Smarthakundasameekshadhyaya

`Smarthakundasamikshadhyaya has three notes–smartha, kunda and samiksha. Smartha originates from smriti or commemoration. The person who conducts yagya karma according to smriti grantha is smartha. A family man is smartha. Kunda means a pit meant for offering. Samiksha means contemplation. Hence the book which explains the pit of offering from memory is Smarthakundasamikshadhyaya. स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय ‘स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय’ इस  में तीन पद हैं- स्मार्त, कुण्ड और समीक्षा। स्मृति शब्द से स्मार्त शब्द बना है। जो स्मृति ग्रन्थ के अनुसार यज्ञकर्म करता है वह स्मार्त कहलाता है। गृहस्थ व्यक्ति स्मार्त है। उसका यज्ञकर्म स्मृति के अनुसार होता है। कुण्ड का अर्थ यज्ञ संबन्धी कुण्ड। जिस  कुण्ड में यज्ञ किया जाता है।  समीक्षा का अर्थ विचार होता है। स्मृति के अनुसार यज्ञकुण्ड का निरूपण करने वाला ग्रन्थ स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। स्मृति के अन्तर्गत मनुस्मृति, याज्ञवल्य स्मृति आदि ग्रन्थ आते हैं एवं गृह्यसूत्र भी स्मृति की कोटि में है। इस में पाकयज्ञ संबन्धी विषयों को आधार बनाया गया है।                               स्मार्तकुण्डविधिः पाकयज्ञार्थ उपयुज्यते। स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय पृ. १          पण्डित मधुसूदन ओझा ने यज्ञमधुसूदन नामक एक ग्रन्थ का प्रणयन किया है। इस ग्रन्थ  में  तीन अध्याय हैं- प्रतिपत्तिकाण्ड, प्रयोगकाण्ड और प्राचीनपद्धतिकाण्ड। इनमें से प्रथम अध्याय का दूसरा अध्याय स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। इस स्मार्तकुण्डाध्याय में भी तीन भाग हैं- प्रथमभाग में भूमि मापने का विधान है। इसमें अंगुलि से किस प्रकार यज्ञवेदी को नापा जाय। इसका विधान है। भूमि को किस प्रकार समतल किया जाय। दिशाओं को निर्धारण किस उअपकरण से किया जाता है। यज्ञमण्डप साधन में यह विचार किया जाता है कि  किस स्थान पर मण्डप का निर्माण हो। अनेक प्रकार की परीक्षा अर्थात् परीक्षण भी वर्णित हैं- विकारपरीक्षा, प्रवणपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, रूपपरीक्षा, रसपरीक्षा आदि अनेक विषय हैं। दूसरेभाग में दस प्रकार के कुण्डों का स्वरूप निर्धारित किया गया है। कुण्ड के ये नाम हैं- योनिकुण्ड, अर्धचन्द्रकुण्ड, त्रिकोणकुण्ड, वर्तुलकुण्ड, षट्कोणकुण्ड, पद्मकुण्ड, अष्टकोणकुण्ड, पञ्चास्रकुण्ड और सप्तास्रकुण्ड।  तीसरे भाग में कुण्ड के पाँच अंगों पर विचार किया गया है। ये हैं- खात, कण्ठ, नाभि, मेखला और योनि। खात- खोदने की क्रिया को खात कहा जाता है। कुण्ड का  गहराई कितना होना चाहिए। कुण्ड के आकार के अनुरूप ही गहराई की व्यवस्था की जाती है। यदि कुण्ड वृत्त के आकार का है तो तो गहराई वैसा ही होगा। यदि कुण्ड समानरूप से  चारों कोणों के अनुसार है तो गहराई भी वैसा ही होगा।           खननण् खातः, कुण्डगर्तः समचतुरस्रे कुण्डे चतुरस्रो वृत्ते वृत्त इत्येवं कुण्डानुरूपं कार्यः। वही पृ. ९८ कण्ठ- कण्ठ का ही दूसरा नाम ओष्ठ है। खात के बाह्य भाग में  खात और मेखाला के बीच चारो दिशाओं में समानरूप से, कुण्डव्यास के चौबीसवें अंश या बारहवें अंश के बराबर बनाया जाना चाहिए। कण्ठ ओष्ठ इत्येकोऽर्थः । सच खातस्य बहिर्भागे खात-मेखलयोरन्तराले चतुर्दिक्षु परितः समः कुण्डव्यास-चतुर्विंशांशेन द्वादशांशेन कार्यः। वही पृ. १०३ नाभि- कुण्ड के भीतर  दो अंगुली ऊँची, चार अंगुली लम्बी व इतनी ही चौड़ी नाभि बनती है।                             तेनैकहस्ते कुण्डे द्व्यङ्गुलोच्छ्रिता चतुरङ्गुलायामविस्तारा नाभिः संपद्यते। वही पृ. १०५ मेखला- कण्ठ के भी बाहर चारो ओर परिधि की तरह व्याप्त मेखला बनाई जाती है।                            कण्ठतोऽपि बहिर्भागे समन्ततो वृत्तिरूपा मेखला क्रियते। वही पृ. १०६ योनि-कुण्ड के पृष्ठ भाग की मेखला के मध्य भाग में पीपल के पत्ते या हाथी के ओष्ठ की आकृति की योनि बनाई जाती है।                               सा पृष्ठमेखलाया मध्यभागेऽश्वत्थपत्राकृतिर्गजोष्ठाकृतिर्वा क्रियते। वही, पृ. ११३ Read/Download

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Pitrsameeksha

The term pitr means ancestors. Pandit Madhsudan Ojha has written a comprehensive book on the subject of ancestors. The book opens with an explanation of theoretical elements of vedic science. The book then goes to offer an account of pitr or ancestors. According to Rigveda, there are three types of pitr–avar pitr, utparas pitr and madhyam pitr. Of these, avar pitra is the most important. पितृसमीक्षा सामान्यतया हम अपने पिता, पितामह या अधिक से अधिक प्रपितामह का नाम ही जानते हैं, हमारी पितृ-परम्परा में हुए सब पुरुषों का नाम हमें ज्ञात नहीं होता है । यदि हमें अपने एवं हमारे पितरों के स्वरूप को जानना है तो मूल सत्ता के स्वरूप को जानना पड़ेगा तथा ऋषि एवं मनु के स्वरूप को भी जानना पड़ेगा । इस विषय का वेद में विस्तृत प्रतिपादन किया गया है । इन तथ्यों की पूर्ण जानकारी हेतु सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का आजीवन अनुशीलन कर ओझाजी द्वारा ‘पितृसमीक्षा’ ग्रन्थ की रचना की गयी है ।                   उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यास । ऋग्वेद १०.१५.१ (पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३) यहाँ अवर पितर को दिव्य पितर के नाम से, उत्तम पितर को ऋतु पितर के नाम से एवं मध्यम पितर को प्रेतर पितर के नाम से निर्देश किया गया है।                   ते चैते क्रमेण दिव्या ऋतवः प्रेताश्चेति भाव्याः।  (पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३)  पुनः इन तीनों पितरों को अग्नि, यम और सोम के भेद से विवेचन को विस्तार किया गया है।          एषां पुनरेकैके मूलप्रकृतिभेदात् त्रिविधास्त्रिविधा इष्यन्ते, आग्नेयाः याम्याः सौम्याश्चेति। (वही, पृ. १३)                                            दिव्यपितर ७ प्रकार के  दिव्य पितर होते हैं- अग्निष्वात्त-    इनका नाम वैभ्राज है, ये चमकते रहते हैं, दक्षिणा दिशा में रहते हैं, अमूर्त (इनका कोई रूप नहीं होता है) और मध्यम पितर हैं। बर्हिषद्-       इनका नाम सोमपथ अथवा सोमपद है, अमूर्त और मध्यम पितर हैं। सोमसद्-      इनका नाम सनातन अथवा संतानक है, उत्तर दिशा में रहते हैं, अमूर्त और मध्यम पितर हैं। हविर्भुक्-      इनका नाम मारीच है, इन्द्र  प्राण प्रधान होने से क्षत्रियों के पितर हैं। मूर्ति रूप में रहते हैं। उत्तम पितर हैं। आज्यप-       ये तेजस्वी होते हैं, इनमें विश्वेदेव नाम के प्राण की प्राधानता होती है, वैश्य के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं। सोमपा-        ये ज्योति रूप में प्रतीत होने वाले पितर हैं, इनमें अग्नि प्राण प्रधान होता है, ये ब्राह्मणों के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं। सुकाली-       ये मानस पितर हैं, ये शूद्रों के पितर हैं, ये अवर पितर कहे जाते हैं और मूर्ति रूप में रहते हैं।                                                                                  (वही, पृष्ठ ३९)                                              ऋतुपितर जो अग्नि अपने मूल अवस्था से हट कर वायु रूप में परिणत होकर फैलने लगता है वह वायु ऋतु नाम से कहा जाता है।  ऋत रूप अग्नि में ऋतु शब्द का प्रयोग होता है। ऋत रूप अग्नि ही सोम रूप में विभक्त हो कर ऋतु  बन जाता है। योऽग्निः प्रभवात् प्रवृक्तो वायुसञ्चरति तदृतुम्। तारतम्येन सोमान्वयात्-संविभक्त-शरीरेस्मिन् ऋताग्नावृतुशब्दः। ऋताग्नय एअवैते सोमसंविभक्तकाया ऋतवः। (वही, पृ.३९) अग्निष्वात्त-शिशिर ऋतु, बर्हिषद्-हेमन्त ऋतु, सोमसद्-शरत् ऋतु,  हविर्भुक्-वर्षा ऋतु, आज्यप-ग्रीष्म ऋतु और सोमपा-वसन्त ऋतु है। (वही, पृष्ठ ४५ )                                     प्रेतपितर पृथ्वीलोक पर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन  पाँचों की समष्टि से बनने वाली जीवात्मा ही भूतात्मा कहलाता है। जब जीवात्मा शरीर का त्याग कर गन्धर्व प्राण प्रधान शरीर को धारण करता है। गन्धर्वरूप से तेरह मासो में नक्षत्रों लोकों को पार करते हुए चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। यही प्रेतपितर हैं। ये तीन प्रकार के हैं- परपितर, मध्यमपितर और अवरपितर हैं। ये ही क्रमशः नान्दीमुख पितर, पार्वण पितर और प्रेतपितर कहे जाते हैं। मध्यमपितर और अवरपितर की अपेक्षा से परपितर नान्दीमुख पितर कहलाता है। नान्दीमुख का अर्थ प्रसन्नमुख होता है। नान्दीमुख पितर सबसे उच्च स्थान में रहते हैं। ये हमेशा ऊर्ध्वमुख और अमूर्त (बिना आकार के) रहते हैं। ये प्रेतपितर भी सोमसद्, बहिषद् और  अग्निष्वात्त कहलाते हैं। पृथिवीलोकस्था भूतात्मानो देहत्यागादूर्ध्वं गान्धर्वशरीरा नक्षत्रैस्त्रयोदशमासैश्चन्द्रमसं गच्छन्ति। तेऽमी प्रेताः पितरस्त्रेधा निष्पद्यन्ते-परा मध्यमा अवराश्च। ते एव नान्दीमुखाः पार्वणाः प्रेताश्च। मध्यमावराणाम् अश्रुमुखत्वाद् अपेक्षया परेषां नान्दीमुखत्वम्। नान्दीमुखाः प्रसन्नमुखाः। ते चैते सर्वस्माद् अस्माद् उपरिष्टाद् वर्तन्ते। ऊर्ध्वमुखा अमूर्ताश्च। ते त्रिविधाः सोमसदः बर्हिषदः अग्निष्वात्ताश्च। (वही, पृ. ४८) इस प्रकार  पार्वणपितर, प्रेतपितृविज्ञान, गोत्रसन्तान, सपिण्डीकरण, श्राद्ध और गया पिण्डदान आदि विषय समाहित किये गये हैं।Read/Download                                    

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Varnasameeksha

Varnasamiksha is an important volume on linguistics. An integral part of this science of language is phonology. The volume presents a comprehensive view of phonology. Languages is studied through sentences. Every sentence is made up of alphabets. Another term for alphabet or varna is akshara. The volume is divided into two parts–Varnasamiksha and Gunasamiksha. The sanskrit term for Varnasamiksha is Pathyasvasti. वर्णसमीक्षा वर्णसमीक्षा भाषाविज्ञान का ग्रन्थ है। भाषाविज्ञान का एक अंग ध्वनिविज्ञान है। ध्वनिविज्ञान का यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी  है। भाषा का अध्ययन वाक्य के माध्यम से होता है। सबसे बड़ा वाक्य होता है। उस वाक्य में अनेक पद होते हैं और पदों में वर्ण होता है। ‘राम घर जाता है’ यह एक वाक्य है। इस में राम और घर पद है तथा ‘र् आ म् अ’ ये वर्ण हैं। वर्ण का ही दूसरा नाम अक्षर है। वर्ण की समीक्षा अर्थात् वर्ण के  सभी विषयों का यहाँ निरूपण किया गया है। पं. ओझा जी ने धर्म को प्रधान माना है। धर्म से ही मनुष्य उच्चता को प्राप्त करता है। धर्म का अर्थ क्रिया से है। कोई नियमित अध्ययन करता है, कोई नियम पूर्वक किसी की सेवा करता है, कोई नियमित व्यापार करता है और कोई  जीवन के लिए एक निश्चित कर्म को नियमित रूप से करता है। यही धर्म है। इसी से मानव को उन्नति मिलती है। इस सत्कर्म का ज्ञान वेद, पुराण आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। ग्रन्थ में वाक्य, वाक्य में पद और पद में वर्ण होते हैं-                  धर्मादभ्युदयः सदाऽभ्युदयते धर्मश्च साहित्यतो                           विज्ञाप्योऽप्यविनाकृतं तदपि वा वाक्यैश्च वाक्यं पुनः ।                  संपद्येत पदैः पदं पुनरिदं वर्णाहितं वर्ण्यते                           तस्माद्वर्णनिरूपणं प्रथमतः कर्तुं समुद्यम्यते ॥ वर्णसमीक्षा पृ. १ इस ग्रन्थ में दो भाग हैं प्रथम भाग का नाम वर्णसमीक्षा है। जिसमें में मातृका, विवृति, स्वरभक्ति, यम आदि विषय हैं। दूसरे भाग का नाम गुणसमीक्षा है। जिसमें वाग् विज्ञान, वाक की उत्पत्ति, स्वरसमीक्षा हैं। मातृका- वर्ण अथवा अक्षर का ही नाम मातृका है। ये पाँच हैं- ब्रह्ममातृका, अक्षमातृका सिद्धमातृका, भूतमातृका। जिसमें स्वर और व्यञ्जनों का स्पष्ट भेद विद्यमान रहता है वह ब्रह्म आदि चार मतृकाएँ  हैं। जिस में स्वर और व्यञ्जनों का भेद स्पष्ट नहीं है वह अनार्यमातृका है।           इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वर्णों की संख्या पर विचार किया गया है। २१ स्वरवर्ण है और ४२ व्यञ्जन वर्ण हैं। इन दोनों के योग से ६३ वर्ण होते हैं।                      अत्रादितः एकविंशतिः स्वराः, ततो द्विगुणानि व्यञ्जनानि । वर्ण समीक्षा पृ. २ किसी किसी आचार्यों के विचार में ६४ वर्ण हैं ।  आचार्य कात्यायन के अनुसार इसकी संख्या ६५ है। किसी किसी के विचार में ७९ वर्ण हो जाते हैं। ७९ की संख्या को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है। २२ स्वर, २५ स्पर्श, यकार- शकार ८  यम २०, और ४ अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय ।                      एकोनाशीतिवर्णास्तु प्रोक्ताश्चात्र स्वयम्भुवा ।                  स्वराः द्वाविंशतिश्चैव स्पर्शानां पञ्चविंशतिः ।                  यादयः शादयश्चाष्टौ यमा विंशतिरेव च ।                  अनुस्वारो विसर्गश्च कपौ चापि पराश्रयौ ॥ वर्णसमीक्षा पृ. ३-४ वर्णसमीक्षा का वैदिक नाम पथ्यास्वस्ति है।  पं. ओझा जी ने वैदिक वर्णों का विश्लेषण पथ्यास्वस्ति नामक ग्रन्थों में किया है। व्याकरणविनोद नामक ग्रन्थ व्याकरण संबन्धी विषयों को सरलता से प्रतिपादन करते हुए वैदिक विज्ञान की दृष्टि से निरूपण किया है।     Read/Download

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Brahmasiddhanta with 2 Hindi translations and 1 with Sanskrit commentary

This volume deals with the establishment of brahmavad by Brahma, practical aspects of Brahma, practical aspects of Maya and the outcome of the interaction between Brahma and Maya.  The first book listed here is the Hindi translation of Ojhaji’s book by Devidut Pandit Chaturvedi and the second one contains a commentary on the subject by Giridhar Sharma Chaturvedi in Sanskrit.      ब्रह्मासिद्धान्त यह खंड ब्रह्मा द्वारा ब्रह्मवाद की स्थापना, ब्रह्मा के व्यावहारिक पहलुओं, माया के व्यावहारिक पहलुओं और ब्रह्मा और माया के बीच संपर्क के परिणाम से संबंधित है । यहां सूचीबद्ध पहली पुस्तक देवीदत्त पंडित चतुर्वेदी द्वारा ओझा जी की पुस्तक का हिंदी अनुवाद है और दूसरी में संस्कृत में गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी द्वारा इस विषय पर एक टिप्पणी है । Read/download Read/download—Brahmasiddhanta with Sanskrit tika Read/download—Brahmasiddhanta with Hindi translation

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Aadhidaivikadyaya

In this work, Pandit Madhusudan Ojha has unraveled the true meaning of terms like `devata` (deity), `pitr` (paternal ancestors) and `rishi` (sage) as given in the Vedas. These Vedic definitions had been lost for several generations before Ojhaji decided to study the Vedas and unearth them and find their meanings in the process. आधिदैविकाध्यायःयह ग्रन्थ देवताधिकार, पितृनिरूपणाधिकार, ऋषिसामान्याधिकार, सृष्टिप्रवर्तकाधिकार, वेदर्षिरहस्याधिकार, वेदप्रवर्तकऋष्यधिकार, आयुर्दायचिन्ताधिकार, व्यक्तिबहुत्वाधिकार एवं गोत्रप्रवर्तकाधिकार नामक कुल नौ अधिकारों में विभक्त है । इस ग्रन्थ के माध्यम से वेदों में प्रयुक्त देवता, पितृ, ऋषि आदि शब्दों के वेदसम्मत वास्तविक रहस्य को बतलाने का प्रयत्न किया गया है जो रहस्य सहस्राब्दियों से वैदिक परिभाषा ग्रंथो के नष्ट हो जाने से लुप्तप्राय हो गया था । Read/download

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Devatanivit

This is an important work on the subject of devatas under the category of yajna. The book, like others in the series, help understand the meaning of Vedic terminology. देवतानिवित्यह ओझाजी के यज्ञविज्ञान नामक ग्रन्थविभाग के अन्तर्गत लिखा गया एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में देवता सम्बन्धी एक सौ विषयों की परिभाषाएँ पृथक्-पृथक् निर्दिष्ट हैं । Read/download

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Panchabhootasameeksha

Earth, water, air, sky and fire are considered as five elements of life But are they the basic elements? This was the theme of a discussion organised at the Banaras Hindu University in 1935. Here, various scholars presented their divergent views on the subject. Ojhaji was one of the speakers at the meeting and this is the collection of his views on the subject. Such compelling was his argument that these indeed were the basic elements of life that the conference readily accepted the proposition. पञ्चभूतसमीक्षापृथिवी, जल, तेज, वायु एवं आकाश इन पंचमहाभूतों को भारतीय पाँच तत्त्व मानते हैं परन्तु ये मौलिक तत्त्व हैं या नहीं इसको लेकर १९३५ ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक पञ्चमहाभूत परिषद् बुलायी गयी थी, जहाँ इसके तत्त्वविषयक पक्ष एवं विपक्ष की बात को सुनकर ओझाजी द्वारा अपना विचार प्रकट किया गया था, यह उसी पञ्चमहाभूत विषयक विचारों का संकलन है । वहाँ ओझाजी द्वारा पञ्चमहाभूतों के तत्त्वविषयक पक्ष में सुदृढ तर्क प्रस्तुत किया गया जिससे उस परिषद् में पञ्चमहाभूत सिद्धान्त को सुस्थिर मान लिया गया । Read/download

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Sandhyapasanarahasyam

This volume explains the daily ritual of sandhyopasana or evening prayer. What is the importance of the evening prayer? What are the reasons for carrying out rituals like ardhyapradhan, suryopasthapan, pranayam? What is the spiritual basis for these rituals? Ojhaji has explained these and many other questions related to the evening prayer in a scientific manner. सन्ध्योपासनरहस्यम् यह ग्रन्थ नित्य कर्म के रूप में प्रसिद्ध सन्ध्योपासना के रहस्य का उद्घाटक है । इस ग्रन्थ में सन्ध्योपासना क्यों करनी चाहिये? सन्ध्योपासना के उपकरणभूत आचमन, अर्घ्यप्रदान, सूर्योपस्थापन, प्राणायाम, अघमर्षण आचमन आदि क्यों किये जाते हैं तथा इनसे किन आध्यात्मिक तत्त्वों का पोषण होता है? सावित्री को गायत्री क्यों कहा जाता है? सन्ध्योपासना सन्ध्याकाल में ही क्यों किया जाता है? आदि विषयों का मार्मिक व वैज्ञानिक विश्लेषण श्रुतिमूलक उपपत्तियों के आधार पर किया गया है । Read/download

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Svargasandesha

This is a concise work on svarga or heaven. Ojhaji has dealt with various classifications of svarga, like bhaumasvarga, pitrasvarga and devasvarga and has underlined their meaning and difference on the basis of different shastras. स्वर्गसन्देशःयह स्वर्ग पर एक संक्षिप्त काम है । ओझा जी ने स्वर्ग के विभिन्न वर्गीकरणों, जैसे भौमा स्वर्ग, पितृवर्ग और देववर्ग और विभिन्न शास्त्रों के आधार पर उनके अर्थ और अंतर को रेखांकित किया है । Read/download

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Vaigyanikopakhyan aur Vaidikopakhyan

This volume contains several anecdotal historical accounts. The work is divided into two sections. The Vaigyanikopakhyan deals with the story of Prajapati Kashyapa’s wives, Katu and Vinta, and their offsprings.  In Vaidikopakhyan, saplagni vak, agniduthopakhyan, apatyopakhyan and devayajnopakhyan are examined. वैज्ञानिकोपाख्यानम् एवं वैदिकोपाख्यानम्इस ग्नन्थ में विविध उपाख्यानों का संकलन किया गया है । यह ग्रन्थ वैज्ञानिकोपाख्यान एवं वैदिकोपाख्यान नामक दो प्रमुख उपाख्यानों में विभाजित है जिनके अन्तर्गत अनेक उपाख्यान सम्मिलित हैं । वैज्ञानिकोपाख्यान के अन्तर्गत प्रजापति कश्यप की पत्नी कद्रू एवं विनता से उत्पन्न पुत्रों के उपाख्यानों यथा सौपर्णोपाख्यान, अनन्तोपाख्यान, हयग्रीवोपाख्यान आदि पौराणिक उपाख्यानों का जबकि वैदिकोपाख्यान के अन्तर्गत असुरघ्नी सपत्नघ्नी वाक्, अग्निदूतोपाख्यान, आप्त्योपाख्यान, देवयजनोपाख्यान आदि वैदिक उपाख्यानों का संकलन है । Read/download

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