The term pitr
means ancestors. Pandit Madhsudan Ojha has written a comprehensive book on the subject of ancestors. The book opens with an explanation of theoretical elements of vedic science. The book then goes to offer an account of pitr or ancestors. According to Rigveda, there are three types of pitr–avar pitr, utparas pitr and madhyam pitr. Of these, avar pitra is the most important.
पितृसमीक्षा
सामान्यतया हम अपने पिता, पितामह या अधिक से अधिक प्रपितामह का नाम ही जानते हैं, हमारी पितृ-परम्परा में हुए सब पुरुषों का नाम हमें ज्ञात नहीं होता है । यदि हमें अपने एवं हमारे पितरों के स्वरूप को जानना है तो मूल सत्ता के स्वरूप को जानना पड़ेगा तथा ऋषि एवं मनु के स्वरूप को भी जानना पड़ेगा । इस विषय का वेद में विस्तृत प्रतिपादन किया गया है । इन तथ्यों की पूर्ण जानकारी हेतु सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का आजीवन अनुशीलन कर ओझाजी द्वारा ‘पितृसमीक्षा’ ग्रन्थ की रचना की गयी है ।
उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यास । ऋग्वेद १०.१५.१
(पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३)
यहाँ अवर पितर को दिव्य पितर के नाम से, उत्तम पितर को ऋतु पितर के नाम से एवं मध्यम पितर को प्रेतर पितर के नाम से निर्देश किया गया है।
ते चैते क्रमेण दिव्या ऋतवः प्रेताश्चेति भाव्याः। (पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३)
पुनः इन तीनों पितरों को अग्नि, यम और सोम के भेद से विवेचन को विस्तार किया गया है।
एषां पुनरेकैके मूलप्रकृतिभेदात् त्रिविधास्त्रिविधा इष्यन्ते, आग्नेयाः याम्याः सौम्याश्चेति। (वही, पृ. १३)
दिव्यपितर
७ प्रकार के दिव्य पितर होते हैं-
अग्निष्वात्त- इनका नाम वैभ्राज है, ये चमकते रहते हैं, दक्षिणा दिशा में रहते हैं, अमूर्त (इनका कोई रूप नहीं होता है) और मध्यम पितर हैं।
बर्हिषद्- इनका नाम सोमपथ अथवा सोमपद है, अमूर्त और मध्यम पितर हैं।
सोमसद्- इनका नाम सनातन अथवा संतानक है, उत्तर दिशा में रहते हैं, अमूर्त और मध्यम पितर हैं।
हविर्भुक्- इनका नाम मारीच है, इन्द्र प्राण प्रधान होने से क्षत्रियों के पितर हैं। मूर्ति रूप में रहते हैं। उत्तम पितर हैं।
आज्यप- ये तेजस्वी होते हैं, इनमें विश्वेदेव नाम के प्राण की प्राधानता होती है, वैश्य के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं।
सोमपा- ये ज्योति रूप में प्रतीत होने वाले पितर हैं, इनमें अग्नि प्राण प्रधान होता है, ये ब्राह्मणों के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं।
सुकाली- ये मानस पितर हैं, ये शूद्रों के पितर हैं, ये अवर पितर कहे जाते हैं और मूर्ति रूप में रहते हैं।
(वही, पृष्ठ ३९)
ऋतुपितर
जो अग्नि अपने मूल अवस्था से हट कर वायु रूप में परिणत होकर फैलने लगता है वह वायु ऋतु नाम से कहा जाता है। ऋत रूप अग्नि में ऋतु शब्द का प्रयोग होता है। ऋत रूप अग्नि ही सोम रूप में विभक्त हो कर ऋतु बन जाता है।
योऽग्निः प्रभवात् प्रवृक्तो वायुसञ्चरति तदृतुम्। तारतम्येन सोमान्वयात्-संविभक्त-शरीरेस्मिन् ऋताग्नावृतुशब्दः। ऋताग्नय एअवैते सोमसंविभक्तकाया ऋतवः। (वही, पृ.३९)
अग्निष्वात्त-शिशिर ऋतु, बर्हिषद्-हेमन्त ऋतु, सोमसद्-शरत् ऋतु, हविर्भुक्-वर्षा ऋतु, आज्यप-ग्रीष्म ऋतु और सोमपा-वसन्त ऋतु है। (वही, पृष्ठ ४५ )
प्रेतपितर
पृथ्वीलोक पर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँचों की समष्टि से बनने वाली जीवात्मा ही भूतात्मा कहलाता है। जब जीवात्मा शरीर का त्याग कर गन्धर्व प्राण प्रधान शरीर को धारण करता है। गन्धर्वरूप से तेरह मासो में नक्षत्रों लोकों को पार करते हुए चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। यही प्रेतपितर हैं। ये तीन प्रकार के हैं- परपितर, मध्यमपितर और अवरपितर हैं। ये ही क्रमशः नान्दीमुख पितर, पार्वण पितर और प्रेतपितर कहे जाते हैं। मध्यमपितर और अवरपितर की अपेक्षा से परपितर नान्दीमुख पितर कहलाता है। नान्दीमुख का अर्थ प्रसन्नमुख होता है। नान्दीमुख पितर सबसे उच्च स्थान में रहते हैं। ये हमेशा ऊर्ध्वमुख और अमूर्त (बिना आकार के) रहते हैं। ये प्रेतपितर भी सोमसद्, बहिषद् और अग्निष्वात्त कहलाते हैं।
पृथिवीलोकस्था भूतात्मानो देहत्यागादूर्ध्वं गान्धर्वशरीरा नक्षत्रैस्त्रयोदशमासैश्चन्द्रमसं गच्छन्ति। तेऽमी प्रेताः पितरस्त्रेधा निष्पद्यन्ते-परा मध्यमा अवराश्च। ते एव नान्दीमुखाः पार्वणाः प्रेताश्च। मध्यमावराणाम् अश्रुमुखत्वाद् अपेक्षया परेषां नान्दीमुखत्वम्। नान्दीमुखाः प्रसन्नमुखाः। ते चैते सर्वस्माद् अस्माद् उपरिष्टाद् वर्तन्ते। ऊर्ध्वमुखा अमूर्ताश्च। ते त्रिविधाः सोमसदः बर्हिषदः अग्निष्वात्ताश्च। (वही, पृ. ४८)
इस प्रकार पार्वणपितर, प्रेतपितृविज्ञान, गोत्रसन्तान, सपिण्डीकरण, श्राद्ध और गया पिण्डदान आदि विषय समाहित किये गये हैं।
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