राष्ट्रीय संगोष्ठी- कादम्बिनी : विकाराध्याय विमर्श (शृंखला-०५)
प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३१ मई, शनिवार को सायंकाल ५- ७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत कादम्बिनी नामकग्रन्थ के निमित्ताध्याय के अन्तर्गत वैकारिकाध्याय है। इस वैकारिकाध्याय में मुख्यरूप से खपुरम्, अभ्रतरु,परिघ, निर्घात करका और हिम ये छः विषय आते हैं। खपुरं शाखि परिघौ निर्घातः करका हिमम् ।वैकारिका इमे भावा जीमूतादि-प्रभेदजाः ॥ कादम्बिनी पृ. १५०, का. १०७इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में कादम्बिनी ग्रन्थ से १०७ से १४५ तक की कारिकाएँ पर विमर्श किया गया। इनकारिकाओं में निबद्ध विषयों को आधार बना कर आमन्त्रित विद्वानों ने अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया ।प्रो. मदन मोहन पाठक, वरिष्ठ आचार्य एवं अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, लखनऊपरिसर ने मुख्य वक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि खपुर का अर्थ आकाश में नगरदिखाई देना है। मेघ में नगर जैसा एक चिह्न बनता है। ख का अर्थ आकाश होता है और पुर का अर्थ नगर होताहै। आकाश में नगर जैसा अनेक रंग और आकृति वाला तथा पताका, ध्वजा और तोरण से युक्त जो गन्धर्व नगरदिखाई देता है. वह खपुर कहलाता है। अनेकवर्णाकृतिकं पताका-ध्वज-तोरणैः ।युक्तं गन्धर्व-नगरं पुरवत् खे प्रकाशते ॥ वही, पृ. १५०, का. १०८ ‘अभ्रतरु’ का अर्थ मेघ में वृक्ष जैसा चिह्न दिखाई देना। अभ्र का अर्थ मेघ और तरु का अर्थ वृक्ष होता है।, अभ्रतरुको शाखी नाम दिया है। जिसकी शाखा होती है वह शाखी कहालाता है। आकाश में वृक्ष के आकार के मेघों केलिए शाखी, खशाखी, खतरु और अग्रतरु आदि शब्दों के प्रयोग होते हैं।शाखी खशाखी खतरुरभ्रतर्वादयोऽपि च ।दिवि द्रु-विटपाकारे मेघे शब्दा उदाहृताः ॥ वही पृ. १५१, का. १११ डॉ. सुभाष चन्द्र मिश्र, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर, नेअपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि करका का अर्थ ओला होता है। जिसे पत्थर भी कहते हैं। इस करका केअनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख ग्रन्थ में किया गया है। धाराङ्कुर, राधरङ्कु, वर्षोपल, घनोपल, मेघोपल,मेघास्थि, मटची, पुञ्जिका, बीजोदक, घनकफ, वार्चर और करका ये करका के नाम हैं। अधिक ओले गिरने सेवृष्टि नहीं होती है। धाराङ्कुरो राधरङ्कुवर्षोपलघनोपलाः।मेघोपलश्च मेघास्थि मटची पुञ्जिकापि वा ॥बीजोदकं घनकफो वार्चरः करकापि च ।भूयसा करकापाते दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥ वही, पृ. १५१, का.११७ डॉ. ब्रजेश पाठक, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी परिसर नेकहा कि निमित्ताध्याय के अन्तर्गत विकाराध्याय आता है और उस विकाराध्याय के अन्तर्गत रविकराध्याय है।सन्ध्या, कुण्डल, इन्द्रधनुष, दण्ड, त्रिशूल, मत्स्य और अमोघ ये सात विकार सूर्य के किरणों से उत्पन्न होते हैं। सन्ध्या च कुण्डलं शक्रायुधं दण्डस्त्रिशूलकम् ।मत्स्योऽमोघश्च सप्तैते विकारा रवि-रश्मिजाः॥ वही, पृ. १५४, का. १२६ दिन और रात्रि की सन्धि का नाम सन्ध्या है। दो अथवा तीन नाड़ीमात्र के समय को सन्ध्या कहते हैं। जब तकआकाश में ताराओं के दर्शन होते रहते हैं उतने काल को सन्ध्या कहते हैं।सन्ध्या भवत्यहोरात्रसन्धिस्था नाडिकाद्वयी ।नाडीत्रयी वा यावद्वा ज्योतिषां दर्शनं भवेत् ॥ वही, पृ. १५४, का. १२७ डॉ. नवीन तिवारी, सहायक आचार्य, ज्योतिष विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, रणवीर परिसर ने वक्ताके रूप में विषय को उद्घाटित करते हुए कहा कि वृष्टिविचार में सन्ध्या एक व्यापक विचार है। सन्ध्या के समयआकाश में उत्तर दिशा में यदि पर्वतपंक्ति दिखाई देता है तो उस क्षेत्र में तीसरे दिन वृष्टि होगी । उत्तरे यदि सन्ध्यायां दृश्यते गिरिमालिका ।तृतीये दिवसे तर्हि तत्र वृष्टिर्भविष्यति॥ वही, पृ. १५५, का. १३७ सन्ध्या के समय वायव्य कोण में पर्वतपंक्ति दिखाई देने से रातदिन वर्षा होती है। पश्चिम दिशा में पर्वतपंक्तिदिखाई देने पर सात दिन तक अथवा तीन दिन तक वर्षा होती रहती है।वायव्ये तादृशैर्मेघैर्वात-वृष्टिरहर्निशम् ।सप्ताहं वा त्र्यहं वृष्टिः पश्चिमे गिरिमालया ॥ वही, पृ. १५५, का. १२८ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि आज का विषय अत्यन्त ही महत्त्वपूर्णथा। क्योंकि यह विषय समसामयिक है। अग्नि, वायु, सूर्य और सोम ये सभी वृष्टि में कारण हैं। इन चार तत्त्वों केद्वारा ही जल आकाश में जाता है, ठहरता है, और आकाश के स्थान से गिरता हुआ बरसता है। सोम तत्त्वआर्द्रभाव है। यह अग्नि के द्वारा ऊपर की ओर जाता है। सूर्य वृष्टि के स्वामी वायु के द्वारा वर्षा करता है। यहप्रक्रिया सर्वथा वैज्ञानिक है। आज के मौसमवैज्ञानिक भी वायु के आधार पर ही वृष्टि का अनुमान करता है। अग्निं वायुं रविं सोमं मन्महे सम्भवत्यपाम् ।उत्थानं प्रत्युपस्थानं घर्षणं वर्षणं यतः॥ वही, पृ. १, का. ७ डॉ. रजनीश कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य, वेदविभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर नेसस्वर वैदिक मङ्गलाचरण किया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोधअधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल केआचार्य, शोधछात्र, संस्कृत विद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफलबनाया।