श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली द्वारा दिनांक ३० दिसम्बर २०२२ को श्रीमद्भगवद्गीताविज्ञानभाष्यविमर्श विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पं. मधुसूदन ओझा प्रणीत श्रीमद्भगवद्गीताविज्ञानभाष्य चार भागों में विभक्त है। इनके नाम हैं- रहस्यकाण्ड, मूलकाण्ड, आचार्यकाण्ड और हृदयकाण्ड । उन में रहस्यकाण्ड के अन्तर्गत राजर्षिविद्या का वर्णन प्राप्त होता है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी ने हिन्दी में राजर्षिविद्या पर तीन लघु ग्रन्थ प्रस्तुत किया है। प्रत्येक ग्रन्थ में सात-सात उपदेश हैं। इन्हीं तीन ग्रन्थों को आधार बनाकर पर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी थी।
यह संगोष्ठी दो सत्रों में समायोजित हुई थी। प्रथमसत्र की अध्यक्षता, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के आचार्य एवं श्रीशंकर शिक्षायतन के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने की तथा द्वितीय सत्र की अध्यक्षता, जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की आचार्या प्रो. सरोज कौशल ने की। इस संगोष्ठी में विविध विद्वान् वक्ताओं ने अपना सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया।
प्रो. शोभा मिश्रा, संस्कृत विभाग, विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय, कानपुर ने राजर्षिविद्या के प्रथम उपनिषद् के चतुर्थ उपदेश को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने बतलाया कि इस गीताविज्ञानभाष्य में उपनिषद् के सारवचनों को सहज भाषा में भाष्यकार ने उपस्थापित किया है। इस क्रम में उन्होंने शोक एवं अनुशोक को विज्ञानभाष्य के अनुसार स्पष्ट करते हुए कहा कि जिस कारण से मनुष्य दुःखी होता है वह शोक कहलाता है और जिस दुःख में कोई निश्चित कारण नहीं होता है, वह अनुशोक कहलाता है।
डॉ. अवनीन्द्र कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, रामबचन सिंह राजकीय महाविद्यालय, मऊ, उत्तर प्रदेश ने राजर्षिविद्या के तृतीय उपनिषद् के पाँचवें उपदेश पर अपना व्याख्यान दिया । उन्होंने कहा कि गीता में जो लोकसंग्रह का प्रसंग प्राप्त होता है। वहाँ श्रेष्ठ के आचरण को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। क्योंकि दूसरा व्यक्ति श्रेष्ठ के आचरण को प्रमाण मान कर समाज में आचरण करता है। अत एव श्रेष्ठ का आचरण सर्वथा दोषरहित होना चाहिए।
डॉ. लक्ष्मी मिश्रा, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर ने राजर्षिविद्या के द्वितीय उपनिषद् के प्रथम उपदेश पर अपना तथ्यात्मक व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि गीता में भगवान् ने ‘स्वधर्ममपि’ इस शब्द का प्रयोग किया है। इस पद से योग के प्रकरण का प्रारम्भ होता है तथा ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम्’ इस पद के माध्यम से कर्तव्य कर्म का स्पष्ट उपदेश भगवान् ने अर्जुन को प्रदान किया है।
डॉ.एन.वैति. सुब्रह्मणियन्, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्याल, धर्मशाला ने राजर्षिविद्या के द्वितीय उपनिषद् के चतुर्थ उपदेश को आधार पर अपना महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिया । उन्होंने कहा कि कर्म तीन प्रकार के हैं। जहाँ महत् तत्त्व की प्रधानता रहती है वहाँ महत्कर्म, जहाँ बुद्धि तत्त्व की प्रधानता रहती है वहाँ विज्ञानकर्म एवं जहाँ प्रज्ञान तत्त्व की प्राधानता रहती है वहाँ मानसकर्म होता है। इस प्रकार कर्म की व्याख्या इस विज्ञानभाष्य में प्राप्त होता है।
प्रथमसत्र के अध्यक्ष प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने अपने उद्बोधन में विज्ञानभाष्य के महत्त्व को बतलाते हुए कहा कि इस भाष्य में बुद्धियोग का प्रधानरूप से विवेचन प्राप्त होता है । इस भाष्य में बुद्धियोग का भक्तियोग के साथ संबन्ध है। यह इस भाष्य की अभिनव दृष्टि है। इस भाष्य में पं. ओझा जी ने गीताकारिका को समाहित किया है। प्रायः इस गीता कारिका में अनुमानतः २०० कारिकाएँ हैं। इस कारिका को आधार बनाकर विचार करना अत्यन्त आवश्यक है।
संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला ने राजर्षिविद्या के द्वितीय उपनिषद् के छठे उपदेश के आलोक में अपना व्याख्यान दिया । उन्होंने बतलाया कि गीता में ‘संमोहात् स्मृतिविभ्रमः’ यह पद्यांश आया है। इस श्लोक में मोह से स्मृति का क्रम निर्धारित है। उस क्रम से भिन्न क्रम को पं. शास्त्री जी ने स्वीकार किया है। पं. शास्त्री जी का यह विचार सर्वथा नवीन है। इस के उत्तर में उन्होंने गीता के वचनों को ही उद्धृत किया है। उनके अनुसार पहले मोह नष्ट होता है तब स्मृति होती है। अर्जुन भगवान् को कहते हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है अब मैं स्मृति को प्राप्त कर चुका हूँ- ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा।’
डॉ. सूर्यकान्त त्रिपाठी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर ने राजर्षिविद्या के द्वितीय उपनिषद् के तृतीय उपदेश को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया । गीता में प्रयुक्त ‘कर्मण्येवाधिकारः’ के व्याख्यान में पं. शास्त्री जी ने लिखा है कि कमना का अभाव कभी नहीं होता है। कामना के बिना कर्म नहीं हो सकता है। अतः इन दोनों तत्त्वों का समन्वय आवश्यक है।
डॉ. ममता मेहरा, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया, बिहार, ने राजर्षिविद्या के द्वितीय उपनिषद् के सप्तम उपदेश के परिप्रेक्ष्य में अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इस विज्ञानभाष्य में आत्मा के अनेक स्वरूपों को उद्घाटित किया गया है। जिसमें अकृतात्मा, कृतात्मा, विधेयात्मा आदि प्रमुख हैं ।
डॉ. जया साहा, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय ने राजर्षिविद्या के तृतीय उपनिषद् के द्वितीय उपदेश के सन्दर्भ में अपना व्याख्यान किया। राजर्षिविद्या के इस उपदेश में तीन गुणों की चर्चा है। पं. शास्त्री जी ने त्रिगुणभाव को ही द्वन्द्ववृत्ति कहा है।
डॉ. माधव गोपाल, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, भारती महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने राजर्षिविद्या के तृतीय उपनिषद् के सप्तम उपदेश को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इस ग्रन्थ के अनुसार कर्म का परित्याग उचित नहीं है। इस प्रसंग में भगवान् का अपना विचार प्राप्त होता है । ‘ये मे मतमिदम्’ गीता का यह वाक्य भगवान् का अपना ही विचार है।
डॉ. देवेन्द्र पाल, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर ने राजर्षिविद्या के तृतीय उपनिषद् के चतुर्थ उपदेश के आलोक में अपना सारगर्भित व्याख्यान दिया । ‘यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्’ गीता के इस वचन में में कहा गया है कि विषय में मन की वृत्ति तल्लीन रहती है। इसी को रति कहते हैं।
द्वितीय सत्र की अध्यक्षता करते हुए अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. सरोज कौशल ने कहा कि पं. ओझा जी एवं पं. शास्त्री जी के भाष्यों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों के विश्लेषण से भाष्य का अर्थ शास्त्र में स्पष्ट समझना संभव है।
कार्यक्रम का शुभारम्भ श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्याल के शोधछात्र श्रीप्रवीण कोइराला के वैदिकमङ्गलाचरण से तथा समापन वैदिक शान्तिपाठ से हुआ । कार्यक्रम के प्रथम सत्र का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के वरिष्ठ शोध अध्येता डॉ. मणि शंकर द्विवेद्वी ने तथा द्वितीय सत्र का सञ्चालन डॉ. लक्ष्मीकान्तविमल ने किया। इस कार्यक्रम में देश के विविध विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों से अनेक विद्वानों, शोधछात्रों और गीताप्रेमियों ने समुपस्थित होकर कार्यक्रम को सफल बनाया।