के स्वरूप का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि उपासना के लिए सगुण स्वरूप होना आवश्यक होता है। ज्ञान के लिए निर्गुण स्वरूप होना आवश्यक है। इस प्रकरण में रस और बल को निर्विशेष कहा गया है। निर्विशेष का ही अर्थ निर्गुण होता है। जब रस और बल पृथक् पृथक् रहते हैं तब वे दोनों निर्विशेष कहलाते हैं। जब सृष्टि की इच्छा से दोनों तत्त्व मिलते हैं तब सगुण का स्वरूप निर्धारित होता है। जिसे सविशेष कहा जाता है। उन्होंने कहा कि वेदों में ईश्वर के लिए ईशान, पुरुष आदि शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। द्वितीय वक्ता के रूप में व्याख्यान देते हुए डॉ. रञ्जनलता, सहायक आचार्या, संस्कृत एवं प्राकृत विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर ने कहा कि ईश्वरात्मनिरुक्ति के दूसरे शीर्षक में परात्पर का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। ग्रन्थकार ने परात्पर के वर्णन के क्रम में परात्पर के लिए निर्विशेष, निरञ्जन, उपसृष्ट और उपसर्ग ये पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त किये हैं। जिस में कोई छोटा-बड़ा आकार और लाल-पीला वर्ण नहीं होता है, वह तत्त्व निर्विशेष कहलाता है। जिस पर कोई लेप नहीं लग सकता है और किसी प्रकार का कोई आवरण भी नहीं आ सकता है, वह तत्त्व निरञ्जन कहलाता है। स्फटिक मणि के समीप लालफूल रहने पर फूल का लाल रंग स्फटिक में दीखने लगता है। यही उपाधि है, इसी को उपसृष्ट कहते हैं। उपसर्ग का अर्थ उपाधियुक्त होता है। परात्पर उपाधि रहित होता है। उपसृष्ट और उपाधि एक ही वस्तु है। उपसृष्ट का अर्थ उपहित होता है। “यो निर्विशेषः स परात्परो भवन्निरञ्जनः सन्नुपसृष्ट ईक्ष्यते ।हित्वोपसर्गं स निरञ्जनो भवन्परात्परः शिष्यत एव लक्ष्यते ॥” शारीरकविमर्श, पृ.२६१, का.१ कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने ब्रह्म के चतुष्पादों में वर्णित पुरुष और पुर पर अपना सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि ऋग्वेद में ‘पुरुष एवेदम्’ यह उल्लेख है। यह पुरुष ही प्रजापति है। पुर का अर्थ नगर है। यह शरीर ही नगर है। इस दृष्टि से ‘पुरि शेते इति’ पुरुष सिद्ध होता है। विकार के प्रसंग में ग्रन्थकार ने आत्मग्राम और भूतग्राम का उल्लेख किया है। ग्राम शब्द का अर्थ समूह होता है। भूत अर्थात् जीव अनेक हैं । इस दृष्टि से भूतग्राम समुचित है। परन्तु आत्मा शब्द में भी ग्राम शब्द रहने से आत्मसमूह का बोध होता है। यहाँ आत्मा के साथ ग्रामशब्द व्यापकत्व का निर्देश करता है न कि अनेकत्व का।कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, समन्वयक, श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि शारीरकविमर्श का १५ वां प्रकरण अत्यन्त विशाल एवं विषयगाम्भीर्य से युक्त है जिस पर अभी तक हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ है। इस प्रकरण में ईश्वर तत्त्व पर विचार किया गया है। आचार्य उदयन ने भी न्यायकुसुमाञ्जलि नामक ग्रन्थ में ईश्वर की सिद्धि की है। अन्य दार्शनिकों ने भी अपनी-अपनी दृष्टि से ईश्वर तत्त्व का विवेचन किया है। आचार्य मधुसूदन ओझा जी ने इस प्रकरण में ईश्वर का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया है। इस प्रकरण में ईश्वर के शरीर पक्ष पर अधिक विचार किया गया है। यद्यपि पं. ओझा जी ने ईश्वर को ‘निस्तनुः’ अर्थात् शरीरहित कहा है। किन्तु दूसरे रूप में उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया है कि शरीर के माध्यम से ही आत्मा का बोध संभव है। देह के द्वारा ही ईश्वर का बोध होता है। ईश्वर ही देही है और उसी को आत्मा कहा जाता है। “आत्मैवेश्वर उच्यते न तु तनुः किन्त्वेष नात्मा विनादेहेन क्व च भाति तेन भगवान् देहीश्वरो गम्यते।जीवस्येव च तस्य भाति परमाराध्यस्य देहत्रयंस्थूलं सूक्ष्ममथास्ति कारणवपुस्तत्रान्तरे निस्तनुः॥ ”, वही, पृ. २६१, का.३ इस कार्यक्रम का शुभारम्भ डॉ. मधुसूदनशर्मा, अतिथि प्राध्यापक, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के वैदिकमंगलाचरण से हुआ। श्रीशंकर शिक्षायतन के शोध अधिकारी डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने कार्यक्रम का संचालन किया एवं डा. लक्ष्मी कान्त विमल ने धन्यवाद ज्ञापन किया । इस कार्यक्रम में देश के विविध प्रदेशों के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं शोधसंस्थानों के आचार्यों, शोधच्छात्रों एवं संस्कृतानुरागी विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग लेते हुए इस राष्ट्रीय संगोष्ठी को सफल बनाने में अपना अप्रतिम योगदान दिया। वैदिक शान्तिपाठ से कार्यक्रम का समापन हुआ।

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National Seminar on Sharirikavimarsha VII

Report Shri Shankar Shankar Shikshayatan  organized the seventh seminar in the series of vedic discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s Sharirikavimarsha on October 31. 2023. Sharirikavimarsha has 16 chapters. The present seminar focused on the 14th chapter. The seminar was chaired by Prof. Santosh Kumar Shukla, Centre of Sanskrit and Oriental Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi and Coordinator, Shri Shankar Shikshayatan.  The main speakers at the seminar, besides Prof. Shukla, were Prof.  Bhagwat Sharan Shukla, former Head of The Department, Department of Grammar, Faculty of Sanskrit Vidya Dharma Vigyan, Kashi Hindu University, Varanasi, Dr. T.V. Raghavacharyulu, Acharya, Department of Agama, Rashtriya Sanskrit Vishwavidyalaya, Tirupati, Dr. Rajiv Lochan Sharma, Head of Department, Department of Nyaya, Kumar Bhaskar Verma Sanskrit University, Assam and Dr. Raghu B. Raj, Assistant Acharya, Department of Advaitavedanta, Central Sanskrit University, Ved Vyas Campus, Himachal Pradesh.  Sharirikavimarsha has presented vivid explanations of different learned men on Creation. They have offered different causes for creation. In the 14th chapter, the focus is on atma tatva. According to the Vedanta philosophy, the Atma Tattva is a special element from east-west, not limited by numbers, always in unlimited form, with emotional matter, the treasure of the whole forces, the unbroken soul, the Supreme God. This is the essence of the soul. According to Sankhya philosophy, the soul is attained: When the non-special element is possessed by the power of Maya and is covered by the force of Maya, then it becomes a special purusha. These purusha are of three types – Maheshwara, Ishwara and Jeeva. According to Yoga philosophy, the essence that is devoid of suffering, karma, and desire for karma is called Ishwar. He is known as Avyayapurusha. In this philosophy too, Ishwar and Jeeva are the two main elements. According to Vedanta philosophy, the special element is nirguna. Here it is being considered from the point of view of virtue. Therefore, vedanta philosophy has been used twice. There are two distinctions of the purusha element with visible form – Ishwar and Jeeva. Then there are two distinctions of Jeeva, Brahma and Atma. According to Sankhya philosophy, purusha element is atma.There are different kinds of purusha. All jeevas are not born at the same time, nor do they die at the same time. Thus jeevas are distinct. The Sankhya viewpoint has been mentioned here twice–one to establish the identity of purusha and another to prove its distinctness. According to Bhagavatdarshan, the Vishnu element is supreme. This Vishnu is known as Prajapati. Vishnu, along with prakriti, is the basic element of atma. Shiva is also portrayed as atma tatva; Shiva represents agni and soma. According to Charvakadarsha, Viratprajapati is atma. In his address, Prof. Bhagwat Sharan Shukla said that in the 14th chapter of Sharirikavimarsha, only the principle of Ishwar has been considered in the light of Nyaya Kusumanjali. He said  all philosophers have interpreted the same principle even while presenting Ishwar in different forms.  Pro. T.V. Raghavacharyulu said that Nirvishesh Upanishad can be called pure consciousness. Dr. Rajiv Lochan Sharma while explaining this episode stressed on purusha, the main argument of Sankhya darshan.  The person who dwells in the body is called a purusha. The same man is Maheshwar, Ishwar and Jeeva.  Dr. Raghu B. Raj said that the element which has no adjective is unique. The same subject is also described in Vedanta as Shuddha Chaitanya, Ishwar Chaitanya and Jeeva Chaitanya.  In the presidential address, Prof. Santosh Kumar Shukla said that all philosophers have accepted the existence of atma but have differed in their views on the nature of atma.  Pt. Ojhaji has presented the views of all philosophers here. An indication of this is found at the end of the book. There is a difference of view based on the five entities of the soul. In fact, the soul is one. The program was conducted by Shri Shankar Shikshayatan’s Dr. Laxmikant Vimal and Dr. Mani Shankar Dwivedi. Professors and research scholars from various universities, colleges and other educational institutions of the country made this seminar successful by their participation.       

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राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श

प्रतिवेदन श्रीशंकर शंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ अक्टूबर २०२३ को शारीरकविमर्श नामक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन अन्तर्जालीय माध्यम से किया गया। यह संगोष्ठी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान के आचार्य एवं श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल की अध्यक्षता में सम्पन्न हुयी जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. भगवत् शरण शुक्ल, पूर्वविभागाध्यक्ष, व्याकरण विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. टी. वी. राघवाचार्युलु, आचार्य, आगम विभाग,  राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपति तथा दो अन्य वक्ता के रूप में डॉ. राजीव लोचन शर्मा, विभागाध्यक्ष, न्याय विभाग, कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत पुरातन अध्ययन विश्वविद्यालय, असम से एवं डॉ. रघु बी. राज्, सहायक आचार्य, अद्वैतवेदान्त विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर, हिमाचल प्रदेश ने सहभागिता करते हुए निर्धारित विषय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किये। पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित शारीरकविमर्श ग्रन्थ के १४ वें प्रकरण को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी सुसंपन्न हुई। १४ वें प्रकरण का विषयवस्तु ग्रन्थकार ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है- अनेक दार्शनिकों ने अपने सिद्धान्त के अनुसार प्रधान तत्त्व को निर्धारित करते हुए सृष्टि की व्याख्या की है। चार्वाकों ने लोक को, शैवदार्शनिकों ने शिव को, भागवतों ने प्रकृति सहित विष्णु को, वैशेषिक दार्शनिकों ने प्रजापति स्वरूप आत्मा को, सांख्य दार्शनिकों ने पुरुष को और वेदान्तियों ने ब्रह्म तत्त्व को सृष्टि का मूलकारण स्वीकार किया है-             ‘लौकायतिका लोकं शैवाः शिवमिच्छयैव विश्वसृजम् ।           भागवताः सप्रकृतिं विष्णुं पश्यन्ति विश्वकर्तारम् ॥           वैशेषिकाः प्रजापतिमात्मानं पूरुषं सांख्यः ।           अथ वेदान्ती पश्यति ब्रह्मैवात्मानमस्य विश्वस्य ॥           तद्ब्रह्मणः स्वरूपं विज्ञातुं प्रयतमनानेन ।           मीमांसासूत्राणां तात्पर्यं भूयसाऽलोच्यम् ॥’, शारीरकविमर्श, पृ.२५४ इस प्रकरण में १० उपशीर्षकों के माध्यम से आत्मतत्त्व पर विचार किया गया है। जिसका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है- (क)चार्वाकदर्शन में लोक को आत्मा स्वीकार किया गया है। लोक को विश्वप्रजापति कहा गया है। यह आत्मातीत है। यह चार्वाक दर्शन नास्तिक कहलाता है। (ख) शैवदर्शन में विराट् प्रजापति आत्मा है। उपासक की दृष्टि से यह ईश्वर है। इस आत्मा की उपासना उपासक करते हैं। (ग) वैष्णव भागवत दर्शन वाले विराट् प्रजापति को ही आत्मतत्त्व मानते हैं। यह विष्णु प्रकृति में स्थित रहता है। (घ) वैशेषिक सत्यप्रजापति को आत्मतत्त्व मानते हैं। (ङ) सांख्यदर्शन वाले कपिल यज्ञप्रजापति को आत्मतत्त्व मान्ते हैं। इस दर्शन में पुरुष और प्रकृति साथ साथ सृष्टि करते हैं। (च) वेदान्तदर्शन निर्विशेष परात्पर को आत्मतत्त्व मानते हैं। अपने उद्बोधन में प्रो. भगवत् शरण शुक्ल ने कहा कि शारीरकविमर्श के १४ वें प्रकरण में ईश्वर तत्त्व पर ही विचार किया गया है। न्यायकुसुमञ्जलि के आलोक में उन्होंने कहा कि सभी दार्शनिकों ने इस ईश्वर को भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत करते हुए भी एक ही तत्त्व की व्याख्या की है। प्रो. टी. वी. राघवाचार्युलु ने कहा कि निर्विशेष उपनिषद् दर्शन का चिन्तन है। दर्शन की भाषा में इसे शुद्धचैतन्य कहा जा सकता है। डॉ. राजीव लोचन शर्मा ने इस प्रकरण का अक्षरशः व्याख्या करते हुए कहा कि इसमें सांख्यदर्शन के प्रधान तत्त्व पुरुष पर विशेष विचार किया गया है।  जो पुर् अर्थात् शरीर पिण्ड  में निवास करता है, वह पुरुष कहलाता है। वही पुरुष महेश्वर, ईश्वर और जीव है। डॉ. रघु बी. राज् ने कहा कि जिस  तत्त्व का कोई विशेषण न हो वह तत्त्व निर्विशेष है। इसी विषय का वेदान्त में शुद्धचैतन्य, ईश्वरचैतन्य और जीव चैतन्य के नाम से भी वर्णन किया गया है। अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने कहा कि सभी दार्शनिकों ने आत्मा को स्वीकार किया है। परन्तु इस आत्मा के स्वरूप में मतभिन्नता प्रतिपादित की गयी। पं. ओझाजी ने सभी दार्शनिकों का विचार यहाँ प्रस्तुत किया है। ग्रन्थ के अन्त में इसका संकेत प्राप्त होता है। आत्मा की पाँच संस्थाओं के आधार पर दृष्टिकोण की भिन्नता है । वस्तुतः आत्मतत्त्व एक है। संगोष्ठी का प्रारंभ वैदिक मंगलाचरण से तथा समापन वैदिक शान्तिपाठ से हुआ। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मीकान्त विमल ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने किया। देश के विविध विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों के आचार्यों एवं शोधछात्रों ने अपनी सहभागिता द्वारा इस संगोष्ठी को सफल बनाया।       

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पण्डित मधुसूदन ओझा का वैदिक चिन्तन में योगदान

पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान 2023आचार्य ज्वलन्त कुमार शास्त्री September 28,2023 पण्डित मधुसूदन ओझा का वैदिक चिन्तन में योगदान प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली द्वारा दिनांक २८ सितम्बर २०२३ को श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान का समायोजन किया गया । प्रख्यात वैदिक विद्वान् आचार्य ज्वलन्त कुमार शास्त्री ने ‘पण्डित मधुसूदन ओझा का वैदिक चिन्तन में योगदान’ विषय पर यह स्मारक व्याख्यान प्रस्तुत किया । अपने व्याख्यान में ज्वलन्त कुमार जी ने पं. मधुसूदन ओझा जी के जीवन परिचय को उद्घाटित करते हुए वैदिकविज्ञान परम्परा के महनीय आचार्य के रूप में ओझा जी के शिष्यों महामहोपाध्याय गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, पण्डित मोतीलाल शास्त्री एवं डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के नामों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि युधिष्ठिर मीमांसक ने अपनी आत्मकथा में पं. ओझा जी का उल्लेख किया है। युधिष्ठिर मीमांसक जी ने पं. ओझा जी से शास्त्राध्ययन किया था । सामान्य जन वेद चार है, यही जानते हैं। परन्तु शास्त्रप्रमाण से पं. ओझा जी ने वेदत्रयी का विवेचन किया है। ऋग्वेद पद्यात्मक, सामवेद गेयात्मक और यजुर्वेद में गद्य और पद्य दोनों का समावेश है। इस दृष्टि से वेदत्रयी है। तैत्तिरीयब्राह्मण के आधार पर तत्त्वात्मक चतुर्वेद की संकल्पना की गयी है। जिस में कहा गया है कि इस सृष्टि में जितनी मूर्तियाँ हैं वे सब ऋग्वेद के रूप हैं। इस सृष्टि में जो क्रिया अर्थात् गति है वह यजुर्वेद का रूप है और सभी पदार्थों में विद्यमान जो तेज है, वह समवेद है-ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत् । सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम् ॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.८.१) ओझा जी ने वेदार्थ निरूपण के लिए वैदिक पारिभाषिक शब्दों को प्रधान माना। पं. ओझा जी के अनुसार जब तक इन पारिभाषिक शब्दों का अर्थबोध स्पष्ट नहीं हो जाता है तब तक वेदार्थ स्पष्ट नहीं हो सकता है। पं. ओझा जी के यज्ञविज्ञान का अधार यजुर्वेद है। यजुर्वेद में ४० अध्याय हैं। इन ४० अध्यायों के प्रथम २० अध्यायों में यज्ञ के क्रमानुसार मन्त्र का उपस्थापन है। यज्ञ ही इस सृष्टि का मूल है, ऐसा पं. ओझा जी ने प्रतिपादित किया है। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में विद्यमान श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. मुरलीमनोहर पाठक जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि उन्होंने अपने छात्रजीवन काल में पं. ओझा जी के दशवादरहस्य का अध्ययन किया था। ऋग्वेद के नासदीयसूक्त के मन्त्र में दशवाद संबन्धी अवधारणा को लेकर पं. ओझा जी ने एक विशाल वाङ्मय का प्रणयन किया है। जिस में उन्होंने सदसद्वाद, अहोरात्रवाद, आवरणवाद, व्योमवाद, रजोवाद आदि वादग्रन्थों का प्रणयन किया है । नासदीयसूक्त की ऐसी व्याख्या अन्य आचार्यों ने नहीं किया है। पं. ओझा जी शास्त्रलेखन में तल्लीन रहते थे। वे अधिक यात्रा से बचते रहते थे। जिसका परिणाम है कि उन्होंने २८८ ग्रन्थों का प्रणयन किया । न केवल वे यात्रा से बचते रहते थे अपितु उन्होंने किसी वाद के रूप में वैदिकविज्ञान को प्रस्तुत नहीं किया है। उन्होंने वेद, ब्राह्मणग्रन्थ और पुराण में जैसा सृष्टिविज्ञान को देखा वैसा ही उन्होंने हम सब के समक्ष उपस्थापित किया है। विशिष्ट अतिथि के रूप में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. गिरीश चन्द्र पन्त ने पं. मधुसूदन ओझाजी के अपरवाद ग्रन्थ में विविचित विषयों को उद्घाटित करते हुए पं. मधुसूदन ओझाजी के विदेश यात्रा के समय वैदेशिक विद्वानों के साथ हुयी उनकी रोचक वार्तालाप को भी रेखांकित किया। अध्यक्षीय उद्बोधन में उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्वकुलपति प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी जी ने कहा कि पं. ओझा जी का चिन्तन अद्भुत है। उन्होंने बतलाया कि त्रिलोकी के माध्यम से भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम् इन वैदिक व्याहृतियों को व्याख्यायित किया गया है। भू का अर्थ पृथ्वी है और स्वः का अर्थ सूर्य है। इन दोनों के बीच में अन्तरिक्षरूप में भुवः है। स्वः लोक पृथ्वी स्थानीय, महः अन्तरिक्ष स्थानीय और जनः परमेष्ठी है। यह दूसरा त्रिलोकी है। फिर जनः पृथ्वी स्थानीय है, तपः अन्तरिक्षस्थानीय है और सत्यम् प्रजापति स्वयम्भू है। इस प्रकार यह तीसरा त्रिलोकी का रूप है। इन तीनों त्रिलोकियों का शास्त्रपरम्परा में रोदसी, क्रन्दसी और संयती के नाम से व्यवहार होता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान के आचार्य तथा श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने विषय-प्रवर्तन करते हुए कहा कि श्रीशंकर शिक्षायतन प्रतिवर्ष २८ सितम्बर को यह कार्यक्रम निरन्तर समायोजित करता है। शिक्षायतन अनेक संगोष्ठी, वैदिकपरिचर्चा, कार्यशाला आदि उपक्रमों के माध्यम से वैदिकविज्ञान के क्षेत्र में निरन्तर कार्य कर रहा है। यद्यपि पं. ओझा जी का ग्रन्थ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में न होने के कारण प्रचार-प्रसार से वंचित रहा है। इस का संकेत श्रीऋषिकुमार मिश्र के गुरु पं. मोतीलाल शास्त्री ने निर्देश किया था। मिश्र जी ने अपने गुरु के वचनों के आधार पर वैदिकविज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए श्रीशंकर शिक्षायतन को संस्थापित किया है। प्रो. शुक्ल ने समागत सभी अतिथियों एवं श्रोतृवृन्दों का स्वागत तथा धन्यवाद ज्ञापन भी किया। कार्यक्रम का शुभारम्भ श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्यों प्रो. सुन्दर नारायण झा के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मंगलाचरण से एवं प्रो.महानन्द झा के द्वारा प्रस्तुत लौकिक मंगलाचरण से हुआ। कार्यक्रम का संचालन श्रीशंकर शिक्षायतन के शोध अधिकारी डाँ. मणिशंकर द्विवेदी ने किया। वैदिकशान्तिपाठ से यह कार्यक्रम संपन्न हुआ।कार्यक्रम के आदि में श्रीशंकर शिक्षायतन के द्वारा प्रकाशित “वैदिक सृष्टि प्रकिया” नामक नवीन ग्रन्थ का लोकार्पण समागत अतिथियों के करकमलों के द्वारा किया गया। यह ग्रन्थ वैदिकविज्ञान के अनेक पक्षों को उद्घाटित करता है।इस कार्यक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय एवं तत्सम्बद्ध महाविद्यालयों, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, श्रीलाल बहादुरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अनेक आचार्य, शोधछात्र एवं वैदिकविज्ञान में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपनी सहभागिता से इस कार्यक्रम को अत्यन्त सफल बनाया।

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National Seminar on Sharirikavimarsha Part VI

Shri Shankar Shikshayatan organised a National Seminar on Sharirikavimarsha on September 30,2023. It was the sixth seminar in the series on Pandit Madhusudan Ojha’s Sharirikavimarsha. The seminar focused on the 13th chapter of the book. In this chapter, atma’s seven forms are explained. These forms are–nirvishesh, paratpar, purusha, satya, yajna, virat and vishwa. Of these, nirvishesh, paratpar and purusha are nirguna (without attributes) forms. The other four are tangible forms. The author has defined nirguna as asritha-dharma or dependent nature of reality. As the sun is reflected in a river–the reflection of the sun has taken refuge in the river. The dharma of river thus is asritha-dharma. If the water remains still, the reflection too will remain still; it if it moves, the reflection too moves. The sun is stationery. The elements that decline to accept asritha-dharma are nirguna or pure form. The pure form of atma or Brahma do not cause creation. When the pure form meets with maya, then only the process of creation begins. The Brahma tatva assumes both nirguna and saguna forms. According to Pandit Madhusudan Ojha, atma has the following seven forms: –Nirvishesha–Brahma is rasa. That which is pure rasa and has no limits is nirvishesha. The term pure has to be understood like this. Like, a bread cannot be made from pure wheat flour, it requires water and fire to bake a bread or roti. –Paratpar–Brahma is known as paratpar. All-powerful bala exists in paratpar and is limitless. –Purusha–This element is limited by bala named maya. This purusha has 16 characteristics. –Satya–Atma, prana and pashu make for three forms of satya. These elements are known as jnana, karma and artha. –Yajna–Anna, annada and avapan gives prajapati its three forms. The one which is eaten is anna, the one who eats is annada and the place where the seed or anna is sown it is avapan. During yajna, havi or offerings are made in fire. The offerings are anna and the place where these offerings are made is avapan. –Virat–The yajna in which ten types of offerings are offered in ten different types of fire makes it a virat yajna. –Vishwa–Vishwa is free of paap. It is atma-jyoti element. Among the speakers were, Prof. Madhusudan Penna of Kavikulguru Kalidasa Sanskrit University, Ramatek, Maharashtra, Dr Vinay P of Karnataka Sanskrit University, Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and convener, Shri Shankar Shikshayatan and Dr Anaymani Tripathi of Central Sanskrit Unviersity, Jammu. The meeting was organised by Dr Manishankar Dwivedi and Dr Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श (भाग-६)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली द्वारा समायोजित शारीरकविमर्श (भाग-६)नामक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन ३० सितम्बर २०२३ को सायंकाल अन्तर्जालीय माध्यम से किया गया ।यह संगोष्ठी पं. मधुसूदन ओझा प्रणीत शारीरकविमर्श नमक ग्रन्थ के १३वें प्रकरण को आधार बना करसमायोजित हुई थी । इस प्रकरण में आत्मा के सात संस्थाओं का विवेचन किया गया है। ये संस्थाएँ हैं-निर्विशेष, परात्पर, पुरुष, सत्य, यज्ञ, विराट् और विश्व । इनमें निर्विशेष, परात्पर और पुरुष ये तीन आत्मा केनिर्गुण स्वरूप हैं। शेष चार सत्य, यज्ञ, विराट् और विश्व ये आत्मा के सगुण स्वरूप हैं। निर्गुण की परिभाषा मेंग्रन्थकार ने ‘आश्रितधर्म’ शब्द का प्रयोग किया है। जैसे- नदी में सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है। सूर्य के प्रतिबिम्बका आश्रय नदी है। नदी के जल में जो धर्म है वह आश्रितधर्म कहलाता है। अर्थात् यदि नदी का जल स्थिर है तोसूर्य का प्रतिबिम्ब स्थिर होगा। नदी का जल यदि गतिशील होगा तो सूर्य का प्रतिबिम्ब भी गतिशील होगा। सूर्यअपने स्थान पर स्थिर है । जो तत्त्व आश्रित धर्म को स्वीकार नहीं करता है वह निधर्मक या निर्गुण कहलाता है।(‘आश्रितधर्मापरिग्रहान्निर्धर्मको निर्गुणः।’, शारीरकविमर्श, पृ.२३१) निर्विशेष, परात्पर और पुरुष इन तीनों के अन्यनाम भी शास्त्र में प्रयुक्त हुए हैं। ये हैं- गूढोत्मा, परमात्मा, निष्क्रिय, असङ्गः, विभु, अव्यावृत्तरूप। (‘स एषत्रिविधोऽपि गूढोत्मा परमात्मा निष्क्रियोऽसङ्गो विभुरव्यावृत्तरूपः।’,वही) इसी को शुद्ध स्वरूप कहते हैं। आत्मा याब्रह्म के शुद्धस्वरूप में सृष्टि नहीं होती है। जब शुद्ध स्वरूप सृष्टि के लिए माया से संपर्क ग्रहण करता है तब सगुणकहलाता है। जिस में सभी प्रकार के धर्म रह सकते हैं, वह सगुण कहलाता है। (‘अथ सर्वधर्मोपपन्नः सगुणः।’,वही)ब्रह्मसूत्र के ‘सर्वधर्मोपपत्तेश्च’ (२.१.३७) सूत्र के अनुसार एक ही ब्रह्म तत्त्व एक स्थिति में निर्गुण रहता है तोदूसरे स्थिति में सगुण हो जाता है। पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने आत्मा के जिन सात संस्थाओं का विवेचनकिया है, वे अधोलिखित हैं- निर्विशेष : ब्रह्म का ही दूसरा नाम रस है। जो विशुद्ध रसमात्र है और जो सीमित नहीं है, वह निर्विशेषकहलाता है। शुद्ध शब्द को इस प्रकार समझना चाहिए। जैसे- शुद्ध आँटा से रोटी नहीं बन सकती है।उस आँटा में पानी और अग्नि का संयोग होने पर ही रोटी बन सकती है। (‘विशुद्धरसमात्रोऽसीमः।’,शारीरकविमर्श पृ. २३२) 2 परात्पर : ब्रह्म का ही दूसरा नाम परात्पर भी है। इस परात्पर में सभी शक्तियों से युक्त अनन्त बल तत्त्वरहता है और यह भी सीमा रहित है। (सर्वविधानन्तबलोपेतोऽसीमः।’,वही) पुरुष : माया नामक बल तत्त्व के संबन्ध से पुरुष तत्त्व सीमित हो जाता है। यह पुरुष सोलह कलाओंवाला हो जाता है। ५ अव्ययपुरुष की कला, ५ अक्षर पुरुष की कला और ५ क्षर पुरुष की कला ये तीनोंमिलकर १५ हो जाते हैं। सोलहवां तत्त्व स्वयं पुरुष है। (‘मायाबलावच्छेदात् सीमितः षोडशकलः।’ ,वही) सत्य : आत्मा, प्राण और पशु इन तीन तत्त्वों से सत्य तीन स्वरूप वाला है। इन तीनों तत्त्वों के क्रमशःज्ञान, कर्म और अर्थ ये तीन नाम हैं। अर्थ से आत्मा आदि वस्तु का बोध होता है। (‘आत्मप्राणपशुभिर्स्त्रिपर्वाप्रजापतिर्ज्ञानकर्मार्थैस्त्रितन्त्रः।’,वही) यज्ञ : अन्न, अन्नाद और आवपन से प्रजापति तीन स्वरूप वाले हो जाते हैं। जिस को जीव खाता है, वहअन्न है । जो अन्न को खाने वाला है, वह अन्नाद कहलाता है और जिस स्थान पर बीज को, अन्न कोडाला जाता है, वह स्थान आवपन है। यज्ञ की प्रक्रिया में अग्नि में हवि डाला जाता है। अग्नि को अन्नादएवं चावल, घी, तिल, यव आदि अन्न है। जिस स्थान पर यह प्रक्रिया होती है वह आवपन है। यही यज्ञकी प्रक्रिया है। (‘अन्नान्नादावपनैस्त्रिपर्वा प्रजापतिः।’,वही)  विराट् : दस प्रकार की प्राणाग्नि में दस प्रकार की आहुति के यज्ञ से उत्पन्न यज्ञ-महिमा से युक्त विराट्कहलाता है। (‘दशविधप्राणाग्नौ दशविधप्राणाहुतियज्ञजो यज्ञमहिमोपेतः।’,वही)  विश्व : पाप स्वरूप अञ्जन और आवरण से रहित आत्मप्रकाश वाला विश्व है। जिस वस्तु का मनुष्य लेपलगाता है, वह अञ्जन कहलाता है। नारी आँख में जो काजल लगाती है, वह अञ्जन कहलाता है। कपड़ाआदि से किसी वस्तु को ढकना आवरण कहलाता है। इन अञ्जन और आवरण से रहित आत्मज्योति तत्त्वही विश्व कहलाता है। (‘पाप्मलक्षणाञ्जनावरणान्निरस्तात्मज्योतिः।’ ,वही) इस प्रकार संपूर्ण प्रकरण में इन संस्थाओं के माध्यम से आत्मा के विविध पक्षों को प्रदर्शित किया गया है।कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में व्याख्यान करते हुए प्रो. मधुसूदन पेन्ना, संकायाध्यक्ष, भारतीय धर्म,दर्शन एवं संस्कृति संकाय, कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय, रामटेक, महाराष्ट्र ने अपने व्याख्यानमें अद्वैतवेदान्त की दृष्टि आत्मा की विविध संस्थाओं का विवेचन किया। उन्होंने कहा कि निर्विशेष में जो विशेषशब्द है, वह विकार अर्थ वाला है। माण्डूक्यकारिका में इस का सन्दर्भ प्राप्त होता है। ‘निर्गताः विशेषाः यस्मात्,स निर्विशेषः’ जिस से विकार दूर चला गया है, वह निर्विशेष है। ब्रह्म में पहले विकार था फिर वह निर्विकारहुआ, ऐसा अर्थ नहीं समझना चाहिए । प्रक्रिया के प्रदर्शन के लिए यह व्युत्पत्ति की जाती है। उन्होंने शैवागम केपञ्चकञ्चुक का उल्लेख किया । पञ्चकञ्चुक से विशिष्ट शुद्ध तत्त्व शिव है। इसी सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुएग्रन्थकार ने इन सात संस्थाओं का वर्णन किया है। द्वितीय वक्ता के रूप में वक्तव्य देते हुए डॉ. विनय पी., विभागाध्यक्ष, वेदान्त विभाग, कर्नाटक संस्कृतविश्वविद्यालय, बेंगलुरु ने कहा कि ब्रह्ममीमांसा ही शारीरकमीमांसा है। यहाँ ग्रन्थकार ने स्पष्ट लिखा है किआत्मा का अर्थ ही ब्रह्म है। ब्रह्म तत्त्व क्या है, इसके लिए श्रुति को उद्धृत करते हुए लिखा है कि जहाँ से यहसृष्टि उत्पन्न हुई है, जहाँ यह सृष्टि रहती है और जिस में यह सृष्टि विलीन हो जाती है, वह ब्रह्म है। वही ब्रह्मसभी का आत्मा है (‘आत्मा ब्रह्म निरुच्यते। यतो वा इमानि भूतानि जायने, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविसन्ति तद् ब्रह्म’। स आत्मा सर्वेषाम्।’,शारीरकविमर्श, पृ.२३१ ) 3कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्रीशंकर शिक्षायतन के समन्वयक एवं संस्कृत-प्राच्यविद्याध्ययनसंस्थान, जे.एन.यू. के आचार्य प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि शारीरकविमर्श मेंग्रन्थकार ने इसका निर्देश दिया है कि शास्त्र ब्रह्म में निर्गुण और सगुण के भेद से परस्पर विरोध प्रतीत होता है।अनन्त सृष्टि का मूल कारण ब्रह्म है। विशुद्ध आत्मब्रह्म के तटस्थलक्षण से ब्रह्म की संस्था भेद होती है। ये सातसंस्था ही नानात्व के कारण हैं। ब्रह्म का बृंहण करना स्वभाव है। एक ही तत्त्व अनेक हो गया, ऐसा महर्षि कहतेहैं। (‘एकं वा इदं विबभूव सर्वम् इत्याह भगवान् महर्षिः।’ शारीरकविमर्श, पृ. २१७) विकृत बीज से उत्पत्ति होती है।परन्तु ब्रह्म अविकृत रूप में सृष्टि करता है। बृंहण ही ब्रह्म है। (‘विकृताद् वृक्षबीजादङ्कुरोत्पत्तिर्दृश्यते। तत्रत्वविकृतादेव बीजादुत्पत्तिस्तदिदं बृंहणं नाम। तदिदं बृंहणं यत्रोपपद्यते तद् ब्रह्म।’, वही, पृ. २१८)कार्यक्रम का प्रारंभ डॉ. अनयमणि त्रिपाठी,…

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Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2023

Pandit Madhusudan Ojha was a profound scholar in the tradition of veda vijnana, said well-known vedic scholar, Acharya Jawalant Kumar Shastri during his lecture at Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2023 on September 28,2023. The annual lecture is organised by Shri Shankar Shikshayatan to honour Pandit Motilal Shastri. The topic of the lecture was Pandit Madhusudan Ojha’s Contribution to Vedic Thought.Dr Jwalant Kumar Shastri took his early learning in guru-shishya parampara and completed his higher studies at Benares Hindu University. In his 35 years of teaching life, Acharya Shastri taught post-graduate students and guided 16 doctoral students. He has authored 15 books and 250 articles. He has edited the publication of a 700-year old manuscript on Rig Veda bhashya. His programmes on dharmashastra have appeared on Astha Channel.Referring to the great teachers who made stellar contributions to the vedic thought, Acharya Shastri made special mention of Ojhaji, his illustrial disciples Pandit Motilal Shastri and Pandit Giridhar Shastri and Dr Vasudeva Sharan Agarwal.Ordinary people know that there are four Vedas. Ojhaji has instead shown various layers of vedic thought. He pointed out that each of the Vedas were a combination of text and verses and hence they were veda-trayi. He had quoted Taittiriya Brahman to explore the possibility of elemental Vedas. It is said that all the mortal beings in Creation are forms of Rigveda; all actions in Creation are Yajur Veda and Samaveda was the light in every matter. Shastriji pointed out the emphasis laid by Ojhaji on understanding the meaning and context of each specific vedic term. He referred in specific to Ojhaji’s explanation of yajna vijnana and said Yajurveda was the foundation of yajna vijnana. There are forty chapters in this Veda and the first 20 contain mantras related to yajna. Yajna, said Ojahji, was the basis of all Creations. During the meeting, a new publication of Shri Shankar Shikshayatan, Vedic Srishti Prakriya, was released. The chief guest at the meeting, the Chancellor of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Prof. Murali Manohar Pathak said he had come across Ojhaji and his works during his student days. He referred to Ojhaji’s Dashavadarahasya as one of the texts he had read during those days. Ojhaji had explained the profound mysteries of Creation as mentioned in Rigveda’s nasadiya sukata. The volume referred to sadasadvada, ahoratravada, avaranavada, vyomavada, rajovada etc. Prof. Girish Chandra Pant of Jamia Millia Islamia University, Delhi, referred to Ojhaji’s foreign travels and his various conversations with foreign scholars and journalists. In his speech, former Vice-chancellor of Uttarakhand Sanskrit University, Haridwar, Prof. Devi Prasad Tripathi called Pandit Madhsudan Ojha’s writings as illuminating and profound. He made special mention of Ojhaji’s concept and explanation of the triadic world and how everything emerged and existed in these three worlds. In his introduction to the lecture and Shri Shankar Shikshayatan, Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and convener, Shikshayatan, said the centre was devoted to the promotion of vedic science through it monthly vedic discussions, annual lectures and various publications. He said Pandit Motilal Shastrij’s disciple, Rishi Kumar Mishra had set up the centre to preserve and promote teachings of his two gurus, Ojhaji and Shastriji. The meeting was attended by participants from Delhi University, Jamia Millia Islamia University, Rashtriya Sanskrit University, Jawaharlal Nehru University and other institutions.

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पं. मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान २०२३

पण्डित मधुसूदन ओझा का वैदिक चिन्तन में योगदान प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली द्वारा दिनांक २८ सितम्बर २०२३ को श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान का समायोजन किया गया । प्रख्यात वैदिक विद्वान् आचार्य ज्वलन्त कुमार शास्त्री ने ‘पण्डित मधुसूदन ओझा का वैदिक चिन्तन में योगदान’ विषय पर यह स्मारक व्याख्यान प्रस्तुत किया । अपने व्याख्यान में ज्वलन्त कुमार जी ने पं. मधुसूदन ओझा जी के जीवन परिचय को उद्घाटित करते हुए वैदिकविज्ञान परम्परा के महनीय आचार्य के रूप में ओझा जी के शिष्यों महामहोपाध्याय गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, पण्डित मोतीलाल शास्त्री एवं डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के नामों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि युधिष्ठिर मीमांसक ने अपनी आत्मकथा में पं. ओझा जी का उल्लेख किया है। युधिष्ठिर मीमांसक जी ने पं. ओझा जी से शास्त्राध्ययन किया था । सामान्य जन वेद चार है, यही जानते हैं। परन्तु शास्त्रप्रमाण से पं. ओझा जी ने वेदत्रयी का विवेचन किया है। ऋग्वेद पद्यात्मक, सामवेद गेयात्मक और यजुर्वेद में गद्य और पद्य दोनों का समावेश है। इस दृष्टि से वेदत्रयी है। तैत्तिरीयब्राह्मण के आधार पर तत्त्वात्मक चतुर्वेद की संकल्पना की गयी है। जिस में कहा गया है कि इस सृष्टि में जितनी मूर्तियाँ हैं वे सब ऋग्वेद के रूप हैं। इस सृष्टि में जो क्रिया अर्थात् गति है वह यजुर्वेद का रूप है और सभी पदार्थों में विद्यमान जो तेज है, वह समवेद है-ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत् । सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम् ॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.८.१) ओझा जी ने वेदार्थ निरूपण के लिए वैदिक पारिभाषिक शब्दों को प्रधान माना। पं. ओझा जी के अनुसार जब तक इन पारिभाषिक शब्दों का अर्थबोध स्पष्ट नहीं हो जाता है तब तक वेदार्थ स्पष्ट नहीं हो सकता है। पं. ओझा जी के यज्ञविज्ञान का अधार यजुर्वेद है। यजुर्वेद में ४० अध्याय हैं। इन ४० अध्यायों के प्रथम २० अध्यायों में यज्ञ के क्रमानुसार मन्त्र का उपस्थापन है। यज्ञ ही इस सृष्टि का मूल है, ऐसा पं. ओझा जी ने प्रतिपादित किया है। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में विद्यमान श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. मुरलीमनोहर पाठक जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि उन्होंने अपने छात्रजीवन काल में पं. ओझा जी के दशवादरहस्य का अध्ययन किया था। ऋग्वेद के नासदीयसूक्त के मन्त्र में दशवाद संबन्धी अवधारणा को लेकर पं. ओझा जी ने एक विशाल वाङ्मय का प्रणयन किया है। जिस में उन्होंने सदसद्वाद, अहोरात्रवाद, आवरणवाद, व्योमवाद, रजोवाद आदि वादग्रन्थों का प्रणयन किया है । नासदीयसूक्त की ऐसी व्याख्या अन्य आचार्यों ने नहीं किया है। पं. ओझा जी शास्त्रलेखन में तल्लीन रहते थे। वे अधिक यात्रा से बचते रहते थे। जिसका परिणाम है कि उन्होंने २८८ ग्रन्थों का प्रणयन किया । न केवल वे यात्रा से बचते रहते थे अपितु उन्होंने किसी वाद के रूप में वैदिकविज्ञान को प्रस्तुत नहीं किया है। उन्होंने वेद, ब्राह्मणग्रन्थ और पुराण में जैसा सृष्टिविज्ञान को देखा वैसा ही उन्होंने हम सब के समक्ष उपस्थापित किया है। विशिष्ट अतिथि के रूप में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. गिरीश चन्द्र पन्त ने पं. मधुसूदन ओझाजी के अपरवाद ग्रन्थ में विविचित विषयों को उद्घाटित करते हुए पं. मधुसूदन ओझाजी के विदेश यात्रा के समय वैदेशिक विद्वानों के साथ हुयी उनकी रोचक वार्तालाप को भी रेखांकित किया। अध्यक्षीय उद्बोधन में उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्वकुलपति प्रो. देवी प्रसाद त्रिपाठी जी ने कहा कि पं. ओझा जी का चिन्तन अद्भुत है। उन्होंने बतलाया कि त्रिलोकी के माध्यम से भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम् इन वैदिक व्याहृतियों को व्याख्यायित किया गया है। भू का अर्थ पृथ्वी है और स्वः का अर्थ सूर्य है। इन दोनों के बीच में अन्तरिक्षरूप में भुवः है। स्वः लोक पृथ्वी स्थानीय, महः अन्तरिक्ष स्थानीय और जनः परमेष्ठी है। यह दूसरा त्रिलोकी है। फिर जनः पृथ्वी स्थानीय है, तपः अन्तरिक्षस्थानीय है और सत्यम् प्रजापति स्वयम्भू है। इस प्रकार यह तीसरा त्रिलोकी का रूप है। इन तीनों त्रिलोकियों का शास्त्रपरम्परा में रोदसी, क्रन्दसी और संयती के नाम से व्यवहार होता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान के आचार्य तथा श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने विषय-प्रवर्तन करते हुए कहा कि श्रीशंकर शिक्षायतन प्रतिवर्ष २८ सितम्बर को यह कार्यक्रम निरन्तर समायोजित करता है। शिक्षायतन अनेक संगोष्ठी, वैदिकपरिचर्चा, कार्यशाला आदि उपक्रमों के माध्यम से वैदिकविज्ञान के क्षेत्र में निरन्तर कार्य कर रहा है। यद्यपि पं. ओझा जी का ग्रन्थ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में न होने के कारण प्रचार-प्रसार से वंचित रहा है। इस का संकेत श्रीऋषिकुमार मिश्र के गुरु पं. मोतीलाल शास्त्री ने निर्देश किया था। मिश्र जी ने अपने गुरु के वचनों के आधार पर वैदिकविज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए श्रीशंकर शिक्षायतन को संस्थापित किया है। प्रो. शुक्ल ने समागत सभी अतिथियों एवं श्रोतृवृन्दों का स्वागत तथा धन्यवाद ज्ञापन भी किया। कार्यक्रम का शुभारम्भ श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्यों प्रो. सुन्दर नारायण झा के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मंगलाचरण से एवं प्रो.महानन्द झा के द्वारा प्रस्तुत लौकिक मंगलाचरण से हुआ। कार्यक्रम का संचालन श्रीशंकर शिक्षायतन के शोध अधिकारी डाँ. मणिशंकर द्विवेदी ने किया। वैदिकशान्तिपाठ से यह कार्यक्रम संपन्न हुआ।कार्यक्रम के आदि में श्रीशंकर शिक्षायतन के द्वारा प्रकाशित “वैदिक सृष्टि प्रकिया” नामक नवीन ग्रन्थ का लोकार्पण समागत अतिथियों के करकमलों के द्वारा किया गया। यह ग्रन्थ वैदिकविज्ञान के अनेक पक्षों को उद्घाटित करता है।इस कार्यक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय एवं तत्सम्बद्ध महाविद्यालयों, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, श्रीलाल बहादुरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अनेक आचार्य, शोधछात्र एवं वैदिकविज्ञान में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपनी सहभागिता से इस कार्यक्रम को अत्यन्त सफल बनाया।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श -भाग-५

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक २९ अगस्त २०२३ को शारीरकविमर्श विषयक एक ऑनलाईन राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया । पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत ब्रह्मविज्ञान सिद्धान्त शृंखला के अन्तर्गत आने वाले शारीरकविमर्श नामक ग्रन्थ में कुल सोलह प्रकरण हैं। यह संगोष्ठी इस ग्रन्थ के ‘आत्मब्रह्ममीमांसा’ नामक १२ वें प्रकरण को आधार बनाकर समायोजित थी। शारीरकविमर्श के बारहवें प्रकरण में ब्रह्म और आत्मा के विषयवस्तु को उद्घाटित किया गया है। शास्त्र में यह दोनों ही शब्द एक ही अर्थ के द्योतक बतलाये गये हैं। इस प्रकरण का विषयवस्तु विविध उपशिर्षकों में विभक्त है।केवलात्मनिरुक्ति नामक उपशीर्षक में अव्यय को आधार बना कर व्याख्या की गयी है। विशुद्ध अव्यय को केवलात्मा कहा जाता है। इसे परात्पर एवं निर्विशेष भी कहा जाता है। ईश्वर अव्यय को ईश्वरात्मा कहा जाता है। इसे विश्वशरीर, पुरुष एवं ईश्वर भी कहा जाता है। जीव अव्यय को जीवात्मा कहा जाता है। इसी का दूसरा नाम विश्वेश्वर पुरुष भी है। इन तीनों प्रकार के आत्मा को ब्रह्म कहा जाता है-‘इत्थं त्रिविधोऽयम् आत्मा ब्रह्मपदार्थः।’, शारीरकविमर्श पृ. २१७ विशुद्धात्मनिरुक्ति नामक उपशीर्षक में ब्रह्म के बृंहण अर्थात् विकास की विस्तृत व्याख्या की गयी है। जिस प्रकार विकृत बीज से अंकुर की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार अविकृत बीज से जो उत्पत्ति होती है, वह बृंहण कहलाता है। ग्रन्थकार ने बीज के विशेषण में विकृत और अविकृत शब्द का प्रयोग किया है। जब कृषक कीड़ा से युक्त बीज को बाहर डालता है तो उस से भी अंकुर निकलता है। जो बीज, शुद्ध एवं कीड़ा आदि दोषों से रहित होता है उसी को खेत में फसल के लिए उपयोग किया जाता है। जैसे बीज बढता है उसी प्रकार ब्रह्म भी अपने आप को बढाता है। जिस स्थान पर बृंहण होता है वह ब्रह्म है। (‘तदिदं बृंहणं यत्र उपपद्यते तद् ब्रह्म।’, वही, पृ. २१८) यह ब्रह्म दो प्रकार का है- अचिन्त्य और प्रमेय । तटस्थ लक्षण से जिसका ज्ञान होता है परन्तु स्वरूप लक्षण से जिसका ज्ञान नहीं होता है, वह अचिन्त्य कहलाता है। इस सृष्टि में जिस तत्त्व को हम जान सकते हैं, वह प्रमेय है। इस प्रकार ब्रह्म के तीन प्रकार हैं- विश्व, विश्वचर और विश्वातीत। जो यह विशाल सृष्टि है, यही विश्व है। इस विशाल सृष्टि में जो ब्रह्म तत्त्व प्रवेश किया हुआ है, वह विश्वचर है। इस सृष्टि से जो भिन्न सत्तारूप परम तत्त्व है उसी को विश्वातीत कहते हैं।विश्वातीत उपशीर्षक में अनेक विषयों को समाहित किया गया है। जिस में नाम, रूप और कर्म नहीं रहता है, वह तत्त्व विश्वातीत कहलाता है। ब्रह्म व्यापक है, माया सीमित है। माया का ब्रह्म के जितने भाग से संबन्ध होता है उतना ही भाग विश्व बनता है। विश्वसृष्टि को ही मायासृष्टि कहते हैं। विश्वचर विश्व का आत्मा है। तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है कि ब्रह्म इस सृष्टि की रचना कर के उस सृष्टि में प्रवेश करते हैं। ‘तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ । इस विश्वात्मा विश्वव्यापी को प्रजापति कहा जाता है। प्रजापति दो प्रकार के हैं- अनिरुक्त और सर्व। जो अनिरुक्त है वह इस सृष्टि का कारण है। जो सर्व रूप प्रजापति है वह कार्य है अर्थात् सृष्टि है। कारण और कार्य जब दोनों मिल जाता है तब यह प्रजापति चार प्रकार के हो जाते हैं- अमृत, सत्य, यज्ञ और विराट्। इस चार बनने में श्रुति प्रमाण है-‘चतुष्टयं वा इदं सर्वम्’। कारण भी दो प्रकार के हैं- अचिन्त्य और विज्ञेय। मृत्यु के बन्धन से रहित केवल विशुद्धरूप अचिन्त्य कारण कहलाता है। जो आकार से युक्त होता है वह विज्ञेय कारण कहलाता है। इस प्रसंग में परिग्रह शब्द का प्रयोग हुआ है। परिग्रह का अर्थ ग्रहण करना होता है। शुद्ध तत्त्व जब आकार ग्रहण करता है तो उस को परिग्रह कहते हैं। ये परिग्रह ६ प्रकार के हैं-माया, कला, गुण, विकार, आवरण और अञ्जन। इनमें प्रारंभ के तीन आत्मा को पुष्ट करने वाले तत्त्व हैं। ग्रन्थकार ने इन्हें ‘महिमा’ कहा है। अन्तिम जो तीन हैं वे आत्मा में दोष को उत्पन्न करते हैं। आत्मा की सात संस्था नामक उपशीर्षक में क्रमशः आत्मा के सात नामों का उल्लेख किया गया है। ये हैं- निर्विशेष, परात्पर, पुरुष, सत्य, यज्ञ, विराट् और विश्व । इन सातों में आदि के तीन (निर्विशेष, परात्पर, पुरुष,) को गूढोत्मा और अन्तिम चार (सत्य, यज्ञ, विराट् और विश्व ) को प्रजापति शब्द से व्याख्यायित किया जाता है।दृष्टि के भेद से आत्मा की पाँच संस्था नामक उपशीर्षक में प्राण, महिमा, अन्न, परिग्रह और पाप इन पाँच का वर्णन है। पाँच प्रकार के आत्मशास्त्र में सात प्रकार की आत्मसंस्थाओं का विषय नामक उपशीर्षक में वेद, उपनिषद्, दर्शन, मीमांसा और गीता को आत्माशास्त्र कहा गया है। वेद में प्रजापति का, उपनिषद् में गूढोत्मा का, दर्शन में गूढोत्मा की प्रकृति और प्रकृतिविकार का, मीमांसा में आत्मसंबन्धी विरोधाभास का समन्वय, गीता में अव्यय ब्रह्म का स्पष्ट रूप से वर्णन प्राप्त होता है।संस्था के भेद से आत्मभेद का प्रतिपादन होने पर भी ऐकात्म्य का सिद्धान्त नामक उपशीर्षक में कहा गया है कि उपनिषद् के द्वारा ही आत्मतत्त्व का विस्तार से निरूपण हुआ है। फिर दर्शन, मीमांसा और गीता का क्या प्रयोजन है, इस प्रश्न के उत्तर में ग्रन्थकार ने लिखा है कि वेद और उपनिषद् (वेदान्त) श्रुति शब्द से अभिहित हैं। इन्हीं का विस्तार दर्शन, मीमांसा एवं गीता में किया गया है। इस संगोष्ठी में प्रथम वक्ता के रूप में डॉ. के. एस्. महेश्वरन्, सहायक आचार्य, मद्रास संस्कृत महाविद्यालय, चेन्नई ने अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से निर्विशेष तत्त्व का एवं ब्रह्म के स्वरूपलक्षण तथा तटस्थलक्षण पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया।द्वितीय वक्ता के रूप में प्रो. सुन्दर नारायण झा, आचार्य, वेदविभाग, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने अपने व्याख्यान में अव्ययपुरुष का विस्तार से वर्णन किया। तृतीय वक्ता के रूप में डॉ. मणि शंकर द्विवेदी, शोध अधिकारी, श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली ने शारीरक विमर्श के बारहवें प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय को पी.पी.टी के माध्यम से प्रदर्शित करते हुए व्याख्यान दिया।कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जे.एन.यू., नई दिल्ली के आचार्य एवं श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि यह ग्रन्थ अत्यन्त ही सारगर्भित है। इसमें अनेक विषयों को समाहित किया गया है। इस ग्रन्थ के १२वें प्रकरण के प्रारंभ में लिखा गया है कि सबसे पहले शास्त्रब्रह्म…

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National seminar on Sharirikavimarsha– Part IV

The fourth seminar on Pandit Madhusudan Ojha’s Sharirikavimarsha, an exceptional work on Brahma vijnana, was organised by Shri Shankar Shikshayatan on July 31, 2023. The present seminar focussed on eighth, tenth and twelfth chapters of the text. In his keynote address, Prof. Vishnupada Mahapatra of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, New Delhi, spoke on the life’s journey of a living being as mentioned in Pandit Madhusudan Ojha’s Sharirikavimarsha as well as in the fourth chapter of Brahmasutra authored by sages Bādarāyaṇa and Vyāsa. The Brahmasutra chapter has four padas and explains the state and condition of a being after death. The first pada describes the form of nirguna or devotion to the divine as formless. Humans must always remember self, a being distinct from ishwar. The soul of a being is not the same as that of self. There is a discussion on various forms of worship, posture, introspection and concentration. In the second pada or section, there is an explanation on where does the human self go after leaving the material body. Prof. Ramanuj Upadhyaya of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, New Delhi, spoke on the twelfth chapter of Sharirikavimarsha titled, Atmabrahma Mimamsa. He said Ojhaji has explained three forms of atma or self–kevalatma, ishwaratma and jeevatma. All three are products of Brahma. Prof. Parag Bhaskar Joshi of Kavikulguru Kalidasa Sanskrit University, Ramtek, Nagpur spoke on the tenth chapter of Sharirikavimarsha titled Shodashapadipadarthanirukti. He said Ojhaji has explained the meaning of Brahmasutra in his book. Dr Janakisharan Acharya of Sri Somanath Sanskrit University, Veraval, Gujarat, presented his views on the eighth chapter of the book. Titled Upanishachastranirukti, the chapter examines the form of Upanishads. There is a detailed explanation of upanishads related to four vedas. The session was chaired by Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University. He explained that Ojhaji’s objective was to present an overview of the principles of Upanishad in his book. He has presented a new perspective on Brahmasutra. The seminar was organised and managed by Dr Lakshmi Kant Vimal and Dr Manishankar Dwivedi. The online seminar was attended by students, teachers and scholars from different universities.

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