प्रतिवेदन
श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० नवम्बर, शनिवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीय
माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के
पञ्चम अध्याय के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई ।
प्रो. धर्मदत्त चतुर्वेदी, आचार्य, संस्कृतविभाग, शब्दविद्या संकाय, केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान मानित
विश्वविद्यालय, वाराणसी ने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के पाँचवें अध्याय में इन्द्र का विजयाभिनन्दन है। इन्द्र के
अभिनन्दन में ऋग्वेद से अभिनन्दनवाक्य संकलित किया गया है। वत्स, श्रुष्टिगु और मेध्य ये सब कण्व के पुत्र हैं।
गोषूक्ति के माध्यम से और अश्वसूक्ति के माध्यम से कण्व के पौत्र ने इन्द्र का अभिनन्दन किया। नोधा नामक
गौतम ऋषि और अङ्ग ऋषि ने इन्द्र का अभिनन्दन किया। अभिनन्दन से प्रसन्न होकर इन्द्र ने कुत्स के साथ
सोमपान किया और कुत्स ने इन्द्र के समान अपने स्वरूप को प्रस्तुत किया ।
महसि च मघवानिन्द्रो महसा परितोषितः प्रददौ।
कुत्साय तत्र तस्मै सोमे सग्धिं स्वसारूप्यम् ॥ इन्द्रविजय पृ. ५२७, का. ४
विजयाभिनन्दन के बाद देवराज इन्द्र स्वर्ग जाने लगे। कुत्स को साथ लेकर इन्द्र स्वर्ग गये । स्वर्ग में भी
विजयाभिनन्दन का समायोजन किया गया। इन्द्र के सत्कार से, सम्मान से और दान से कुत्स सम्मानित किया
गया।
अमरावत्यामिन्द्रः स्वीयं सदनं समासाद्य।
सत्कार-दान-मानैः कुत्सं संभावयामास॥ वही पृ. ५३१, का. १
मुख्य वक्ता चतुर्वेदी जी ने पाँचवें अध्याय में प्रयुक्त संस्कृत छन्दों के नामों का उल्लेख किया और सस्वर उसका
पाठ किया।
डॉ. राजीव लोचन शर्मा, सहायक आचार्य, न्याय विभाग, कुमार भास्कर वर्मा पुरातन अध्ययन विश्वविद्यालय,
असम ने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के पाँचवें अध्याय में इन्द्रविजय का अभिनन्दन के सुअवसर पर
गृत्समद ऋषि और वामदेव ऋषि इन्द्र की प्रशंसा की। इन्द्र अपना चरित्र वामदेव ऋषि को सुनाया। ऋग्वेद के
मन्त्र में इन्द्र का स्वरूप इस प्रकार से वर्णित है। इन्द्र स्वयं कहता है कि मैं मनु हूँ, मैं सूर्य हूँ और मैं बुद्धिमान्
कक्षिवान् ऋषि हूँ। अर्जुन के पुत्र कुत्स हैं। उसका समर्थन मैं करता हूँ। मैं दूरदर्शी उशना कवि नामक ऋषि हूँ।
तुम वामदेव ऋषि मुझ इन्द्र को देखो।
अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवाँ ऋषिरस्मि विप्रः।
अहं भूमिददामार्यायाऽहं वृष्टिं दाशुषे मर्त्याय॥
ऋग्वेद ४.२६.१; इन्द्रविजय पृ. ५११
डॉ. रञ्जन लता, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर ने
कही कि आर्य के प्रमुख कुत्स थे और दस्यु अनार्य कहलाते थे, इन दोनों के बीच में बड़ा युद्ध हुआ। दस्यु कुत्स के
द्वारा पराजित हुए। कुत्स का सहायक इन्द्र थे। जब युद्ध सुसंपन्न हुआ उसके बाद इन्द्र अपने निवास स्थान स्वर्ग
जाने के लिए तैयार हुए। उसी समय कुत्स ने इन्द्र के सम्मान में विजयाभिनन्दन का समायोजन किया। उसी
विजयाभिनन्दन में अनेक ऋषियों ने, अनेक राजाओं ने और अनेक देवाओं ने इन्द्र का अभिनन्द किया ।
दस्यूनां विग्रहादार्याणां च स्वराज्यसंप्राप्तेः।
सुस्थेऽत्र सर्वलोके स्वर्गायेन्द्रः स गन्तुमभ्यैच्छत् ।। वही पृ. ४७५, का. १
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने कहा कि वर्तमान सन्दर्भ में इतिहास की कैसी दृष्टि होनी
चाहिए । आधुनिक इतिहास में हड़प्पा सभ्यता को सबसे प्रसिद्ध इतिहास का स्रोत माना जाता है। भारतीय
पुरातात्त्विकविद् हड़प्पा को ही आधार बनाते हैं। हड़प्पा से पूर्व भारत साहित्य पर आधारित इतिहास
पुरातात्त्विकविद् नहीं मानते हैं। फिर इन्द्रविजय ग्रन्थ में वर्णित इतिहास की क्या सङ्गति हो सकती है।
इन्द्रविजय त्रिलोकी के वर्णन से प्रारम्भ होता है। उस त्रिलोकी का इतिहास के साथ क्या सम्बन्ध हो सकता है।
यह हमलोगों के लिए विचारणीय है। द्युलोक में देवता रहते हैं, पृथ्वीलोक पर मनुष्य रहता है और अन्तरिक्ष में
पक्षी रहते हैं। इन तीनों को इतिहास की दृष्टि से विचार हो सकता है।।
डॉ. कमलराज उपाध्याय, वैदिक आचार्य, श्रीरुक्मिणी वल्लभ वेद वेदाङ्ग संस्कृत महाविद्यालय, बुलन्दनगर ने
सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध
अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के
आचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या