प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० सितम्बर, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक
अन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजय
नामक ग्रन्थ के तृतीय अध्याय के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई ।
प्रो. रञ्जीत कुमार मिश्र, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के
तीसरे अध्याय में उषा के विविध स्वरूप को उद्घाटित किया गया है। उषा के स्तुति करने वाले अनेक ऋषि हैं।
जिनके नाम ग्रन्थकार ने उल्लिखित किया है। यथा- विश्वामित्र, वसिष्ठ, प्रस्कण्व काण्व, कक्षीवान् दीर्घतमा,
अष्टादंष्ट्र वैरूप और आप्त्य। इतने ऋषियों ने ऋग्वेद में उषा की स्तुति की है। उषा के मनुष्यरूप की परिकल्पना
है फिर भी आधिदैविक के स्तर पर उषा का व्यवहार किया जाता है। सूर्योदयकाल में हिरण्यमय रथ पर आरूढ
होकर उषा मनुष्य के समीप आती है। देवताओं के द्वारा सञ्चालित सौ रथ उषा के पीछे पीछे चलते हैं।
सूर्योदयादेव रथं हिरण्मयं सारुह्य दूरानभियाति मानुषान् ।
अध्यासितं तत्सहचारि दैवतैः शतं रथानामनुयापि पृष्ठतः॥ इन्द्रविजय पृ. ३६९, का.१
ऋषि वसिष्ठ राजा वरुण के पुरोहित थे। सूर्यभवन में वसिष्ठ की नियुक्ति की गयी। वह वशिष्ठ ऋषि उषा की
स्तुति की है। ऋग्वेद के सन्दर्भित मण्डल में उषा की विशद व्याख्या मिलती है।
डॉ. गोविन्द शुक्ल, सहायक आचार्य, व्याकरण विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर ने
कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के तृतीय अध्याय का नाम विज्ञानभवन है। इस अध्याय में सूर्यसदन की संस्थापना की
बड़ी चर्चा ग्रन्थकार पं. ओझा जी ने की है। नदियों के नामों का उल्लेख और उस नदी के साथ स्थान का परिचय
भी यहाँ उपलब्ध होता है। जिस प्रकार काश्मीर से उत्तरदिशा की ओर बिन्दुसार नामक सरोवर है। वह सरोवर
इस समय ‘सरपस’ इस नाम से जाना जाता है। कई विद्वान् इस सरोवर को सरस्वती नाम से भी व्याख्यायित
करते हैं।
काश्मीरादुत्तरतो बिन्दुसरस्तत्सरीकुलेत्युक्तम्।
‘सरपस’ नाम च तस्मात् सरस्वतीत्याहुरन्ये तु ॥ वही, पृ. ३४४, का. ७
सिन्धुनदी के सङ्गमस्थल से पूर्व भाग में और पश्चिमतटभाग पर सरस्वती नगरी थी। वहीं सूर्य का यह सदन
संस्थापित हुआ था।
सिन्धोः सङ्गमदेशे तस्या वामे च दक्षिणे च तटे ।
यासीत्सरस्वती पूस्तस्यां सूर्यप्रतिष्ठाऽऽसीत्॥ वही, पृ. ३४६, का.८
डॉ. राधावल्लभ शर्मा, सहायक आचार्य, साहित्य विभाग, हरियाणा संस्कृत विद्यापीठ, पलबल ने कहा कि
इन्द्रविजय ग्रन्थ की सूर्यसंस्था का विस्तार से समीक्षा की गयी है । सूर्यसदन में सूर्य के दो चक्र थे। एक चक्र
द्युलोक में लगाने के लिए दस्युओं से इन्द्र पराक्रम पूर्वक लिया था। कुत्स नामक व्यक्ति के समीप यह चक्र रखा
गया।
ये द्वे चक्रे सूर्यस्तत्रैकं दिवि समाधातुम् ।
दस्योः शङ्कित इन्द्रो हत्वाऽन्यत् कुत्सरक्षणे न्यदधात् ॥ वही, पृ. ३८९, का. १
इसी प्रसंग में विष्टप का भी वर्णन ग्रन्थकार पण्डित मधुसूदन ओझा ने किया है।विष्टप का अर्थ स्वर्ग होता है।
अपराजिता स्थान से ईशान दिशाया में चन्द्रमा का विष्टप था। दक्षिण दिशा में ब्रह्मा का विष्टप और उत्तर दिशा
में विष्णु का विष्टप था। डॉ. शर्मा ने कहा कि इन्द्रविजय में वर्णित विष्टप का स्वरूप भारतीय भूगोल पक्ष का
उद्घाटन करता है।
स्वर्गस्त्रिविष्टपाख्यो विष्टपमेतस्य मण्डलं खण्डम् ।
ऐशान्यामपराजितदिशि चैन्द्रं विष्टपं त्वासीत् ॥
प्राग्मेरुलक्षित तु ब्राह्मं विष्टपमवाग् दिशि प्रथितम् ।
तत उत्तरदिक्प्रथितं नाकारब्धं विष्टपं विष्णोः॥ वही, पृ. ३९६, का १
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के तृतीय अध्याय में सूर्यभवन की
अपूर्व व्याख्या देखने को मिलती है । तृतीय अध्याय में सूर्य की विद्या और उषा की विद्या का विस्तार से वर्णन
हुआ है। प्रारम्भ में ही ग्रन्थकार लिखते हैं कि सरस्वती नदी के तट पर सूर्यसदन इन्द्र के द्वारा संस्थापित किया
गया था। इस सूर्यसदन का संस्थापना वसिष्ठ ऋषि की आध्यक्षता में हुई थी। सूर्य का ज्योति और उषा की विद्या
को जानने के लिए ही सूर्यसदन था।
वेत्तुं वसिष्ठमुख्याः सूर्यस्य गवां तथोषसो विद्याम् ।
चक्रे सूर्यं नामाधिष्ठानं प्राक् सरस्वतीकूले ॥ वही, पृ. ३४५, का.२
डॉ. प्रवीण कोईराला, सामवेद प्राध्यापक, धर्मोदय वेदविज्ञान गुरुकुल, मणिपुर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण
किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त
विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत
विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।