प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जनवरी २०२५ को सायंकाल ५-७ बजे तक
अन्तर्जालीय माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। श्रीशंकर शिक्षायतन वर्ष २०२५ में प्रतिमाह
कादम्बिनी विमर्श शृंखला का समायोजन करेगा। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत कादम्बिनी नामक ग्रन्थ के
प्रारम्भिक भाग के गर्भाध्याय से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई थी।
प्रो. श्यामदेव मिश्र, आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊ परिसर ने अपने वक्तव्य
में कहा कि वृष्टि का मूलकारण सूर्य है। सूर्य से ही वृष्टि होती है। मेघगर्भ निर्धारण में भी सूर्यतत्त्व का बहुत बड़ा
योगदान है। वैदिकविज्ञान के पारिभाषिक शब्द ऋतशब्द और सत्यशब्द हैं। जिस तत्त्व का केन्द्र और शरीर होता
वह सत्यतत्त्व है । जिस तत्त्व का केन्द्र और शरीर नहीं होता है वह ऋत तत्त्व है। पानी ही ऋत तत्त्व का द्योतक
है। पानी का कोई केन्द्र और शरीर नहीं होता है। कादम्बिनी वृष्टि संबन्धी ग्रन्थ है । अत एव इसका ऋत तत्त्व से
संबन्ध है।
प्रो. सुभाष पाण्डेय, आचार्य, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने कहा कि
कादम्बिनी ग्रन्थ में मेघगर्भ के पोषणकाल को रेखांकित किया गया है।।
मृदुः प्रसादको वायुः सोमेशानेन्द्रदिग्भवः।
परिवेषः सितः स्निग्धो विपुलः शशिसूर्ययोः॥ –कादम्बिनी पृ. १३, कारिका ४५
मेघगर्भ का पोषणकाल ग्रीष्मकाल है । ग्रीष्मकाल में उत्तरदिशा में, ईशानदिशा में और पूर्वदिशा में यदि हवा
चलती है, तो वह हवा अत्यन्त कोमल और मन को प्रसन्न करने वाली होती है। इस वायु से मेघ का गर्भ पुष्ट
होता है। यदि इस हवा के चारों ओर सूर्य और चन्द्रमा हो, इन दोनों के प्रकाश विस्तृत हो, प्रकाश सफेद हो,
चिकने हो, विस्तृत मण्डल हो तो मेघ का गर्भ अत्यधिक पुष्ट होता है। मेघ का यह गर्भ विपुल जल देने वाला
होता है।
डॉ. रामेश्वर दयाल शर्मा, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर, ने
अपने वक्तव्य में कहा कि अग्रहण मास से फाल्गुन मास तक इन चार मासों में मेघ का गर्भकाल होता है। चैत्र
मास से आषाढ मास तक मेघगर्भ का पोषणकाल है। श्रावण मास से कार्तिक मास तक मेघ का गर्भ का प्रसवकाल
होता है। प्रसवकाल का अर्थ वृष्टिकाल है। इस प्रकार शीतकाल गर्भकाल है, ग्रीष्मकाल पोषणकाल है और
वर्षाकाल प्रसवकाल है।
सूर्ये दक्षिणगोलस्थे गर्भितं चोत्तरायणे।
नक्षत्रमष्टमावृत्तौ गत्वा चन्द्रः प्रवर्षति॥ –कादम्बिनी पृ. ७, कारिका २४
इस कारिका का यह भाव है कि सूर्य दक्षिणायण पर हो। परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से उत्तरायण पर हो। इस काल में जिस
नक्षत्र पर मेघ का गर्भ स्थिर होता है उसी नक्षत्र पर ही चन्द्रमा आठवीं बार जब आता है तब अच्छी बारिश
होती है।
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली ने कहा कि आधुनिक वातावरण विश्लेषक एक सप्ताह के बारिश का विचार करता है। यदि बहुत
अनुमान लगायेंगे तो एक पक्षका हो सकता है। परन्तु हमारे देश में भरतीयपद्धति में एक वर्ष पहले ही वृष्टि का
अनुमान कर दिया जाता है। इस विचार के लिए हमारी प्राचीन पद्धति क्या थी। उसके लिए कौन सा प्रयोग
किया जाता था। ये सभी जिज्ञासा के विषय कादम्बिनी संगोष्ठी के माध्यम से हमलोग समझ सकेंगे।
डॉ. मधुसूदन शर्मा, अतिथि अध्यापक, पौरोहित्य विभग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,
ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के
शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और
महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर
गोष्ठी को सफल बनाया।