श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मार्च, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीय
माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामक
ग्रन्थ के मासिकाध्याय के वैशाख मास से प्रारम्भ होकर आश्विन मास तक के छः मासों के आधार पर वृष्टि
विषयक विचार किया गया है। निर्धारित ग्रन्थांश में ४३१ कारिकाएँ समाहित हैं। उन्हीं कारिकाओं में निबद्ध
विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई ।
प्रो. परमान्द भारद्वाज, आचार्य, ज्योतिष विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि इस कादम्बिनी नामक ग्रन्थ में
वैशाख मास को मेघनिर्माण की पूर्वकल्पना एवं नियम के लिए अक्षय तृतीय को आधार बनाया गया है। अक्षय
तृतीया के आलोक में शकुन परीक्षा, अमत्र परीक्षा, काक परीक्षा, बिम्ब परीक्षा, धान्य परीक्षा, लोष्ठ परीक्षा,
नक्षत्र परीक्षा, गर्भ परीक्षा, वायु परीक्षा और उग्रवात परीक्षा समाहित है। बिम्ब परीक्षा के विषय में इस प्रकार
का वर्णन है-
अक्षयायां तृतीयायां पूरयेद् भाण्डमम्बुना ।
रविं विलोकयेन्मध्ये तत्स्वरूपं विमर्शयेत्॥
रक्ते सूर्ये विग्रहः स्यान्नीले पीते महारुजः।
श्वेते सुभिक्षं विज्ञेयं धूसरो दुःखमूषकाः॥ –कादम्बिनी, पृ.५५, कारिका २२८-२२९
अक्षय तृतीया तिथि को किसी पात्र में जल भर कर उस में सूर्य के प्रतिबिम्ब को देखा जाता है। उस बिम्ब के
आधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि लाल रंग का हो तो उसका फल युद्ध है।
सूर्य का बिम्ब यदि नीला और पीला हो तो उसका फल रोग है। सूर्य का बिम्ब यदि सफेद रंग का हो तो उसका
फल अच्छी वृष्टि होती है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि धूसर रंग का हो तो उसका फल चूहे आदि से होने वाला
दुःख है।
प्रो.विष्णु कुमार निर्मल, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर ने अपने
सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि कि इस ग्रन्थ में जेष्ठ मास
से संबन्धित अनेक विषयों को समाहित किया गया है। जिससें मासादिरोहिणी, पवनधारणा, प्रवर्षणमिति,
मासान्तरोहिणी प्रमुख विषय हैं। पवनधारणा पर ग्रन्थकार पं. ओझाजी ने इस प्रकार वर्णन किया है।
चतस्रस्तिथयो वायुधारणा अष्टमीमुखाः।
ज्यैष्ठशुक्ले मृदु-स्निग्ध-स्थगिताभ्रोऽनिलः शुभः॥
स विद्युतः सपृषतः सपांशूत्करमारुताः।
सार्कचन्द्रपरिच्छन्ना धारणाः शुभधारणाः॥ -कादम्बिनी, पृ.६५, कारिका २८३-२८४
ज्येष्ठ शुक्ल की अष्टमी तिथि से एकादशी तिथि तक चार तिथियाँ वायु धारण करती हैं। इनमें मृदु, स्निग्ध और
स्थगित इन तीन प्राकर के वायु का स्वरूप निर्धारित किया गया है। इन तिथियों को बिजलियाँ, जल की बूँदे,
धूलि युक्त हवा का चलना चन्द्रमा पर बादल छा जाना ये सब वृष्टि के लिए मेघ धारण का शुभ संकेत है।
डॉ. रूपेश कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय,
उज्जैन ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि आषाढ मास का विषयवस्तु इस प्रकार हैं-
स्वातियोग, आषाढी परीक्षा और रोहिणीयोग । आषाढी परीक्षा के विषय में ग्रन्थकार ने लिखा है-
गर्भाः पुष्टिकराः सर्वे सुयोगा विलयं गताः।
आषाढ्यां तु विनष्टायां सर्वमेवाशुभं भवेत्॥
गर्भनाशकराः सर्वे कुयोगा विलयं गताः।
यद्याषाठी शुभा जाता तदा सर्वं शुभं भवेत् ॥ -कादम्बिनी, पृ.८५, कारिका ४१७-४१८
आषाढ शुक्ल पूर्णिमा तिथि के निर्धारित मेघ गर्भ धारण के लक्षण नष्ट हो जाने पर मेघ का गर्भधारण नहीं हो
पाता है। यदि इस पूर्णिमा तिथि को योग अच्छे हों तो गर्भ धारण के कुयोग भी सुयोग में बदल जाता है।
इसीलिए इस आषाढ परीक्षा का अत्यधिक महत्त्व है।
डॉ. ब्रह्मानन्द मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रघुनाथ कीर्ति परिसर,
देवप्रयाग ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टि के लिए श्रावण मास का विशेष महत्त्व
है। श्रावण मास के विषय में ग्रन्थकार ने कहा है कि सूर्य की स्थिति से ही वर्षा का योग बनता है।
श्रावणे शुक्लपक्षे तु सिंहसंक्रान्तिसम्भवः।
समुद्रे पूर्णवृष्टिः स्यादन्यदेशे तु कुत्रचित् ॥
कर्कसंक्रमणे वृष्टिरवृष्टिः सिंहसंक्रमे।
कर्णपूरे वहेत् कन्या तुले निर्वातवृष्टयः॥ –कादम्बिनी, पृ.१०८, कारिका ५२१-५२२
श्रावण शुक्लपक्ष में यदि सिंह राशि के ऊपर सूर्य का संक्रमण अर्थात् आगमन हो तो समुद्र में अर्थात् प्रान्त देशों
में पूर्ण वृष्टि होगी परन्तु दूसरे जगहों पर कहीं कहीं वर्षा होगी।
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि वृष्टि के लिए भाद्रपद का विशेषमहत्त्व है। ग्रन्थकार पं. ओझा जी ने
भाद्रपद के विषय में लिखते हैं-
प्रतिपत् सप्तमी भाद्रे द्वादशी च त्रयोदशी।
पूर्णिमा चासु वारुण्यां श्रितैर्मेघैः प्रवर्षणम् ॥
भाद्र-शुक्ल-द्वितीयायां यदि चन्द्रो न दृश्यते।
तदा तेन भवेद् वर्षे सस्यसंपत्तिरुत्तमा ॥ –कादम्बिनी, पृ.११४, कारिका ५५२-५५३
भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, सप्तमी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा के दिन पश्चिम में मेघ के होने से अच्छी वृष्टि
होती है। भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को चन्द्रमा यदि न दिखे तो वर्ष बहर फसल अच्छी होगी।
आश्विन मास के विषय में कहा गया है –
नापेक्षते गर्भसिद्धिं चतुर्थी पञ्चमी तिथिः।
ग्रहयोगवशादेवाश्विने वर्षति तच्छुभम् ॥
चतुर्थ्यामपि पञ्चम्यामाश्विने शीघगर्भता ।
पञ्चभिः सप्तभिर्वा स्याद्दिनैरेकार्णवा मही॥-कादम्बिनी, पृ.११८, कारिका ५७९-५८०
आश्विनमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी और पञ्चमी तिथि में मेघ के गर्भ निर्धारण की अपेक्षा नहीं है। तात्कालिक
ग्रहयोग से इन दोनों में जो वृष्टि होती है वह शुभप्रद होता है। आश्विन शुक्ल चतुर्थी पञ्चमी में शीघ्र ही मेघ का
गर्भ निर्धारण हो जाता है और पाँच से सात दिनों में ही पृथ्वी पर अच्छी वृष्टि होने लगती है।
डॉ. अनयमणि त्रिपाठी, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने सस्वर
वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी
डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,
शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।