Pandit Madhusudan Ojha has collected his commentaries on Bhagavad Gita as Gitavijnana Bhashya. These books are under four classifications – Rahasyakhand, Shirshakhand, Hridyakhand and Acharakhand. Hridyakhand has not been published. Pandit Motilal Shastri has written a series of six books on these subjects in Hindi –Atmadarshan Rahasya, Brahmakarma Rahasya, Karmayoga Rahasya, Jnanayoga Rahasya,Upasana Rahasya and Budhiyoga Rahasya.
पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य का प्रणयन किया है। इसमें चार काण्ड हैं- रहस्यकाण्ड, शीर्षकाण्ड, हृदयकाण्ड और आचारकाण्ड। हृदयकाण्ड अभी प्रकाशित नहीं है। रहस्यकाण्ड के पृष्ठ संख्या १७४ पर विषयरहस्य समाहित है। पण्डित मोतीलाल सास्त्री ने इन विषयों को आधार बना कर ६ ग्रन्थों की शृंखला हिन्दी भाषा माध्यम से लिखी है। जो इस प्रकार है- आत्मदर्शनरहस्य, ब्रह्मकर्मरहस्य, कर्मयोगरहस्य, ज्ञानयोगरहस्य, उपासनारहस्य और बुद्धियोगरहस्य।
आत्मदर्शनरहस्य
गीता मायावच्छिन्न अव्यय तत्त्व का प्रतिपादन करती है। (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ३)
वैशेषिकदर्शन, सांख्यदर्शन और वेदान्तदर्शन इन तीनों दर्शनों के विचार का विषय आत्मा है, इस दृष्टि से ये तीनों दर्शन एक हैं। इन तीनों दर्शनों का आत्मप्रतिपादन की शैली भिन्न भिन्न होने से ये तीनों पृथक् है। (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ९)
एक एव इदं दर्शनशास्त्रं त्रेधा विभज्योपदिश्यते। वैशेषिकशास्त्रम् अन्यत्, प्राधानिकं शास्त्रम् अन्यत्, शारीरकशास्त्रम् अन्यत्। ( गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७६)
इस संसार में आत्मा शब्द तीन तत्त्वों के माध्यम से ज्ञात होता है। ये हैं- अव्यय, अक्षर और क्षर। (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ११)
क्षर- संसार के सभी प्रकार के विकारों का उपादानकारण और हमेशा विकृत होने वाला जो एक अव्यक्त पुरुष है वही क्षर कहलाता है। मिट्टी उपादान कारण है और घड़ा आदि विकार है। इसका दूसरा नाम आत्मक्षर है। (वही, पृ.११)
मृत्तिकावद् विकारोपादानभूतः परिणामी कश्चिदव्यक्तः क्षरपुरुषः- इत्येकः।
(गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७८)
अक्षर-कुम्भकार के समान जगत् को बनाने वाला अन्तर्यामी, नियन्ता, निर्विकार, और अपरिणामी जो एक अव्यक्ततत्त्व है वही अक्षर पुरुष कहलाता है।(वही, पृ.१२)
कुम्भकारवन्निर्माता सर्वशक्तिघनोऽन्तर्यामी नियन्ता निर्विकारोऽपरिणामी कश्चिदव्यक्तोऽक्षरपुरुषो द्वितीयः। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७८)
अव्यय- कार्य और कारण से अतीत और असंग जो एक अव्यक्त तत्त्व है वही अव्ययपुरुष कहलाता है। (वही, पृ.१२)
कार्यकारणातीतोऽसङ्गः आलम्बनभूतः सर्वाधारो निराधारः कश्चिदव्यक्तोऽव्ययपुरुषस्तृतीयः।
(गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७९)
इस लघुकाय ग्रन्थ में ७२ पृष्ठ हैं एवं वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन और वैदिक विज्ञान का विस्तार से प्रस्तुति की गयी है।
Read/Download Atmadarshan Rahasya
ब्रह्मकर्मरहस्य
पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के रहस्य काण्ड की पृष्ठसंख्या २०६ पर ब्रह्मकर्म की समीक्षा है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ब्रह्मकर्मरहस्य नामक लघु ग्रन्थ का प्रणयन किया है। जिसमें ६२ पृष्ठ हैं। इस ग्रन्थ में पाँच सिद्धान्तों का विश्लेषण किया गया है-
त्रिसत्यवाद- जिस सिद्धान्त में तीन तत्त्व सत्य हैं, वह त्रिसत्यवाद है। प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो शब्द हैं। प्रवृत्ति का अर्थ है कर्म में लगना। जैसे नौकरी करना, पैसा कमाना, गाड़ी खरीदना ये सभी कार्य प्रवृत्ति कहलाते हैं। जो इस प्रकार के कर्म में नहीं लगता है वह निवृत्ति मार्ग है। निवृत्ति कर्म ज्ञानयोग है, प्रवृत्ति कर्म कर्मयोग है और प्रवृत्ति-निवृत्ति ही बुद्धियोग है। इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग और बुद्धियोग ये तीनों त्रिसत्यवाद है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ४) ब्रह्म के तीन रूप हैं- अव्यय, अक्षर और क्षर। कर्म के तीन रूप हैं- ज्ञान, कर्म और बुद्धि। ये तीन विभाग हो जाते हैं। पुनः ब्रह्म और कर्म में संबन्ध बनाने वाला तत्त्व अभ्व है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ६) इस ग्रन्थ में त्रिसत्यवाद का वर्णन पृष्ठ संख्या १ से ११ तक किया गया है।
पं ओझा जी ने लिखा है कि कतिपय विद्वान् के अनुसार ब्रह्म, कर्म और अभ्व ये तीन तत्त्व हैं, ब्रह्म ज्ञान है, कर्म क्रिया है, जो दिखाई देता है, किन्तु तर्क से सिद्ध नहीं होता, वह अभ्व है। ये नाम-रूप ही अभ्व हैं, यह मत है।
ब्रह्म, कर्म, अभ्वमिति त्रीणि तत्त्वानि। ब्रह्म ज्ञानम्, कर्म क्रिया, अथ यद् दृश्यते, किन्तु नोपपद्यते तदभ्वम्, नामरूपे हीमे अभ्वमित्येकं मतं भवति। (गीताविज्ञानभाष्य, रहस्यकाण्ड, पृ २०७)
द्विसत्यवाद- ब्रह्म और कर्म ये दो ही तत्त्व इस में माने जाते हैं। तीसरा अभ्व की आवश्यकता नहीं है। कर्म में ही अभ्व का समाहित है। मायामय कर्म दोनों एक ही वस्तु है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ११) कर्म का अर्थ क्रिया है। क्रिया की तीन अवस्था होती है। प्रवृत्ति, निवृत्ति और स्तम्भ। घर में प्रवेश करना प्रवृत्ति है और घर से बाहर निकलना निवृत्ति है। इन दोनों क्रियाओं का योग स्तम्भन कहलाता है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ११) इस ग्रन्थ में ब्रह्म और कर्म का वर्णन पृष्ठ संख्या ११ से १३ तक हुआ है।
पं. ओझा जी लिखते हैं कि ब्रह्म और कर्म ये दो तत्त्व हैं, अभ्व नामक कोई तीसरा तत्त्व नहीं है। मायामय अभ्व का कर्म में अन्तर्भाव हो जाता है।
ब्रह्मकर्मणी द्वे एव तत्त्वे नाभ्वम्, मायामयस्यैतस्याभ्वस्य कर्मण्येवान्तर्भावात्।
(गीताविज्ञानभाष्य, रहस्यकाण्ड, पृ २०७)
असद्वाद- इस सिद्धान्त के अनुसार कर्म ही प्रधान है। ब्रह्म तत्त्व की आवश्यकता नहीं है। कर्म को बल कहा गया है। बल ही श्रम अर्थात् परिश्रम का आधार है। श्रम को स्वीकार करने वाले को श्रमणक कहा गया है। ‘कर्मैवेदं सर्वम्’ है। संपूर्ण जगत् का मूल असत् तत्त्व कर्म ही है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. १३-१४) इस ग्रन्थ में असद्वाद का वर्णन पृष्ठ संख्या १३ से २३ तक है।
पं. ओझा जी लिखते हैं कि इन ब्रह्म और कर्म में केवल कर्म ही एक तत्त्व है, इसको श्रमण लोग मान्ते हैं। यह संपूर्ण जगत् कर्म के रूप में ही दिखता है। ब्रह्म नामक कोई अतिरिक्त पदार्थ नहीं है।
अथैतयोरपि ब्रह्मकर्मणोः कर्मैव तत्त्वमिति श्रमणा आतिष्ठन्ते। तथा हि कर्मैवेदं सर्वं पश्यामि। न ब्रह्म नामातिरिच्यते कश्चिदर्थः।(गीताविज्ञानभाष्य, रहस्यकाण्ड, पृ २०७)
सदसद्वाद- जो प्रतिक्षण बदलता है वह कर्म है। जो कभी नहीं बदलता है, वह ब्रह्म है। इस जगत् में इन दोनों भावों का साम्राज्य है। इस आधार पर इन दोनों तत्त्वों को स्वीकार करना आवश्यक है। ये दोनों तत्त्व सत् और असत् नाम से भी जाने जाते हैं। इन दोनों का संबन्ध नित्य है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ३०)
असन्नेव स भवति असद्ब्रह्मेति वेद चेत् ।
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद सन्तमेनं ततो विदुः॥ तैत्तिरीयोपनिषद् २..६.१सद्वाद- ज्ञान का ही नाम ब्रह्म है। कर्म की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है, ब्रह्म में ही कर्म आश्रित रहता है और ब्रह्म में ही कर्म का प्रलय भी होता अहि। इस दृष्टि से ब्रह्म ही सत् है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ६१)
Read/Download Brahmakarma Rahasya
कर्मयोगरहस्य
पण्डित मधुसूदन ओझा के गीताविज्ञानभाष्य- रहस्यकाण्ड में पृष्ठ संख्या२२० पर कर्मयोगसमीक्षा है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने इसी को आधार बना कर १४२ पृष्ठ वाली कर्मयोगरहस्य नामक किताब लिखी है। रहस्य ग्रन्थ शृंखला में यह ग्रन्थ तीसरे स्थान पर है।
गीता ब्रह्मविद्या शास्त्र है। संपूर्ण कर्म ब्रह्म में आश्रित रहता है। कर्म की उत्पत्ति, कर्म की स्थिति और कर्म का प्रलय ये तीनों ब्रह्म में ही होते हैं। योग का अर्थ कर्म है और सांख्य का अर्थ ज्ञान है। ये दोनों एक साथ हमेशा रहते हैं। ज्ञानविद्या और योगविद्या ये दोनों ब्रह्मविद्या के नाम से जाने जाते हैं। (कर्मयोगरहस्य, पृ.३) गीता में कहा गया है कि सामान्य लोग सांख्य और योग को अलग अलग जानते हैं, लेकिन विद्वान् इन दोनों को एक रूप में देखते हैं। जो विद्वान् सांख्य और योग को एकरूप में जानते हैं वही गीता के रहस्य को जानने वाले हैं।
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥ गीता४.४-५
ज्ञानयोग अर्थात् सांख्य एवं कर्मयोग अर्थात् योग, इन दोनों का समन्वय रूप ही बुद्धियोग है।(कर्मयोगरहस्य, पृ.३)
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वेद के तात्त्विक स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। पृष्ठ संख्या ३४ पर वर्णव्यवस्था, पृष्ठ संख्या ५७ पर चार आश्रमों का, पृष्ठ संख्या ७१ पर कर्मों के विविध स्वरूप, पृष्ठ संख्या ३४ पर वर्णव्यवस्था और पृष्ठ संख्या ३४ पर संस्कार विज्ञान हैं।
लौकिक उन्नति को अभ्युदय कहा जाता है। अभि, उत् और अय ये तीन पद हैं। अभि का अर्थ संमुख जाना, उत् का अर्थ ऊपर जाना और अय का अर्थ गति है। सूर्य की ओर जाना ही अभ्युदय है। सामान्य जन लौकिक उन्नति को ही अभ्युदय समझते हैं।
जीवात्मनः स्वप्रभव-सूर्याभिमुख्येन ऊर्ध्वम् अयनम् अभ्युदयः।
(कर्मयोगरहस्य, पृ.७३), गीताविज्ञानभाष्य-रहस्यकाण्ड पृ. २२८
कामना पूर्वक जो कर्म होता है वह कर्मयोग कहलाता है। कामना से वासना बनती है। वासना ही बन्धन का कारण है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान् बनने का उपदेश दिया है। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्। (गीता २.४५, कर्मयोगरहस्य, पृ.१३४),
निर्द्वन्द्व- द्वन्द्व का अर्थ दो होता है। राग-द्वेष, सुख-दुःख, जन्म-मरण और शोक-मोह ये सब द्वन्द्व है। इस द्वन्द्व से बाहर निकला आवश्यक है। जब तक वासना है तब तक आत्मा में द्वन्द्व चलता रहता है। (कर्मयोगरहस्य, पृ.१३५)
नित्यसत्त्वस्थ- इस का अर्थ शुद्ध सत्त्व गुण है। जब तक शुद्ध सत्त्व का उदय नहीं होता है तब तक मनुष्य सांसारिक वस्तुओं की कमी को जानता रहता है। शुद्ध सत्त्व का उदय होते ही मनुष्य परम सुख को प्राप्त कर लेता है।(कर्मयोगरहस्य, पृ.१३६)
निर्योगक्षेम- शुद्ध सत्त्व का विकास ही निर्योगक्षेम है। योग और क्षेम ये दो शब्द है। जो वस्तु अभी हमारे पास नहीं है उसको प्राप्त करना योग है और जो वस्तु प्राप्त है उसकी रक्षा करना क्षेम है। इस प्रकार रक्षा और प्राप्ति इन दोनों से मुक्त होना ही निर्योगक्षेम है। (कर्मयोगरहस्य, पृ.१३६)
आत्मवान्- ऊपर की प्रक्रिया में मनुष्य जब निपुण हो जाता है तब वह आत्मवान् हो जाता है। जिसके पास धन होता है उसको धनवान् गुणवान् कहते हैं उसी प्रकार केवल आत्मा को जानाने वाला मनुष्य आत्मवान् कहलाता है।(कर्मयोगरहस्य, पृ.१३६) इस प्रकार इस छोटे से ग्रन्थ में अनेक वैदिकविज्ञान के सिद्धान्त वर्णित हैं।
Read/Download Karma Yoga Rahasya
ज्ञानयोगरहस्य
पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने गीताविज्ञानभाष्य का प्रणयन संस्कृतभाषा में किया है। गीताविज्ञानभाष्य चार भागों में हैं- गीतारहस्यकाण्ड, मूलकाण्ड, हृदयकाण्ड और आचार्यकाण्ड है। इन में हृदयकाण्ड प्रकाशित नहीं हुआ है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ओझा जी के भाष्यों के आधार पर हिन्दी भाषा में लघुग्रन्थों की शृंखला लिखी है। पं. शास्त्री ने गीता के विषयरहस्य के अन्तर्गत छः ग्रन्थों का प्रणयन किया है। जो क्रमशः इस प्रकार हैं- आत्मदर्शनरहस्य, ब्रह्मकर्मयोगरहस्य, उपासनारहस्य, कर्मयोगरहस्य, बुद्धियोगरहस्य और ज्ञानयोगरहस्य।
पं. ओझा जी ने गीतारहस्य काण्ड में पृ. २४३ पर ‘अथ विषयरहस्ये ज्ञानयोगसमीक्षा’ ढाई पेज में लिखा है। पं. शास्त्री जी ने इसे हिन्दी भाषा में २९ पृष्ठ में ज्ञानयोगरहस्य को व्याख्यायित किया है।
ज्ञान और विज्ञान हमेशा एक साथ रहने वाला तत्त्व हैं। देवता के स्तर पर जो बोध होता है वह आधिदैविक कहलाता है। ग्रन्थकार ने आधिदैविक पदार्थ और आधिदैविक अर्थ इन दो तत्त्वों का उल्लेख किया है। यदि यह कहा जाय कि लोहा लोहा को ही काटता है। काँटा ही काँटे को निकालता है। इन दो उदहरणों में एकबार लोहा साधन है और दूसरी बार साध्य अर्थात् पदार्थ बन जाता है। जिस प्रकार एक ही लोहा साधन और साध्य बन जाता है। उसी प्रकार आधिदैविक भी साधन और साध्य बन जाता है। आधिदैविक साधन से आधिदैविक अर्थ को समझना ही ज्ञानकाण्ड है।
यावन्ति ज्ञानानि साधनतः फलतश्च पारलौकिकान् अर्थान् अपेक्षन्ते। आधिदैविकैः अपि साधनैः कल्पमानानि पुनः आधिदैविकान् एव अर्थान् प्रजनयन्ति। तेषां ज्ञानानां सविज्ञानानाम् उपसंहरणम् अनुशासनं च ज्ञानकाण्डम्।
गीताविज्ञानभाष्य, रहस्यकाण्ड, पृ. २४३ एवं (ज्ञानयोगरहस्य पृ.१०)
बर्तन, कार, मकान ये सब भिन्न-भिन्न रूप वाले हैं और इसे ही कार्य कहते हैं। इस कार्य का जो कारण है वह ज्ञान कहलाता है। इस सभी कार्य में लोहा लगा हुआ है। लोहा कारण है और बर्तन, कार और मकान कार्य हैं।
अनेकधा गृहीतानां ज्ञानम् एकत्वसाधनम्।
तत्र पारमार्थिका एव हि वैज्ञानिका भावा उपदिश्यन्ते। तत्र च ज्ञानविज्ञानयोः परस्पर-सापेक्षत्वात् प्रक्रमभेदेन तदुभयं व्यवस्थाप्यते। भिन्नरूपाणां अनेक-कार्य-जातानां कारणैकत्वोपपादनेनैकत्व-व्यवस्थापनं ज्ञानपदार्थः।
वही, पृ. २४३ एवं (वही, पृ.१२)
एक से अनेक की ओर आना विज्ञान है। एक ही मूल तत्त्व ब्रह्म से ये सारे अनन्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं। एक तत्त्व से ही नाना भाव बने हुए हैं। ब्रह्म ही सब कुछ बना हुआ है। इसी का नाम विज्ञान है। एकत्व- सम्पत्तियुक्त ज्ञान विज्ञान है। विविध-भावोपेत- ज्ञान विज्ञान है।
एकत्वेन प्रतिपन्नान् कुतश्चिद् एकस्माद् मूल-तत्त्वाद् अनेकानेक-कार्यजातानाम् आविर्भाव-क्रमोपपादनं विज्ञानपदार्थः।
वही, पृ. २४३ एवं (वही, पृ.१२)
प्रत्येक पदार्थ के आरम्भक द्रव्य का नाम, रूप और कर्म के द्वारा विभाग करना एवं विभाग का तरीका बतलाना विज्ञान है।
एकस्मिन् वा कस्मिंश्चिद् अर्थेऽन्तर्भूतानाम् अनेकेषाम् आरम्भक-द्रव्याणां विभज्य नाम-रूप-कर्मभिर्व्याकरणं विज्ञान-पदार्थः।
वही, पृ. २४३ एवं (वही, पृ.१५)
परात्पर, पुरुष, शिपिविष्ट, यज्ञ, विराट्, यज्ञ और विराट् ये पाँच हैं। इन पाँच तत्त्वों से ईश्वर और जीव दोनों बनते हैं।
एकस्माद् ब्रह्मतत्त्वात् परात्पर-पुरुष-शिपिविष्ट-यज्ञ-विराट्-स्वरूपया पञ्चिकया तत्त्वविभागः।
वही, पृ. २४३ एवं (वही, पृ.१७)
ईश्वर विभाग के स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य (इन्द्र), अग्नि और सोम ये पाँच तत्त्व हैं।
स्वयम्भू-परमेष्ठीन्द्राग्नि-सोम-रूपया पञ्चिकया ईश्वरविभागः।
वही, पृ. २४४ एवं (वही, पृ.१७)
जीव शरीर में स्थित स्वयम्भू सत्यात्मा है। सत्यात्मा चार प्रकार के हैं- अन्तर्यामी, सूत्रात्मा, वेदात्मा, चिदात्मा। परमेष्ठी यज्ञात्मा है। वैदिक विज्ञान में सूर्य को इन्द्र कहा गया है। सूर्य से ही दैवात्मा और यज्ञात्मा बनता है। चन्द्रमा का भाग महान् आत्मा कहलाता है। महान् आत्मा के तीन प्रकार के हैं- आकृतिमहान्, प्रकृतिमहान् और अहंकृतिमहान्। पृथिवी तत्त्व से भूतात्मा कहलाता है। ये भूतात्मा पाँच प्रकार के हैं- बाह्यात्मा, हंसात्मा, वैश्वानरात्मा, तैजस, और प्राज्ञ।
इस प्रकार पाँच परात्पर, पुरुष, शिपिविष्ट, यज्ञ, विराट्, यज्ञ और विराट् ये पाँच तत्त्व हैं, फिर ईश्वर विभाग में स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य (इन्द्र), अग्नि और सोम ये पाँच तत्त्व हैं। सत्यात्मा, यज्ञात्मा, विज्ञानत्मा, महान् आत्मा और भूतात्मा। ये पन्द्रह तत्त्व ही संसार हैं।
चतुष्पात् सत्यात्मा, एकपाद् यज्ञात्मा, द्विपाद् विज्ञानात्मा, त्रिपाद् महानात्मा, पञ्चाद् भूतामेत्येवंरूपया पञ्चिकया पञ्चदशकलो जीवविभागः, तदित्थम् एषां त्रयाणां तत्त्वेश्वर-जीवविभागां विज्ञानमेवैतत् सर्वजगद्विज्ञानं भवति।
वही, पृ. २४४ एवं (वही, पृ.१९)
Read/Download Jnana Yoga Rahasya
उपासनारहस्य
पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड के विषयरहस्य भाग में भक्तियोगपरीक्षा में उपासना का विस्तार से वर्णन किया है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी ने रहस्य शृंखला के अन्त्रगत उपासनारहस्य नामक लघुग्रन्थ में उपासना तत्त्व का विस्तार से वर्णन किया है।
आधिभौतिक अर्थ में प्रत्ययालम्बनता तीन प्रकार से होती है- आहार्यारोपमूलक प्रत्यालम्बन, प्रतिकृतिमूलक प्रत्यालम्बन और प्रतीकमूलक प्रत्यालम्बन ।
आहार्यारोपमूलक प्रत्यालम्बन- कुछ को कुछ समझ लेने को आरोप कहा जाता है। यह आरोप दो प्रकार का होता है। प्रातिभासिक और व्यावहारिक। प्रातिभासिक आरोप सर्वथा मिथ्या है। अत एव त्याज्य है। व्यावाहारिक आरोप परमार्थ की दृष्टि से मिथ्या होती है और व्यवहार की दृष्टि से सत्य होता है। अत एव यह उपादेय है। (उपासनारहस्य पृ. ३८)
प्रतिकृतिमूलक प्रत्यालम्बन- पत्थर को ईश्वर समझना आहार्य-आरोप है एवं ईश्वर की मूर्ति को निदान द्वारा बनी हुई ईश्वरप्रतिमा को ईश्वर समझना प्रतिकृति है। (उपासनारहस्य पृ. ४५)
प्रतीकमूलक प्रत्यालम्बन- अवयव को ही प्रतीक कहते हैं। अवयव से अवयवी का ग्रहण होता है।
(उपासनारहस्य पृ. ५४) संसार ईश्वरस्वरूप है। इसके एक अवयव को पकड़ कर उस पर दृष्टि रख कर उस व्यापक पर पहुँचना प्रतीकविधा है। (वही, पृ. ५५)
प्रतिकोपासना- कृत्स्न(संपूर्ण)- कृत्स्न वस्तु का जो एकदेशीय ग्रहण है वही प्रतीक कहलाता है। कृत्स्न और सर्व दोनों में भेद है। कृत्स्नस्य एकस्याशेषत्वं है एवं सर्वत्वम् अनेकस्याशेषत्वम् है। एक पुस्तक के अवयव के ऊपर दृष्टि नहीं है, अपितु सारी पुस्तक का ग्रहण है तो कृत्स्नता है और १० पुसतकों का जो अशेषत्व है वह सर्व है।( उपासनारहस्य पृ. १२८)
संपूर्ण के किसी एक भाग का उपग्रहण प्रतीक है। जैसे- जनपद का गाँव, गाँव का घर, घर का भी एक घर। मनुष्य का हाथ आदि एक अंग प्रतीक होता है।
कृत्स्नस्य किञ्चिदेकदेशोपग्रहः प्रतीकम्। यथा जनपदस्य पुरम्, पुरस्यैकं गृहम्, गृहस्यैका शाला। मनुष्यस्य हस्ताद्येकमङ्गं प्रतीकं भवति। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ. २५३)
प्रतिरूपोपासना- तस्वीर को और मूर्ति को प्रतिरूप कहते हैं। यह दूसरे का रूप है असली नहीं है, नकली है। शिल्प दो प्रकार के होते हैं- अपूर्व और प्रतिरूप। ईश्वर अपूर्व शिल्प का निर्माता है। जीव अपूर्वशिल्प का एवं प्रतिरूप शिल्प का निर्माता है। जो वस्तु पहले नहीं रहती है उसे बनाना अपूर्वशिल्प कहलाता है और बनी हुई की नकल करना प्रतिरूप शिल्प कहलाता है। (उपासनारहस्य पृ. १३६)
चित्र, प्रतिमा आदि प्रतिकृतिरूप शिल्प प्रतिरूप है। उसमें (चित्र, प्रतिमा आदि में) आलम्बित बुद्धि की दूरस्थिति प्रतिमेय (जिसकी वह प्रतिमा है) में स्थिति होती है। वह प्रतिमा दो प्रकार की होती है- प्रतिकृति और भाव।
जो रूपवान् है, साकार है, उसका चित्रपट के द्वारा अथवा लकड़ी, पाषाण आदि के फलक द्वारा प्रतिरूपपरिशिल्प से सादृश्य का उपादान प्रतिकृतिप्रतिमा है। जिस प्रकार मिट्टी, धातु आदि से बने हुए बिम्बविशेषों में चेतन गज, अश्व, गौ, भेड़, बकरी आदि की बुद्धि सादृश्य की महिमा से प्रतिष्ठित होती है।
तथा हि- चित्र-प्रतिमादि-प्रतिकृतिरूपं शिल्पं प्रतिरूपम्। तत्रालम्बिताया बुद्धेरन्यत्र विप्रकृष्टे प्रतिमेये स्थितिरुपपद्यते। सा चेयं प्रतिमा द्विविधा भवति-प्रतिकृतिर्भावश्च।
रूपवतः साकारस्य चित्रपटद्वारा दारु-पाषाणादि-फलक-द्वारा वा प्रतिरूपशिल्पेन सादृश्योपापादानं प्रतिकृतिप्रतिमा भवति। यथा मृण्मयधातु-मयादि-बिम्ब-विशेषु गजाश्वगवाव्यजादिबुद्धिः सादृश्यमहिम्ना प्रतितिष्ठति। गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ. २५६
भावोपासना- प्रतिमा दो प्रकार की होती है- प्रतिकृति और भावमयी। प्रतिकृत का नाम नकल है। भाव का नाम खयाल है। खयाली तस्वीर एवं खयालीप्रतिमा ही भावप्रतिमा कहलाती है।
(उपासनारहस्य पृ. १४१) जो निराकार है, रूप रहित है, उसकी प्रतिकृति संभव न होने के कारण भावमयी प्रतिमा की जाती है-
निराकारस्य नीरूपस्य प्रतिकृत्यसंभवाद् भवमयी प्रतिमा क्रियते। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ. २५९)
निदानोपासना- आहार्य आरोप मूलक उपासना ही निदान उपासना है। निदान का अर्थ उपाय होता है। (उपासनारहस्य पृ. १६०) अन्य वस्तु के ज्ञान के लिए अन्य वस्तु में आहार्य आरोप विधि से संकेत सम्बन्ध उत्पन्न कर के उसे उस ज्ञान का अथवा अर्थ का स्मारक ही निदान है। संकेत ही निदान है। (उपासनारहस्य पृ. १६१)
जहाँ किसी प्रकार की विशेष स्मानता न होने पर भी अपनी इच्छा के अनुआसार किसी पदार्थ का कृत्रिम आरोप की विधा से संकेत संबन्ध बना कर के उसे स्मरण दिलाने वाला मान लेना निदान है। जैसे- शोक और अपकीर्ति का कृष्णवर्ण, क्रोध का लालवर्ण, कीर्ति और मोक्ष का शुक्लवर्ण, सत्त्व, रज और तम का क्रमशः शुक्ल, रक्त और कृष्ण वर्ण, हाथी से धनवान् का, ध्वजा से जीत का, छत्र से राज्य का दण्ड से शासन का पद्म से पृथ्वी का इस प्रकार निराकार अर्थ भी उस-उस परिक्लित साकार द्रव्य से संकेतविधा के द्वारा परिलक्षित किया जाता है, वह निदान कहलाता है-
अथ साधर्म्य-विशेषाभावेऽपि यादृच्छिकस्य कस्यचिदर्थस्याहार्यारोपविधया संकेत-संबन्धम् उत्पाद्य स्मारकत्व-कल्पनं निदानम्। संकेतो निदानम्। यथा शोकस्यापकीर्तेश्च कृष्णं रूपम्, क्रोधस्य रक्तं रूपम्, कीर्तेर्मोक्षस्य च शुक्लं रूपम्, सत्त्वरजस्तमांसि शुक्लरक्तकृष्णानि, हस्तिना लक्ष्मीः, ध्वजेन विजयः, छत्रेण राज्यम्, दण्डेन शासनम्, पद्येन पृथ्वी, इत्येवं निराकारोऽप्यर्थस्तेन तेन परिकल्पितेन साकारद्रव्येण संकेतविधया परिलक्ष्यते, तन्निदानम्। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ. २५९)
सत्यवती- दृष्टि और बुद्धि इन दोनों का सामानाधिकरण्य है तो वह उपासना सत्यवती उपसाना है। जिसे देखना है उसे ही समझना, यही सत्यवती उपासना है। जैसे को तैसे समझ कर उसकी उस की उसी रूप से जो उपासना की जाती है वही सत्यवती कहलाती है। ईश्वर सर्वजगद् व्यापक है। उसे व्यापक समझ कर उसकी उसी तरीके से उपासना करना योग है- यही योग सत्यवती उपासना है। (उपासनारहस्य पृ. ९७, गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ. २५१)
अङ्गवती- दृष्टि है अङ्ग पर और बुद्धि है अङ्गी पर यह उपासना अङ्गवती है। (उपासनारहस्य पृ. ९७, गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ. २५१)
अन्यवती– दृष्टि है अन्य पर और बुद्धि है किसी अन्य पर, यह अन्यवती उपासना है। (उपासनारहस्य पृ. ९७, गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ. २५१)
संशयतदुच्छेदवाद के प्रथमखण्ड में पृ २५९-२६८ तक पाँच प्रकार की उपासना का वर्णन विस्तार से किया गया है। ये सत्यवती, अंगवती, अन्यवती हैं। श्रद्धायुक्त ध्यान को उपासना कहते हैं। यह परिभाषा है।
Read and Download Upasana Rahasya
बुद्धियोगरहस्य
पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य के रहस्यकाण्ड में बुद्धियोग का वर्णन किया गया है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी ने हिन्दी भाषा में
बुद्धि का अव्यय के साथ जो योग होता है, वही बुद्धियोग है। अव्यय का बुद्धि के साथ योग होना ही बुद्धियोग है। बुद्धियोग की दो व्युत्पत्तियाँ हैं- ‘बुद्धेः अव्ययेन योगः, यहाँ क्रिया की प्रधानता है। बुद्ध्या युक्तोऽव्ययो बुद्धियोगः। यहाँ भाव की प्रधानता है।
(बुद्धियोगरहस्य, पृ.९); गीताविज्ञानभाष्य, रहस्यकाण्ड पृ. २६५
रागद्वेष मूलिका अविद्याबुद्धि को दूर करने वाली वैराग्यबुद्धि का स्वरूप प्रतिपादक राजर्षिविद्या है। अविद्याबुद्धि (अज्ञानबुद्धि) को दूर करने वाली ज्ञानविद्याबुद्धि का स्वरूप प्रतिपादक सिद्धविद्या है। अस्मिताबुद्धि को दूर करने वाली ऐश्वर्यविद्याबुद्धि का स्वरूप प्रतिपादक राजविद्या है। अभिनिवेशबुद्धि को दूर करने वाली धर्मविद्याबुद्धि का स्वरूप प्रतिपादक आर्षविद्या है।(बुद्धियोगरहस्य, पृ.१३)
विद्या | अविद्या | बुद्धि |
राजर्षिविद्या | राग-द्वेष बुद्धि | वैराग्यबुद्धि |
सिद्धविद्या | अविद्या बुद्धि | ज्ञानविद्याबुद्धि |
राजविद्या | अस्मिता बुद्धि | ऐश्वर्यबुद्धि |
आर्षविद्या | अभिनिवेश बुद्धि | धर्मबुद्धि |
राजर्षिविद्या– पतञ्जलि ने योगसूत्र में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच को क्लेश कहा है। ‘अविद्यास्मिता-रागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः’ योगसूत्र २.३। पतञ्जलि के क्रम के अनुसार राग और चौथे पाँचवें स्थान पर हैं। राजर्षिविद्या में राग-द्वेष का विचार हुआ है। इस को प्रथम स्थान दिया गया है। इस करम परिवर्तन पर शास्त्री जी का कहना है कि भगवान् को राजर्षिविद्या अधिका पसन्द हैं।।(बुद्धियोगरहस्य, पृ.१९) इसका संकेत के प्रारम्भिक स्तर पर प्राप्त होता है।
इदं परम्पराप्राप्तं इमं राजर्षयोर्विदुः। गीता ४.२
राग में रा और ग ये दो अक्षर हैं। रा का अर्थ है देना और ग का अर्थ है जाना। राधातु दानार्थक है और गम् धातु गत्यर्थक है। रात् ददत् गच्छति इति रागः। अनुकूल आसक्ति ही राग है।।(बुद्धियोगरहस्य, पृ.२०) प्रतिकूल आसक्ति द्वेष है। दुर् और एषा ये दो शन्द द्वेष में हैं दुष्ट इच्छा का नाम ही द्वेष है।।(बुद्धियोगरहस्य, पृ.२१)