Seven-day National Workshop on Vijnanavidyut

July 14-20,2025 A seven-day national online workshop was organized by Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute, New Delhi, from July 14 to 20, 2025. The theme of the workshop was the text Vijnanavidyut authored by Pandit Madhusudan Ojha. This concise text, written by Pt. Ojha, serves as an introductory treatise to Brahmavidya (the science of Brahman). The text comprises five chapters (prakāśas), exploring the concept of the fourfold Brahman in the forms of Pura (Body), Purusha (Person), Parātpara (Transcendent), and Nirvisheṣa (Attribute-less). Each chapter of the text was elaborated upon by subject experts during the workshop. Every day, two expert lectures were delivered along with a presiding address. A detailed account of the seven-day proceedings is given below: Day 1 (14.07.2025): Topic – Chatushpada Brahma Day 2 (15.07.2025): Topic – Concept of Akshara tattva Day 3 (16.07.2025): Topic – Concept of Avyaya (Immutable) Principle Day 4 (17.07.2025): Topic – Concept of Parameṣṭhī Day 5 (18.07.2025): Topic – Concept of the Seven Realms (Saptalokavichāra) Day 6 (19.07.2025): Topic – Concept of Bhutatma Day 7 (20.07.2025): Topic – Concept of Saptakosha The workshop concluded under the chairmanship of Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi. In his daily summaries, he emphasized the concept of Chatushpada-Brahma as central to Vijnanavidyut, detailing the fourfold nature: The inaugural Vedic chanting was conducted by Dr. Dharmendra Kumar Pathak, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Lucknow Campus. The proceedings were conducted by Dr. Lakshmikant Vimal and Dr. Mani Shankar Dwivedi, Research Officers at Shri Shankar Shikshayatan. Held via Google Meet, the workshop witnessed enthusiastic participation from over a hundred scholars, students, and Vedic science enthusiasts from various universities and institutions, making it a grand success.

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सप्तदिवसीय राष्ट्रीय वैदिकविज्ञानविद्युत्-कार्यशाला

July 14-20,2025 प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान, नई दिल्ली के द्वारा दिनांक 14-20 जुलाई 2025 तक अन्तर्जालीय माध्यम से सप्तदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का समायोजन किया गया। यह कार्यशाला पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत विज्ञानविद्युत् ग्रन्थ पर आयोजित थी। पं. ओझा के द्वारा प्रणीत यह लघु ग्रन्थ ब्रह्मविज्ञान में प्रवेश के लिए प्रारम्भिक ग्रन्थ है।  इस ग्रन्थ में पाँच प्रकाश हैं। जिसमें पुर, पुरुष, परात्पर एवं निर्विशेष के रूप में चतुष्पाद् ब्रह्म का विवेचन हुआ है। यह ग्रन्थ कुल पाँच प्रकाशों में विभक्त है। कार्यशाला में प्रत्येक प्रकाश के विषय-वस्तु का विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा उद्घाटन किया गया। प्रत्येक दिन दो विषय-विशेषज्ञों ने विषय पर व्याख्यान दिये एवं अध्यक्षीय वक्तव्य हुआ। इस सप्तदिवसीय कार्यशाला का विस्तृत विवरण अधोलिखित है- प्रथम दिवस (14.07.2025) : कार्यशाला के पहले दिन का विषय चतुष्पाद्-ब्रह्म विचार था जिसमें विषय विशेषज्ञ के रूप में बोलते हुए प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि यह विज्ञानविद्युत् अत्यन्त पठनीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ चतुष्पाद् ब्रह्म से हुआ है। चतुष्पाद् का अर्थ है, जिसमें चार विषयरूपी पाद हों। ये पाद हैं- पुर, पुरुष, परात्पर और निर्विशेष। इस सृष्टि में जो कुछ भी पदार्थ बाह्य जगत् में देखा जाता है, वह सभी विकारों का समूह है। भूतग्राम और आत्मग्राम को पुर कहा गया है। भूतग्राम से तात्पर्य आकाश, वायु,  अग्नि, जल और पृथ्वी है।  आत्मग्राम से तात्पर्य  ज्ञानेन्द्रिय से है। शास्त्र में आत्मा शब्द का अर्थ बुद्धि भी होता है। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में भी प्रज्ञामात्रा और भूतमात्रा की चर्चा मिलती है-‘तथा हि इदं यावद् इह किञ्चिद् बहिर्धा दृश्यते, सर्वोऽयं विकार-संघो भूतग्रामत्वाद् आत्मग्रामत्वात् च पुरम् इति अभिधीयते।’,विज्ञानविद्युत् पृ. २ दूसरे विषयविशेषज्ञ प्रो. श्यामदेव मिश्र, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने कहा कि पुर का ही अर्थ शरीर होता है। विकारों का समूह ही शरीर है। यह विकार क्षरपुरुष में आश्रित रहता है। इस शरीर का प्रतिक्षण क्षरण होते रहता है। अव्ययपुरुष, अक्षरपुरुष और क्षरपुरुष इन तीन पुरुषों में क्षरपुरुष में शरीर को रखा जाता है। इन तीन पुरुषों से भिन्न यह शरीर नहीं है-‘क्षरपुरुषाश्रितोऽयं विकारसंघः शरीरम् उच्यते, इति उक्तम्, तच्च क्षरात्मकत्वात्, क्षरपुरुषेऽन्तर्भूतम् इति त्रिपुरुषात् न अतिरिच्यते किञ्चित्।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. ८ द्वितीय दिवस (15.07.2025) : दूसरे दिन का विषय अक्षरतत्त्व विचार था जिसमें प्रो. विष्णुपद महापात्र, आचार्य, न्याय विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि अक्षर पुरुष पाँच प्रकार के हैं- ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम। इन पाँचो को दो भागों में केन्द्र और बाह्य रूप में विभक्त किया गया है। केन्द्र के लिए हृद्य शब्द का और बाह्य के लिए पृष्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है। ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र ये तीन हृद्य हैं एवं अग्नि-सोम पृष्ठ्य हैं। इनमें ब्रह्मा को प्रतिष्ठाप्राण, विष्णु को आकर्षण प्राण और इन्द्र को उत्क्षेपण प्राण कहा गया है। उत्क्षेपण के द्वारा जो प्रतिष्ठित होता है, वह अग्नितत्त्व है। आकर्षण के द्वारा जो तत्त्व प्रतिष्ठित होता है वह सोम तत्त्व है। इस को एक सरल उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। प्रतिष्ठा का अर्थ आधार होता है। ब्रह्मा रूप आधार पर विष्णु और इन्द्र प्रतिष्ठित हैं। विष्णु बाहर से तत्त्व को लाते हैं जस तत्त्व को विष्णु लाते हैं वह सोम है अर्थात् अन्न है। इन्द्र जिस तत्त्व को बाहर ले जाते हैं वह तत्त्व अग्नि है। यह मानव के शरीर में एवं प्रत्येक जीव के शरीर में घटित होता है- ‘तत्र प्रतिष्ठाप्राणं ब्रह्माणम् आहुः, आकर्षणप्राणं विष्णुः आहुः, उत्क्षेपणप्राणं तु इन्द्रम् आहुः, उत्क्षिप्तः प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषोऽग्निः उच्यते, आकृष्टस्तु प्रतिष्ठितोऽक्षर-विशेषः सोम इति उच्यते।’, विज्ञानविद्युत्, पृ. १३ द्वितीय वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रो. सतीश कुमार मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने कहा कि इस प्रकाश में अक्षर का ही विस्तार से वर्णन किया गया है। ब्रह्मा को वेद, विष्णु को यज्ञ, इन्द्र को प्रजा, अग्नि को लोक और सोम को धर्म कहा गया है। इस प्रारूप में अक्षर की व्याख्या की गयी है-‘एषु च पञ्चाक्षरेषु ब्रह्मा वेदमयः विष्णुर्यज्ञमयः इन्द्रः प्रजामयः अग्निर्लोकमयः सोमो धर्ममयः प्रतिपद्यते।’, वही, पृ. १९ तृतीय दिवस (16.07.2025) : तीसरे दिन का विषय अव्यय तत्त्व विचार था जिसमें अपने वक्तव्य में प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने बतलाया कि क्षरपुरुष को परिणामी कारण कहा गया है और अक्षर पुरुष को निमित्त कारण कहा गया है। इन दोनों तत्त्वों से विशिष्ट अव्यय पुरुष है। वह अव्यय पुरुष न कार्य है और न कारण है। यहाँ अव्यय पुरुष की कारणता का निषेध किया गया है परन्तु दूसरे प्रकार से अव्यय पुरुष को ही सर्वकारण कहा गया है-‘उक्तं पूर्वम्, क्षरपुरुषः परिणामि-कारणम्, अक्षरपुरुषो निमित्त-कारणम्, ताभ्यां यदन्यत्सोऽव्ययः पुरुषो न कार्यं न कारणम् इति। यद्यपि एवम् अस्मिन् अव्ययपुरुषे कारणत्वं निषिध्यते, तथापि प्रकारान्तरेण अस्य अव्ययपुरुषस्य एव सर्वकारणत्वं प्रत्येतव्यम्।’, वही, पृ २७ दूसरे वक्ता डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला ने कहा कि अव्यय की पाँच कलाएँ हैं- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्।  इन पाँच कलाओं को दो भागों में विभाजित करते हैं। एक भाग में आनन्द, विज्ञान और मन है, दूसरे विभाग में प्राण, वाक् और मन है। दूसरा विभाग प्राण, वाक् और मन ये तीनों सृष्टि के कारण हैं। सृष्टि के लिए प्राण-वाक् उपादान है और विज्ञान-आनन्द सहकारी कारण है। विज्ञान और आनन्द के साथ मन-वाक् अनेक प्रकार के प्राण को उत्पन्न करता हुआ अनेक प्रकार की सृष्टि को उत्पन्न करता है। तथा विज्ञान, एवं आनन्द के साथ मन संसार से मुक्ति का कारण होता है-‘एषु पञ्चसु अव्ययधातुषु उत्तराभ्यां प्राण-वाग्भ्यां सहितं मनः संसाराय हेतुर्भवति। तत्र प्राण-वाग्भ्यां जगदुपादाने विज्ञानानन्दौ सहकारिणौ भवतः। विज्ञानेनान्देन च सहकृतं मनो वाचि भिन्न-विधान् प्राणान् सन्निवेश्य नानविधान् भावान् उत्पादयति। अथ विज्ञानानन्दाभ्यां सहितं मनो निस्ताराय हेतुर्भवति।’,वही, पृ. ३२ चतुर्थ दिवस (17.07.2025) :    चौथे दिन का विषय परमेष्ठी तत्त्व विचार था जिसमें प्रथम वक्ता के रूप में प्रो. प्रयाग नारायण मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, इलाहावाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज ने परमेष्ठी के स्वरूप पर अपना विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि एक ईश्वर के शरीर में नाना विध स्वरूप वाला ब्रह्मा स्थित रहता है। उस ब्रह्मा का परमेष्ठी में, सूर्य में, पृथ्वी में एवं चन्द्रमा में स्थित रहने के काराण ही ब्रह्मा नानविध स्वरूप वाला बनता है। ईश्वर के शरीर में ब्रह्मा से प्रारम्भ करके चन्द्रमा तक अनेक शाखा…

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National Seminar on Kadambini–Ravikaradhyaya Part VI

The sixth discussion in the annual series of seminars on Pandit Madhusudan Ojha’s excellent work on meteorology, Kadambini, was organised by Shri Shankar Shikshaytan on June 30, 2025. The focus of the discussion on the chapter on Ravikara. The seminar saw discussion on Pratyarkavidhi, Parivesh, Indrayudha, Danda, Trishul, Matsya and Amogha mentioned in the chapter . Dr. Nigam Pandey, Assistant Professor, Department of Jyotish, Dharma Samaj Sanskrit Mahavidyalaya, Muzaffarpur, Bihar, in his presentation explained the concept of pratyarkaparidhi. It means each circumference of the sun. Paridhi means the circular expansion of the sun rays. If the sun rays are in the same mood, smooth and according to the seasons, then that pratyarkparidhi is auspicious. If the outer circumference of the aura is clean and white, there will be good rainfall and it will be beneficial. The book clarifies that wind has a telling influence on the sun and moon. Dr. Naresh Sharma, Assistant Professor, Department of Jyotish, Maharishi Valmiki Sanskrit University, Kaithal, Haryana, said that if two small and big coils are formed due to the rays of the sun and the moon, there will be good rainfall. It is said that if the coils are in  five colours, there would be good rainfall for three days. Dr. Vinod Sharma, Assistant Professor, Department of Jyotish, Central Sanskrit University, Vedavyas Campus, Himachal Pradesh said that Indrayudha is of two types – in the form of a bow and in the form of an elephant Airavata. Prana resides in the sun’s rays. It is known as Indra. The sun’s rays penetrate the water with the force of wind and seven colours are developed due to this combination. It is called rainbow.  Dr. Divesh Sharma, Assistant Professor, Department of Jyotish, Central Sanskrit University, Eklavya Campus, Tripura, explained the chapter under discussion was on the rays of the sun. The line coming from the sun is called amogha. If the line is broken, it is called danda. If there are three lines, it is called trishul.  Two amogha lines emanating from the other side and forming the shape of fish provide clues about the rain. Prof. Santosh Kumar Shukla of  Jawaharlal Nehru University, New Delhi, presiding over the seminar, said good rainfall can be predicted by looking at the circumference created by the sun’s rays. If the  circumference touches the objects situated on either side of the sun then there is a likelihood of good rain and if this circumference happens to be around the sun, good rain is highly unlikely. Dr. Rahul Kumar Mishra, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Lucknow Campus recited the Mangalacharan. The programme was organised by Dr Lakshmi Kant Vimal of Shri Shikshayatan  Vedic Research Institute.Professors, research scholars and scholars interested in Sanskrit studies from various universities and colleges from different states participated.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी : रविकराध्याय विमर्श (शृंखला-०६)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० जून, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में रविकराध्याय में वर्णित प्रत्यर्कविधि,परिवेष, इन्द्रायुध, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य, अमोघ विषयों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. निगम पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहारने वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि प्रत्यर्कपरिधि नामक शीर्षक का अर्थ है कि सूर्यकी एक एक परिधि। परिधि का अर्थ सूर्य किरणों का गोलाकार रूप में विस्तार है। सूर्य किरण यदि समान भावमें हो, चिकनापन वाला हो और ऋतुओं के अनुरूप वाली हो, तो वह प्रत्यर्कपरिधि शुभप्रद होती है। वैदूर्य मणिकी आभा वाली प्रत्यर्कपरिधि स्वच्छ और श्वेत हो तो अच्छी वृष्टि होगी एवं कल्याणप्रद होगी। प्रतिसूर्यः समः स्निग्धः स्वर्तुवर्णः प्रशस्यते।वैदूर्याभः सितः स्वच्छः सुभिक्षं क्षेममावहेत् ॥–कादम्बिनी पृ. १५६ का.१४६ परिवेष को स्पष्ट करते हुए कादम्बिनी ग्रन्थ में कहा गया है कि आकाश में सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं। हवा केद्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें प्रतिमूर्छित होते हैं। हवा और किरणों के परस्पर प्रतिघात से एक गोलाकारपिण्ड बनता है, उन्हें परिवेष कहते हैं। परिवेष के आधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। रवेरिन्दोः करा व्योम्नि वायुना प्रतिमूर्छिताः।सूक्ष्मेऽभ्रे मण्डलीभूताः परिवेषाख्यया मताः॥–वही, पृ. १५६ का.१४९ डॉ. नरेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय, कैथल, हरियाणा नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि परिवेष के क्रम में ग्रन्थकार ने लिखा है कि सूर्य और चन्द्रमा की किरणों केद्वारा यदि दो छोटे-बड़े कुण्डल जैसा आकार बनता है तो उस स्थान में वृष्टि अच्छी होगी। सूर्य और चन्द्रमा की किरणों से निर्मित कुण्डल यदि पाँच रंगों का हो तो तीन दिनों तक अच्छी वृष्टि होगी, ऐसी परिकल्पना कीजाती है। द्वे द्वे क्षुद्रविशाले चेत् कुण्डले सूर्यचन्द्रयोः।बहुवृष्टिरनेकाहं तदा तत्र भविष्यति ॥द्वे द्वे सूर्यस्य चन्द्रस्य कुण्डले पञ्चवर्णके ।त्र्यहं यावत्तदा तत्र बहुवृष्टिर्भविष्यति ॥ वही, पृ. १५७ का.१६१-१६२ डॉ. विनोद शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर,हिमाचल प्रदेश ने कहा कि इन्द्रायुध दो प्रकार का होता है -धनुष के रूप में और ऐरावत हाथी के रूप में। सूर्यकी किरणों में प्राण स्थित रहता है। यह किरण प्रकाशक है, वही इन्द्र कहलाता है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने इन्द्रकी व्युत्पत्ति की है। हवा के बल से सूर्य की किरणें जल के भीतर प्रविष्ट हो जाती हैं। उस जल और हवा केसंमिलित रूप में सात रंगों का विकास होता है। वही इन्द्रधनुष कहलाता है। इन्द्रायुधं तु द्विविधं धनुरैरावतं तथा ।इन्द्रः सूर्यकरस्थानः प्राणे योऽयं प्रकाशते॥नीरांतराः करा भानोः पवनेन विघट्टिताः।सप्तवर्णा धनुःसंस्था दृष्टा इन्द्रधनुर्मतम्॥–वही, पृ. १५८ का.१७४-१७५ डॉ. दिवेश शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, एकलव्य परिसर, त्रिपुरा नेवक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ का यह विषय सूर्य की किरणों परआधारित है। सूर्य से निकलने वाली रेखा का नाम अमोघ है। यदि उस रेखा का अगला भाग खण्डित है तो उसीका नाम दण्ड है। यदि उस रेखा की संख्या तीन है तो वह त्रिशूल नाम से जाना जाता है। दूसरी दिशा से निकलीहुई दो अमोघ रेखाओं से मत्स्य का स्वरूप बनता है। इस प्रकार इन चारों तत्त्वों के आधार पर वृष्टि की कल्पनाकी जाती है। सूर्यात् समुत्थिता रेखाऽमोघ इत्यभिधीयते ।सोऽग्रेण खण्डिता दण्डस्तिस्रो रेखास्त्रिशूलकम्॥द्वाभ्याममोघ-रेखाभ्यां भिन्नदिग्भ्यां तु मस्तकः।सत्स्वप्येवं विशेषेषु सांकर्येणोच्यते फलम्॥ वही, पृ. १६० का.१८६ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि सूर्य की किरण के आधार पर परिधि का निर्माण होता है। सूर्यबिम्ब है और उसी सूर्य का प्रतिबिम्ब दूसरे स्थान पर होता है। बिम्बात्मक सूर्य की किरणों से परिधि बनती है।यदि यह परिधि सूर्य के दोनों ओर स्थित बिम्ब को स्पर्श करती है तो अच्छी वृष्टि होगी और यदि यही परिधिसूर्य के चारों ओर हो तो अच्छी वृष्टि नहीं होगी। बिम्बान्वितौ तु परिधी रवेरुभयपाश्वर्गौ ।बहुतोयौ निर्जलस्तु सर्वदिक्पर्यवस्थितः॥–वही, पृ. १५६ का.१४८ सूर्य की किरणों से ही कुण्डल जैसा आकार आकाश में बनता है। यदि यह कुण्डल सूर्य के पाँच वर्णों वाला है तोआकाश में घने मेघ लगे रहेंगे और वृष्टि अच्छी होगी। सूर्यस्य कुण्डलं पञ्चवर्णं चेद् बहुविस्तृतम् ।तदा घनघटाटोपो बहुवृष्टिश्च जायते ॥–वही, पृ. १५८ का.१६८ डॉ. राहुल कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini-Discourse on Vikaradhyaya-Part V

The fifth seminar on Kadambini was organised on May 31, 2025. This was part of the Shri Shankar Shikshayatan’s annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s great work on meteorology, Kadambini.  The focus of the seminar was on the book’s Vaikarikadhyaya under which six subjects were discussed. Karikas from 107 to 145 from Kadambini were discussed. The invited scholars presented their lectures based on the topics covered in these karikas. Prof. Madan Mohan Pathak, Central Sanskrit University, Lucknow, was the keynote speaker. Referring to the term, `khapur`, Prof. Pathak said the term meant a city appearing in the sky. Kha means sky and Pur means city. A city-like mark is formed in the clouds. The Gandharva city appearing in the sky with many colours and shapes like a city and  with flags and festoons is called Khapur. खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् । वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७ अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः । युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ The term ‘abhrataru’ means a tree-like mark appearing in the clouds. Abhra means cloud and taru means tree.The one which has a branch is called Shakhi. शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च । दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ Dr. Subhash Chandra Mishra, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, explained the term, karka`. It means hail. He spoke about several synonyms of the term mentioned in the book–dharankur, radharanku, varshopal, ghanopal, meghopal,meghasthi, matchi, punjika, bijodak, ghankaf and varchar. He pointed out that if there was excessive hail, there was little chance of rain.  धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः। मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥ बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च । भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ Dr. Brajesh Pathak, Central Sanskrit University, Rajiv Gandhi Campus, in his presentation pointed out there were seven impediments against good monsoon caused by the rays of the sun . These  are ravikaradhyaya, sandhya, kundal, danda, trishul, matsya and amogha. सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् । मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी । नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ Dr. Naveen Tiwari, Central Sanskrit University, Ranvir Campus, spoke about sandhya as a comprehensive idea in the science of monsoon. If in the evening, a `mountain range` is visible in the sky in the northern direction, it is bound to rain in that area on the third day. When the `mountain range` is visible in the north-west, it rains day and night. When the `mountain range` is visible in the west, it is expected to rain for seven or three days. उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका । तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् । सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, presiding over the seminar, pointed out that agni, vayu, surya and soma are key elements of monsoon.  These four elements enable water to rise to the sky, form into clouds, hold water and then fall as rain. It is no different from the modern scientific concept. The scientists today estimate rainfall on the basis of wind.  अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् । उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ Dr. Rajnish Kumar Pandey, Central Sanskrit University, Jaipur Campus recited the Vedic Manglacharan. The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. The seminar was attended by acharyas, research scholars, students and scholars interested in Sanskrit studies from universities and colleges from several states across the country. 

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राष्ट्रीय संगोष्ठी- कादम्बिनी : विकाराध्याय विमर्श (शृंखला-०५)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मई, शनिवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत वैकारिकाध्याय है। इस वैकारिकाध्याय में मुख्यरूप से खपुरम्, अभ्रतरु,परिघ, निर्घात करका और हिम ये छः विषय आते हैं। खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् ।वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में कादम्बिनी ग्रन्थ से १०७ से १४५ तक की कारिकाएँ पर विमर्श किया गया। इनकारिकाओं में निबद्ध विषयों को आधार बना कर आमन्त्रित विद्वानों ने अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया ।प्रो. मदन मोहन पाठक, वरिष्ठ आचार्य एवं अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊपरिसर ने मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि खपुर का अर्थ आकाश में नगरदिखाई देना है। मेघ में नगर जैसा एक चिह्न बनता है। ख का अर्थ आकाश होता है और पुर का अर्थ नगर होताहै। आकाश में नगर जैसा अनेक रंग और आकृति वाला तथा पताका, ध्वजा और तोरण से युक्त जो गन्धर्व नगरदिखाई देता है. वह खपुर कहलाता है। अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः ।युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ ‘अभ्रतरु’ का अर्थ मेघ में वृक्ष जैसा चिह्न दिखाई देना। अभ्र का अर्थ मेघ और तरु का अर्थ वृक्ष होता है।, अभ्रतरुको शाखी नाम दिया है। जिसकी शाखा होती है वह शाखी कहालाता है। आकाश में वृक्ष के आकार के मेघों केलिए शाखी, खशाखी, खतरु और अग्रतरु आदि शब्दों के प्रयोग होते हैं।शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च ।दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ डॉ. सुभाष चन्द्र मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर, नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि करका का अर्थ ओला होता है। जिसे पत्थर भी कहते हैं। इस करका केअनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख ग्रन्थ में किया गया है। धाराङ्कुर, राधरङ्कु, वर्षोपल, घनोपल, मेघोपल,मेघास्थि, मटची, पुञ्जिका, बीजोदक, घनकफ, वार्चर और करका ये करका के नाम हैं। अधिक ओले गिरने सेवृष्टि नहीं होती है। धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः।मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च ।भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ डॉ. ब्रजेश पाठक, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी परिसर नेकहा कि निमित्ताध्याय के अन्तर्गत विकाराध्याय आता है और उस विकाराध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है।सन्ध्या, कुण्डल, इन्द्रधनुष, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य और अमोघ ये सात विकार सूर्य के किरणों से उत्पन्न होते हैं। सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् ।मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ दिन और रात्रि की सन्धि का नाम सन्ध्या है। दो अथवा तीन नाड़ीमात्र के समय को सन्ध्या कहते हैं। जब तकआकाश में ताराओं के दर्शन होते रहते हैं उतने काल को सन्ध्या कहते हैं।सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी ।नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ डॉ. नवीन तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने वक्ताके रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टिविचार में सन्ध्या एक व्यापक विचार है। सन्ध्या के समयआकाश में उत्तर दिशा में यदि पर्वतपंक्ति दिखाई देता है तो उस क्षेत्र में तीसरे दिन वृष्टि होगी । उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका ।तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ सन्ध्या के समय वायव्य कोण में पर्वतपंक्ति दिखाई देने से रातदिन वर्षा होती है। पश्चिम दिशा में पर्वतपंक्तिदिखाई देने पर सात दिन तक अथवा तीन दिन तक वर्षा होती रहती है।वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् ।सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा। क्योंकि यह विषय समसामयिक है। अग्नि, वायु, सूर्य और सोम ये सभी वृष्टि में कारण हैं। इन चार तत्त्वों केद्वारा ही जल आकाश में जाता है, ठहरता है, और आकाश के स्थान से गिरता हुआ बरसता है। सोम तत्त्वआर्द्रभाव है। यह अग्नि के द्वारा ऊपर की ओर जाता है। सूर्य वृष्टि के स्वामी वायु के द्वारा वर्षा करता है। यहप्रक्रिया सर्वथा वैज्ञानिक है। आज के मौसमवैज्ञानिक भी वायु के आधार पर ही वृष्टि का अनुमान करता है। अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् ।उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ डॉ. रजनीश कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोधअधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल केआचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफलबनाया।

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National Seminar on Kadambini: Discourse on Nimittadhyaya–Part IV

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the fourth National Seminar on Kadambini on April 30,2025 as part of its annual discourse on Pandit Madhusudan Ojha’s noteworthy work on weather science, Kadambini. The discussion was based on the Nimittādhyāya of the text Kādambinī, composed by Pandit Madhusudan Ojha. This chapter discusses subjects like cloud formation (garbha-rūpa), wind (vāta), generation (utpādaka), sustenance (sthāpaka), cloud (megha), lightning (vidyut), thunder (garjita), and rain (vṛṣṭi). The specified portion of the text contains 106 verses (kārikās), and this symposium focused on the topics described therein. Prof. Phanindra Kumar Chaudhary, Professor, Department of Astrology, Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University, New Delhi, delivered the keynote lecture. He stated that thunder is the fourth form of the cloud’s womb. The sound heard in the sky during the rainy season has three sources: clouds, lightning, and wind. The author of the text mentions four terms for this: garjita (roaring), stanita (rumbling), meghanirghoṣa (cloud-sound), and rasita (resonance). मेघाद् वज्राच्च वाताच्च शब्दस्त्रेधाऽन्तरिक्षजः।गर्जितं स्तनितं मेघनिर्घोषो रसितं च तत्॥ कादम्बिनी पृ. १३९, का.९३meghād vajrāc ca vātāc ca śabdas tredhā’ntarikṣajaḥ |garjitaṃ stanitaṃ meghanirghoṣo rasitaṃ ca tat || (Kādambinī, p. 139, kā. 93) In Sanskrit, the words vṛṣṭi and varṣa refer to rain. For the absence of rain, the terms avagraha and vagraha are used. For other forms of rain, words like karakā (hail) and himapāta (snowfall) are employed. वृष्टिर्वर्षं तद्विघातेऽवग्रहवग्रहौ समौ ।करका हिमपाताश्च वृष्टेरेवापरा विधा ॥ वही, पृ. १४०, का.१०६vṛṣṭir varṣaṃ tad-vighāte’vagraha-vagrahau samau |karakā himapātāś ca vṛṣṭer evāparā vidhā || (ibid., p. 140, kā. 106) Dr. Balkaram Saraswat, Assistant Professor, Department of Astrology, National Sanskrit University, Tirupati, emphasized the importance of the Kādambinī text. He elaborated on the lightning-related terms used in the text, identifying 29 different names for lightning—many of which are not found collectively even in Amarakosha (a renowned Sanskrit lexicon). Only 10 of these are listed in Amarakosha. विद्युत् क्षणप्रभा मेघप्रभा वीपाऽचिरप्रभा । ह्रादिन्यैरावती चम्पा शम्पा सौदामिनी तडित् ॥ आकालिकी शतावर्ता जलदा जलपालिका । क्षणांशु क्षणिका राधा चटुला चिलमीलिका ॥ सर्जूरचिररोचिश्च चपला चञ्चला चला । शतह्रदाऽशनिर्नीलाञ्जना च तडिदस्थिरा॥ वही, पृ. १३७, का.७२-७४ vidyut kṣhaṇaprabha meghaprabha vīpā’ciraprabha |hrādinī airāvatī campā śampā saudāminī taḍit ||ākālikī śatāvartā jaladā jalapālikā |kṣaṇāṃśu kṣaṇikā rādhā caṭulā cilamīlikā ||sarjūracirarociś ca capalā cañcalā calā |śatahradā’śanir nīlāñjanā ca taḍid asthirā || (ibid., p. 137, kā. 72–74) Dr. Bhupendra Kumar Pandey, Assistant Professor, Department of Astrology, Central Sanskrit University, Bhopal Campus, discussed the types of clouds and rainfall in winter. He identified different types of clouds: Puṣkara, Āvarta, Sanvarta, and Droṇa. हिमवृष्टिं तु कुर्वन्ति शीतकाले हि दिग्गजाः। पुष्करावर्तसंवर्तद्रोणाः स्युर्मेघजातयः ॥पुष्करो दुष्करोदः स्यादावर्तो निर्जलो घनः। बहूदकस्तु संवर्तो द्रोणः सस्यप्रपूरकः॥ वही, पृ. १३५, का.४२-४३     himavṛṣṭiṃ tu kurvanti śītakāle hi diggajāḥ |puṣkarāvartasaṃvartadroṇāḥ syur meghajātayaḥ ||puṣkaro duṣkarodaḥ syād āvarto nirjalo ghanaḥ |bahūdakas tu sanvarto droṇaḥ sasyaprapūrakḥ || (ibid., p. 135, kā. 42–43) Dr. Varun Kumar Jha, Assistant Professor, Department of Astrology, Kameshwar Singh Darbhanga Sanskrit University, elaborated on how clouds conceive to produce rain. He explained the five forms of cloud pregnancy: wind, cloud, lightning, thunder, and rain. These also go by the names mahāvāta (great wind) and jhañjāvāta (whirlwind), among others. गर्भरूपाणि वाताभ्रविद्युत्स्तनित-वृष्टयः।एषां भेदा महावाताझञ्झावातादयः पृथक्॥ वही, पृ. १३१, का.४garbharūpāṇi vātābhra-vidyut-stanita-vṛṣṭayaḥ |eṣāṃ bhedā mahāvātā-jhañjāvātādayaḥ pṛthak || (ibid., p. 131, kā. 4) Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi, presided over the event. He mentioned that in the previous chapters of the text, rules were laid out for determining cloud conception based on lunar months. Along with Akṣayatṛtīyā, topics like sign analysis through animals (śakuna), sounds (amitra), crows (kāka), discs (bimba), grains (dhānya), clods (loṣṭa), constellations (nakṣatra), cloud pregnancy (garbha), wind (vāyu), and extreme winds (atyugravāta) were discussed. The current Nimittādhyāya chapter focuses on various forms and behaviors of wind. Dr. Sudhakar Kumar Pandey, Assistant Professor, Veda Department, Central Sanskrit University, Jaipur Campus, began the program with a melodious Vedic invocation. Dr. Lakshmi Kant Vimal, Research Officer, Shri Shankar Shikshayatan Vedic Research Institute, conducted the event. Scholars, researchers, and Sanskrit enthusiasts from universities and colleges across various states participated enthusiastically, contributing to the success of the symposium.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी कादम्बिनी : निमित्ताध्याय विमर्श (शृंखला-०४)

प्रतिवेदन  श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० अप्रैल, बुधवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के निमित्ताध्याय में गर्भरूप, वात, उत्पादक, स्थापक, मेघ, विद्युत्, गर्जित और वृष्टि विषय  पर विचार किया गया है। निर्धारित ग्रन्थांश में १०६ कारिकाएँ समाहित हैं।  उन्हीं कारिकाओं में निबद्ध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई । प्रो. फणीन्द्र कुमार चौधरी, आचार्य, ज्योतिष विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि मेघ के गर्भ का गर्जित यह चौथा रूप है। वर्षाकाल में आकाश में जो शब्द होता है।  उसके तीन कारण हैं- मेघ से, वज्र से और वायु से शब्द होता है। इसके लिए ग्रन्थकार ने चार नामों का उल्लेख किया है। गर्जित, स्तनित, मेघनिर्घोष और रसित।                                     मेघाद् वज्राच्च वाताच्च शब्दस्त्रेधाऽन्तरिक्षजः।                                     गर्जितं स्तनितं मेघनिर्घोषो रसितं च तत्॥ कादम्बिनी पृ. १३९, का.९३ वर्षा के लिए संस्कृत में वृष्टि और वर्ष शब्द है, बर्षा न होने के लिए अवग्रह और वग्रह शब्द है। वर्षा के दूसरे रूप के लिए करका और हिमपात शब्द प्रयुक्त होता है।                                     वृष्टिर्वर्षं तद्विघातेऽवग्रहवग्रहौ समौ ।                                     करका हिमपाताश्च वृष्टेरेवापरा विधा ॥ वही, पृ. १४०, का.१०६ डॉ. बालकराम सारस्वत, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,  तिरुपति  ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।  उन्होंने कहा कि  मेघ के विद्युत् स्वरूप पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि विद्युत् के नामों का संग्रह किया है। ये २९ नाम हैं- विद्युत्, क्षणप्रभा, मेघप्रभा, वीपा, अचिरप्रभा, ह्रादिनी, ऐरावती, चम्पा, शम्पा, सौदामिनी, तडित्, आकालिकी, शतावर्ता, जलदा, जलपालिका, क्षणांशु, क्षणिका, राधा, चटुला चिलमीलिका, सर्जू, अचिररोचि, चपला, चञ्चला, चला, शतह्रदा, असनि, नीलाञ्जना और अस्थिरा । विद्युत् के इतने नाम एक साथ अमोरकोश में नहीं मिलता है।  इन्हीं नामों में १० नाम अमरकोश में पठित है।                                     विद्युत् क्षणप्रभा मेघप्रभा वीपाऽचिरप्रभा ।                                     ह्रादिन्यैरावती चम्पा शम्पा सौदामिनी तडित् ॥                                     आकालिकी शतावर्ता जलदा जलपालिका ।                                     क्षणांशु क्षणिका राधा चटुला चिलमीलिका ॥                                     सर्जूरचिररोचिश्च चपला चञ्चला चला ।                                     शतह्रदाऽशनिर्नीलाञ्जना च तडिदस्थिरा॥ वही, पृ. १३७, का.७२-७४ डॉ. भूपेन्द्र कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग,  केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, ने वक्ता के  शीतकाल में दिग्गज जाति के मेघ एवं हिम की वर्षा होती है। मेघ के दूसरे रूप हैं- पुष्कर, आवर्त, संवर्त, और द्रोण । जो मेघ कष्टपूर्वक वृष्टि करता है वह पुष्कर नामक मेघ है। जो मेघ वृष्टि करता ही नहीं है वह आवर्त नामक मेघ है। जो मेघ अधिक वृष्टि करता है वह संवर्त नामक मेघ है। जो मेघ फसल के उपयोगी वृष्टि करता है वह  द्रोण नामक मेघ है।                                     हिमवृष्टिं तु कुर्वन्ति शीतकाले हि दिग्गजाः।                                     पुष्करावर्तसंवर्तद्रोणाः स्युर्मेघजातयः ॥                                     पुष्करो दुष्करोदः स्यादावर्तो निर्जलो घनः।                                     बहूदकस्तु संवर्तो द्रोणः सस्यप्रपूरकः॥ वही, पृ. १३५, का.४२-४३                 डॉ. वरुण कुमार झा,  सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि मेघ वृष्टि के लिए गर्भ धारण करता है। मेघ का यह गर्भ धारण पाँच रूपों में होता है। ये हैं- हवा, मेघ, बिजली, गर्जना और वृष्टि। इन्हीं के महावात और झञ्झावात आदि नाम हैं।                                       गर्भरूपाणि वाताभ्रविद्युत्स्तनित-वृष्टयः।                                       एषां भेदा महावाताझञ्झावातादयः पृथक्॥ वही, पृ. १३१, का.४ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का जो  निमित्ताध्याय विषय है, इससे पूर्व के अध्याय में मासों के आधार पर मेघ के गर्भनिर्धारण के नियम का प्रतिपादन हुआ था। अक्षयतृतीया के क्रम में शकुनपरीक्षा, अमत्रपरीक्षा, काकपरीक्षा, बिम्बपरीक्षा, धान्यपरीक्षा, लोष्टपरीक्षा, नक्षत्रपरीक्षा, गर्भपरीक्षा, वायुपरीक्षा और अत्युग्रवातपरीक्षा की चर्चा की गई थी। वायुपरीक्षा के अन्तर्गत ही आज का  निमित्ताध्याय विषय है। इस में वायु के विभिन्न स्थिति को रेखांकित किया गया है। डॉ. सुधाकर कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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National Seminar on Kadambini Part III

The third discussion as part of Shri Shankar Shikshayatan’s annual seminar on Kadambini took place on March 31, 2025. The focus of the seminar was on the chapter titled Masikadhyaya which explained the phenomenon of rainfall from April 21 (Vaishaka) to October 22 (Ashvin). There are 431 verses in the chapter.  Prof. Parmanand Bharadwaj of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanksrit University chaired the meeting. He pointed out that Pandit Madhusudan Ojha in his book Kadambini has explained the scientific basis of predicting the rainfall with the formation of clouds in the month of Vaishaka. Akshaya Tritiya is treated as the principle of calculation. The date falls on the third lunar day of the bright half (Shukla Paksha) of the Hindu month of Vaisakha. अक्षयायां तृतीयायां पूरयेद् भाण्डमम्बुना ।रविं विलोकयेन्मध्ये तत्स्वरूपं विमर्शयेत्॥रक्ते सूर्ये विग्रहः स्यान्नीले पीते महारुजः।श्वेते सुभिक्षं विज्ञेयं धूसरो दुःखमूषकाः॥ –कादम्बिनी, पृ.५५, कारिका २२८-२२९ On the day of akshaya Tritiya, the sun’s reflection can be seen in a container with water. The reflection can assist in making the prediction. If the reflection is red in colour, then the outcome is expected to be a war and if the reflection is yellow or blue, it could mean diseases. If the reflection is white in colour, then the possibility of good rainfall is higher.  Prof. Vishnu Kumar Nirmal of Central Sanskrit University, Jaipur, highlighted the importance of Kadambini and explained how several concepts of weather predictions have been explained by Pandit Madhusudan Ojha. चतस्रस्तिथयो वायुधारणा अष्टमीमुखाः।ज्यैष्ठशुक्ले मृदु-स्निग्ध-स्थगिताभ्रोऽनिलः शुभः॥स विद्युतः सपृषतः सपांशूत्करमारुताः।सार्कचन्द्रपरिच्छन्ना धारणाः शुभधारणाः॥ -कादम्बिनी, पृ.६५, कारिका २८३-२८४ From the Ashtami (eighth day) of Jaishta (May 20 to June 22) to Ekadashi  (the eleventh lunar day of the waxing (Shukla Paksha) and waning (Krishna Paksha) lunar cycles in a Vedic calendar month), changes in wind pattern can be witnessed. Three patterns can be detected–mrudu, snigdha and sthagit. On these dates, lightning, water drops, dusty winds and clouds enveloping the moon, all these signs point to good tidings for cloud formation Dr Rupesh Kumar Mishra of Maharishi Panini Sanskrit and Vedic University, Ujjain, spoke about the month of Ashada (June 22-July 21). Three factors are taken in consideration–svatiyoga, ashadi pariksha and rohiniyoga. Ojhaji has laid special emphasis on ashadi pariksha.  गर्भाः पुष्टिकराः सर्वे सुयोगा विलयं गताः।आषाढ्यां तु विनष्टायां सर्वमेवाशुभं भवेत्॥गर्भनाशकराः सर्वे कुयोगा विलयं गताः।यद्याषाठी शुभा जाता तदा सर्वं शुभं भवेत् ॥ -कादम्बिनी, पृ.८५, कारिका ४१७-४१८ Clouds are born on the new moon day of ashada shukla and if this does not take place, it is considered a bad omen for the monsoon. Dr Brahmanand Mishra of Central Sanskrit University, Raghunath Kirti, Deoprayag, highlighted the criticality of the month of Shravan (July 23 to August 22) on rain. Ojhaji has written that in the month of Shravan, the position of the Sun creates the right equations for a good rainfall.  श्रावणे शुक्लपक्षे तु सिंहसंक्रान्तिसम्भवः।समुद्रे पूर्णवृष्टिः स्यादन्यदेशे तु कुत्रचित् ॥कर्कसंक्रमणे वृष्टिरवृष्टिः सिंहसंक्रमे।कर्णपूरे वहेत् कन्या तुले निर्वातवृष्टयः॥ –कादम्बिनी, पृ.१०८, कारिका ५२१-५२२ During the month of Shravan’s bright lunar fortnight, if the Sun travels over the constellation of Leo, it indicates good rainfall over the ocean and nearby landmass. In other regions, rain would be scattered.  Prof; Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University, explained the importance of the month of Bhadra (August 23 to September 22) for monsoon. Ojhaji has indicated that: प्रतिपत् सप्तमी भाद्रे द्वादशी च त्रयोदशी।पूर्णिमा चासु वारुण्यां श्रितैर्मेघैः प्रवर्षणम् ॥भाद्र-शुक्ल-द्वितीयायां यदि चन्द्रो न दृश्यते।तदा तेन भवेद् वर्षे सस्यसंपत्तिरुत्तमा ॥ –कादम्बिनी, पृ.११४, कारिका ५५२-५५३ During the month of Bhadra, in the Shukla phase of the moon, seventh, 12th, 13th and New Moon days, if there are clouds, it could indicate good rainfall. If the moon is not visible on the second day of Shukla phase, it could mean good rainfall.  He pointed out Ojhaji has similarly written about the month of Ashwin (September 23 to October 22): नापेक्षते गर्भसिद्धिं चतुर्थी पञ्चमी तिथिः।ग्रहयोगवशादेवाश्विने वर्षति तच्छुभम् ॥चतुर्थ्यामपि पञ्चम्यामाश्विने शीघगर्भता ।पञ्चभिः सप्तभिर्वा स्याद्दिनैरेकार्णवा मही॥-कादम्बिनी, पृ.११८, कारिका ५७९-५८० During the bright phase of moon in the Ashwin month, there is little likelihood of cloud formation and hence rain could happen due to other factors. On the fourth and fifth day of Ashwin month, there could be formation of clouds which could result in a good rainfall within five to seven days.  Dr Anayamani Tripathi of Central Sanskrit University, Ranvir campus, recited the mangalacharan. The seminar was organised and managed by Dr Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. 

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-कादम्बिनी (शृंखला-०३)

श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मार्च, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के मासिकाध्याय के वैशाख मास से प्रारम्भ होकर आश्विन मास तक के छः मासों के आधार पर वृष्टिविषयक विचार किया गया है। निर्धारित ग्रन्थांश में ४३१ कारिकाएँ समाहित हैं। उन्हीं कारिकाओं में निबद्धविषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई । प्रो. परमान्द भारद्वाज, आचार्य, ज्योतिष विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नईदिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि इस कादम्बिनी नामक ग्रन्थ मेंवैशाख मास को मेघनिर्माण की पूर्वकल्पना एवं नियम के लिए अक्षय तृतीय को आधार बनाया गया है। अक्षयतृतीया के आलोक में शकुन परीक्षा, अमत्र परीक्षा, काक परीक्षा, बिम्ब परीक्षा, धान्य परीक्षा, लोष्ठ परीक्षा,नक्षत्र परीक्षा, गर्भ परीक्षा, वायु परीक्षा और उग्रवात परीक्षा समाहित है। बिम्ब परीक्षा के विषय में इस प्रकारका वर्णन है- अक्षयायां तृतीयायां पूरयेद् भाण्डमम्बुना ।रविं विलोकयेन्मध्ये तत्स्वरूपं विमर्शयेत्॥रक्ते सूर्ये विग्रहः स्यान्नीले पीते महारुजः।श्वेते सुभिक्षं विज्ञेयं धूसरो दुःखमूषकाः॥ –कादम्बिनी, पृ.५५, कारिका २२८-२२९ अक्षय तृतीया तिथि को किसी पात्र में जल भर कर उस में सूर्य के प्रतिबिम्ब को देखा जाता है। उस बिम्ब केआधार पर वृष्टि का अनुमान किया जाता है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि लाल रंग का हो तो उसका फल युद्ध है।सूर्य का बिम्ब यदि नीला और पीला हो तो उसका फल रोग है। सूर्य का बिम्ब यदि सफेद रंग का हो तो उसकाफल अच्छी वृष्टि होती है। जल में सूर्य का बिम्ब यदि धूसर रंग का हो तो उसका फल चूहे आदि से होने वालादुःख है। प्रो.विष्णु कुमार निर्मल, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर ने अपनेसारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कादम्बिनी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि कि इस ग्रन्थ में जेष्ठ माससे संबन्धित अनेक विषयों को समाहित किया गया है। जिससें मासादिरोहिणी, पवनधारणा, प्रवर्षणमिति,मासान्तरोहिणी प्रमुख विषय हैं। पवनधारणा पर ग्रन्थकार पं. ओझाजी ने इस प्रकार वर्णन किया है। चतस्रस्तिथयो वायुधारणा अष्टमीमुखाः।ज्यैष्ठशुक्ले मृदु-स्निग्ध-स्थगिताभ्रोऽनिलः शुभः॥स विद्युतः सपृषतः सपांशूत्करमारुताः।सार्कचन्द्रपरिच्छन्ना धारणाः शुभधारणाः॥ -कादम्बिनी, पृ.६५, कारिका २८३-२८४ ज्येष्ठ शुक्ल की अष्टमी तिथि से एकादशी तिथि तक चार तिथियाँ वायु धारण करती हैं। इनमें मृदु, स्निग्ध औरस्थगित इन तीन प्राकर के वायु का स्वरूप निर्धारित किया गया है। इन तिथियों को बिजलियाँ, जल की बूँदे,धूलि युक्त हवा का चलना चन्द्रमा पर बादल छा जाना ये सब वृष्टि के लिए मेघ धारण का शुभ संकेत है।डॉ. रूपेश कुमार मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय,उज्जैन ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि आषाढ मास का विषयवस्तु इस प्रकार हैं-स्वातियोग, आषाढी परीक्षा और रोहिणीयोग । आषाढी परीक्षा के विषय में ग्रन्थकार ने लिखा है- गर्भाः पुष्टिकराः सर्वे सुयोगा विलयं गताः।आषाढ्यां तु विनष्टायां सर्वमेवाशुभं भवेत्॥गर्भनाशकराः सर्वे कुयोगा विलयं गताः।यद्याषाठी शुभा जाता तदा सर्वं शुभं भवेत् ॥ -कादम्बिनी, पृ.८५, कारिका ४१७-४१८ आषाढ शुक्ल पूर्णिमा तिथि के निर्धारित मेघ गर्भ धारण के लक्षण नष्ट हो जाने पर मेघ का गर्भधारण नहीं होपाता है। यदि इस पूर्णिमा तिथि को योग अच्छे हों तो गर्भ धारण के कुयोग भी सुयोग में बदल जाता है।इसीलिए इस आषाढ परीक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। डॉ. ब्रह्मानन्द मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रघुनाथ कीर्ति परिसर,देवप्रयाग ने वक्ता के रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टि के लिए श्रावण मास का विशेष महत्त्वहै। श्रावण मास के विषय में ग्रन्थकार ने कहा है कि सूर्य की स्थिति से ही वर्षा का योग बनता है। श्रावणे शुक्लपक्षे तु सिंहसंक्रान्तिसम्भवः।समुद्रे पूर्णवृष्टिः स्यादन्यदेशे तु कुत्रचित् ॥कर्कसंक्रमणे वृष्टिरवृष्टिः सिंहसंक्रमे।कर्णपूरे वहेत् कन्या तुले निर्वातवृष्टयः॥ –कादम्बिनी, पृ.१०८, कारिका ५२१-५२२ श्रावण शुक्लपक्ष में यदि सिंह राशि के ऊपर सूर्य का संक्रमण अर्थात् आगमन हो तो समुद्र में अर्थात् प्रान्त देशोंमें पूर्ण वृष्टि होगी परन्तु दूसरे जगहों पर कहीं कहीं वर्षा होगी। प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि वृष्टि के लिए भाद्रपद का विशेषमहत्त्व है। ग्रन्थकार पं. ओझा जी नेभाद्रपद के विषय में लिखते हैं- प्रतिपत् सप्तमी भाद्रे द्वादशी च त्रयोदशी।पूर्णिमा चासु वारुण्यां श्रितैर्मेघैः प्रवर्षणम् ॥भाद्र-शुक्ल-द्वितीयायां यदि चन्द्रो न दृश्यते।तदा तेन भवेद् वर्षे सस्यसंपत्तिरुत्तमा ॥ –कादम्बिनी, पृ.११४, कारिका ५५२-५५३ भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, सप्तमी, द्वादशी, त्रयोदशी और पूर्णिमा के दिन पश्चिम में मेघ के होने से अच्छी वृष्टिहोती है। भाद्रपद शुक्ल द्वितीया को चन्द्रमा यदि न दिखे तो वर्ष बहर फसल अच्छी होगी।आश्विन मास के विषय में कहा गया है – नापेक्षते गर्भसिद्धिं चतुर्थी पञ्चमी तिथिः।ग्रहयोगवशादेवाश्विने वर्षति तच्छुभम् ॥चतुर्थ्यामपि पञ्चम्यामाश्विने शीघगर्भता ।पञ्चभिः सप्तभिर्वा स्याद्दिनैरेकार्णवा मही॥-कादम्बिनी, पृ.११८, कारिका ५७९-५८० आश्विनमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी और पञ्चमी तिथि में मेघ के गर्भ निर्धारण की अपेक्षा नहीं है। तात्कालिकग्रहयोग से इन दोनों में जो वृष्टि होती है वह शुभप्रद होता है। आश्विन शुक्ल चतुर्थी पञ्चमी में शीघ्र ही मेघ कागर्भ निर्धारण हो जाता है और पाँच से सात दिनों में ही पृथ्वी पर अच्छी वृष्टि होने लगती है। डॉ. अनयमणि त्रिपाठी, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने सस्वरवैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारीडॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

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