Varnasamiksha is an important volume on linguistics. An integral part of this science of language is phonology. The volume presents a comprehensive view of phonology. Languages is studied through sentences. Every sentence is made up of alphabets. Another term for alphabet or varna is akshara. The volume is divided into two parts–Varnasamiksha and Gunasamiksha. The sanskrit term for Varnasamiksha is Pathyasvasti.
वर्णसमीक्षा
वर्णसमीक्षा भाषाविज्ञान का ग्रन्थ है। भाषाविज्ञान का एक अंग ध्वनिविज्ञान है। ध्वनिविज्ञान का यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी है। भाषा का अध्ययन वाक्य के माध्यम से होता है। सबसे बड़ा वाक्य होता है। उस वाक्य में अनेक पद होते हैं और पदों में वर्ण होता है। ‘राम घर जाता है’ यह एक वाक्य है। इस में राम और घर पद है तथा ‘र् आ म् अ’ ये वर्ण हैं। वर्ण का ही दूसरा नाम अक्षर है। वर्ण की समीक्षा अर्थात् वर्ण के सभी विषयों का यहाँ निरूपण किया गया है। पं. ओझा जी ने धर्म को प्रधान माना है। धर्म से ही मनुष्य उच्चता को प्राप्त करता है। धर्म का अर्थ क्रिया से है। कोई नियमित अध्ययन करता है, कोई नियम पूर्वक किसी की सेवा करता है, कोई नियमित व्यापार करता है और कोई जीवन के लिए एक निश्चित कर्म को नियमित रूप से करता है। यही धर्म है। इसी से मानव को उन्नति मिलती है। इस सत्कर्म का ज्ञान वेद, पुराण आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। ग्रन्थ में वाक्य, वाक्य में पद और पद में वर्ण होते हैं-
धर्मादभ्युदयः सदाऽभ्युदयते धर्मश्च साहित्यतो
विज्ञाप्योऽप्यविनाकृतं तदपि वा वाक्यैश्च वाक्यं पुनः ।
संपद्येत पदैः पदं पुनरिदं वर्णाहितं वर्ण्यते
तस्माद्वर्णनिरूपणं प्रथमतः कर्तुं समुद्यम्यते ॥ वर्णसमीक्षा पृ. १
इस ग्रन्थ में दो भाग हैं प्रथम भाग का नाम वर्णसमीक्षा है। जिसमें में मातृका, विवृति, स्वरभक्ति, यम आदि विषय हैं। दूसरे भाग का नाम गुणसमीक्षा है। जिसमें वाग् विज्ञान, वाक की उत्पत्ति, स्वरसमीक्षा हैं।
मातृका- वर्ण अथवा अक्षर का ही नाम मातृका है। ये पाँच हैं- ब्रह्ममातृका, अक्षमातृका सिद्धमातृका, भूतमातृका। जिसमें स्वर और व्यञ्जनों का स्पष्ट भेद विद्यमान रहता है वह ब्रह्म आदि चार मतृकाएँ हैं। जिस में स्वर और व्यञ्जनों का भेद स्पष्ट नहीं है वह अनार्यमातृका है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वर्णों की संख्या पर विचार किया गया है। २१ स्वरवर्ण है और ४२ व्यञ्जन वर्ण हैं। इन दोनों के योग से ६३ वर्ण होते हैं।
अत्रादितः एकविंशतिः स्वराः, ततो द्विगुणानि व्यञ्जनानि । वर्ण समीक्षा पृ. २
किसी किसी आचार्यों के विचार में ६४ वर्ण हैं । आचार्य कात्यायन के अनुसार इसकी संख्या ६५ है। किसी किसी के विचार में ७९ वर्ण हो जाते हैं। ७९ की संख्या को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है।
२२ स्वर, २५ स्पर्श, यकार- शकार ८ यम २०, और ४ अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय ।
एकोनाशीतिवर्णास्तु प्रोक्ताश्चात्र स्वयम्भुवा ।
स्वराः द्वाविंशतिश्चैव स्पर्शानां पञ्चविंशतिः ।
यादयः शादयश्चाष्टौ यमा विंशतिरेव च ।
अनुस्वारो विसर्गश्च कपौ चापि पराश्रयौ ॥ वर्णसमीक्षा पृ. ३-४
वर्णसमीक्षा का वैदिक नाम पथ्यास्वस्ति है। पं. ओझा जी ने वैदिक वर्णों का विश्लेषण पथ्यास्वस्ति नामक ग्रन्थों में किया है। व्याकरणविनोद नामक ग्रन्थ व्याकरण संबन्धी विषयों को सरलता से प्रतिपादन करते हुए वैदिक विज्ञान की दृष्टि से निरूपण किया है।