श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक २९ जून २०२४ को सायंकाल ५ बजे से ७ बजे तक अन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। यह संगोष्ठी पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ के धर्मप्रसङ्ग और विद्याप्रसङ्ग को आधार बना कर समायोजित थी।
संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में आचार्य प्रो. शिवराम शर्मा, साहित्य विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने विद्याप्रसङ्ग के विविध विषयों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में अनेक विद्याओं का उल्लेख प्राप्त होता है। उन विद्याओं में प्राकृत विद्या, लौकिक विद्या, पार्थिव विषय से संबन्धित विद्या, दिव्या विद्या, वैदिक विद्या, सूर्यरसविद्या वर्णित है। उनमें प्राकृत विद्या ही निगम और आगम भेद से दो प्रकार की है। जिस के विषय में कहा गया है-
‘तत्र प्राकृतविद्या निगमागमभेदतो द्विविधा।’, इन्द्रविजय, पृ. १९९
निगमविद्या के अठारह प्रभेद हैं, एवं आगम विद्या की संख्या १२० है।
‘नैगमविद्यास्तत्र च मुख्यतयाऽष्टादशः प्रथिताः।
आगमविद्या विंशशतमित्थं सर्वविद्यानाम् ।।’, वही
दिव्यविद्या के चार विभाग हैं। प्रत्येक विभाग में सोलह संख्या हैं। इस प्रकार दिव्यविद्या के ६४ प्रभेद वर्णित हैं। मानस बल जिसे बुद्धीन्द्रिय बल भी कहते हैं, यह पहला विभाग है। दूसरे विभाग में आठ दिव्यदृष्टि सिद्धियाँ हैं। जिस को देवबल सिद्धि नाम से भी प्रस्तुत किया गया है। तीसरे विभाग में आठ कर्मेन्द्रिय बल हैं, जिनका भूतबल के नाम से प्रतिपादन किया गया है। चौथे विभाग में आठ आगमीय मन्त्रबलसिद्धियाँ हैं। जिन्हें यन्त्रबलसिद्धि नाम से भी व्याख्यायित किया गया है।
मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित प्रो. ललित कुमार पटेल, आचार्य, साहित्य विभाग, सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में विद्याप्रसङ्ग में वर्णित आठ नैगमीय मन्त्रबलसिद्धि, आठ आगमीयमन्त्र बलसिसिद्धि, आठ महौषधि बलसिद्धि को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि इस प्रसङ्ग में एक सर्पाकर्षिणी विद्या का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारतकाल यह विद्या थी। इस विद्या में मन्त्रबल से दूर स्थित सर्प का अभीष्ट स्थान पर आकर्षण किया जाता है। जनमेजय के सर्पयज्ञ में इस मन्त्रविद्या से सर्पों का आकर्षण किया गया था।
डॉ. सतीश कुमार मिश्र, सहाचार्य, संस्कृत विभाग, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में कहा कि स्वयंवह विद्या एक यन्त्रविद्या है। स्वयंवह इस शब्द का अर्थ स्वचालित यन्त्र है। इस विद्या में दिन के षष्ठिघटिका के पल विपल आदि ज्योतिषशास्त्रीय नियमों के आलोक में ज्ञान का वर्णन है।
प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने कार्यक्रम की अध्यक्ष्यता की । उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्राचीनकाल में भारत का ज्ञान अत्यन्त समुन्नत था। संपूर्ण विश्व को ज्ञान प्रदान करने के कारण भारतदेश को शिक्षक कहा गया है-
‘अपि पूर्वस्मिन् काले परमोन्नतिशिखरमायाताः।
एते तु भारतीयाः विशेषां शिक्षका अभवन्।।’, वही, पृ.१७७
न केवल ज्ञान के क्षेत्र में अपितु बल और पराक्रम में भी भातवर्ष का महत्त्व प्रसिद्ध है। इस भारत देश में अनेक चक्रवर्ती राजा लोग हुए हैं। जिन्होंने इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर अपना शासन किया था। उन राजाओं में मान्धाता प्रमुख थे। विष्णुपुराण में इसका सन्दर्भ प्राप्त होता है-
‘यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतिष्ठति।
सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥’, वही, पृ. १७७
अमेरीका, अफरीका, यूरोप और एशिया इन सभी देशों पर मान्धाता की शासन व्यवस्था थी-
‘अमरीकाख्यो देशो देशो योऽफरीकाख्यः।
यूरोप एशिया तान् सर्वान् शास्ति स्म मान्धाता॥’, वही
डॉ. ओङ्कार सेल्यूकर, वेदविभाग, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण से संगोष्ठी का शुभारम्भ हुआ। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोधसंस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया। इस कार्यक्रम में विविध प्रान्त के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के आचार्यों एवं शोधच्छात्रों ने उत्साह पूर्वक सहभागिता की।