पथ्यास्वस्ति पर सप्तदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला


प्रतिवेदन

श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के द्वारा जनवरी माह के दिनांक २० से २५ तक सायंकाल ५ से
६.३० बजे के बीच अन्तर्जालीय माध्यम से सप्तदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला का समायोजन किया गया। पण्डित
मधुसूदन ओझा का वैदिक ध्वनिविज्ञान से संबन्धित पथ्यास्वस्ति नामक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में पाँच प्रपाठक हैं।
प्रपाठक का अर्थ अध्याय होता है। एक एक प्रपाठक पर विषयविशेषज्ञ ने ग्रन्थ के विषयवस्तु को उद्घाटित
किया।

पहले दिन के विषयविशेषज्ञ प्रो. रमाकान्त पाण्डेय, आचार्य, व्याकरण विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने वर्णमातृका परिष्कार नामक प्रथम प्रपाठक के आलोक में विशद
व्याख्यान प्रदान किया। उन्होंने कहा कि प्रथम प्रपाठक में सिद्धसमाम्नाय का वर्णन हुआ है। सिद्धशब्द का क्या
अर्थ है, इस पर विचार करना आवश्यक है। सिद्ध शब्द का अर्थ नित्य होता है। ग्रन्थकार पं. ओझा जी ने
वर्णसमाम्नाय निर्धारण के क्रम में उच्चारणप्रयत्न का उच्चारणस्थान का उल्लेख किया है । अ, इ, ऋ, लृ, उ इन
वर्णों के समानप्रयत्न है परन्तु उच्चारण स्थान भिन्न हैं। अ, ऽ, अ, ग, क इन वर्णों के समान स्थान हैं परन्तु भिन्न
प्रयत्न हैं। इस प्रकार सिद्धवर्णसमम्नाय का व्याख्यान किया गया है। इस प्रपाठ के प्रथम खण्ड में- स्वरभक्ति,
रङ्ग, अनुस्वार, विसर्ग, औरस्योष्मा, जिह्वामूलीय उपध्मानीय और यमा इतने विषय समाहित हैं।

दूसरे दिन के विषयविशेषज्ञ प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय
संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने यमपरिष्कार नामक द्वितीय प्रपाठक को आधार बना कर अपना व्याख्यान
दिया। इस ग्रन्थ में यम के चार स्वरूप हैं। एक एक वर्ण अपने से पूर्व पूर्व वर्ण से उत्तर उत्तर वर्ण से
एकविशेषबल को प्राप्त होता है। इन दोनों बलों के विरोध से वर्ण का द्वित्व होता है। फिर दोनों वर्णों के
अनुनासिक दूसरे वर्ण से पहले वाला वर्ण नासिक्य से उच्चारित होता है। वही नासिक्यवर्ण यमशब्द से जाना
जाता है। ।

तीसरे दिन के विषयविशेषज्ञ प्रो. राजधर मिश्र, आचार्य, व्याकरण विभाग, श्री जगद्गुरु रामानन्दाचार्य
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर ने गुणपरिष्कार नामक तृतीय प्रपाठक को सन्दर्भ बना कर अपना
व्याख्यान दिया। ग्रन्थकार पण्डित मधुसूदन ओझा ने लिखा है कि यह सृष्टि पाँच भागों में विभक्त है। जिनमें
स्वयम्भूमण्डल में बेकुरा नामक वाक् रहती है। परमेष्ठीमण्डल में सुब्रह्मण्या नामक वाक् रहती है। सूर्यमण्डल में

गौरिवीता नामक वाक् रहती है। पृथ्वीमण्डल में आम्भृणी नामक वाक् रहती है। इस आम्भृणी वाक् का
अत्यधिक चर्चा पथ्यास्वस्ति ग्रन्थ के तीसरे प्रपाठक में प्राप्त होती है।

चौथे दिन विषयविशेषज्ञ प्रो. सुन्दर नारायण झा, आचार्य, वेदविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने अक्षरनिर्देश नामक चतुर्थ प्रपाठक को रेखांकित करते हुए अपना व्याख्यान दिया।
अक्षर निर्देशनामक प्रपाठक में अक्षर तत्त्व का विस्तार से वर्णन मिलता है।। ब्रह्म के तीन प्रकार के स्वरूप में
स्थित यह सृष्टि है। ब्रह्म के तीन रूप इस प्रकार हैं- परम तत्त्व, अक्षर तत्त्व, क्षर तत्त्व । यहाँ परम तत्त्व से
अव्ययतत्त्व का ग्रहण किया गया है।

पाँचवें दिन के विषयविशेषज्ञ डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय
विश्वविद्यालय, धर्मशाला ने सन्धिपरिष्कार नामक पाँचवें प्रपाठक पर अपना व्याख्यान प्रदान किया।
वैदिकविज्ञान में अव्यय, अक्षर और क्षर ये तीन प्रधान तत्त्व हैं। अक्षरतत्त्व दूसरे अक्षरतत्त्व से परस्पर मिलकर
सन्धियोग करता हुआ क्षर तत्त्व की उत्पत्ति होती है। । क्षर को ही व्यञ्जनवर्ण कहा गया है।

छठे दिन विषयविशेषज्ञ डॉ. यदुवीर स्वरूप शास्त्री, सहायक अचार्य, व्याकरण विभाग, कामेश्वरसिंह दरभंगा
संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा ने ध्वनिविज्ञान विषय पर अपना व्याख्यान दिया। जिस शब्द से वस्तु की
प्रतीति होती है वही ध्वनि है। वाक्यपदीय में ध्वनिरूपशब्द की सिद्धि स्फोटशब्द से किया गया है। पथ्यास्वस्ति
ग्रन्थ में भी वर्णमाध्यम से उच्चारण के द्वारा ध्वनिविज्ञान का निगूढ वर्णन प्राप्त होता है।

सप्तदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला के पहले दिन से अन्तिम दिन पर्यन्त जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत
एवं प्राच्य अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली के आचार्य प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने अध्यक्षता की । उन्होंने कहा कि
सभी विषयविशेषज्ञ ने अपने अपने निर्धारित विषय पर महत्त्वपूर्ण व्याख्यान किया है। पथ्यास्वस्ति इस शब्द का
अर्थ वाक् है। वाक् ही वाक्य है। वाक्य में पदों की स्थिति है, पद में वर्ण की स्थिति रहती है। इस प्रकार सिद्ध
होता है कि संपूर्ण पथ्यास्वस्ति नामक ग्रन्थ में वाक् का विचार उपलब्ध है। इस विषय में विषय ग्रन्थकार
पण्डित मधुसूदन ओझा स्वयं लिखते हैं-

भाषायां प्रथमतः प्रवृत्तायां कालेन तत्र वाक्यानि, वाक्ये च पदानि, पदे च वर्णाः विभज्य परिगृहीता
अभवन्। –पथास्वस्तिः, पृष्टसंख्या २१

डॉ. प्रवीण कोईराला, धर्मोदय-वेद-विज्ञान-गुरुकुल, मणिपुर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का पाठ किया।
कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने
किया। इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे
रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर गोष्ठी को सफल बनाया।

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