राष्ट्रीय संगोष्ठी श्रृंखला –कादंबिनी 2025

कादम्बिनी पंडित मधुसूदन ओझा की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है । इस खंड में प्राचीन भारतीय मौसम विज्ञान के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है, जिसकी परिकल्पना हमारे पूर्व के द्रष्टा-वैज्ञानिकों ने चार प्रकार के कारणों के गहन अध्ययन के आधार पर वर्षा के मौसम में सामान्य, असामान्य और अत्यधिक वर्षा के साथ-साथ सूखे के पूर्वानुमान के लिए की थी ।

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय-सीमाप्रसङ्गविमर्श

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३० अप्रैल २०२४ को एक अन्तर्जालीयराष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। इस संगोष्ठी में पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामकग्रन्थ के पहले परिच्छेद के सीमाप्रसङ्ग पर विद्वानों द्वारा व्याख्यान के माध्यम से विचार-विमर्श कियागया। सीमाप्रसङ्ग के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने विविध शास्त्रीय सन्दर्भों का उल्लेख करते हुए प्राचीन भारत कीपूर्वी एवं पश्चिमी सीमा का निर्धारण करते हुए इस सन्दर्भ में १४ प्रमाणों के आधार पर सीमाविषयक अनेकतथ्यों को उद्घाटित किया है। प्रो. सुन्दर नारायण झा, आचार्य, वेद विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने मुख्यवक्ता के रूप में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। वे चौदहवें प्रमाण परअपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए कहा कि पुराण में वर्णित भुवनकोश के आधार पर पं. ओझा जी ने देशकी सीमा को दो भागों में विभक्त किया है। पहला राज्य-शासन-व्यवस्थिता है और दूसरी भौगोलिक-गणित-व्यवस्थित है। समय समय पर शासन में परिवर्तन होता है। शासन परिवर्तन से स्थान के नाम औरराज्यसीमा भी बदल जाता है। जैसे कोई अभी उत्तरप्रदेश राज्य में निवास करता है परन्तु कुछ दिनों केबाद राज्यसीमा में बदलाव आने पर वही गाँव उत्तराखण्ड राज्य में चला जाता है। इसी को शासनव्यवस्थाकहते हैं। अत एव यह शासन व्यवस्था अनित्य और अव्यवस्थित है। भौगोलिकव्यवस्था हमेशा नित्य हीरहता है। इस युक्ति से भारतवर्ष की सीमा नित्य है। प्रो. दयाल सिंह, आचार्य, व्याकरण विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली, ने अपने उद्बोधन में कहा कि यह अखण्ड भारत की सीमा है। जिसका परिचय इसी ग्रन्थ से हमेंप्राप्त होता है। उन्होंने बारहवें प्रमाण पर अपना व्याख्यान दिया। तुरुष्क देश के माध्यम से भारतवर्ष कीसीमा निर्धारित किया गया है। यह तुरष्क देश तीन रूपों में विभक्त है- स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी । एसाविभाग म्लेच्छों के द्वारा किया गया है। इस समय रुसदेश समुद्र के पूर्वीभाग में एवं दक्षिणी भाग में है। उसीप्रकार तुरुष्क देश भी समुद्र के दक्षिण भाग में और पश्चिमभाग में विद्यमान है। जिस प्रकार तुरुष्क देश केदो भाग हैं वैसे ही दो भाग रुसदेश का भी है। उसी तरह भारतवर्ष का भी सिन्धुस्थान और पारस्थान ये दोविभाग हैं। डॉ. विनोद कुमार, सह अचार्य, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्याल, प्रयागराज ने तेरहवेंप्रमाण को आधार बना कर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि मार्कण्डेयपुराण के भुवनकोश मेंवर्णित भारतवर्ष के तीनों भाग में समुद्र है। एतत्तु भारतं वर्षं चतुःसंस्थानसंस्थितम् ।दक्षिणापरतो ह्यस्य पूर्वेण च महोदधिः॥हिमवानुत्तरेणास्य कार्मुकस्य यथागुणः। इस उद्धरण से सिद्ध होता है कि भारतवर्ष के दक्षिणभाग में, पश्चिम भाग में और पूर्वभाग में समुद्र है।उत्तरभाग में हिमालय है। पश्चिमभाग में समुद्र है इसकी सङ्गति कैसे होगी। इस पर ग्रन्थकार लिखते हैं किपारस की खाड़ी का समुद्र, लालसागर और भूमध्य सागर तक भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा है- पारस्याखात-समुद्रो लोहितसमुद्रो भूमध्यसमुद्रश्च अस्य पश्चिमेऽवधिः साधीयान् संभाव्यते।इन्द्रविजय, पृ.१३८ डॉ. कुलदीप कुमार, सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला नेग्यारहवें प्रमाण पर अपना व्याख्यान दिया। सभी पुराणों में भुवनकोश का वर्णन है। भुवनकोश में भारतवर्षको एक हजार योजन आयाम वाला कहा गया है। पं. ओझा जी ने मत्स्यपुराण से एक उद्धरण प्रस्तुत कियाहै। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः।आयतस्तु कुमारीतो गङ्गायाः प्रवहावधिः॥ मार्कण्डेयपुराण से-योजनानां सहस्रं वै द्वीपोऽयम् दक्षिणोत्तरम् । सामान्यतया योजनशब्द का अर्थ चार कोश होता है। परन्तु यहाँ योजनशब्द का अर्थ एक क्रोश मात्र है। एकअन्य प्रमाण भी उन्होंने दिया है। कार्यक्रम का शुभारम्भ श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के वेदविभाग के सहायक आचार्य (अतिथि) डॉ. ओंकार सेलुकर के द्वारा प्रस्तुत वैदिक मङ्गलाचरण हुआ। संगोष्ठीका सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मीकान्त विमल ने किया।इस कार्यक्रम में देश के विविध प्रदेशों के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं शोधसंस्थानों के आचार्यों,शोधच्छात्रों एवं संस्कृतानुरागी विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग लेते हुए इस राष्ट्रीय संगोष्ठी को सफलबनाया। वैदिक शान्तिपाठ से कार्यक्रम का समापन हुआ।

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Aithihasikoadhyaya

Aithihasikoadhyaya is part of Pandit Motilal Shastri’s Gitavijnana-bhashya. In this compact volume, Shastriji has described the epic battle between the Kauravas and Pandavas in a vivid explanation of the word, Kurukshetra. ऐथिहासिकोआध्याय ऐथिहासिकोआध्याय पंडित मोतीलाल शास्त्री रचित गीताविजय-भाष्य का हिस्सा है । इस संक्षिप्त खंड में, शास्त्री जी ने कौरवों और पांडवों के बीच महाकाव्य युद्ध का वर्णन कुरुक्षेत्र शब्द की विशद व्याख्या में किया है ।

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Vinjana-chitravali

Vinjana-chitravali ( illustrated science of Veda)  is a collection of illustrations and charts drawn by Pandit Madhusudan Ojha and Pandit Motilal Shastri in their many works. This volume is edited by Shastriji. These illustrations and drawings have been drawn from Shatapatha Brahmana, Gitavijnana-bhashya, Ishopanishath, Sradhvijnana and other works.   विज्ञान चित्रावली- प्रथम और द्वितीय विज्ञान चित्रावली (वेद का सचित्र विज्ञान) पंडित मधुसूदन ओझा और पंडित मोतीलाल शास्त्री द्वारा उनके कई कार्यों में तैयार किए गए चित्रों और चार्टों का एक संग्रह है । यह खंड शास्त्रीजी द्वारा संपादित किया गया है । ये दृष्टांत और चित्र शतपथ ब्राह्मण, गीतविजना-भाष्य, ईशोपनिषथ, श्राधविजना और अन्य कार्यों से तैयार किए गए हैं ।

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