प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ अगस्त को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीय
माध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के
द्वितीय अध्याय के अन्तिम भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गई
थी ।
प्रो. शोभा मिश्रा, आचार्या, संस्कृत विभाग, विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय, कानपुर ने
मुख्य अतिथि के रूप में विषय पर बोलती हुई कही कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में ऋभु विषय पर व्यापक
विचार किया गया है। ऋग्वेद में दीर्घतमा द्वारा किया गया कीर्तिसूक्त, वामदेव द्वारा ऋभु विषय पर
वामदेवसूक्त प्राप्त होता है। ऋभु के प्रसंग में ऋभु मनुष्य का कार्यसहायक शिल्पी था, मनुष्य होने से वह ऋभु
भारतवर्ष का ही निवासी था। ऋभु ने दो घोड़ों का निमार्ण किया था, उन दोनों घोड़ों पर चढकर देवराज इन्द्र
ने दस्युओं का संहार किया था। इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि ऋभु भारतवर्ष का ही निवसी था। मनुष्यलोक में
सुधन्वा ऋभु के पिता थे, इस प्रमाण से ऋभु आर्य था जिसका निवासस्थान भारतवर्ष ही था।
इत्थमृभूणामेषां शिल्पं शृणुमः पुरा मनुष्याणाम् ।
भारतवर्षाभिजना ध्रुवमासंस्ते मनुष्यत्वात् ॥
एभिश्च निर्मितौ तावश्वौ हरिसंज्ञकौ समारुह्य ।
इन्द्रो दस्यूनवधीत् तस्मादृभवः पुरैवासन् ।।
एष सुधन्वा राजा जनक ऋभूणां च मानुषे लोके ।
आसीद् भारतवर्षे तस्मादार्याः पुराप्यासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३४३, कारिका१-३
प्रो. अनीता राजपाल, आचार्या, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ने
इन्द्रविजय ग्रन्थ में वर्णित ऋभु के परिचय के क्रम में ऋभु के पिता का नाम सुधन्वा था। ऋभु के गुरु त्वष्टा थे।
त्वष्टा ने ऋभु को शिल्प कर्म में पूर्ण शिक्षित किया था। भारत के इतिहास में दस्युयुद्ध अत्यन्त प्रसिद्ध है, दस्यु
के युद्ध से पूर्व एव ऋभु का सन्दर्भ ऋग्वेद में देखने को मिलता है।
दस्युनियुद्धादस्माद् बहुपूर्वं भारते वर्षे ।
आसीन्नृपः सुधन्वा पुत्रास्तस्य त्रयस्त्वासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२०, कारिका २
ऋभु के तीन प्रकार के शिल्प थे। ये हैं-परोक्ष के लिए पाँच शिल्प, मित्रता के लिए दश शिल्प और यशः की
प्राप्ति के लिए अनेक शिल्प।
अथ कुशला ऋभवस्ते त्रेधा शिल्पानि कल्पयामासुः।
पञ्च परोक्षार्थेऽपि च दश सख्यार्थे बहूनि कीर्त्यर्थे ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२४, कारिका १
डॉ. जया साह, सहायका आचार्या, संस्कृत विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, त्रिपुरा ने इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के
भारतवर्ष आख्यान के माध्यम से अनेक नदियों के नामों का संग्रह किया गया है। न केवल नदियों के नाम हैं,
अपितु नदीतट पर स्थित भौगोलिक क्षेत्र की विस्तृत रूपरेखा वर्णित है। ऋग्वेद में पूर्वसप्तनद के ये नाम हैं-
गङ्गा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री, परुष्णि, असक्नी और वितस्ता ।
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयाऽर्जीकीये शृणुह्या सुषोमया। ऋग्वेदः १०.७५.५
पश्चिमसप्तनद के नाम हैं। जैसे- हे सिन्धो ! तुम गमनशील गोमती नदी को मिलाने के लिए पहले तुष्टामा नदी के
साथ चली। फिर तुम सुसर्तु, रसा श्वेती, कुभा और मेहन्तु नदियों के साथ मिलती है। इस के बाद तुम इन सब
के साथ एक रथ पर आरूढ होकर चलती है।
तृष्टा मया प्रथमं यातवे सजूः सु सर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।
त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे ॥ ऋग्वेदः १०.७५.६
उत्तरसप्तनद के नाम इस प्रकार हैं- पाँच गौर देश से उत्तर की दिशा की ओर दूसरा एक सप्तनद है। जिसका नाम
कुलिशी, वीरपत्नी, शिफांजसी आदि हैं।
तत्पञ्चगौरदेशादुत्तरतोऽन्योऽस्ति सप्त नददेशः ।
कुलिशी च वीरपत्नी शिफाञ्जसीत्यादिभिः क्लृप्तः॥ इन्द्रविजयः पृ. ३१०, कारिका १
डॉ. दीपमाला, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, राजकीय महाविद्यालय, जोधपुर, ने अपने वक्तव्य में कही कि
दास दो प्रकार के होते हैं। मनुष्यदास और अमनुष्यदास । दास न देव थे, न दानव थे और न ही मनुष्य थे। उनका
आर्यों के साथ विद्वेष था, वह कोई आनार्यविशेष ही था।
स एष दासस्तु न देव आसीन्न दानवो नापि मनुष्य आसीत्।
आर्यैर्द्विषन् कश्चिदनार्यः पृथग्वदेवैष विभाग आसीत्॥ इन्द्रविजयः पृ. ३०३, कारिका १
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
कार्यक्रम के अध्यक्ष थे।उन्होंने कहा कि आर्यों का स्वभाव कैसा था, इस विषय पर ग्रन्थकार पण्डित ओझा ने
लिखा है कि जिसके आराध्य ओङ्कार हो, जिसका शास्त्र वेद हो और जसकी आराध्या गङ्गा एवं गाय हो,
वही वास्तविक आर्य है। वही भारतवर्ष का मूलनिवासी है। वह किसी भी प्रकार से बाह्य भाग से नहीं आया है।
ओङ्कार एष येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः।
येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥
येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।
धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ इन्द्रविजयः पृ. २५८, कारिका १
डॉ. मधुसूदन शर्मा, अतिथि प्रध्यापक, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय , नई
दिल्ली ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का गान किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक
शोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्याल
और महाविद्याल के आचार्य, शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भाग
ग्रहण कर के संगोष्ठी को सफल बनाया में अपना योगदान दिया।
कृपया सेमिनार की कार्यवाही यहां देखें– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I