प्रतिवेदन
विसवीं शताब्दी के वैदिकविज्ञान के महान् शास्त्रचिन्तक पण्डित मोतीलाल शास्त्री संस्कृत जगत् में सुविख्यात हैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा में शतपथब्राह्मण का, उपनिषद् का और गीताविज्ञानभाष्य का अभिनव व्याख्या की है। उनकी उपलब्ध सभी रचना श्रीशंकर शिक्षायतन के वेबसाईट पर पढने के लिए रखा गया है। श्रीशंकर शिक्षायतन प्रतिवर्ष मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान का समायोजन करता है। इस वर्ष सितम्बर माह के दिनांक २८ शनिवार को श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में यह व्याख्यान सुसंपन्न हुआ है।।
श्रीशंकर शिक्षायतन का यह वार्षिक उत्सव के रूप में यह यह व्याख्यान प्रतिवर्ष समायोजित होता है। इस व्याख्यान में दो ग्रन्थों का लोकार्पण समागत अतिथियों के द्वारा किया गया। एक ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में लिखित ‘वैदिक कन्सेप्ट आफ मेन एन्ड यूनिवर्स’ है। यह ग्रन्थ राष्ट्रपतिभवन में महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष वैदिकविज्ञान के पाँच विषयों पर पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने १९५६ ई. में व्याख्यान दिया था। उस व्याख्यान का अंग्रेजी अनुवाद ऋषि कुमार मिश्र जी ने किया था। पुन विस्तृत संस्करण निकाला गया है। दूसरा ग्रन्थ अहोरात्रवादविमर्श है। पण्डित मधुसूदन ओझा जी के अहोरात्रवाद नामक ग्रन्थ की समीक्षा है। ये दोनों ग्रन्थ २०२४ ई. डी. के. प्रिन्ट वर्ल्ड, दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं।
इस व्याख्यान में मुख्यवक्ता प्रो. कृष्ण कान्त शर्मा, पूर्वसंकाय अध्यक्ष, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी थे। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के समसामयिक महत्त्व को उद्घाटित किया। उन्होंने इन्द्रविजय के विविध पक्षों पर अपना व्याख्यान दिया। पण्डित मधुसूदन ओझा वेद में इतिहास को स्वीकार करते हैं । दूसरे विद्वान् वेद में इतिहास को स्वीकार नहीं करते हैं। वेद में यदि इतिहास है तो वेद की नित्यता भङ्ग हो जायेगी। ऋग्वेद के अनेक सूक्तयों में अनेक कथा हम लोग पढ़ते हैं। इन्द्रविजय ग्रन्थ में इन्द्र हमारे भारत राष्ट्र प्रथम राजा थे। इन्द्र को केन्द्र में रख कर भारतवर्ष का भूगोल और इतिहास का उद्घाटन इस ग्रन्थ में किया गया है।
विशिष्ट अतिथि के रूप में विराजमान प्रो. राजधर मिश्रः, व्याकरण विभाग, जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर ने कहा कि यह इन्द्रविजय ग्रन्थ भारतवर्ष के भौगोलिक सीमा ही निर्धारण नहीं करता है अपितु भूगल का वर्णन भी इन्द्रविजय में है। भारतवर्ष का समग्र इतिहास श्रुतिप्रमाण से प्रमाणित है। उन्होंने कहा कि भारत नामकरण के विविध पक्षों का विश्लेषण किया गया है। भारतवर्ष के चार नाम हैं भारतवर्ष, नाभिवर्ष, आर्षभवर्ष और हैमवतवर्ष। भारत नामकरण के लिए चार प्रमाण भी ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है। आग्नीध्र के पुत्र नाभि थे, नाभि के पुत्र ऋषभ, ऋषभ के पुत्र भरत थे, उन्हीं के नाम पर भारतवर्ष है। दुष्यन्त और शकुन्तल के पुत्र भरत थे, उनके नाम पर यह भारतवर्ष है। शतपथब्राह्मण में अग्नि को भरत कहा गया है, इस आधार पर भी भारतवर्ष नाम है। भरण और पोषण करने के कारण भी भारत यह नाम सिद्ध होता है।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्लः, प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने समागत सभी अतिथियों का स्वागत किया। प्रो. शुक्ल ने दृढता के साथ कहा कि इस समय संपूर्ण भारतवर्ष में वैदिक विज्ञान के प्रमुख संस्थान श्रीशंकर शिक्षायतन है। इस शिक्षायतन की संस्थापना प्रख्यात शिक्षाविद् ऋषि कुमार मिश्र ने की थी। मिश्र के गुरु पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी थे, मोतीलाल शास्त्री के गुरु पण्डित मधुसूदन ओझा जी थे । इस प्रकार गुरु परम्परा से वैदिक विज्ञान का संप्रसार प्रचार संलग्न यह श्रीशंकर शिक्षायतन है। इतिहास दो प्रकार के होते हैं। एक इतिहास सृष्टिपक्ष को उद्घाटित करता है। दूसरा पक्ष राजाओं के चरितवृत्तान्त समुद्घाटित करता है। जगद्गुरुवैभव नामक ग्रन्थ में स्वयं पण्डित मधुसूदन ओझा लिखा है।
यद्विश्वसृष्टेरितिवृत्तिमासीत् पुरातनं तद्धि पुराणमाहुः।
यच्चेतनानां नु नृणाम् चरित्रं पृथक् कृतं स्यात् स इहेतिहासः॥
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. भागीरथ नन्द, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के शैक्षणिक पीठाध्यक्ष की थी। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के महत्त्व का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि वैदिककाल में लौहपदार्थ का आविष्कार नहीं हुआ था। परन्तु पत्थर की उपलब्धता सभी जगहों पर थी। इन्द्र का वज्र पत्थर से बना हुआ था । यहाँ पत्थर का अर्थ कठोरतम पदार्थ से है। कालिदास भी अपने रघुवंश नामक महाकाव्य में रघुचरित के वर्णन के क्रम में राजा रघु का अश्व ईरानदेश से आया था, यह कहा है। इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि भारतवर्ष की सीमा बहुविस्तृत थी।
श्रीशंकर शिक्षायतन के न्यासी श्रीमान् आनन्द बोर्दिया जी ने उपस्थित सभी विद्वानों का धन्यवादज्ञापन किया । एवं अपने उद्बोधन में भारतवर्ष के व्यापक चिन्तन का महत्त्व का निरूपण किया गया है। जहाँ भारतवर्ष में वैदिककाल से ज्ञान के विविध पक्ष का विकास हुआ है । हमारे देश में शास्त्रचिन्तन की स्वतन्त्रता है।
व्याख्यान के प्रारम्भ श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा वैदिक मङ्गलाचरण का एवं प्रो.महानन्द झा ने लौकिक मङ्गलाचरण का सुस्वर गायन किया। कार्यक्रम का सञ्चालन जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के डॉ. मणिशंकर द्विवेदी ने किया। व्याख्यान में दिल्ली विश्वविद्यालय के, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल के, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अनेक विद्वानों ने, शोधछात्रों ने संस्कृतानुरागियों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के कार्यक्रम को सफल बनाने में बड़ा योगदान किया।