Smarthakundasameekshadhyaya

`Smarthakundasamikshadhyaya has three notes–smartha, kunda and samiksha. Smartha originates from smriti or commemoration. The person who conducts yagya karma according to smriti grantha is smartha. A family man is smartha. Kunda means a pit meant for offering. Samiksha means contemplation. Hence the book which explains the pit of offering from memory is Smarthakundasamikshadhyaya. स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय ‘स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय’ इस  में तीन पद हैं- स्मार्त, कुण्ड और समीक्षा। स्मृति शब्द से स्मार्त शब्द बना है। जो स्मृति ग्रन्थ के अनुसार यज्ञकर्म करता है वह स्मार्त कहलाता है। गृहस्थ व्यक्ति स्मार्त है। उसका यज्ञकर्म स्मृति के अनुसार होता है। कुण्ड का अर्थ यज्ञ संबन्धी कुण्ड। जिस  कुण्ड में यज्ञ किया जाता है।  समीक्षा का अर्थ विचार होता है। स्मृति के अनुसार यज्ञकुण्ड का निरूपण करने वाला ग्रन्थ स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। स्मृति के अन्तर्गत मनुस्मृति, याज्ञवल्य स्मृति आदि ग्रन्थ आते हैं एवं गृह्यसूत्र भी स्मृति की कोटि में है। इस में पाकयज्ञ संबन्धी विषयों को आधार बनाया गया है।                               स्मार्तकुण्डविधिः पाकयज्ञार्थ उपयुज्यते। स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय पृ. १          पण्डित मधुसूदन ओझा ने यज्ञमधुसूदन नामक एक ग्रन्थ का प्रणयन किया है। इस ग्रन्थ  में  तीन अध्याय हैं- प्रतिपत्तिकाण्ड, प्रयोगकाण्ड और प्राचीनपद्धतिकाण्ड। इनमें से प्रथम अध्याय का दूसरा अध्याय स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। इस स्मार्तकुण्डाध्याय में भी तीन भाग हैं- प्रथमभाग में भूमि मापने का विधान है। इसमें अंगुलि से किस प्रकार यज्ञवेदी को नापा जाय। इसका विधान है। भूमि को किस प्रकार समतल किया जाय। दिशाओं को निर्धारण किस उअपकरण से किया जाता है। यज्ञमण्डप साधन में यह विचार किया जाता है कि  किस स्थान पर मण्डप का निर्माण हो। अनेक प्रकार की परीक्षा अर्थात् परीक्षण भी वर्णित हैं- विकारपरीक्षा, प्रवणपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, रूपपरीक्षा, रसपरीक्षा आदि अनेक विषय हैं। दूसरेभाग में दस प्रकार के कुण्डों का स्वरूप निर्धारित किया गया है। कुण्ड के ये नाम हैं- योनिकुण्ड, अर्धचन्द्रकुण्ड, त्रिकोणकुण्ड, वर्तुलकुण्ड, षट्कोणकुण्ड, पद्मकुण्ड, अष्टकोणकुण्ड, पञ्चास्रकुण्ड और सप्तास्रकुण्ड।  तीसरे भाग में कुण्ड के पाँच अंगों पर विचार किया गया है। ये हैं- खात, कण्ठ, नाभि, मेखला और योनि। खात- खोदने की क्रिया को खात कहा जाता है। कुण्ड का  गहराई कितना होना चाहिए। कुण्ड के आकार के अनुरूप ही गहराई की व्यवस्था की जाती है। यदि कुण्ड वृत्त के आकार का है तो तो गहराई वैसा ही होगा। यदि कुण्ड समानरूप से  चारों कोणों के अनुसार है तो गहराई भी वैसा ही होगा।           खननण् खातः, कुण्डगर्तः समचतुरस्रे कुण्डे चतुरस्रो वृत्ते वृत्त इत्येवं कुण्डानुरूपं कार्यः। वही पृ. ९८ कण्ठ- कण्ठ का ही दूसरा नाम ओष्ठ है। खात के बाह्य भाग में  खात और मेखाला के बीच चारो दिशाओं में समानरूप से, कुण्डव्यास के चौबीसवें अंश या बारहवें अंश के बराबर बनाया जाना चाहिए। कण्ठ ओष्ठ इत्येकोऽर्थः । सच खातस्य बहिर्भागे खात-मेखलयोरन्तराले चतुर्दिक्षु परितः समः कुण्डव्यास-चतुर्विंशांशेन द्वादशांशेन कार्यः। वही पृ. १०३ नाभि- कुण्ड के भीतर  दो अंगुली ऊँची, चार अंगुली लम्बी व इतनी ही चौड़ी नाभि बनती है।                             तेनैकहस्ते कुण्डे द्व्यङ्गुलोच्छ्रिता चतुरङ्गुलायामविस्तारा नाभिः संपद्यते। वही पृ. १०५ मेखला- कण्ठ के भी बाहर चारो ओर परिधि की तरह व्याप्त मेखला बनाई जाती है।                            कण्ठतोऽपि बहिर्भागे समन्ततो वृत्तिरूपा मेखला क्रियते। वही पृ. १०६ योनि-कुण्ड के पृष्ठ भाग की मेखला के मध्य भाग में पीपल के पत्ते या हाथी के ओष्ठ की आकृति की योनि बनाई जाती है।                               सा पृष्ठमेखलाया मध्यभागेऽश्वत्थपत्राकृतिर्गजोष्ठाकृतिर्वा क्रियते। वही, पृ. ११३ Read/Download

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Pitrsameeksha

The term pitr means ancestors. Pandit Madhsudan Ojha has written a comprehensive book on the subject of ancestors. The book opens with an explanation of theoretical elements of vedic science. The book then goes to offer an account of pitr or ancestors. According to Rigveda, there are three types of pitr–avar pitr, utparas pitr and madhyam pitr. Of these, avar pitra is the most important. पितृसमीक्षा सामान्यतया हम अपने पिता, पितामह या अधिक से अधिक प्रपितामह का नाम ही जानते हैं, हमारी पितृ-परम्परा में हुए सब पुरुषों का नाम हमें ज्ञात नहीं होता है । यदि हमें अपने एवं हमारे पितरों के स्वरूप को जानना है तो मूल सत्ता के स्वरूप को जानना पड़ेगा तथा ऋषि एवं मनु के स्वरूप को भी जानना पड़ेगा । इस विषय का वेद में विस्तृत प्रतिपादन किया गया है । इन तथ्यों की पूर्ण जानकारी हेतु सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का आजीवन अनुशीलन कर ओझाजी द्वारा ‘पितृसमीक्षा’ ग्रन्थ की रचना की गयी है ।                   उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यास । ऋग्वेद १०.१५.१ (पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३) यहाँ अवर पितर को दिव्य पितर के नाम से, उत्तम पितर को ऋतु पितर के नाम से एवं मध्यम पितर को प्रेतर पितर के नाम से निर्देश किया गया है।                   ते चैते क्रमेण दिव्या ऋतवः प्रेताश्चेति भाव्याः।  (पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३)  पुनः इन तीनों पितरों को अग्नि, यम और सोम के भेद से विवेचन को विस्तार किया गया है।          एषां पुनरेकैके मूलप्रकृतिभेदात् त्रिविधास्त्रिविधा इष्यन्ते, आग्नेयाः याम्याः सौम्याश्चेति। (वही, पृ. १३)                                            दिव्यपितर ७ प्रकार के  दिव्य पितर होते हैं- अग्निष्वात्त-    इनका नाम वैभ्राज है, ये चमकते रहते हैं, दक्षिणा दिशा में रहते हैं, अमूर्त (इनका कोई रूप नहीं होता है) और मध्यम पितर हैं। बर्हिषद्-       इनका नाम सोमपथ अथवा सोमपद है, अमूर्त और मध्यम पितर हैं। सोमसद्-      इनका नाम सनातन अथवा संतानक है, उत्तर दिशा में रहते हैं, अमूर्त और मध्यम पितर हैं। हविर्भुक्-      इनका नाम मारीच है, इन्द्र  प्राण प्रधान होने से क्षत्रियों के पितर हैं। मूर्ति रूप में रहते हैं। उत्तम पितर हैं। आज्यप-       ये तेजस्वी होते हैं, इनमें विश्वेदेव नाम के प्राण की प्राधानता होती है, वैश्य के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं। सोमपा-        ये ज्योति रूप में प्रतीत होने वाले पितर हैं, इनमें अग्नि प्राण प्रधान होता है, ये ब्राह्मणों के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं। सुकाली-       ये मानस पितर हैं, ये शूद्रों के पितर हैं, ये अवर पितर कहे जाते हैं और मूर्ति रूप में रहते हैं।                                                                                  (वही, पृष्ठ ३९)                                              ऋतुपितर जो अग्नि अपने मूल अवस्था से हट कर वायु रूप में परिणत होकर फैलने लगता है वह वायु ऋतु नाम से कहा जाता है।  ऋत रूप अग्नि में ऋतु शब्द का प्रयोग होता है। ऋत रूप अग्नि ही सोम रूप में विभक्त हो कर ऋतु  बन जाता है। योऽग्निः प्रभवात् प्रवृक्तो वायुसञ्चरति तदृतुम्। तारतम्येन सोमान्वयात्-संविभक्त-शरीरेस्मिन् ऋताग्नावृतुशब्दः। ऋताग्नय एअवैते सोमसंविभक्तकाया ऋतवः। (वही, पृ.३९) अग्निष्वात्त-शिशिर ऋतु, बर्हिषद्-हेमन्त ऋतु, सोमसद्-शरत् ऋतु,  हविर्भुक्-वर्षा ऋतु, आज्यप-ग्रीष्म ऋतु और सोमपा-वसन्त ऋतु है। (वही, पृष्ठ ४५ )                                     प्रेतपितर पृथ्वीलोक पर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन  पाँचों की समष्टि से बनने वाली जीवात्मा ही भूतात्मा कहलाता है। जब जीवात्मा शरीर का त्याग कर गन्धर्व प्राण प्रधान शरीर को धारण करता है। गन्धर्वरूप से तेरह मासो में नक्षत्रों लोकों को पार करते हुए चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। यही प्रेतपितर हैं। ये तीन प्रकार के हैं- परपितर, मध्यमपितर और अवरपितर हैं। ये ही क्रमशः नान्दीमुख पितर, पार्वण पितर और प्रेतपितर कहे जाते हैं। मध्यमपितर और अवरपितर की अपेक्षा से परपितर नान्दीमुख पितर कहलाता है। नान्दीमुख का अर्थ प्रसन्नमुख होता है। नान्दीमुख पितर सबसे उच्च स्थान में रहते हैं। ये हमेशा ऊर्ध्वमुख और अमूर्त (बिना आकार के) रहते हैं। ये प्रेतपितर भी सोमसद्, बहिषद् और  अग्निष्वात्त कहलाते हैं। पृथिवीलोकस्था भूतात्मानो देहत्यागादूर्ध्वं गान्धर्वशरीरा नक्षत्रैस्त्रयोदशमासैश्चन्द्रमसं गच्छन्ति। तेऽमी प्रेताः पितरस्त्रेधा निष्पद्यन्ते-परा मध्यमा अवराश्च। ते एव नान्दीमुखाः पार्वणाः प्रेताश्च। मध्यमावराणाम् अश्रुमुखत्वाद् अपेक्षया परेषां नान्दीमुखत्वम्। नान्दीमुखाः प्रसन्नमुखाः। ते चैते सर्वस्माद् अस्माद् उपरिष्टाद् वर्तन्ते। ऊर्ध्वमुखा अमूर्ताश्च। ते त्रिविधाः सोमसदः बर्हिषदः अग्निष्वात्ताश्च। (वही, पृ. ४८) इस प्रकार  पार्वणपितर, प्रेतपितृविज्ञान, गोत्रसन्तान, सपिण्डीकरण, श्राद्ध और गया पिण्डदान आदि विषय समाहित किये गये हैं।Read/Download                                    

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Varnasameeksha

Varnasamiksha is an important volume on linguistics. An integral part of this science of language is phonology. The volume presents a comprehensive view of phonology. Languages is studied through sentences. Every sentence is made up of alphabets. Another term for alphabet or varna is akshara. The volume is divided into two parts–Varnasamiksha and Gunasamiksha. The sanskrit term for Varnasamiksha is Pathyasvasti. वर्णसमीक्षा वर्णसमीक्षा भाषाविज्ञान का ग्रन्थ है। भाषाविज्ञान का एक अंग ध्वनिविज्ञान है। ध्वनिविज्ञान का यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी  है। भाषा का अध्ययन वाक्य के माध्यम से होता है। सबसे बड़ा वाक्य होता है। उस वाक्य में अनेक पद होते हैं और पदों में वर्ण होता है। ‘राम घर जाता है’ यह एक वाक्य है। इस में राम और घर पद है तथा ‘र् आ म् अ’ ये वर्ण हैं। वर्ण का ही दूसरा नाम अक्षर है। वर्ण की समीक्षा अर्थात् वर्ण के  सभी विषयों का यहाँ निरूपण किया गया है। पं. ओझा जी ने धर्म को प्रधान माना है। धर्म से ही मनुष्य उच्चता को प्राप्त करता है। धर्म का अर्थ क्रिया से है। कोई नियमित अध्ययन करता है, कोई नियम पूर्वक किसी की सेवा करता है, कोई नियमित व्यापार करता है और कोई  जीवन के लिए एक निश्चित कर्म को नियमित रूप से करता है। यही धर्म है। इसी से मानव को उन्नति मिलती है। इस सत्कर्म का ज्ञान वेद, पुराण आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। ग्रन्थ में वाक्य, वाक्य में पद और पद में वर्ण होते हैं-                  धर्मादभ्युदयः सदाऽभ्युदयते धर्मश्च साहित्यतो                           विज्ञाप्योऽप्यविनाकृतं तदपि वा वाक्यैश्च वाक्यं पुनः ।                  संपद्येत पदैः पदं पुनरिदं वर्णाहितं वर्ण्यते                           तस्माद्वर्णनिरूपणं प्रथमतः कर्तुं समुद्यम्यते ॥ वर्णसमीक्षा पृ. १ इस ग्रन्थ में दो भाग हैं प्रथम भाग का नाम वर्णसमीक्षा है। जिसमें में मातृका, विवृति, स्वरभक्ति, यम आदि विषय हैं। दूसरे भाग का नाम गुणसमीक्षा है। जिसमें वाग् विज्ञान, वाक की उत्पत्ति, स्वरसमीक्षा हैं। मातृका- वर्ण अथवा अक्षर का ही नाम मातृका है। ये पाँच हैं- ब्रह्ममातृका, अक्षमातृका सिद्धमातृका, भूतमातृका। जिसमें स्वर और व्यञ्जनों का स्पष्ट भेद विद्यमान रहता है वह ब्रह्म आदि चार मतृकाएँ  हैं। जिस में स्वर और व्यञ्जनों का भेद स्पष्ट नहीं है वह अनार्यमातृका है।           इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वर्णों की संख्या पर विचार किया गया है। २१ स्वरवर्ण है और ४२ व्यञ्जन वर्ण हैं। इन दोनों के योग से ६३ वर्ण होते हैं।                      अत्रादितः एकविंशतिः स्वराः, ततो द्विगुणानि व्यञ्जनानि । वर्ण समीक्षा पृ. २ किसी किसी आचार्यों के विचार में ६४ वर्ण हैं ।  आचार्य कात्यायन के अनुसार इसकी संख्या ६५ है। किसी किसी के विचार में ७९ वर्ण हो जाते हैं। ७९ की संख्या को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है। २२ स्वर, २५ स्पर्श, यकार- शकार ८  यम २०, और ४ अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय ।                      एकोनाशीतिवर्णास्तु प्रोक्ताश्चात्र स्वयम्भुवा ।                  स्वराः द्वाविंशतिश्चैव स्पर्शानां पञ्चविंशतिः ।                  यादयः शादयश्चाष्टौ यमा विंशतिरेव च ।                  अनुस्वारो विसर्गश्च कपौ चापि पराश्रयौ ॥ वर्णसमीक्षा पृ. ३-४ वर्णसमीक्षा का वैदिक नाम पथ्यास्वस्ति है।  पं. ओझा जी ने वैदिक वर्णों का विश्लेषण पथ्यास्वस्ति नामक ग्रन्थों में किया है। व्याकरणविनोद नामक ग्रन्थ व्याकरण संबन्धी विषयों को सरलता से प्रतिपादन करते हुए वैदिक विज्ञान की दृष्टि से निरूपण किया है।     Read/Download

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Brahmasiddhanta with 2 Hindi translations and 1 with Sanskrit commentary

This volume deals with the establishment of brahmavad by Brahma, practical aspects of Brahma, practical aspects of Maya and the outcome of the interaction between Brahma and Maya.  The first book listed here is the Hindi translation of Ojhaji’s book by Devidut Pandit Chaturvedi and the second one contains a commentary on the subject by Giridhar Sharma Chaturvedi in Sanskrit.      ब्रह्मासिद्धान्त यह खंड ब्रह्मा द्वारा ब्रह्मवाद की स्थापना, ब्रह्मा के व्यावहारिक पहलुओं, माया के व्यावहारिक पहलुओं और ब्रह्मा और माया के बीच संपर्क के परिणाम से संबंधित है । यहां सूचीबद्ध पहली पुस्तक देवीदत्त पंडित चतुर्वेदी द्वारा ओझा जी की पुस्तक का हिंदी अनुवाद है और दूसरी में संस्कृत में गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी द्वारा इस विषय पर एक टिप्पणी है । Read/download Read/download—Brahmasiddhanta with Sanskrit tika Read/download—Brahmasiddhanta with Hindi translation

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National Seminar Series on Kadambini 2025

Shri Shankar Shikshayatan is organising an annual series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s Kadambini. The book explores in great detail the ancient Indian weather science envisioned by our seer-scientists of yore for forecasting normal, abnormal and excessive rain-fall as also drought in the rainy season of a year on the basis of close and careful observation of the four kinds of causes. The good and adverse impact of the various kinds of comets has also been discussed in this treatise. It serves as a conclusive proof of Pandit Madhusudan Ojha’s profound scholarship in astronomy, astrology and other related ancient sciences. Read/download Kadambini Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture on Kadambini National Seminar on Kadambini Part I January 31,2025 Chair: Prof. Devi Prasad Tripathi, former Chancellor, Uttarakhand Sanskrit University, Haridwar Speakers: Prof. Shyamdeva Mishra, Central Sanskrit University, Kanpur Dr Subhash Pandey, Banaras Hindu University, Varanasi Dr Rameshwar Dayal Sharma, Central Sanskrit University, Jaipur Introductory remarks by Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. ——————————————————————————————————————- National Seminar on Kadambini Part II February 28,2025 Chair: Prof. Girija Shankar Shastri,Benaras Hindu University, Varanasi Speakers: Dr Krishna Kumar Bhargava, National Sanskrit University, TirupatiDr Ashwini Pandey, Central Sanskrit University, BhopalDr Ashish Chaudhary, Central Sanskrit University, Bhopal Introductory remarks by Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. —————————————————————————————————————– National Seminar on Kadambini Part III March 28,2025 Chair: Prof. Parmanand Bharadwaj, Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Delhi. Introductory remarks by Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. Speakers: Prof. Vishnu Kumar Nirmal, Central Sanskrit University,Jammu. Dr. Rupesh Kumar Mishra, Maharishi Panini Sanskrit and Vedic University, Ujjain. Dr.Brahmanand Mishra,Central Sanskrit University, Devprayag, Uttarakhand. National Seminar on Kadambini Part IV April 30, 2025 Chair: Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. Speakers: Prof. Fanindra Kumar Chaudhary, Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Delhi. Dr Balak Ram Saraswat, National Sanskrit University, Tirupati. Dr Bhupendra Kumar Pandey, Central Sanskrit University, Bhopal Dr Varun Kumar Jha, Kameshwar Singh Darbhanga Sanskrit University, Darbhanga.—————————————————————————————————– National Seminar on Kadambini Part V May 31, 2025 Chair: Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. Speakers: Prof. Madan Mohan Pathak, National Sanskrit University, Lucknow. Dr Subash Chandra Mishra, National Sanskrit University, Jaipur. Dr Brajesh Pathak, National Sanskrit University, Rajiv Gandhi premises. Dr Navin Tiwari, National Sanskrit University, Ranvir premises. National Seminar on Kadambini Part VI June 30, 2025 Chair: Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. Speakers: Dr Divesh Sharma,Central Sanskrit University, Eklavya premises, Tripura. Dr Nigam Pandey, Dharma Samaj Sanskrit College, Muzaffarpur, Bihar. Dr Naresh Sharma, Maharshi Valmiki Sanskrit University, Kaithal, Haryana. Dr Vinod Sharma, Central Sanskrit University, Vedavyasa premises, Himachal Pradesh. National Seminar on Kadambini Part VII July 31, 2025 Chair: Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. Speakers: Dr Yagya Dutt, Central Sanskrit University, Eklavya premises, Tripura. Dr Suresh Sharma, Central Sanskrit University, Raghunathkirti premises, Deoprayag, Uttarakhand. Dr Ganesh Krishna Bhatt, Central Sanskrit University, Guruvayur premises, Kerala. Dr Ratish Kumar Jha, Dr Jagannath Mishra Sanskrit College, Madhubani, Bihar. National Seminar on Kadambini Part VIII August 30, 2025 Chair: Prof. Santosh Kumar Shukla of Jawaharlal Nehru University and Convener, Shri Shankar Shikshayatan. Speakers: Dr Chandan Hota, Central Sanskrit University, Eklavya premises, Tripura. Dr Anil Kumar, Central Sanskrit University, Bhopal premises,Madhya Pradesh. Dr Mrityunjay Tiwari, Maharshi Panini Sanskrit and Vedic University, Ujjain, Madhya Pradesh. Dr Yogendra Kumar Sharma, Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Delhi.

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National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Dharma and Vidya prasanga

As part of series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya, Shri Shankar Shikshayatan organised a  national seminar on  June 29, 2024. The discussion focused on  chapters on dharma and vidya.  The keynote speaker at the seminar, Prof. Shivram Sharma, Banaras Hindu University, presented his lecture based on various subjects covered under the chapter on vidya or knowledge. He pointed out that Ojhaji had explained many knowledge systems in his book. Of these vidyas, prakriti vidya and laukika vidya are related to earthly subjects while divya vidya are vedic vidya and suryaras vidya. Prakriti vidya is of  two types–nigama and agama.  There are 18  types of nigama vidya and 120 types of agama vidya. Divya vidya has four divisions and there are 16 sections in each division. Thus 64 divisions of divya vidya are explained.  Prof. Lalit Kumar Patel, Acharya, Department of Literature, Somnath Sanskrit University, made a presentation on eight nigamiya siddhi, eight agamiya mantrabala siddhi, eight mahaushadi balasiddhi explained in the chapter on vidya. He pointed out that the chapter also described sarpakarshini vidya which was prevalent during the Mahabharata period. In this vidya, a snake situated far away is attracted to the desired place by the power of mantra. This mantra vidya was used to attract snakes to the sarpayajna. Dr. Satish Kumar Mishra, Associate Professor, Department of Sanskrit, Hansraj College, Delhi University, pointed out that swayamvaha was a yantra vidya. in his lecture said that Swayamvaha Vidya is a Yantra Vidya. Swayamvaha means  automatic or self activating  machine. Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, presided over the meeting. In his presidential address, he said that in ancient times India’s knowledge was very advanced. India has been called a vishwaguru  because it offered knowledge to the whole world. Bharatavarsha is famous not only in the field of knowledge but also in strength and valour. Many Chakravarti kings have lived in this country. Mandhata was the chief among those kings. Its reference is found in Vishnu Purana. Mandhata ruled over all the countries of America, Africa, Europe and Asia, pointed out Prof. Shukla.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान – धर्म एवं विद्या प्रसङ्ग

श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा  दिनांक २९ जून २०२४ को सायंकाल ५ बजे से ७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। यह संगोष्ठी पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के धर्मप्रसङ्ग और विद्याप्रसङ्ग को आधार बना कर समायोजित थी।   संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में आचार्य प्रो. शिवराम शर्मा, साहित्य विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने विद्याप्रसङ्ग के विविध विषयों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में अनेक विद्याओं का उल्लेख प्राप्त होता है।  उन विद्याओं में प्राकृत विद्या, लौकिक विद्या, पार्थिव विषय से संबन्धित विद्या, दिव्या विद्या, वैदिक विद्या, सूर्यरसविद्या वर्णित है। उनमें प्राकृत विद्या ही निगम और आगम भेद से दो प्रकार की है। जिस के विषय में कहा गया है-                     ‘तत्र प्राकृतविद्या निगमागमभेदतो द्विविधा।’, इन्द्रविजय, पृ. १९९ निगमविद्या के  अठारह प्रभेद हैं, एवं आगम विद्या की  संख्या  १२० है।                     ‘नैगमविद्यास्तत्र च मुख्यतयाऽष्टादशः प्रथिताः।                    आगमविद्या विंशशतमित्थं सर्वविद्यानाम् ।।’, वही दिव्यविद्या के चार विभाग हैं। प्रत्येक विभाग में सोलह संख्या हैं। इस प्रकार दिव्यविद्या के ६४ प्रभेद वर्णित हैं। मानस बल जिसे बुद्धीन्द्रिय बल भी कहते हैं, यह पहला विभाग है। दूसरे विभाग में आठ दिव्यदृष्टि सिद्धियाँ हैं। जिस को  देवबल सिद्धि नाम से भी प्रस्तुत किया गया है। तीसरे विभाग में आठ कर्मेन्द्रिय बल हैं, जिनका भूतबल के नाम से प्रतिपादन किया गया है। चौथे विभाग में  आठ आगमीय मन्त्रबलसिद्धियाँ हैं। जिन्हें यन्त्रबलसिद्धि नाम से भी व्याख्यायित किया गया है। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित प्रो. ललित कुमार पटेल, आचार्य, साहित्य विभाग, सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में विद्याप्रसङ्ग में वर्णित आठ नैगमीय मन्त्रबलसिद्धि, आठ आगमीयमन्त्र बलसिसिद्धि,  आठ महौषधि बलसिद्धि को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इस प्रसङ्ग में एक सर्पाकर्षिणी विद्या का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारतकाल यह विद्या थी। इस विद्या में मन्त्रबल से दूर स्थित सर्प का अभीष्ट स्थान  पर आकर्षण किया जाता है।  जनमेजय के  सर्पयज्ञ में इस मन्त्रविद्या से सर्पों का आकर्षण किया गया था। डॉ. सतीश कुमार मिश्र, सहाचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में कहा कि स्वयंवह विद्या एक यन्त्रविद्या है।  स्वयंवह  इस शब्द का अर्थ स्वचालित यन्त्र है।  इस विद्या में दिन के षष्ठिघटिका के पल विपल आदि  ज्योतिषशास्त्रीय  नियमों के आलोक में ज्ञान का वर्णन है। प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने कार्यक्रम की अध्यक्ष्यता की । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्राचीनकाल में भारत का ज्ञान अत्यन्त समुन्नत था।  संपूर्ण विश्व  को ज्ञान प्रदान करने के कारण भारतदेश को शिक्षक कहा गया है-                     ‘अपि पूर्वस्मिन् काले परमोन्नतिशिखरमायाताः।                    एते तु भारतीयाः विशेषां शिक्षका अभवन्।।’, वही, पृ.१७७ न केवल ज्ञान के क्षेत्र में अपितु बल और पराक्रम में भी भातवर्ष का महत्त्व प्रसिद्ध है। इस भारत देश में अनेक चक्रवर्ती राजा लोग हुए हैं।  जिन्होंने इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर अपना शासन किया था।  उन राजाओं में मान्धाता प्रमुख थे। विष्णुपुराण में इसका  सन्दर्भ प्राप्त होता है-                     ‘यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतिष्ठति।                    सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥’,  वही, पृ. १७७  अमेरीका, अफरीका, यूरोप और एशिया इन सभी देशों पर मान्धाता की शासन व्यवस्था थी-                     ‘अमरीकाख्यो देशो देशो योऽफरीकाख्यः।                    यूरोप एशिया तान् सर्वान् शास्ति स्म मान्धाता॥’, वही डॉ. ओङ्कार सेल्यूकर, वेदविभाग, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण से संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ।  कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोधसंस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में विविध प्रान्त के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के आचार्यों एवं  शोधच्छात्रों ने उत्साह पूर्वक सहभागिता की। 

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राष्ट्रीय संगोष्ठी -कादंबिनी 2025

कादम्बिनी पंडित मधुसूदन ओझा की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है । इस खंड में प्राचीन भारतीय मौसम विज्ञान के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है, जिसकी परिकल्पना हमारे पूर्व के द्रष्टा-वैज्ञानिकों ने चार प्रकार के कारणों के गहन अध्ययन के आधार पर वर्षा के मौसम में सामान्य, असामान्य और अत्यधिक वर्षा के साथ-साथ सूखे के पूर्वानुमान के लिए की थी ।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान उपद्वीपप्रसङ्ग

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ मई २०२४ को इन्द्रविजयग्रन्थ केउपद्वीपप्रसङ्ग को आधार बनाकर एक ऑनलाईन राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया।यह संगोष्ठी प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। जिसमें प्रो. हरीश, आचार्या, संस्कृतविभाग, किरोड़ीमल महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय; डॉ. सत्यकेतु, सहायक आचार्य, संस्कृतविभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय; डॉ. योगेश शर्मा, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, पी. जी. डी.ए. वी. महाविद्यालय (सान्ध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय; डॉ. धीरज कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य,दर्शन विभाग, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा ने वक्ता के रूप में व्याख्यानकिया। प्रो. हरीश ने इन्द्रविजय ग्रन्थ के लङ्काप्रसङ्ग पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। पं.मधुसूदन ओझा ने १२ प्रमाणों के आधार पर इस तथ्य को सिद्ध किया गया है कि सिंहलद्वीपलङ्का नहीं है । पहले प्रमाण में कहा गया कि भागवत पुराण में सिंहलद्वीप को सातवें स्थान परऔर लङ्का को आठवें स्थान पर रखा गया है। दूसरे प्रमाण में कहा गया कि लङ्का अक्षांश रहितस्थान है। सिंहलद्वीप में अक्षांश है। तीसरे प्रमाण में कहा गया है कि जैसे उज्जयिनी में मध्यरेखा हैवैसे ही लङ्का में भी मध्यरेखा है। इससे सिद्ध होता है कि सिंहलद्वीप लङ्काद्वीप से भिन्न है। चौथेप्रमाण में कहा गया कि लङ्का विषुवत् रेखा को छूती है परन्तु सिंहलद्वीप विषुवत् रेखा से बहुत दूरपर स्थित है। पाँचवे प्रमाण में कहा गया है कि सिंहलद्वीप की लम्बाई १३५ कोश और चौड़ाई१२२ कोश है। जबकि लङ्का की लम्बाई ४ कोश और चौड़ाई २० कोश है। छठे प्रमाण में भीसिंहलद्वीप एवं लङ्काद्वीप के आकार के आधार पर ही इनमें भेद बतलाया गया है। सातवें प्रमाण केअनुसार सिंहलद्वीप में अनेक पर्वत हैं, इस युक्ति से लङ्का और सिंहलद्वीप में भेद है। आठवें प्रमाणमें कहा गया है कि त्रिकूटपर्वत पर रावणविहार था, इस युक्ति से सिंहलद्वीप लङ्का है, यह कहनाउचित नहीं होगा। नवमें प्रमाण में कहा गया है कि यूनानीग्रन्थ में सिंहलद्वीप को ‘टापरोवेन’ शब्दसे कहा गया है। उसी प्रकार ‘टापू रावण’ इस शब्द को मान कर सिंहलद्वीप लङ्का नहीं है। दशवेंप्रमाण में कहा गया है कि सेतुबन्ध-रामेश्वर से सिंहलद्वीप तक भग्नावशेष रूप में जो पर्वत शृङ्खलाअभी दिखाई देती है। वह भी लङ्का नहीं हो सकती। क्योंकि राम ने समुद्र में पुल बनाया था औरवह पुल समुद्र में विलीन हो गया। ग्यारहवें प्रमाण में कहा गया कि अग्नीध्र नामक राजा था।जिन्होंने भारतवर्ष को नौ भागों में बाँटा। उन में नवाँ द्वीप कुमारीद्वीप है। अन्य आठ द्वीप समुद्र मेंविलीन हो गये। बारहवें प्रमाण में ६ युक्तियों के आधार पर दोनों का पार्थक्य सिद्ध किया गया है।डॉ. सत्यकेतु ने उपद्वीपप्रसङ्ग को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। जिस का वर्णनभागवत महापुराण में आठ उपद्वीपों के माध्यम से किया गया है। वे उपद्वीप इस प्रकार हैं-स्वर्णप्रस्थ, शुक्ल, आवर्तन, नारमणक, मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल और लङ्का । यहाँ सातवेंस्थान पर सिंहल और आठवें स्थान पर लङ्का है। डॉ. सत्यकेतु ने उपद्वीपप्रसङ्ग को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। जिस का वर्णनभागवत महापुराण में आठ उपद्वीपों के माध्यम से किया गया है। वे उपद्वीप इस प्रकार हैं-स्वर्णप्रस्थ, शुक्ल, आवर्तन, नारमणक, मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल और लङ्का । यहाँ सातवेंस्थान पर सिंहल और आठवें स्थान पर लङ्का है। डॉ. योगेश शर्मा ने भारतीयभाषाप्रसङ्ग पर व्याख्यान करते हुए कहा कि भारतवर्ष मेंतीन भाषाएँ थीं। पहली भाषा छ्न्दोभाषा, दूसरी भाषा संस्कृतभाषा और तीसरी नागरी भाषा थी।इन्द्रविजयग्रन्थ में यह वर्णन प्राप्त होता है कि पाणिनि के समय में भारतवर्ष में छन्दोभाषा को दैवीभाषा और ब्राह्मी भाषा भारती कही जाती थी। इस प्रसंग में ग्रन्थकार पं. ओझा जी ने भाषासंबन्धीअनेक पक्षों पर विचारविमर्श किया है। डॉ. धीरज कुमार पाण्डेय लिपिप्रसङ्ग पर व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए कहा कि वेद केमन्त्रनिर्माणकाल में लिपि शब्द का स्पष्ट उद्धरण प्राप्त होता है। शुक्लयजुर्वेद के पन्द्रवें अध्याय में‘छन्दः क्षुरोभ्रजः’ शब्द आया है। यहाँ क्षुर पद से लेखनी और भ्रज शब्द से छन्द अर्थ का ग्रहण कियागया है। अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने कहा कि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का मुख्यविषय भारतवर्ष की प्राचीन भौगोलिकी स्थिति का विवेचन है। इस में उपद्वीप और लङ्काप्रसङ्गभूगोल का विषय है। इस भूगोल में भाषा कैसी होनी चाहिए एवं लिपि कैसी हो इत्यादि विषयआमन्त्रित विद्वानों के द्वारा ठीक से प्रतिपादन किया गया। जम्बूद्वीप नामकरण का आधार क्या है।मातृकाप्रसङ्ग में पथ्यास्वस्ति वैदिकवर्णमाला है। इस वर्णमाला की संख्या भिन्न-भिन्न है। वेद में९७ वर्ण इस वर्णमाला में मिलते हैं। श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वेदविभाग के अतिथि प्राध्यापकडॉ. मधुसूदन शर्मा के वैदिक मङ्गलाचरण से संगोष्ठी का प्रारम्भ हुआ। कार्यक्रम का सञ्चालनश्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इसकार्यक्रम में अनेक प्रान्त के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय के आचार्य, शोधच्छात्र तथाविषायानुरागी जनों ने उत्साह पूर्वक सहभागिता की।

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Maharshikulavaibhavam

As the title itself suggests, this volume extols the virtues of maharshis (great sages) and their clan. The book gives a detailed explanation of the term `rishi`, their history along with a scientific analysis of the concept. There are detailed explanations of rishis like Kashyap and Vashisht along with their ancestors as well as references to their relationship to supraphysical forces. महर्षिकुलवैभम्इस ग्रन्थ के शीर्षक ‘महर्षिकुलवैभवम्’ से ही स्पष्ट है कि इसमें महर्षियों के कुल का वैभव वर्णित है । इस ग्रन्थ में ऋषि शब्द की असल्लक्षणा, रोचनालक्षणा, द्रष्टृलक्षणा एवं वक्तृलक्षणा रूप चार प्रकार की प्रवृत्तियाँ उल्लिखित हैं जिनमें ऋषियों के ऐतिहासिक वर्णन के साथ ही उनका वैज्ञानिक विवेचन स्पष्टतया प्रतिपादित है । Read/download

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