National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Dharma and Vidya prasanga

As part of series of discussions on Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya, Shri Shankar Shikshayatan organised a  national seminar on  June 29, 2024. The discussion focused on  chapters on dharma and vidya.  The keynote speaker at the seminar, Prof. Shivram Sharma, Banaras Hindu University, presented his lecture based on various subjects covered under the chapter on vidya or knowledge. He pointed out that Ojhaji had explained many knowledge systems in his book. Of these vidyas, prakriti vidya and laukika vidya are related to earthly subjects while divya vidya are vedic vidya and suryaras vidya. Prakriti vidya is of  two types–nigama and agama.  There are 18  types of nigama vidya and 120 types of agama vidya. Divya vidya has four divisions and there are 16 sections in each division. Thus 64 divisions of divya vidya are explained.  Prof. Lalit Kumar Patel, Acharya, Department of Literature, Somnath Sanskrit University, made a presentation on eight nigamiya siddhi, eight agamiya mantrabala siddhi, eight mahaushadi balasiddhi explained in the chapter on vidya. He pointed out that the chapter also described sarpakarshini vidya which was prevalent during the Mahabharata period. In this vidya, a snake situated far away is attracted to the desired place by the power of mantra. This mantra vidya was used to attract snakes to the sarpayajna. Dr. Satish Kumar Mishra, Associate Professor, Department of Sanskrit, Hansraj College, Delhi University, pointed out that swayamvaha was a yantra vidya. in his lecture said that Swayamvaha Vidya is a Yantra Vidya. Swayamvaha means  automatic or self activating  machine. Prof. Santosh Kumar Shukla, Professor, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, presided over the meeting. In his presidential address, he said that in ancient times India’s knowledge was very advanced. India has been called a vishwaguru  because it offered knowledge to the whole world. Bharatavarsha is famous not only in the field of knowledge but also in strength and valour. Many Chakravarti kings have lived in this country. Mandhata was the chief among those kings. Its reference is found in Vishnu Purana. Mandhata ruled over all the countries of America, Africa, Europe and Asia, pointed out Prof. Shukla.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान – धर्म एवं विद्या प्रसङ्ग

श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा  दिनांक २९ जून २०२४ को सायंकाल ५ बजे से ७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। यह संगोष्ठी पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के धर्मप्रसङ्ग और विद्याप्रसङ्ग को आधार बना कर समायोजित थी।   संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में आचार्य प्रो. शिवराम शर्मा, साहित्य विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने विद्याप्रसङ्ग के विविध विषयों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में अनेक विद्याओं का उल्लेख प्राप्त होता है।  उन विद्याओं में प्राकृत विद्या, लौकिक विद्या, पार्थिव विषय से संबन्धित विद्या, दिव्या विद्या, वैदिक विद्या, सूर्यरसविद्या वर्णित है। उनमें प्राकृत विद्या ही निगम और आगम भेद से दो प्रकार की है। जिस के विषय में कहा गया है-                     ‘तत्र प्राकृतविद्या निगमागमभेदतो द्विविधा।’, इन्द्रविजय, पृ. १९९ निगमविद्या के  अठारह प्रभेद हैं, एवं आगम विद्या की  संख्या  १२० है।                     ‘नैगमविद्यास्तत्र च मुख्यतयाऽष्टादशः प्रथिताः।                    आगमविद्या विंशशतमित्थं सर्वविद्यानाम् ।।’, वही दिव्यविद्या के चार विभाग हैं। प्रत्येक विभाग में सोलह संख्या हैं। इस प्रकार दिव्यविद्या के ६४ प्रभेद वर्णित हैं। मानस बल जिसे बुद्धीन्द्रिय बल भी कहते हैं, यह पहला विभाग है। दूसरे विभाग में आठ दिव्यदृष्टि सिद्धियाँ हैं। जिस को  देवबल सिद्धि नाम से भी प्रस्तुत किया गया है। तीसरे विभाग में आठ कर्मेन्द्रिय बल हैं, जिनका भूतबल के नाम से प्रतिपादन किया गया है। चौथे विभाग में  आठ आगमीय मन्त्रबलसिद्धियाँ हैं। जिन्हें यन्त्रबलसिद्धि नाम से भी व्याख्यायित किया गया है। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित प्रो. ललित कुमार पटेल, आचार्य, साहित्य विभाग, सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में विद्याप्रसङ्ग में वर्णित आठ नैगमीय मन्त्रबलसिद्धि, आठ आगमीयमन्त्र बलसिसिद्धि,  आठ महौषधि बलसिद्धि को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इस प्रसङ्ग में एक सर्पाकर्षिणी विद्या का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारतकाल यह विद्या थी। इस विद्या में मन्त्रबल से दूर स्थित सर्प का अभीष्ट स्थान  पर आकर्षण किया जाता है।  जनमेजय के  सर्पयज्ञ में इस मन्त्रविद्या से सर्पों का आकर्षण किया गया था। डॉ. सतीश कुमार मिश्र, सहाचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में कहा कि स्वयंवह विद्या एक यन्त्रविद्या है।  स्वयंवह  इस शब्द का अर्थ स्वचालित यन्त्र है।  इस विद्या में दिन के षष्ठिघटिका के पल विपल आदि  ज्योतिषशास्त्रीय  नियमों के आलोक में ज्ञान का वर्णन है। प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने कार्यक्रम की अध्यक्ष्यता की । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्राचीनकाल में भारत का ज्ञान अत्यन्त समुन्नत था।  संपूर्ण विश्व  को ज्ञान प्रदान करने के कारण भारतदेश को शिक्षक कहा गया है-                     ‘अपि पूर्वस्मिन् काले परमोन्नतिशिखरमायाताः।                    एते तु भारतीयाः विशेषां शिक्षका अभवन्।।’, वही, पृ.१७७ न केवल ज्ञान के क्षेत्र में अपितु बल और पराक्रम में भी भातवर्ष का महत्त्व प्रसिद्ध है। इस भारत देश में अनेक चक्रवर्ती राजा लोग हुए हैं।  जिन्होंने इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर अपना शासन किया था।  उन राजाओं में मान्धाता प्रमुख थे। विष्णुपुराण में इसका  सन्दर्भ प्राप्त होता है-                     ‘यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतिष्ठति।                    सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥’,  वही, पृ. १७७  अमेरीका, अफरीका, यूरोप और एशिया इन सभी देशों पर मान्धाता की शासन व्यवस्था थी-                     ‘अमरीकाख्यो देशो देशो योऽफरीकाख्यः।                    यूरोप एशिया तान् सर्वान् शास्ति स्म मान्धाता॥’, वही डॉ. ओङ्कार सेल्यूकर, वेदविभाग, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण से संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ।  कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोधसंस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में विविध प्रान्त के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के आचार्यों एवं  शोधच्छात्रों ने उत्साह पूर्वक सहभागिता की। 

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राष्ट्रीय संगोष्ठी -कादंबिनी 2025

कादम्बिनी पंडित मधुसूदन ओझा की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है । इस खंड में प्राचीन भारतीय मौसम विज्ञान के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है, जिसकी परिकल्पना हमारे पूर्व के द्रष्टा-वैज्ञानिकों ने चार प्रकार के कारणों के गहन अध्ययन के आधार पर वर्षा के मौसम में सामान्य, असामान्य और अत्यधिक वर्षा के साथ-साथ सूखे के पूर्वानुमान के लिए की थी ।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी-इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान उपद्वीपप्रसङ्ग

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ मई २०२४ को इन्द्रविजयग्रन्थ केउपद्वीपप्रसङ्ग को आधार बनाकर एक ऑनलाईन राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया।यह संगोष्ठी प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। जिसमें प्रो. हरीश, आचार्या, संस्कृतविभाग, किरोड़ीमल महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय; डॉ. सत्यकेतु, सहायक आचार्य, संस्कृतविभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय; डॉ. योगेश शर्मा, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, पी. जी. डी.ए. वी. महाविद्यालय (सान्ध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय; डॉ. धीरज कुमार पाण्डेय, सहायक आचार्य,दर्शन विभाग, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा ने वक्ता के रूप में व्याख्यानकिया। प्रो. हरीश ने इन्द्रविजय ग्रन्थ के लङ्काप्रसङ्ग पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। पं.मधुसूदन ओझा ने १२ प्रमाणों के आधार पर इस तथ्य को सिद्ध किया गया है कि सिंहलद्वीपलङ्का नहीं है । पहले प्रमाण में कहा गया कि भागवत पुराण में सिंहलद्वीप को सातवें स्थान परऔर लङ्का को आठवें स्थान पर रखा गया है। दूसरे प्रमाण में कहा गया कि लङ्का अक्षांश रहितस्थान है। सिंहलद्वीप में अक्षांश है। तीसरे प्रमाण में कहा गया है कि जैसे उज्जयिनी में मध्यरेखा हैवैसे ही लङ्का में भी मध्यरेखा है। इससे सिद्ध होता है कि सिंहलद्वीप लङ्काद्वीप से भिन्न है। चौथेप्रमाण में कहा गया कि लङ्का विषुवत् रेखा को छूती है परन्तु सिंहलद्वीप विषुवत् रेखा से बहुत दूरपर स्थित है। पाँचवे प्रमाण में कहा गया है कि सिंहलद्वीप की लम्बाई १३५ कोश और चौड़ाई१२२ कोश है। जबकि लङ्का की लम्बाई ४ कोश और चौड़ाई २० कोश है। छठे प्रमाण में भीसिंहलद्वीप एवं लङ्काद्वीप के आकार के आधार पर ही इनमें भेद बतलाया गया है। सातवें प्रमाण केअनुसार सिंहलद्वीप में अनेक पर्वत हैं, इस युक्ति से लङ्का और सिंहलद्वीप में भेद है। आठवें प्रमाणमें कहा गया है कि त्रिकूटपर्वत पर रावणविहार था, इस युक्ति से सिंहलद्वीप लङ्का है, यह कहनाउचित नहीं होगा। नवमें प्रमाण में कहा गया है कि यूनानीग्रन्थ में सिंहलद्वीप को ‘टापरोवेन’ शब्दसे कहा गया है। उसी प्रकार ‘टापू रावण’ इस शब्द को मान कर सिंहलद्वीप लङ्का नहीं है। दशवेंप्रमाण में कहा गया है कि सेतुबन्ध-रामेश्वर से सिंहलद्वीप तक भग्नावशेष रूप में जो पर्वत शृङ्खलाअभी दिखाई देती है। वह भी लङ्का नहीं हो सकती। क्योंकि राम ने समुद्र में पुल बनाया था औरवह पुल समुद्र में विलीन हो गया। ग्यारहवें प्रमाण में कहा गया कि अग्नीध्र नामक राजा था।जिन्होंने भारतवर्ष को नौ भागों में बाँटा। उन में नवाँ द्वीप कुमारीद्वीप है। अन्य आठ द्वीप समुद्र मेंविलीन हो गये। बारहवें प्रमाण में ६ युक्तियों के आधार पर दोनों का पार्थक्य सिद्ध किया गया है।डॉ. सत्यकेतु ने उपद्वीपप्रसङ्ग को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। जिस का वर्णनभागवत महापुराण में आठ उपद्वीपों के माध्यम से किया गया है। वे उपद्वीप इस प्रकार हैं-स्वर्णप्रस्थ, शुक्ल, आवर्तन, नारमणक, मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल और लङ्का । यहाँ सातवेंस्थान पर सिंहल और आठवें स्थान पर लङ्का है। डॉ. सत्यकेतु ने उपद्वीपप्रसङ्ग को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। जिस का वर्णनभागवत महापुराण में आठ उपद्वीपों के माध्यम से किया गया है। वे उपद्वीप इस प्रकार हैं-स्वर्णप्रस्थ, शुक्ल, आवर्तन, नारमणक, मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल और लङ्का । यहाँ सातवेंस्थान पर सिंहल और आठवें स्थान पर लङ्का है। डॉ. योगेश शर्मा ने भारतीयभाषाप्रसङ्ग पर व्याख्यान करते हुए कहा कि भारतवर्ष मेंतीन भाषाएँ थीं। पहली भाषा छ्न्दोभाषा, दूसरी भाषा संस्कृतभाषा और तीसरी नागरी भाषा थी।इन्द्रविजयग्रन्थ में यह वर्णन प्राप्त होता है कि पाणिनि के समय में भारतवर्ष में छन्दोभाषा को दैवीभाषा और ब्राह्मी भाषा भारती कही जाती थी। इस प्रसंग में ग्रन्थकार पं. ओझा जी ने भाषासंबन्धीअनेक पक्षों पर विचारविमर्श किया है। डॉ. धीरज कुमार पाण्डेय लिपिप्रसङ्ग पर व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए कहा कि वेद केमन्त्रनिर्माणकाल में लिपि शब्द का स्पष्ट उद्धरण प्राप्त होता है। शुक्लयजुर्वेद के पन्द्रवें अध्याय में‘छन्दः क्षुरोभ्रजः’ शब्द आया है। यहाँ क्षुर पद से लेखनी और भ्रज शब्द से छन्द अर्थ का ग्रहण कियागया है। अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने कहा कि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का मुख्यविषय भारतवर्ष की प्राचीन भौगोलिकी स्थिति का विवेचन है। इस में उपद्वीप और लङ्काप्रसङ्गभूगोल का विषय है। इस भूगोल में भाषा कैसी होनी चाहिए एवं लिपि कैसी हो इत्यादि विषयआमन्त्रित विद्वानों के द्वारा ठीक से प्रतिपादन किया गया। जम्बूद्वीप नामकरण का आधार क्या है।मातृकाप्रसङ्ग में पथ्यास्वस्ति वैदिकवर्णमाला है। इस वर्णमाला की संख्या भिन्न-भिन्न है। वेद में९७ वर्ण इस वर्णमाला में मिलते हैं। श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वेदविभाग के अतिथि प्राध्यापकडॉ. मधुसूदन शर्मा के वैदिक मङ्गलाचरण से संगोष्ठी का प्रारम्भ हुआ। कार्यक्रम का सञ्चालनश्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इसकार्यक्रम में अनेक प्रान्त के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय के आचार्य, शोधच्छात्र तथाविषायानुरागी जनों ने उत्साह पूर्वक सहभागिता की।

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Maharshikulavaibhavam

As the title itself suggests, this volume extols the virtues of maharshis (great sages) and their clan. The book gives a detailed explanation of the term `rishi`, their history along with a scientific analysis of the concept. There are detailed explanations of rishis like Kashyap and Vashisht along with their ancestors as well as references to their relationship to supraphysical forces. महर्षिकुलवैभम्इस ग्रन्थ के शीर्षक ‘महर्षिकुलवैभवम्’ से ही स्पष्ट है कि इसमें महर्षियों के कुल का वैभव वर्णित है । इस ग्रन्थ में ऋषि शब्द की असल्लक्षणा, रोचनालक्षणा, द्रष्टृलक्षणा एवं वक्तृलक्षणा रूप चार प्रकार की प्रवृत्तियाँ उल्लिखित हैं जिनमें ऋषियों के ऐतिहासिक वर्णन के साथ ही उनका वैज्ञानिक विवेचन स्पष्टतया प्रतिपादित है । Read/download

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Manvantaranirdhara

In this volume, Ojhaji has written on kaala or time and various dimensions of time. The term, manuvantara, refers to Manu’s lifetime. One kalpa has a thousand yuga and one manavantara has 71 yuga. One divyayuga is equal to divya 12000 years and a human 4320000 years. Two thousand such yuga makes one day-night of Brahma. One thousand years make one day for Brahma and one thousand years make a night for Brahma. One day of Brahma is one kalpa of human. मन्वन्तरानिर्धार: यह भारतीय काल विवेचन का एक अद्भुत ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में मन्वन्तर निरूपण के अन्तर्गत  युग, दिव्ययुग, नित्यकल्प, सप्तकल्प एवं त्रिंशत्कल्प का निरूपण किया गया है । Read/download

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Dharmapariksha Panjika

The title of the book explains its contents. The `dharma` in the title refers to virtuous behaviour and `pariksha` means thoughts. This book, in essence, is a text of thoughts on virtuous behavior. This is a Hindi translation. In this compact volume, five subjects of dharma have been explained. What is the origin of dharma? What are the benefits of following dharma? धर्मपरिक्षा पंजिकाधर्मपरीक्षा में जो धर्म है उसका अर्थ संस्कार है एवं परीक्षा का अर्थ विचार है। इस प्रकार धर्मपरीक्षा का अर्थ है- संस्कारों का विचार। कापी को पञ्जिका कहते हैं। सामान्यतया जिसमें हमलोग लिखते हैं उसे संस्कृत में पञ्जिका कहते हैं। इस लघुकाय ग्रन्थ में धर्म के पाँच विषयों को स्पष्ट किया गया है। पहला विषय धर्म का मूल क्या है, इस पर विचार है। पुनः धर्म के फल का प्रतिपादन है। इसी क्रम में फल के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए पण्डित ओझा जी ने कहा है कि- अध्याहार, परिहार और अभ्युन्नति, ये तीन प्रकार के फल हैं। विभक्तिरहस्य और नियामक रहस्य में धर्मों की सूक्ष्माता से विचार है। इस प्रकार यह ग्रन्थ धर्म विषयक विवेचना के लिए अत्यन्त ही उपयोगी है। Read/download

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय-सीमाप्रसङ्गविमर्श

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० अप्रैल २०२४ को एक अन्तर्जालीयराष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। इस संगोष्ठी में पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामकग्रन्थ के पहले परिच्छेद के सीमाप्रसङ्ग पर विद्वानों द्वारा व्याख्यान के माध्यम से विचार-विमर्श कियागया। सीमाप्रसङ्ग के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने विविध शास्त्रीय सन्दर्भों का उल्लेख करते हुए प्राचीन भारत कीपूर्वी एवं पश्चिमी सीमा का निर्धारण करते हुए इस सन्दर्भ में १४ प्रमाणों के आधार पर सीमाविषयक अनेकतथ्यों को उद्घाटित किया है। प्रो. सुन्दर नारायण झा, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने मुख्यवक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। वे चौदहवें प्रमाण परअपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए कहा कि पुराण में वर्णित भुवनकोश के आधार पर पं. ओझा जी ने देशकी सीमा को दो भागों में विभक्त किया है। पहला राज्य-शासन-व्यवस्थिता है और दूसरी भौगोलिक-गणित-व्यवस्थित है। समय समय पर शासन में परिवर्तन होता है। शासन परिवर्तन से स्थान के नाम औरराज्यसीमा भी बदल जाता है। जैसे कोई अभी उत्तरप्रदेश राज्य में निवास करता है परन्तु कुछ दिनों केबाद राज्यसीमा में बदलाव आने पर वही गाँव उत्तराखण्ड राज्य में चला जाता है। इसी को शासनव्यवस्थाकहते हैं। अत एव यह शासन व्यवस्था अनित्य और अव्यवस्थित है। भौगोलिकव्यवस्था हमेशा नित्य हीरहता है। इस युक्ति से भारतवर्ष की सीमा नित्य है। प्रो. दयाल सिंह, आचार्य, व्याकरण विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली, ने अपने उद्बोधन में कहा कि यह अखण्ड भारत की सीमा है। जिसका परिचय इसी ग्रन्थ से हमेंप्राप्त होता है। उन्होंने बारहवें प्रमाण पर अपना व्याख्यान दिया। तुरुष्क देश के माध्यम से भारतवर्ष कीसीमा निर्धारित किया गया है। यह तुरष्क देश तीन रूपों में विभक्त है- स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी । एसाविभाग म्लेच्छों के द्वारा किया गया है। इस समय रुसदेश समुद्र के पूर्वीभाग में एवं दक्षिणी भाग में है। उसीप्रकार तुरुष्क देश भी समुद्र के दक्षिण भाग में और पश्चिमभाग में विद्यमान है। जिस प्रकार तुरुष्क देश केदो भाग हैं वैसे ही दो भाग रुसदेश का भी है। उसी तरह भारतवर्ष का भी सिन्धुस्थान और पारस्थान ये दोविभाग हैं। डॉ. विनोद कुमार, सह अचार्य, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्याल, प्रयागराज ने तेरहवेंप्रमाण को आधार बना कर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि मार्कण्डेयपुराण के भुवनकोश मेंवर्णित भारतवर्ष के तीनों भाग में समुद्र है। एतत्तु भारतं वर्षं चतुःसंस्थानसंस्थितम् ।दक्षिणापरतो ह्यस्य पूर्वेण च महोदधिः॥हिमवानुत्तरेणास्य कार्मुकस्य यथागुणः। इस उद्धरण से सिद्ध होता है कि भारतवर्ष के दक्षिणभाग में, पश्चिम भाग में और पूर्वभाग में समुद्र है।उत्तरभाग में हिमालय है। पश्चिमभाग में समुद्र है इसकी सङ्गति कैसे होगी। इस पर ग्रन्थकार लिखते हैं किपारस की खाड़ी का समुद्र, लालसागर और भूमध्य सागर तक भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा है- पारस्याखात-समुद्रो लोहितसमुद्रो भूमध्यसमुद्रश्च अस्य पश्चिमेऽवधिः साधीयान् संभाव्यते।इन्द्रविजय, पृ.१३८ डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला नेग्यारहवें प्रमाण पर अपना व्याख्यान दिया। सभी पुराणों में भुवनकोश का वर्णन है। भुवनकोश में भारतवर्षको एक हजार योजन आयाम वाला कहा गया है। पं. ओझा जी ने मत्स्यपुराण से एक उद्धरण प्रस्तुत कियाहै। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः।आयतस्तु कुमारीतो गङ्गायाः प्रवहावधिः॥ मार्कण्डेयपुराण से-योजनानां सहस्रं वै द्वीपोऽयम् दक्षिणोत्तरम् । सामान्यतया योजनशब्द का अर्थ चार कोश होता है। परन्तु यहाँ योजनशब्द का अर्थ एक क्रोश मात्र है। एकअन्य प्रमाण भी उन्होंने दिया है। कार्यक्रम का शुभारम्भ श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के वेदविभाग के सहायक आचार्य (अतिथि) डॉ. ओंकार सेलुकर के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण हुआ। संगोष्ठीका सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मीकान्त विमल ने किया।इस कार्यक्रम में देश के विविध प्रदेशों के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं शोधसंस्थानों के आचार्यों,शोधच्छात्रों एवं संस्कृतानुरागी विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग लेते हुए इस राष्ट्रीय संगोष्ठी को सफलबनाया। वैदिक शान्तिपाठ से कार्यक्रम का समापन हुआ।

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Brahma's Universe- The Chronicle of Creation

Brahma’s Universe- The Chronicle of Creation

The Brahma’s Universe: The Chronicle of Creation is the English translation of Jagadguruvaibhavam prepared by a board of editors at Shri Shankar Shikshayatan headed by well-known indologist, Prof. Kapil Kapoor.  Renowned Vedic scholar, Pandit Madhusudan Ojha has presented in this volume a rich and ancient history of our world and civilisation. Jagadguruvaibhavam, the final part of the trilogy authored by Ojhaji on various facets of Creation, is as much an insightful work on the Vedic knowledge contained in the Vedas and Puranas as also an exceptional example of his profound knowledge and wisdom. Indravijayaha (Bharatavarsa: The India Narrative in English) and Devasurkhyati are the first two volumes on the subject. The Brahma’s Universe: The Chronicle of Creation is the English translation of Jagadguruvaibhavam prepared by a board of editors at Shri Shankar Shikshayatan headed by well-known indologist, Prof. Kapil Kapoor. Brahma is the central character of this book and through his forms, age and abode, Ojhaji has outlined the story of our universe’s evolution. It was Brahma who perceived that, in this world, the source of energy is the surya or sun. All spiritual, metaphysical and supraphysical energies are existent in the surya. The vital energy or prana , which gives life to all beings, too is produced from the sun. Brahma recorded all these in granthas (volumes) that came to be known as the Vedas. Written in verse form, the volume offers a unique rendering of the creation of atma, veda, praja and dharma. Ojhaji presents a remarkable insight into the ancient knowledge on rivers, mountains, eras and communities like Sadhyas and Manijas. Brahma’s Universe is more than a companion book of Bharatavarsa-The India Narrative. It expands the magnificent narrative of Creation, offers broader meaning to Vedic terms and illuminates the profound wisdom contained in the Vedas. प्रसिद्ध वैदिक विद्वान, पंडित मधुसूदन ओझा ने इस खंड में हमारी दुनिया और सभ्यता का एक समृद्ध और प्राचीन इतिहास प्रस्तुत किया है । सृष्टि के विभिन्न पहलुओं पर ओझा जी द्वारा लिखित त्रयी का अंतिम भाग जगद्गुरुविभवम, वेदों और पुराणों में निहित वैदिक ज्ञान पर एक व्यावहारिक कार्य है और साथ ही उनके गहन ज्ञान और ज्ञान का एक असाधारण उदाहरण भी है । इंद्रविजय (भारतवर्ष: अंग्रेजी में भारत कथा) और देवसुरख्यति इस विषय पर पहले दो खंड हैं । ब्रह्मा का ब्रह्मांड: द क्रॉनिकल ऑफ क्रिएशन प्रसिद्ध इंडोलॉजिस्ट, प्रो कपिल कपूर की अध्यक्षता में श्री शंकर शिक्षायतन में संपादकों के एक बोर्ड द्वारा तैयार जगद्गुरुवैभवम का अंग्रेजी अनुवाद है । ब्रह्मा इस पुस्तक का केंद्रीय चरित्र है और अपने रूपों, आयु और निवास के माध्यम से, ओझा ने हमारे ब्रह्मांड के विकास की कहानी को रेखांकित किया है । यह ब्रह्मा था जिसने माना था कि, इस दुनिया में, ऊर्जा का स्रोत सूर्य या सूर्य है । सूर्य में सभी आध्यात्मिक, आध्यात्मिक और अतिभौतिक ऊर्जाएं मौजूद हैं । प्राण ऊर्जा या प्राण , जो सभी प्राणियों को जीवन देती है, भी सूर्य से उत्पन्न होती है । ब्रह्मा ने इन सभी को ग्रंथों (संस्करणों) में दर्ज किया, जिन्हें वेदों के रूप में जाना जाने लगा । पद्य रूप में लिखा गया, खंड आत्मा, वेद, प्रजा और धर्म की रचना का एक अनूठा प्रतिपादन प्रदान करता है । ओझा जी नदियों, पहाड़ों, युगों और समुदायों जैसे साधुओं और मनीजों पर प्राचीन ज्ञान में एक उल्लेखनीय अंतर्दृष्टि प्रस्तुत करते हैं । ब्रह्मा का ब्रह्मांड भारतवर्ष की एक साथी पुस्तक-द इंडिया नैरेटिव से अधिक है । यह सृष्टि की शानदार कथा का विस्तार करता है, वैदिक शब्दों को व्यापक अर्थ प्रदान करता है और वेदों में निहित गहन ज्ञान को प्रकाशित करता है ।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी : शारीरकविमर्श

प्रतिवेदन श्रीशंकर शंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ अक्टूबर २०२३ को शारीरकविमर्श नामक राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन अन्तर्जालीय माध्यम से किया गया। यह संगोष्ठी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान के आचार्य एवं श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के समन्वयक प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल की अध्यक्षता में सम्पन्न हुयी जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. भगवत् शरण शुक्ल, पूर्वविभागाध्यक्ष, व्याकरण विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. टी. वी. राघवाचार्युलु, आचार्य, आगम विभाग,  राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपति तथा दो अन्य वक्ता के रूप में डॉ. राजीव लोचन शर्मा, विभागाध्यक्ष, न्याय विभाग, कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत पुरातन अध्ययन विश्वविद्यालय, असम से एवं डॉ. रघु बी. राज्, सहायक आचार्य, अद्वैतवेदान्त विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर, हिमाचल प्रदेश ने सहभागिता करते हुए निर्धारित विषय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किये। पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित शारीरकविमर्श ग्रन्थ के १४ वें प्रकरण को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी सुसंपन्न हुई। १४ वें प्रकरण का विषयवस्तु ग्रन्थकार ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है- अनेक दार्शनिकों ने अपने सिद्धान्त के अनुसार प्रधान तत्त्व को निर्धारित करते हुए सृष्टि की व्याख्या की है। चार्वाकों ने लोक को, शैवदार्शनिकों ने शिव को, भागवतों ने प्रकृति सहित विष्णु को, वैशेषिक दार्शनिकों ने प्रजापति स्वरूप आत्मा को, सांख्य दार्शनिकों ने पुरुष को और वेदान्तियों ने ब्रह्म तत्त्व को सृष्टि का मूलकारण स्वीकार किया है-             ‘लौकायतिका लोकं शैवाः शिवमिच्छयैव विश्वसृजम् ।           भागवताः सप्रकृतिं विष्णुं पश्यन्ति विश्वकर्तारम् ॥           वैशेषिकाः प्रजापतिमात्मानं पूरुषं सांख्यः ।           अथ वेदान्ती पश्यति ब्रह्मैवात्मानमस्य विश्वस्य ॥           तद्ब्रह्मणः स्वरूपं विज्ञातुं प्रयतमनानेन ।           मीमांसासूत्राणां तात्पर्यं भूयसाऽलोच्यम् ॥’, शारीरकविमर्श, पृ.२५४ इस प्रकरण में १० उपशीर्षकों के माध्यम से आत्मतत्त्व पर विचार किया गया है। जिसका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है- (क)चार्वाकदर्शन में लोक को आत्मा स्वीकार किया गया है। लोक को विश्वप्रजापति कहा गया है। यह आत्मातीत है। यह चार्वाक दर्शन नास्तिक कहलाता है। (ख) शैवदर्शन में विराट् प्रजापति आत्मा है। उपासक की दृष्टि से यह ईश्वर है। इस आत्मा की उपासना उपासक करते हैं। (ग) वैष्णव भागवत दर्शन वाले विराट् प्रजापति को ही आत्मतत्त्व मानते हैं। यह विष्णु प्रकृति में स्थित रहता है। (घ) वैशेषिक सत्यप्रजापति को आत्मतत्त्व मानते हैं। (ङ) सांख्यदर्शन वाले कपिल यज्ञप्रजापति को आत्मतत्त्व मान्ते हैं। इस दर्शन में पुरुष और प्रकृति साथ साथ सृष्टि करते हैं। (च) वेदान्तदर्शन निर्विशेष परात्पर को आत्मतत्त्व मानते हैं। अपने उद्बोधन में प्रो. भगवत् शरण शुक्ल ने कहा कि शारीरकविमर्श के १४ वें प्रकरण में ईश्वर तत्त्व पर ही विचार किया गया है। न्यायकुसुमञ्जलि के आलोक में उन्होंने कहा कि सभी दार्शनिकों ने इस ईश्वर को भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत करते हुए भी एक ही तत्त्व की व्याख्या की है। प्रो. टी. वी. राघवाचार्युलु ने कहा कि निर्विशेष उपनिषद् दर्शन का चिन्तन है। दर्शन की भाषा में इसे शुद्धचैतन्य कहा जा सकता है। डॉ. राजीव लोचन शर्मा ने इस प्रकरण का अक्षरशः व्याख्या करते हुए कहा कि इसमें सांख्यदर्शन के प्रधान तत्त्व पुरुष पर विशेष विचार किया गया है।  जो पुर् अर्थात् शरीर पिण्ड  में निवास करता है, वह पुरुष कहलाता है। वही पुरुष महेश्वर, ईश्वर और जीव है। डॉ. रघु बी. राज् ने कहा कि जिस  तत्त्व का कोई विशेषण न हो वह तत्त्व निर्विशेष है। इसी विषय का वेदान्त में शुद्धचैतन्य, ईश्वरचैतन्य और जीव चैतन्य के नाम से भी वर्णन किया गया है। अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने कहा कि सभी दार्शनिकों ने आत्मा को स्वीकार किया है। परन्तु इस आत्मा के स्वरूप में मतभिन्नता प्रतिपादित की गयी। पं. ओझाजी ने सभी दार्शनिकों का विचार यहाँ प्रस्तुत किया है। ग्रन्थ के अन्त में इसका संकेत प्राप्त होता है। आत्मा की पाँच संस्थाओं के आधार पर दृष्टिकोण की भिन्नता है । वस्तुतः आत्मतत्त्व एक है। संगोष्ठी का प्रारंभ वैदिक मंगलाचरण से तथा समापन वैदिक शान्तिपाठ से हुआ। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मीकान्त विमल ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मणि शंकर द्विवेदी ने किया। देश के विविध विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों के आचार्यों एवं शोधछात्रों ने अपनी सहभागिता द्वारा इस संगोष्ठी को सफल बनाया।       

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