राष्ट्रीय संगोष्ठी -इन्द्रविजय : भारतवर्षीय आख्यान विमर्श (श्रृंखला १२)

प्रतिवेदन

श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान द्वारा २८-२९ दिसम्बर २०२४, शनिवार-रविवार को श्री लाल बहादुर
शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के वाचस्पति सभागार में इन्द्रविजय : भारतवर्षीय आख्यान
विमर्श नामक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन प्रातः १० वादन से सायंकाल ५ बजे तक किया गया।

उद्घाटनसत्र

इस सत्र में अध्यक्ष के रूप में विराजमान श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के माननीय
कुलपति प्रो. मुरली मनोहर पाठक ने कहा कि यह द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सफल हों एवं भारतवर्ष के
अतिप्राचीन इतिहास का एवं भारतवर्ष की सीमा का ज्ञान आज के सभा में उपस्थित विद्वज्जनों को प्राप्त होगा।
इसी उद्देश्य से यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई है। वेद में इतिहास है। वेद में अनेक संवादसूक्ति हैं। उन्हीं
सूक्तों में ऐतिहास बीज हमें प्राप्त होते हैं। जो वेद में इतिहास को नहीं मानते हैं, उनकी दृष्टि में केवल वेद
पौरुषेय और अपौरुषेय की कोटि में है।

प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली ने विषयप्रवर्तन करते हुए कहा कि इतिहास के दो रूप हैं। एक राजाओं का इतिहास है और दूसरा सृष्टि
का इतिहास है। जहाँ विश्व की सृष्टि का इतिहास है, वह पुराणशब्द से संस्कृतसाहित्य में प्रसिद्ध है। जहाँ चेतन
राजाओं दीलीप अदि का चरित्र है, वह इतिहास के नाम से प्रसिद्ध है। इस व्याख्या से स्पष्ट होता है कि इतिहास
और पुराण के बीच कोई निश्चित भेद है। इसीलिए रामायण और महाभारत को भारत का इतिहास कहा जाता
है।

यद्विश्वसृष्टेरितिवृत्तमासीत् पुरातनं तद्धि पुराणमाहुः।
यच्चेतनानां तु नृणां चरित्रं पृथक् कृतं स्यात् स इहेतिहासः॥
जगदुरुवैभवम् पृ. ७, कारिका ३४

प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली ने कहा कि संपूर्ण इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में इन्द्र ही प्रमुख है। भारतवर्ष का प्रथम राजा इन्द्र हैं। अत
एव इन्द्र के पराक्रम से ही भारतवर्ष का इतिहास निर्धारित होता है।

प्रो. सुन्दर नारायण झा, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
ने कहा कि भारतवर्ष की सीमा अत्यन्त विशाल है। लालसागर से लेकर चीन सागर तक भारतवर्ष की प्राचीन
सीमा है।

प्रो. विष्णुपद महापात्र, आचार्य, न्यायविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली ने कहा कि ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में इन्द्र के विजय का संकेत प्राप्त होता है। दैवासुर संग्राम का सन्दर्भ भी
प्राप्त होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भारतवर्ष के इतिहास में इन्द्र की भूमिका सर्वाधिक है।

द्वितीयसत्र

इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. देवेन्द्र प्रसाद मिश्र, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने की। उन्होंने कहा कि पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ अपूर्व
है। जिसमें समग्र भारतवर्ष का इतिहास प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ के पञ्चमप्रक्रम में विश्वामित्र, कुत्स,
हिरण्यस्तूप, सव्य, गृत्समद, वामदेव, मधुच्छान्दस, सुमित्र, दुर्मित्र वभ्रु, अवस्यु, गातु, संवर्ण, वासुक्र,
वैरूप, वामदेव्य, काण्व, श्रुष्टिगु, मेध्य, गौतम, औरव, नृमेध, पुरुमेध, द्युतान, सप्तगु ये सभी ऋषि हैं। इन सभी
ऋषियों के द्वारा इन्द्र का अभिनन्दन हुआ है। भारतवर्ष के इतिहास निर्धारण में बड़ा योगदान है। ये सभी
ऋषियों की सूक्ति ऋग्वेद में उद्धृत है।

प्रो. राम चन्द्र शर्मा, आचार्य, न्याय विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्लीने
कहा कि यह ग्रन्थ महनीय है। राजा, मनुष्य, ऋषि, देवता और असुर ने इन्द्र का अभिनन्दन किया। यह
अभिनन्दन भारतीय इतिहास का स्रोत है। जिसका प्रमाण वेद में मिलता है।

इत्थं तत्र सभायां सभासदै राजभिर्मनुष्यैश्च ।
ऋषिभिर्देवैरसुरैः सभाजितोऽभून्महोसवे स्वराट् ॥ इन्द्रविजय, पृ. ५२०७, कारिका १

प्रो. हरीश, आचार्या, संस्कृत विभाग, किरोड़ी मल महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कही कि अनेक
प्रमाणों के द्वारा यह सिद्ध होता है कि लङ्काद्वीपः सिंहलद्वीप से भिन्न है। वर्तमान में जो श्रीलङ्का है वह
श्रीलङ्का लङ्काद्वीप नहीं है।

प्रो. सतीश कुमार मिश्र, आचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, ने कि
वाल्मीकिरामायण से विविध प्रमाणों के आधार पर अस्त्रविद्या का एवं शस्त्रविद्या का इस इन्द्रविजय नामक
ग्रन्थ में मिलता है। भारतवर्ष के इतिहास निर्धारण में इन अस्त्र-शस्त्र विद्याओं का विशेष महत्त्व है।
डॉ. धनञ्जय मणि त्रिपाठी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली ने कहा
कि प्राचीन काल में भारतवर्ष का नाम नाभिवर्ष था।

यदिदं भारतवर्षं स्कान्दे तन्नाभिवर्षमप्युक्तम् । इन्द्रविजय, पृ. ११, कारिका १

डॉ. ममता त्रिपाठी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, गार्गी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कही कि
भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए यह इन्द्रविजय अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है।

डॉ. मणिशंकर द्विवेदी, अतिथि प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली ने कहा कि
सभ्यताप्रसंग में कहा गया है कि प्राचीन समय में भारतीय ज्ञान अत्यन्त उन्नत स्थान पर विराजित था और
संपूर्ण विश्व को ज्ञान देने के कारण भारत विश्व शिक्षक बन गया था।

अपि पूर्वस्मिन् काले परमोन्नतिशिखरमायाताः।
एते तु भारतीया विश्वेषां शिक्षका अभवन्॥ इन्द्रविजय, पृ. १७७, कारिका १

डॉ. प्रवीण कुमार द्विवेदी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, प्रो. राजेन्द्रसिंह (रज्जू भय्या) विश्वविद्यालय ने
आनलाईन माध्यम से अपना विषय प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि ऋभु एक शिल्पी है। ऋभु के अनेक प्रकार के
शिल्प का वर्णन इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में मिलता है। अग्नि ने ऋभु से देवता का संदेश सुनाते हुए कहा कि
देवगण आकास में चलने वाला घोड़ा चाहते हैं, बिना घोडे के रथ चले, ऐस रथ बनाओ आदि विषयों का संकेत
किया गया है। यहाँ भारतीय इतिहास निर्माण में शिल्प का योगदान रेखांकित है।

खेचरमश्वमनश्वं रथमथ गां चर्मणोनिर्ऋताम् ।
वृद्धस्य च तारुण्यं वक्तुमिमामागतोऽस्मि देवज्ञाम ॥ इन्द्रविजय, पृ. ३२२, कारिका २

डॉ. अरविन्द, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, मेरठ महाविद्यालय, मेरठ ने आनलाईन माध्यम से अपना
विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में सूर्यसदन के वर्णन के क्रम में उषा का स्वरूप वर्णित
है। सूर्यसदन बृहस्पति के अधीन था। वसिष्ठ आदि ऋषि अलग अलग अनेक प्रबन्धक सृर्यभवन की रक्षा कर रहे
थे। किन्तु सूर्यसदन में सूर्य के अधीन अनेक उषाएँ नित्य उस सूर्यसदन की रक्षा करती थीं।

यद्यप्यत्रासन् बृहस्पत्यधीना द्रष्टारोऽन्येऽन्ये वसिष्ठादयश्च ।
किन्तु स्थाने नित्यरक्षास्वभूवन् सूर्याधीना बहव्य एवोषसः प्राक्॥
–इन्द्रविजय, पृ. ३६०, कारिका १

तृतीयसत्र

तृतीयसत्र की अध्यक्षता प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ में अनेक पारिभाषिक शब्द है। जिसका विस्तृत विवेचन
आवश्यक है। उन पारिभाषिक शब्दों में सोमवल्ली भी आता है। सोमवल्ली कैसी होती थी और सोमवल्ली का
यज्ञ में क्या- क्या उपयोग है, इन सभी विषयों पर विचार आवश्यक है।

प्रो. सुमन कुमार झा, आचार्य, साहित्य विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली ने कहा कि भरतीय आर्यों का मूलमन्त्र ओंकार था और वही आराध्य था। वे सभी परस्पर भातृभाव से
रहता था।

ओंकार एष येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः।
येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥ इन्द्रविजय, पृ. २५८, कारिका १


प्रो. विजय गर्ग, आचार्य, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने कहा कि सिन्धु
नदी के क्षेत्र में सरस्वती नदी बहती थी। उसी के तट पर सरस्वती नामक नगर था। उसी नगर में सूर्यसदन स्थित
था।

अस्याः सिन्धुप्रान्ते प्रवहन्त्या अनुतटं सरस्वत्याः।
नगरी सरस्वती या तस्यां सौरं बृहत् सदनम् ॥ इन्द्रविजय, पृ. ३५०, कारिका १

प्रो. रामानुज उपाध्याय, आचार्य, वेदविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
ने कहा कि अमरावती में इन्द्र न्वे अपने भवन में पहुँच कर सत्कार, दान और मान से कुत्स का सम्मान किया।
मनुष्यलोक में कुत्स के प्रस्थान, दस्युओं का संहार और इन्द्र की विजय को ध्यान में रख कर देवों के द्वारा स्वर्ग
में महोत्सव का समायोजन किया गया।

अमरावत्यामिन्द्रः स्वीयम् सदनं समासाद्य।
सत्कारदानमानैः कुत्सं संभावयामास।।
मानुषलोके कुत्सप्रस्थानं दस्युसंहारम्।
इन्द्रविजयमुपलक्ष्य च महोत्सवः कल्पितो देवैः।। इन्द्रविजय, पृ. ५३१, कारिका १-२

डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला ने कहा
कि यदि वेद में इतिहास को न स्वीकार किया जाय तो ‘यथापूर्वमकल्पयत्’ इस अघमर्षणसूक्त की संगति नहीं
हो सकती है। वेद में इतिहास है। वेद में इतिहास है इस पक्ष कि मानने मात्र से वेद पौरुषेय नहीं हो सकता है।
डॉ. अरविन्द कुमार तिवारी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, आदर्श वैदिक महाविद्यालय इण्टर कालेज
बागपत, उत्तर प्रदेश, ने कहा कि सिन्धु नदी ही पूर्वी भारत और पश्चिमी भारत के विभाजक केन्द्र है।

पौरस्त्यं पाश्चात्यं भारतवर्षं द्विधाकृतं भवति।
अनयोरस्तिविभाजक एष नदः सिन्धुरिति विद्यात्॥ इन्द्रविजय, पृ. २२, कारिका १

डॉ. विजय शंकर द्विवेदी, संस्कृत विभाग, दिल्ली विशविद्यालय, दिल्ली ने कहा कि भारतवर्ष के इतिहास
निर्माण में शिल्प का भी स्थान आता है। इन्द्रविजय ग्रन्थ में महान् शिल्पी ऋभु की चर्चा है। ऋभु ने तीन प्रकार
के शिल्प का निर्माण किया। वस्तुओं की परीक्षा के लिए पाँच प्रकार के शिल्प बनाये गये, मित्रता का प्रतिपादन्
अके लिए दस शिल का निर्मा किया गया और यश प्राप्ति के लिए शिल्प बनाया गया।

अथ कुशला ऋभवस्ते त्रेधा शिल्पानि कल्पयामासुः।
पञ्च परोक्षार्थेऽपि च दश सख्यार्थे बहूनि कीर्त्यर्थे ॥ इन्दविजयम्, पृ. ३२४, कारिका १

डॉ. सरिता दूबे, अतिथि प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली ने कही कि
भारतीय ऋषि की दृष्टि में धन उन्नति का कारण नहीं है। आत्मा की उन्नति ही अन्नति है। जिसे आध्यात्मिक
उन्नति कहते हैं।

तेनर्षिजाता इह भारतीयाः धनोन्नतिं नोन्नतिमाहुरार्याः।
आत्मोन्नतिस्तून्नतिरिष्यते तैराध्यात्मिकीमुन्नतिमास्थुरेते॥
इन्द्रविजय, पृ. १९१, कारिका ३

डॉ. संगीता शर्मा, अतिथि प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली ने कही कि
जितने भी भारतीय धर्म हैं वे सभी प्राकृतिक हैं। जो लैकिक धर्म हैं वे ही धर्म पारलौकिक भी है।

अन्नाचारविचाराः वैज्ञानिक-नियति-भवना-क्लृप्ता।
तेनेह लौकिका अपि धर्मा इह पारलौकिकाः सर्वे॥ इन्द्रविजय, पृ. १७९, कारिका १

डॉ. माधव गोपाल, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, आत्माराम सनातन धर्म महाविद्यालय, दिल्ली
विश्वविद्यालय. दिल्ली ने कहा कि राजा दो प्रकार के होते हैं- भोज और महाभोज। सम्राट् भी दो प्रकार के होते
हैं- चक्रवर्ती और सार्वभौम। इन्द्र और महेन्द्र स्वराट् हैं। ब्रह्मा और विष्णु विराट् हैं। इस प्रकार क्षत्रियत्व का
राजा होना सिद्ध होता है।

भोजमहाभोजौ राजानौ। चक्रवर्ति-सार्वभौमौ सम्राजौ। इन्द्र–महेन्द्रौ स्वराजौ।
ब्रह्मविष्णू विराजाविति चतुःकक्षं क्षत्रं भवति। इन्द्रविजय, पृ. १८१

डॉ. कामिनी, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, माता सुन्दरी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने
कही कि सप्तनद प्रदेश में आर्य और अनार्य के बीच युद्ध हुआ था, ऐसा पाश्चात्यों का विचार है। परन्तु ग्रन्थकार
ओझाजी के अनुसार युद्ध पश्चिम के प्रान्तों में हुआ था।

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तेषु च सप्तनदेषु त्रिषु पूर्वस्मिन्नभूदिदं युद्धम्।
इति पाश्चात्या आहुह् प्रत्यगुदक्प्रान्तयोस्तु तद्ब्रूमः॥ इन्द्रविजय, पृ. ३१२, कारिका १
डॉ. अर्पित कुमार दुबे, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, मोरार जी देसाई राष्ट्रीय योग विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली ने कहा कि हिमलय और हेमकूट इन दो पर्वतों के बीच में जितने छोटे छोटे पर्वत थे, उन पर्वतों पर एवं
सिन्धु नगी के उत्तरी गुफाओं में दासगण निवास करते थे।

हिमवति च हेमकूटे यावन्तः पादपर्वतास्तेषु।
सिन्धुनदोत्तरभागे द्रोण्यां निवसति दासगणाः॥ इन्द्रविजय, पृ. ३०८, कारिका १

समापनसत्र

इस सत्र आयरलैण्ड देश के भारतीय राजदूत परमादरणीय श्रीमान् अखिलेश मिश्र ने मुख्य अतिथि के रूप में
अपना उद्बोधन आनलाईन माध्यम से दिया। उन्होंने अपने उद्बोधन में भारतवर्ष के नाम के महत्त्व को
प्रतिपादित किया । इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में पण्डित मधुसूदन ओझा लिखा है कि ब्राह्मण ग्रन्थ में अग्नि को
भरत कहा गया है। इसी अग्निरूप भरत से भारत नाम हुआ है। अग्नि देवताओं के लिए हवि का भरण करता है,
इस कारण से भरत को अग्नि कहा गया है। फिर ग्रन्थकार ओझा जी ने लिखा है कि यह भारतदेश अन्न और धन
से अपने देश और दूसरे देश का भी भरण एवं पोषण करता है, अत एव इस देश का नाम भारत है।

अन्नैर्धनैर्यतोऽयं देशस्त्वेषां परेषां च ।
उदरं भरति ततोऽयं देशो भारत इति प्रथितः॥ इन्द्रविजयः, पृ. १९, कारिका ५

इतिहास के प्रसिद्ध विदुषी राष्ट्रिय स्मारक प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्षा प्रो. सुस्मिता पाण्डेय ने अपने अध्यक्षीय
उद्बोधन कही कि ऋग्वेद के नासदीयसूक्ति में सृष्टि की उत्पत्तिमूलक सिद्धान्त का विवेचन प्राप्त होता है। उन्हीं
सिद्धान्तों को आधार बनाकर दशवाद नामक ग्रन्थ का प्रणयन पण्डित ओझा जी ने किया है। पं. ओझा जी का
हम भारतीयों के ऊपर यह बड़ा उपकार है। इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ द्वादशवाद के अन्तर्गत इतिवृत्तवाद के रूप में
ओझा जी ने प्रतिपादन किया है। इसमें विशाल भरतवर्ष का इतिहास और भूगोल का वर्णन हमें प्राप्त होता है।
इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ दीपप्रज्वलन एवं वैदिक मंगलाचरण से एवं समापन शान्तिपाठ से
हुआ। इसमें लगभग १०० विद्वानों ने उत्साहपूर्वक भाग ग्रहण किया। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में ३० विद्वानों के
द्वारा शोधपत्र का वाचन किया गया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया ।

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