Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2025-Journeying Overseas – A Clash between Tradition and Modernity

September 28, 2025 Noted Sanskrit scholar, Prof. Radhavallabh Tripathi, is expected to deliver the Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2025 on September 28,2025. The lecture will be organised at Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University. The topic of the lecture is: Journeying Overseas – A Clash between Tradition and Modernity The lecture is based on Pratyantaprasthanamimasa authored by Pandit Madhusudan Ojha in which he has presented a strong and well-reasoned argument in favor of foreign travel at a time when sailing overseas was widely regarded as a taboo and thought to be against the shastras. He wrote this work in the context of the coronation of King Edward VIII, to which all Indian rulers had been invited. Jaipur’s king, Sawai Madho Singh, was also required to attend the ceremony in London. As the royal guru, Ojhaji was consulted on whether such a long journey—spanning two to three months—was permissible under the shastras. While the king’s ministers and advisers expressed reservations, Ojhaji advised that the journey was indeed legitimate, and he himself accompanied the royal entourage to London. On their return, however, strong criticism arose. Rumors spread of banishing Ojhaji from the community, and the king too faced opposition. In response, Ojhaji composed this volume, demonstrating with scriptural authority that foreign travel was not prohibited but rather sanctioned within the framework of the shastras. Prof. Radhavallabh Tripathi With nearly four decades of continuous service as a regular teacher at the Universities of Udaipur and Sagar, Prof. Radhavallabh Tripathi is among the senior-most Sanskrit scholars in the country. At Dr. Harisingh Gour University (formerly University of Sagar), he holds the distinction of being the senior-most professor. Prof. Tripathi is widely recognized for his original and pioneering contributions to the study of Nāṭyaśāstra and Sāhityashāstra. His prolific scholarship includes 109 books, 183 research papers and critical essays, along with translations of more than 30 Sanskrit plays and several classical works into Hindi. He has twice served as Dean, Faculty of Arts, at Dr. Harisingh Gour University. As the senior-most professor of the institution, he also officiated as Vice-Chancellor for about six months, and on two other occasions was appointed Acting Vice-Chancellor by the Hon’ble Governor of Madhya Pradesh. In recognition of his literary and academic contributions, Prof. Tripathi has been honored with over 20 national and international awards, including the Sahitya Akademi Award for Sanskrit poetry and the Shankar Puraskar of the K.K. Birla Trust for his monumental Nāṭyaśāstra-Viśvakosha (in four volumes). He has headed the Department of Sanskrit at Dr. H.S. Gour University from July 1980 to the present, except for a three-year period (2002–2005) when he served as Visiting Professor at Silpakorn University, Bangkok, under an ICCR deputation.

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Gitavijnana Bhashya Rahasya Series

Pandit Madhusudan Ojha has collected his commentaries on Bhagavad Gita as Gitavijnana Bhashya. These books are under four classifications – Rahasyakhand, Shirshakhand, Hridyakhand and Acharakhand. Hridyakhand has not been published. Pandit Motilal Shastri has written a series of six books on these subjects in Hindi –Atmadarshan Rahasya, Brahmakarma Rahasya, Karmayoga Rahasya, Jnanayoga Rahasya,Upasana Rahasya and Budhiyoga Rahasya. पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य का प्रणयन किया है। इसमें चार काण्ड हैं- रहस्यकाण्ड, शीर्षकाण्ड, हृदयकाण्ड और आचारकाण्ड। हृदयकाण्ड अभी प्रकाशित नहीं है। रहस्यकाण्ड के पृष्ठ संख्या १७४ पर विषयरहस्य समाहित है। पण्डित मोतीलाल सास्त्री ने इन विषयों को आधार बना कर ६ ग्रन्थों की शृंखला हिन्दी भाषा माध्यम से लिखी है। जो इस प्रकार है- आत्मदर्शनरहस्य, ब्रह्मकर्मरहस्य, कर्मयोगरहस्य,  ज्ञानयोगरहस्य, उपासनारहस्य और बुद्धियोगरहस्य। आत्मदर्शनरहस्य गीता मायावच्छिन्न अव्यय तत्त्व का प्रतिपादन करती है।  (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ३) वैशेषिकदर्शन, सांख्यदर्शन और वेदान्तदर्शन इन तीनों दर्शनों के विचार का विषय आत्मा है, इस दृष्टि से ये तीनों दर्शन एक हैं।  इन तीनों दर्शनों का आत्मप्रतिपादन की शैली भिन्न भिन्न होने से ये तीनों  पृथक् है। (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ९) एक एव इदं दर्शनशास्त्रं त्रेधा विभज्योपदिश्यते। वैशेषिकशास्त्रम् अन्यत्, प्राधानिकं शास्त्रम् अन्यत्, शारीरकशास्त्रम् अन्यत्।  ( गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७६) इस संसार में आत्मा शब्द तीन तत्त्वों के माध्यम से ज्ञात होता है। ये हैं- अव्यय, अक्षर और क्षर।                                                                                                  (आत्मदर्शनरहस्य पृ. ११) क्षर- संसार के सभी प्रकार के विकारों का उपादानकारण और हमेशा विकृत होने वाला जो एक अव्यक्त पुरुष है वही क्षर कहलाता है। मिट्टी उपादान कारण है और घड़ा आदि विकार है। इसका दूसरा नाम आत्मक्षर है। (वही, पृ.११)                   मृत्तिकावद् विकारोपादानभूतः परिणामी कश्चिदव्यक्तः क्षरपुरुषः- इत्येकः। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७८) अक्षर-कुम्भकार के समान जगत् को बनाने वाला अन्तर्यामी, नियन्ता, निर्विकार, और अपरिणामी जो एक अव्यक्ततत्त्व है वही अक्षर पुरुष कहलाता है।(वही, पृ.१२) कुम्भकारवन्निर्माता सर्वशक्तिघनोऽन्तर्यामी नियन्ता निर्विकारोऽपरिणामी कश्चिदव्यक्तोऽक्षरपुरुषो द्वितीयः।  (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७८) अव्यय- कार्य और कारण से अतीत और असंग जो एक अव्यक्त तत्त्व है वही अव्ययपुरुष कहलाता है।  (वही, पृ.१२)                      कार्यकारणातीतोऽसङ्गः आलम्बनभूतः सर्वाधारो निराधारः कश्चिदव्यक्तोऽव्ययपुरुषस्तृतीयः। (गीताविज्ञानभाष्य रहस्यकाण्ड पृ.१७९) इस लघुकाय ग्रन्थ में ७२ पृष्ठ हैं एवं वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन और वैदिक विज्ञान का विस्तार से प्रस्तुति की गयी है। Read/Download Atmadarshan Rahasya ब्रह्मकर्मरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के रहस्य काण्ड की पृष्ठसंख्या २०६ पर ब्रह्मकर्म की समीक्षा है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने  ब्रह्मकर्मरहस्य नामक लघु ग्रन्थ का प्रणयन किया है। जिसमें ६२ पृष्ठ हैं। इस  ग्रन्थ में पाँच सिद्धान्तों का विश्लेषण किया गया है- त्रिसत्यवाद- जिस सिद्धान्त में तीन तत्त्व सत्य हैं, वह त्रिसत्यवाद है। प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो शब्द हैं। प्रवृत्ति का अर्थ है कर्म में लगना। जैसे नौकरी करना, पैसा कमाना, गाड़ी खरीदना ये सभी कार्य प्रवृत्ति कहलाते हैं। जो इस प्रकार के कर्म में नहीं लगता है वह निवृत्ति मार्ग है।  निवृत्ति कर्म ज्ञानयोग है, प्रवृत्ति कर्म कर्मयोग है और प्रवृत्ति-निवृत्ति ही बुद्धियोग है। इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग और बुद्धियोग ये तीनों  त्रिसत्यवाद है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ४) ब्रह्म के तीन रूप हैं- अव्यय, अक्षर और क्षर। कर्म के तीन रूप हैं- ज्ञान, कर्म और बुद्धि। ये तीन विभाग हो जाते हैं। पुनः ब्रह्म और कर्म में संबन्ध बनाने वाला तत्त्व अभ्व है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ६) इस ग्रन्थ में त्रिसत्यवाद का वर्णन पृष्ठ संख्या १ से ११ तक किया गया है। पं ओझा जी ने लिखा है कि कतिपय विद्वान् के अनुसार ब्रह्म, कर्म और अभ्व ये तीन तत्त्व हैं, ब्रह्म ज्ञान है, कर्म क्रिया है, जो दिखाई देता है, किन्तु तर्क से सिद्ध नहीं होता, वह अभ्व है। ये नाम-रूप ही अभ्व हैं, यह मत है। ब्रह्म, कर्म, अभ्वमिति त्रीणि तत्त्वानि। ब्रह्म ज्ञानम्, कर्म क्रिया, अथ यद् दृश्यते, किन्तु नोपपद्यते तदभ्वम्, नामरूपे हीमे अभ्वमित्येकं मतं भवति। (गीताविज्ञानभाष्य,  रहस्यकाण्ड, पृ २०७) द्विसत्यवाद- ब्रह्म और कर्म ये दो ही तत्त्व इस में माने जाते हैं। तीसरा अभ्व की आवश्यकता नहीं है। कर्म में ही अभ्व का समाहित है। मायामय कर्म दोनों एक ही वस्तु है।  (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ११) कर्म का अर्थ क्रिया है। क्रिया की तीन अवस्था होती है। प्रवृत्ति, निवृत्ति और स्तम्भ। घर में प्रवेश करना प्रवृत्ति है और घर से बाहर निकलना निवृत्ति है। इन दोनों क्रियाओं का योग स्तम्भन कहलाता है। (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ११) इस ग्रन्थ में ब्रह्म और कर्म का वर्णन पृष्ठ संख्या ११ से १३ तक हुआ है। पं. ओझा जी लिखते हैं कि ब्रह्म और कर्म ये दो तत्त्व हैं, अभ्व नामक कोई तीसरा तत्त्व नहीं है। मायामय अभ्व का कर्म में अन्तर्भाव हो जाता है।          ब्रह्मकर्मणी द्वे एव तत्त्वे नाभ्वम्, मायामयस्यैतस्याभ्वस्य कर्मण्येवान्तर्भावात्। (गीताविज्ञानभाष्य,  रहस्यकाण्ड, पृ २०७) असद्वाद- इस सिद्धान्त के अनुसार कर्म ही प्रधान है। ब्रह्म तत्त्व की आवश्यकता नहीं है। कर्म को बल कहा गया है। बल ही श्रम अर्थात् परिश्रम का आधार है। श्रम को स्वीकार करने वाले को श्रमणक कहा गया है। ‘कर्मैवेदं सर्वम्’ है। संपूर्ण जगत् का मूल असत् तत्त्व कर्म ही है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. १३-१४) इस ग्रन्थ में असद्वाद का वर्णन पृष्ठ संख्या १३ से २३ तक है।          पं. ओझा जी लिखते हैं कि इन ब्रह्म और कर्म में केवल कर्म ही एक तत्त्व है, इसको श्रमण लोग मान्ते हैं। यह संपूर्ण जगत् कर्म के रूप में ही दिखता है। ब्रह्म नामक कोई अतिरिक्त पदार्थ नहीं है। अथैतयोरपि ब्रह्मकर्मणोः कर्मैव तत्त्वमिति श्रमणा आतिष्ठन्ते। तथा हि कर्मैवेदं सर्वं पश्यामि। न ब्रह्म नामातिरिच्यते कश्चिदर्थः।(गीताविज्ञानभाष्य,  रहस्यकाण्ड, पृ २०७) सदसद्वाद- जो प्रतिक्षण बदलता है वह कर्म है। जो कभी नहीं बदलता है, वह ब्रह्म है। इस जगत् में इन दोनों भावों का साम्राज्य है। इस आधार पर इन दोनों तत्त्वों को स्वीकार करना  आवश्यक है। ये दोनों तत्त्व सत् और असत् नाम से भी जाने जाते हैं। इन दोनों का संबन्ध नित्य है।(ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ३०)                               असन्नेव स भवति असद्ब्रह्मेति वेद चेत् ।                         अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद  सन्तमेनं ततो विदुः॥ तैत्तिरीयोपनिषद् २..६.१सद्वाद-  ज्ञान का ही नाम ब्रह्म है। कर्म की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है, ब्रह्म में ही कर्म आश्रित रहता है और ब्रह्म में ही कर्म का प्रलय भी होता अहि। इस दृष्टि से ब्रह्म ही सत् है।   (ब्रह्मकर्मरहस्य पृ. ६१)   Read/Download Brahmakarma Rahasya कर्मयोगरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा के गीताविज्ञानभाष्य- रहस्यकाण्ड में पृष्ठ संख्या२२० पर कर्मयोगसमीक्षा है। पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने इसी को आधार बना कर  १४२ पृष्ठ वाली कर्मयोगरहस्य नामक किताब लिखी है। रहस्य ग्रन्थ शृंखला में यह ग्रन्थ तीसरे स्थान…

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Rajarshividya series

There are eight Upanishads and 50 teachings in Rajarshividya. In this series, there are three texts– Rajarshividya First, Second and Third. These three contain three Upanishads and 21 teachings. राजर्षिविद्या शृखंला राजर्षिविद्या में ८ उपनिषद् हैं और ५० उपदेश हैं। राजर्षिविद्या प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय ये तीन ग्रन्थ है। इन तीनों में ३ उपनिषद् और २१ उपदेशों को समाहित किया गया है। राजर्षिविद्या -प्रथम पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीता विज्ञानभाष्य के मूलकाण्ड में गीता के दो भाग में विभाजित किया है। एक का नाम ऐतिहासिक है और दूसरे भाग का नाम वैज्ञानिक है। गीता में ७०० श्लोक हैं। ऐतिहासिक भाग मे ६४ श्लोक और वैज्ञानिक भाग में ६३७ श्लोक हैं।                            गीताशास्त्र-प्रकरणं द्वेधा तावद् विभज्यते।                            ऐतिहासिकमस्त्यन्यदन्यद् वैज्ञानिकं पृथक् ॥                            चतुःषष्टिमिताः श्लोका इतिहास-प्रसङ्गगाः।                            वैज्ञानिकास्तु षट्त्रिंशत्-पर-षट्शत-संख्यकाः॥ —गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ २-३ वैज्ञानिक भाग में छः  विभाग हैं- उपक्रम, राजर्षिविद्या, सिद्धविद्या, राजविद्या, आर्षविद्या और उपसंहार ।                            वैज्ञानिकप्रबन्धस्य मध्ये विद्याचतुष्टयी ।                            उपक्रमोपसंहारौ तस्या आन्तयोः पृथक्॥ —गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३ अब ये जो छः भाग उपक्रम और राजर्षिविद्या आदि हैं। इसके दो भाग हैं- एक भाग में उपनिषद् है और दूसरे भाग में उपदेश है।  संपूर्ण गीता के वैज्ञानिक भाग में २४ उपनिषद् हैं और १६० उपदेश हैं। उपनिषद् २४ का विभाग इस प्रकार है-१+८+२+३+७+३=२४)                                तेषु षट्सु विभागेषु वरोपनिषदः स्थिताः।                                एका-ष्टौ द्वे- च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात् ॥ –गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३                                तत्रोपनिषदां संख्या चतुर्विंशतिरिष्यते। –वही, पृ. ४                            विद्याचतुष्टयी गीता तत्रोपनिषदः स्मृताः।                            एकाऽष्टौ द्वे च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात्। –वही, पृ. २१ उपदेश १६० हैं- उपक्रम में २ उपदेश, राजर्षिविद्या में ५० उपदेश, सिद्धविद्या में १९ उपदेश, राजविद्या में ३२ उपदेश, आर्षविद्या में ४९ उपदेश और उपसंहार में ८ उपदेश ।                            इत्थं गीतोपदेशानां संख्या षष्ट्यधिकं शतम् ।– वही, पृ. ४ उपक्रम में २ उपदेश हैं।                            चातुर्विद्योपक्रमे तूपदेशौ द्वौ प्रतिष्ठितौ। –वही, पृ. ४ राजर्षिविद्या में ५० उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-७+७+७+३+३+५+९+९=५०                            पञ्चाशदुपदेशास्तु सप्त सप्त च सप्त च ।                            त्रयस्त्रयः पञ्च नव नवेत्यष्टासु ते क्रमात्॥– वही, पृ.३ सिद्धविद्या में १९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं- १०+९=१९                            क्षमाद् दश-नवेत्येवं द्वयोस्तत्रोनविंशतिः।– वही, पृ. ३ राजविद्या में ३२ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-११+१५+६=३२                            तिसृषूपनिषत्स्वेकादश पञ्चदशाथ षट् ।– वही, पृ.३ आर्षविद्या में ४९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-९+५+७+४+२०+२+२=४९ अथ सप्तोपनिषदां नव पञ्च च सप्त च । चत्वारो विंशतिर्द्वौ द्वावुपदेशाः प्रकीर्तिताः॥– वही, पृ. ३-४ उपसंहार में ८ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-४+२+२=८                            चातुर्विद्योपसंहारे चतुष्कं च द्विकं द्विकम्। –वही, पृ.४ जो व्यक्ति राजा और ऋषि दोनों हो वह राजर्षि कहलाता है। राजा जनक को राजर्षि कहा जाता है। राजर्षि शब्द का प्रयोग गीता में हुआ है-                             एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। –गीता ४.२ किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।–गीता ९.३३ राजर्षिविद्या नामक ग्रन्थ प्रथम भाग में एक उपनिषद् है।  जिसका नाम है-ज्ञानयोगिनोऽनुशो कानौचित्य । जो ज्ञानयोगी है उसको  शोक नहीं करना चाहिए। ज्ञानयोगी के लिए शोका का अनौचित्य है।        पहला उपदेश इस क नाम देहभृत्यव्ययात्मनि जन्ममरणद्वन्द्वाभावः है। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में जन्म मृत्यु लक्षण द्वन्द्व का सर्वथा अभाव है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ११ वें, १२वें और १३ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। दूसरा उपदेश इस क नाम अस्ति हि ‘देहभृत्यव्ययात्मनि सुखदुःखद्वन्द्वस्य संयोगजत्वेनागमापायित्वम्, तस्मात् समदुःखसुखाभाविनां भूतात्मनाम् अव्ययात्म-साधर्म्य-लाभाद् अमृतत्व-संपत्तिः’। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में संयोग से उत्पन्न होने वाले सुखदुःखादि द्वन्द्व आने जाने वाले, अत एव अनित्य हैं। यदि सुखदुःखों का अनुभव करने वाले भूतात्मा के साथ अव्ययात्मा (परमात्मा) का योग कर दिया जाता है तो भूतात्मा अमृतभाव को प्राप्त करता हुआ निर्द्वन्द्व बन कर द्वन्द्वमूलक सुखदुःखादि से विमुक्त हो जाता है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १४ वें और १५वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में ८५ पृष्ठ हैं। ७ उपदेश होने के कारण इसे सप्तोपदेशी कहा गया है। तीसरा उपदेश (क) इस क नाम अस्ति हि देहभृत्यव्ययात्मनि सदसद्द्वन्द्वे असतः शरीरादेः कार्यस्य सत्त्वम्। सतस्तु कारणस्यात्मनोऽसत्त्वमनुपपन्नमिति विज्ञानसिद्धान्तः। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में प्रतिष्ठित  सदसद् द्वन्द्व  में असत् शरीर कभी सत् नहीं बन सकता है, सत् आत्मा कभी असत् नहीं बन सकता –यह निश्चित सिद्धान्त है। अर्थात् सल्लक्षण आत्मा का कभी अभाव नहीं होता एवं  असल्लक्षण  शरीर की कभी सत्ता न्हीं होती। वैज्ञानिकों ने पूर्ण परीक्षा के अनन्तर सदसद् द्वन्द्व के संबन्ध में अपना उक्त सिद्धान्त प्रकट किया है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १६ वां श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।  (ख) इस क नाम तस्माद् अस्य विकुर्वाण-विनश्वर-शरीर-योगिनोऽप्यत्मनो निर्विकारत्वाद् अविनाशित्वाच्चानुशोकानौचित्यम्। सत् आत्मा का कभी विनाश नहीं हो सकता एवं असत् शरीर कभी नित्य नहीं हो सकता, इसलिए सर्वथा परिवर्तनशील, अत एव विनश्वर सरीर के साथ नित्य युक्त रहने वाले आत्मा के सर्वथा निर्विकार एवं अविनाशी रहने से तुझे अनुशोक नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा और शरीर यद्यपि नित्यसंबद्ध हैं। तथापि आत्मा कभी नष्ट नहीं होता, शरीर कभी रहता नहीं है, इसलिए शरीर के नाश के लिए अनिशोक करना व्यर्थ है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १७ वें, १८वें और १९ वें श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है। चौथा उपदेश (क) इस क नाम अपि चौतस्य विनश्वर-शरेर-योगिनोऽप्यव्ययस्य जन्म-मृत्यु-द्वन्द्व-रहितत्वेन हननासम्भवाद् अनुशोकानौचित्यम् है। सर्वथा विनाशशाली सरीर से युक्त पुरुष जन्म मृत्यु रूप सदसद् द्वन्द्व से सर्वथा रहित हैं। ऐसी अवस्था में जन्ममृत्युरहित अव्यय का नास सर्वथा असंभव है। जब अव्ययात्मा का कभी नाश संभव नहीं है तो फिर नाशजनित तेरा अनुशोक सर्वथा अनुचित है। तुझे आत्मनित्यता को समाने रखते हुए अनुशोक का परित्याग कर देना चाहिए। इस में गीता के दूसरे अध्याय के २० वें और ११वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है। (ख) इस क नाम अपि चैतस्मिन्नव्यये महतोऽक्षरात्मनो मूर्ति-योनित्व-स्वाभाव्याच्छरीर-विधरण-परित्याग-लक्षणयोर्जन्म-मरणयोः पौनःपुनिकत्वनियमाद् अनुशोकानौचित्यम् है। व्यापक अव्यय- पुरुष पराप्रकृति नाम से प्रसिद्ध अक्षरब्रह्म एवं अपरा प्रकृति नाम से प्रसिद्ध क्षरनामक महद्ब्रह्म के साथ नित्य युक्त रहता है । अक्षरानुगृहीत महद्ब्रह्म ही मूर्ति (शरीर) भाव की योनि है । इसके इस स्वभावधर्म से नवीन नवीन शरीर उत्पन्न होता रहता है, पुराने शरीर नष्ट होते रहते हैं। इस क्रम से अव्यय के साथ नश्वर शरीर का योगरूप जन्म भाव, वियोगरूप मृत्यु- भाव धारावाहिक रूप से बार बार चक्रवत् परिवर्तित होता ही रहता है। इन आगन्तुक, उत्पन्न विनाश- शाली द्वन्द्वों से न अव्यय की हानि होती, न ह्रास होता । फलतः अव्ययानुगामी के लिए…

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Krishnarahasya series

Eight commentaries were written by Pandit Motilal Shastri based on Pandit Madhusudan Ojha’s Gitavijnana Bhashya in Sanskrit. The commentary has three parts – Rahasya Khanda, Mool Khanda, and Acharya Khanda. Ojha ji has described various forms of Shri Krishna in Acharya khanda.The ultimate principle in Vedic literature is truth and this has been revealed in Manushottam Krishnarahasya. Pandit Motilal Shastri has presented the Krishnarahasya series in the form of small books on the basis of Ojha ji’s Sanskrit commentary. These are eight respectively- Manushottamkrishnarahasya, Satyakrishnarahasya, Pratishtakrishnarahasya,Jyotikrishnarahasya,Ishwarkrishnarahasya, Paramesththikrishnarahasya,Chakshushkrishnarahasya and Vaihayakrishnarahasya. कृष्णरहस्य शृंखला पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने  संस्कृत में गीताविज्ञानभाष्य लिखा है। विज्ञानभाष्य के तीन भाग हैं- रहस्यकाण्ड, मूलकाण्ड, और आचार्यकाण्ड। आचार्यकाण्ड में श्रीकृष्ण के विविध स्वरूपों का वर्णन ओझा जी ने  किया है।  वैदिक साहित्य में परम तत्त्व सत्य है।  उस सत्य तत्त्व का अवतरण क्रमशः मानुषोत्तम कृष्ण में हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्यों में सबसे उत्तम हैं।  पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ओझा जी के संस्कृत भाष्य के आधार पर कृष्णरहस्य शृंखला को लघुग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। ये क्रमशः आठ हैं- मानुषोत्तमकृष्णरहस्य सत्यकृष्णरहस्य प्रतिष्ठाकृष्णरहस्य ज्योतिकृष्णरहस्य ईश्वरकृष्णरहस्य परमेष्ठीकृष्णरहस्य चाक्षुषकृष्णरहस्य वैहायसकृष्णरहस्य Manushottamkrishnarahasya Pandit Madhusudan Ojha has described the mystery of Manushottam Krishna in the Acharya khanda of Gitavijnanabhashya. This is the first book in the Krishnarahasya series written by his disciple, Pandit Motilal Shastri. Just as the word Purushottam is formed, similarly the word Manushottam is formed. Bhagwan Sri Krishna is Manushottam (supreme human being). Pandit Ojha ji has determined on the basis of the quotations from Gita that the word used by Bhagwan Krishna for himself in Gita has been used to describe Sri Krishna. मानुषोत्तमकृष्णरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड में मानुषोत्तमकृष्णरहस्य का वर्णन है। पण्डितमोतीलाल शास्त्री ने कृष्णरहस्य शृंखला में यह पहला है। जिस प्रकार पुरुषोत्तम शब्द बनता है उसी प्रकारमानुषोत्तम शब्द है। भगवान् श्रीकृष्ण मानुषोत्तम हैं। पण्डित ओझा जी ने गीता के उद्धरणों के आधार पर यहनिश्चित किया है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने लिए जो शब्द गीता में प्रयोग किया है उसी को आधार बना करश्रीकृष्ण का निरूपण किया गया है।मानुष अवतार कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- ग्रन्थकार ने १२ उद्धरण यहाँ संकलित किया है।ये मे मत मिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। गीता ३.३१कर्तव्यानीति मे पार्थ! निश्चितं मतमुत्तमम्। गीता १८.६ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.१)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मैं’ शब्द है उसका अर्थ मेरा है। यह मेरा शब्द मनुष्य के अर्थ में है।ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- अभुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। गीता ४.७ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्ततथैव भजाम्यम्। गीता ४.११ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.२)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वरकृष्ण के अर्थ में है।अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। गीता ३.३०न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ गीता ४.१४ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मयि’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्ययकृष्ण के अर्थ में है।मानुष और ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- मम देहे गुडाकेश ! यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि । गीता ११.७न च मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्। गीता. ११.८ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मम’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष ईश्वर कृष्ण के अर्थ में है।मानुष और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- न त्वेवाहं जातु नाम न त्वं नेमे जनाधिपाः। गीता २.१२अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते। गीता ३.२७ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष अव्यय कृष्ण के अर्थ में है। ईश्वर और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। गीता २.६१सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। गीता ५.२९ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मत्’ और ‘माम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वर अव्यय कृष्ण के अर्थ मेंहै।अव्यय, ईश्वर और मानुष कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। गीता ३.२२उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। गीता ३.२४ (गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मे’ और ‘अहम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्यय ईश्वर कृष्ण के अर्थ मेंहै।इस प्रकार इस ग्रन्थ में कृष्ण के अनेक स्वरूपों को उद्घाटित किया गया है। Read/Download Satyakrishnarahasya Satyakrishnarahasya is the second part in Acharya khanda of Gitavijnanabhashya written by Pandit Madhusudan Ojha. The true substance in the world is Krishna. Every living being in the world has a kind of destiny. Water always goes downwards. Fire always moves upwards. Air always moves diagonally. This is called destiny. This is the form of truth. The substance which never changes is called truth. This principle of destiny has been going on for millions of years. It is the same even today. Destiny is the truth and that is also Krishna. The thing which is not bound in the past, future and present is called truth. This thing is true, it never changes, this is the sign of truth.  Brahma is everything, this is the meaning of Shruti. The whole universe has originated from this one Brahman. This whole world has originated from that one Brahman. Various thoughts have originated from that one. Brahman is the truth. The universe is the second thought of truth. Creation and dissolution – these two thoughts exist. In Vedic definition, these two are called Sanchara-Pratisanchara. The true Brahman itself transforms into the form of creation. The world is created from the order of Sanchara in Brahman.  सत्यकृष्णरहस्य पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के अन्तर्गत सत्यकृष्णरहस्य दूसरे स्थान पर है। संसार में जो सत्य पदार्थ है वही कृष्ण है। संसार के प्राणिमात्र में  एक प्रकार की नियति होती है। पानी सदा नीचे की ओर जाता है ।अग्नि की गति सदा ऊपर की ओर ही होती है। वायु सदा तिरझा ही चलता है। इसी को नियति कहते हैं। यही सत्य का स्वरूप है। जो पदार्थ कभी नहीं बदलता उसी का नाम सत्य है। नियति का यह सिद्धान्त लाखों वर्ष पहले से चलता हुआ आ रहा है। आज भी वही है। नियति ही सत्य है वही कृष्ण भी है। (सत्यकृष्ण रहस्य पृ. १)                                                             जिस वस्तु का भूत, भविष्यत्,…

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Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2024

Shri Shankar Shikshayatan organises Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture every year. The lecture forms part of the annual festival organised by the institute for vedic research. On September 28, 2024,this lecture was organised at the Vachaspati Auditorium of Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University. During this function, two books were released by the guests present. One book was ‘Vedic Concept of Man and Universe’ written in English language. This book contains five lectures given by Pandit Motilal Shastri at the Rashtrapati Bhawan in 1956. The English translation of these lectures was done by Rishi Kumar Mishra. The institute has brought out a new edition with corrections and additional translation of the fifth lecture which was absent from the earlier edition. The second book was Ahoratravada Vimarsh. It is a review of Pandit Madhusudan Ojha’s book named Ahoratravada. Both these books have been published in 2024 by DK Print World, Delhi. The keynote speaker in this lecture was Prof. Krishna Kant Sharma, former Faculty Head, Sanskrit Vidya Dharmavigyan Faculty, Banaras Hindu University, Varanasi. He revealed the contemporary importance of the book Indravijaya. He gave his lecture on various aspects of Indravijaya. Pandit Madhusudan Ojha accepts history in the Vedas. Other scholars do not accept history in the Vedas. If there is history in the Vedas, then the eternity of the Vedas will be destroyed. We read many stories in many verses of the Rigveda. In Indravijaya , Indra was the first king of our Bharat nation. Keeping Indra at the centre, the geography and history of Bharatavarsha has been revealed in this book. Prof. Rajdhar Mishra, Grammar Department, Jagadguru Ramanandacharya Rajasthan Sanskrit University, Jaipur, who was present as a special guest, said that Indravijaya not only determines the geographical boundaries of Bharatavarsha, but the description of the world is also given in Indravijaya. The entire history of Bharatavarsha is proved by Shruti Praman. He said that various aspects of naming Bharat have been analysed. Bharatavarsha has four names – Bharatavarsha, Nabhivarsha, Arshabhavarsha and Haimavatvarsha. Four proofs for naming Bharat have also been presented in the book. Agnidhra’s son was Nabhi, Nabhi’s son was Rishabh, Rishabh’s son was Bharat, Bharatavarsha was named after them. Dushyant and Shakuntala’s son was Bharat, Bharatavarsha is named after them. In Shatapath Brahman, Agni is called Bharat, on this basis also the name Bharatavarsha is derived. The name Bharat also means where sustenance and nourishment is provided for. Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, welcomed all the guests and introduced Shri Shankar Shikshayatan’s principal objectives. He said the institute was founded by Rishi Kumar Mishra. Mishraji’s guru was Pandit Motilal Shastri, Motilal Shastri’s guru was Pandit Madhusudan Ojha. In this way, Shri Shankar Shikshayatan is associated with the propagation of Vedic science through guru tradition. He gave a detailed presentation on Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The programme was presided over by Prof. Bhagirath Nand of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University. He explained the importance of Indravijaya. He said that iron was not invented in the Vedic period. But stone was available everywhere. Indra’s thunderbolt was made of stone. Here stone means the hardest substance. Kalidas has also said in his epic Raghuvansha that in the course of narration of Raghucharit, King Raghu’s horse came from Iran. This evidence proves that India’s borders were very wide. Mr Anand Bordia, trustee of Shri Shankar Shikshayatan, thanked all the scholars present. A The lecture began with the melodious singing of Vedic Mangalacharana by Prof. Gopal Prasad Sharma of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University and Prof. Mahanand Jha of Laukika Mangalacharana. The programme was conducted by Dr. Mani Shankar Dwivedi of Sanskrit Department of Jamia Millia Islamia University. Many scholars from Delhi University, Jawaharlal Nehru University, Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Jamia Millia Islamia University, research students and Sanskrit lovers participated enthusiastically in the lecture and made the programme a success.

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Sattanirapeksha Sanskriti Shabda Evam Sattasapeksha Sabhyata Shabda ka Chirantan Itivritti

In this book written by Pandit Motilal Shastri, ‘Culture’ and ‘Civilization’ have been described from the point of view of Indian tradition. The author himself has written that after reading the book ‘Sanskriti ke Char’ Adhyay by Ramdhari Singh Dinkar, he felt that Dinkar’s thoughts are influenced by the western countries. What could be its Indian form? He has tried to explain this in one thousand pages of the book. He has tried to explain a mantra of Yajurveda ‘sa sanskritih prathama vishwavara‘ on the basis. He has also mentioned the thoughts of Nehru etc. keeping in view the contemporary politics. Shastri ji believes that knowledge of civilization can be obtained from archaeology and knowledge of culture can be obtained only from original scientific literature. In this regard, he has said that the ancient ruins, statues, buildings, pots, skulls and skeletons etc. related to archaeology are not called culture. All these can be called symbols of civilization. ‘Culture’ cannot be considered to have any relation with these. If you want to see the form of ‘culture’ then you will have to take refuge in the original literature based on Indian thinking, knowledge and science. Literature is considered to be the only living symbol. You can know your civilization by seeing the remains of archaeology. But you cannot understand the nature of culture through a rigid philosophy. सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द एवं सत्तासापेक्ष सभ्यता शब्द का चिरन्तन इतिवृत्त पण्डित मोतीलाल शास्त्री द्वार लिखित इस ग्रन्थ में भारतीय परम्परा की दृष्टि से ‘संस्कृति’और ‘सभ्यता’ का वर्ण किया गया है। स्वयं लेखक ने लिखा है कि रामधारी सिंह दिनकर के ‘संस्कृति के चार’ अध्याय नामक ग्रन्थ को पढकर उन्हें ऐसा लगा कि यह दिनकर जी का विचार तो पश्चिम के देशों से प्रभावित है।( सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, प्रस्तावना पृ. ७) इसका भारतीय क्या स्वरूप हो  सकता है । इसका प्रयास ग्रन्थ के एक हजार पृष्ठों में यहाँ किया है। उन्होंने यजुर्वेद के एक मन्त्र ‘सा संस्कृतिः प्रथमा विश्ववारा’ को आधर बना कर व्याख्या करने का प्रयास किया है। उन्होंने तात्कालिक राजनीति को भी दृष्टि में रख कर नेहरू आदि के विचारों का उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी एवं पाठक की जिज्ञासा को बढ़ाता है। सभ्यता और संस्कृति के विषय में कहा गया है कि मानव के आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक स्वरूप से संबन्ध रखने वाले अन्तः और बाह्य आचार ही मानव की संस्कृति और सभ्यता है। (सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. ४) शास्त्री जी मानते हैं कि पुरातत्त्व से सभ्यताअ का ज्ञान हो सकता है और संस्कृति का ज्ञान विज्ञानात्मक मौलिक साहित्य से ही हो सकता है। इसके संबन्ध में उन्होंने कहा है कि पुरातत्त्व से संबन्ध रखनेवाले प्राचीन खण्डहरों, मूर्तियों, भवनों, घट, कपाल और कंकालों आदि का नाम संस्कृति नहीं है। ये सभी सभ्यता के प्रतीक कहे जा सकते हैं। ‘संस्कृति’ का तो इन से थोड़ा भी सम्बन्ध नहीं माना जा सकता। यदि आपको ‘संस्कृति’ के स्वरूप का दर्शन करना है तो आपको भारतीय चिन्तन ज्ञान-विज्ञानात्मक मौलिक साहित्य के शरण में ही आना पड़ेगा। साहित्य ही एकमात्र प्राणवान् प्रतीक माना गया है। पुरातत्त्व  के अवशेषों के दर्शन से आप अपनी सभ्यता को जान सकते हैं। किन्तु जड़ दर्शन से आप संस्कृति का स्वरूपबोध प्राप्त नहीं कर सकते हैं।( सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. ७) सभा का सभ्य सदस्य ही मन्त्रभाषा में सभेय कहलाता है। इसके लिए उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्र को उद्धृत किया है कि  यजमान के युवा पुत्र  सभा में भाग लेने वाला हो।( सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्, यजुर्वेद २२.२२) छान्दोग्योपनिषद् का एक मन्त्र उद्धृत किया है  जिसमें सभा का वर्णन है। मैं प्रजापति के सभागृह को प्राप्त होता हूँ, मैं यशःसंज्ञक आत्मा हूँ, मैं ब्राह्मणों के यश, क्षत्रियों के यश और वैश्यों के यश को प्राप्त होना चाहता हूँ।( आत्मा प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानां यशो राज्ञां यशो विशां यशोऽहम्। छा.उ.८.१४.१) आगे विषय को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जिस समिति में, समूह में, समाज में, गण में, अनेक मानव साथ सम्मिलित होकर प्रतिभा को विकसित करते हैं वही समिति है वही सभा है। सभा की व्युत्पत्ति बतलाते हैं कि जिसमें समान भाव से सभी सुशोभित होते हैं वही सभा है। सभा का सदस्य ही सभ्य कहलाता है। ऐसे सभ्यों के सभास्वरूप आचार-व्यवहार, नियम-उपनियम, विधि, विधान ही सभ्यता कहलाती है।( सह भान्ति यस्यां सा सभा। सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. २३) उपनिषद् के मन्त्र में आत्मा और प्रजापति शब्द एक ही अर्थ का वाचक है। इसी प्रमाण के आधार पर सभ्यता और संस्कृति की दार्शनिक व्याख्या इस ग्रन्थ में हुआ है। यह हिन्दी भाषा में लिखित बहुत बड़ा ग्रन्थ है। इसमें  प्रस्तावना १४१ पृष्ठ की और गन्थ में ७७२ पृष्ठ हैं। कुल९१३ पृष्ठ हैं। इसी से इस की व्यापकता का परिचय मिलता है।  Read/Download

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Digdeshakalasvarupamimasa Part I

Pandit Motilal Shastri started a series of books based on many subjects under the title ‘Indian Hindu Manav aur uski Bhavukta’. The fourth part of this series is named ‘Digdeshkaalsvrupamimansa’. Three elements have been considered in this text. . Dik means direction. For example, east, west, north and south are the names of directions. Desh means place. For example, Delhi, Patna, India. Kaal means time. For example, past, present and future. One or two points are being presented here from the viewpoint of Vedic science of time. In Vedic science, the sun is time, the moon is direction and the earth is the country. The body is made from the earth, hence the body is called country, intelligence is obtained from the sun, hence intelligence is time. Time is calculated from the sun. Hence the sun is time. There is a relation between the mind and the moon, hence the mind is the direction. दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा-1  पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ‘भारतीय हिन्दू मानव और उसकी भावुकता’  नामक शीर्षक से अनेक विषयों को आधार बनाकर ग्रन्थ शृंखला का प्रारम्भ किया था। इस शृङ्खला के चतुर्थ खण्ड का नाम ‘दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा’ है।    दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा में तीन तत्त्वों पर विचार किया गया है। दिक् का अर्थ है दिशा। जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ये दिशाओं के नाम हैं। देश का अर्थ स्थान है। जैसे दिल्ली, पटना, भारत। काल का अर्थ समय है। जैसे भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यत्काल। इन तीनों विषयों पर विचार इस ग्रन्थ में किया गया है। काल के वैदिकविज्ञान की दृष्टि से एक-दो बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। वैदिकविज्ञान में सूर्य काल है, चन्द्रमा दिशा है और पृथ्वी ही देश है। पृथ्वी से शरीर बनता है अत एव शरीर देश  कहलाता है,  सूर्य से बुद्धि की प्राप्ति होती है अत एव बुद्धि ही काल है। सूर्य से ही काल की गणना होती है। अत एव  सूर्य काल है।  चन्द्रमा से मन का संबन्ध है अत एव मन दिशा है।( दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ७०, ७१) शरीर पृथ्वी देश बुद्धि सूर्य काल मन चन्द्रमा दिशा अथर्ववेदीय कालसूक्त में स्पष्ट वर्णन है कि काल एक तत्त्व है जिससे सृष्टि होती है। सूक्त के एक मन्त्र का अर्थ यहाँ शास्त्री जी के ही शब्दों में  प्रस्तुत है। काल से ‘आप्’ तत्त्व उत्पन्न हुआ है। काल से ब्रह्म उत्पन्न हुआ है। काल से दिशाएँ उत्पन्न हुई हैं। काल से ही सूर्य उत्पन्न हुआ है। काल में ही सूर्य पुनः प्रवेश कर जाता है। कालादापः समभवन्, कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः॥ अथर्ववेद १९.५४, दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा,  पृ. ३०९   व्याख्या क्रम में   शास्त्री जी ने कहा है कि काल का महाकालस्वरूप है क्योंकि उसी में देश और दिशा  मिल जाता है और एक मात्र काल तत्त्व ही बचता है। (दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ८५) इस ग्रन्थ की विशालता का अनुभव पृष्ठों के आधार पर किया जा सकता है, क्योंकि इस में ९०० पृष्ठ हैं।  इसकी प्रस्तावना में २०६ उपशिर्षकों को समाहित किया गया है। पारिभाषिक प्रकरण में १८५ बिन्दूओं पर चर्चा की गयी है। ग्रन्थ में  दिग्देशकाल का विस्तृत स्वरूप विवेचित है। वेद पुराणों को आधार बनाकर विषयों को लोकोपकारी एवं सर्वजन्यग्राह्य बनाने का सफल प्रयास किया गया है।  यह तीनों विषय पर वर्तमान समय में भी विद्वानों के द्वारा गहन चिन्तन किया जा रहा है। इस ग्रन्थ को एक बार पढने मात्र से  विषय का सहज  बोध हो जाता है। Read/Download

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