Rajarshividya series

There are eight Upanishads and 50 teachings in Rajarshividya. In this series, there are three texts– Rajarshividya First, Second and Third. These three contain three Upanishads and 21 teachings.

राजर्षिविद्या शृखंला

राजर्षिविद्या में ८ उपनिषद् हैं और ५० उपदेश हैं। राजर्षिविद्या प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय ये तीन ग्रन्थ है। इन तीनों में ३ उपनिषद् और २१ उपदेशों को समाहित किया गया है।

राजर्षिविद्या -प्रथम

पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीता विज्ञानभाष्य के मूलकाण्ड में गीता के दो भाग में विभाजित किया है। एक का नाम ऐतिहासिक है और दूसरे भाग का नाम वैज्ञानिक है। गीता में ७०० श्लोक हैं। ऐतिहासिक भाग मे ६४ श्लोक और वैज्ञानिक भाग में ६३७ श्लोक हैं।

                           गीताशास्त्र-प्रकरणं द्वेधा तावद् विभज्यते।

                           ऐतिहासिकमस्त्यन्यदन्यद् वैज्ञानिकं पृथक् ॥

                           चतुःषष्टिमिताः श्लोका इतिहास-प्रसङ्गगाः।

                           वैज्ञानिकास्तु षट्त्रिंशत्-पर-षट्शत-संख्यकाः॥

गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ २-३

वैज्ञानिक भाग में छः  विभाग हैं- उपक्रम, राजर्षिविद्या, सिद्धविद्या, राजविद्या, आर्षविद्या और उपसंहार ।

                           वैज्ञानिकप्रबन्धस्य मध्ये विद्याचतुष्टयी ।

                           उपक्रमोपसंहारौ तस्या आन्तयोः पृथक्॥

गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३

अब ये जो छः भाग उपक्रम और राजर्षिविद्या आदि हैं। इसके दो भाग हैं- एक भाग में उपनिषद् है और दूसरे भाग में उपदेश है।  संपूर्ण गीता के वैज्ञानिक भाग में २४ उपनिषद् हैं और १६० उपदेश हैं। उपनिषद् २४ का विभाग इस प्रकार है-१+८+२+३+७+३=२४)

                               तेषु षट्सु विभागेषु वरोपनिषदः स्थिताः।

                               एका-ष्टौ द्वे- च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात् ॥

–गीताविज्ञानभाष्य, मूलकाण्ड, पृष्ठ ३

                               तत्रोपनिषदां संख्या चतुर्विंशतिरिष्यते। –वही, पृ. ४

                           विद्याचतुष्टयी गीता तत्रोपनिषदः स्मृताः।

                           एकाऽष्टौ द्वे च तिस्रश्च सप्त तिस्र इति क्रमात्। –वही, पृ. २१

उपदेश १६० हैं- उपक्रम में २ उपदेश, राजर्षिविद्या में ५० उपदेश, सिद्धविद्या में १९ उपदेश, राजविद्या में ३२ उपदेश, आर्षविद्या में ४९ उपदेश और उपसंहार में ८ उपदेश ।


                           इत्थं गीतोपदेशानां संख्या षष्ट्यधिकं शतम् ।– वही, पृ. ४

उपक्रम में २ उपदेश हैं।

                           चातुर्विद्योपक्रमे तूपदेशौ द्वौ प्रतिष्ठितौ। –वही, पृ. ४

राजर्षिविद्या में ५० उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-७+७+७+३+३+५+९+९=५०

                           पञ्चाशदुपदेशास्तु सप्त सप्त च सप्त च ।

                           त्रयस्त्रयः पञ्च नव नवेत्यष्टासु ते क्रमात्॥– वही, पृ.३

सिद्धविद्या में १९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं- १०+९=१९

                           क्षमाद् दश-नवेत्येवं द्वयोस्तत्रोनविंशतिः।– वही, पृ. ३

राजविद्या में ३२ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-११+१५+६=३२

                           तिसृषूपनिषत्स्वेकादश पञ्चदशाथ षट् ।– वही, पृ.३

आर्षविद्या में ४९ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-९+५+७+४+२०+२+२=४९

अथ सप्तोपनिषदां नव पञ्च च सप्त च ।

चत्वारो विंशतिर्द्वौ द्वावुपदेशाः प्रकीर्तिताः॥– वही, पृ. ३-४

उपसंहार में ८ उपदेश के क्रम इस प्रकार हैं-४+२+२=८

                           चातुर्विद्योपसंहारे चतुष्कं च द्विकं द्विकम्। –वही, पृ.४

जो व्यक्ति राजा और ऋषि दोनों हो वह राजर्षि कहलाता है। राजा जनक को राजर्षि कहा जाता है। राजर्षि शब्द का प्रयोग गीता में हुआ है-

                            एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। –गीता ४.२
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।–गीता ९.३३


राजर्षिविद्या नामक ग्रन्थ प्रथम भाग में एक उपनिषद् है।  जिसका नाम है-ज्ञानयोगिनोऽनुशो कानौचित्य । जो ज्ञानयोगी है उसको  शोक नहीं करना चाहिए। ज्ञानयोगी के लिए शोका का अनौचित्य है।       

पहला उपदेश

इस क नाम देहभृत्यव्ययात्मनि जन्ममरणद्वन्द्वाभावः है। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में जन्म मृत्यु लक्षण द्वन्द्व का सर्वथा अभाव है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ११ वें, १२वें और १३ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

दूसरा उपदेश

इस क नाम अस्ति हि ‘देहभृत्यव्ययात्मनि सुखदुःखद्वन्द्वस्य संयोगजत्वेनागमापायित्वम्, तस्मात् समदुःखसुखाभाविनां भूतात्मनाम् अव्ययात्म-साधर्म्य-लाभाद् अमृतत्व-संपत्तिः’। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में संयोग से उत्पन्न होने वाले सुखदुःखादि द्वन्द्व आने जाने वाले, अत एव अनित्य हैं। यदि सुखदुःखों का अनुभव करने वाले भूतात्मा के साथ अव्ययात्मा (परमात्मा) का योग कर दिया जाता है तो भूतात्मा अमृतभाव को प्राप्त करता हुआ निर्द्वन्द्व बन कर द्वन्द्वमूलक सुखदुःखादि से विमुक्त हो जाता है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १४ वें और १५वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

इस प्रकार इस ग्रन्थ में ८५ पृष्ठ हैं। ७ उपदेश होने के कारण इसे सप्तोपदेशी कहा गया है।

तीसरा उपदेश

(क) इस क नाम अस्ति हि देहभृत्यव्ययात्मनि सदसद्द्वन्द्वे असतः शरीरादेः कार्यस्य सत्त्वम्। सतस्तु कारणस्यात्मनोऽसत्त्वमनुपपन्नमिति विज्ञानसिद्धान्तः। देह धारण करने वाले अव्ययात्मा में प्रतिष्ठित  सदसद् द्वन्द्व  में असत् शरीर कभी सत् नहीं बन सकता है, सत् आत्मा कभी असत् नहीं बन सकता –यह निश्चित सिद्धान्त है। अर्थात् सल्लक्षण आत्मा का कभी अभाव नहीं होता एवं  असल्लक्षण  शरीर की कभी सत्ता न्हीं होती। वैज्ञानिकों ने पूर्ण परीक्षा के अनन्तर सदसद् द्वन्द्व के संबन्ध में अपना उक्त सिद्धान्त प्रकट किया है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १६ वां श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

 (ख) इस क नाम तस्माद् अस्य विकुर्वाण-विनश्वर-शरीर-योगिनोऽप्यत्मनो निर्विकारत्वाद् अविनाशित्वाच्चानुशोकानौचित्यम्। सत् आत्मा का कभी विनाश नहीं हो सकता एवं असत् शरीर कभी नित्य नहीं हो सकता, इसलिए सर्वथा परिवर्तनशील, अत एव विनश्वर सरीर के साथ नित्य युक्त रहने वाले आत्मा के सर्वथा निर्विकार एवं अविनाशी रहने से तुझे अनुशोक नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा और शरीर यद्यपि नित्यसंबद्ध हैं। तथापि आत्मा कभी नष्ट नहीं होता, शरीर कभी रहता नहीं है, इसलिए शरीर के नाश के लिए अनिशोक करना व्यर्थ है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के १७ वें, १८वें और १९ वें श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है।

चौथा उपदेश

(क) इस क नाम अपि चौतस्य विनश्वर-शरेर-योगिनोऽप्यव्ययस्य जन्म-मृत्यु-द्वन्द्व-रहितत्वेन हननासम्भवाद् अनुशोकानौचित्यम् है। सर्वथा विनाशशाली सरीर से युक्त पुरुष जन्म मृत्यु रूप सदसद् द्वन्द्व से सर्वथा रहित हैं। ऐसी अवस्था में जन्ममृत्युरहित अव्यय का नास सर्वथा असंभव है। जब अव्ययात्मा का कभी नाश संभव नहीं है तो फिर नाशजनित तेरा अनुशोक सर्वथा अनुचित है। तुझे आत्मनित्यता को समाने रखते हुए अनुशोक का परित्याग कर देना चाहिए। इस में गीता के दूसरे अध्याय के २० वें और ११वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

(ख) इस क नाम अपि चैतस्मिन्नव्यये महतोऽक्षरात्मनो मूर्ति-योनित्व-स्वाभाव्याच्छरीर-विधरण-परित्याग-लक्षणयोर्जन्म-मरणयोः पौनःपुनिकत्वनियमाद् अनुशोकानौचित्यम् है। व्यापक अव्यय- पुरुष पराप्रकृति नाम से प्रसिद्ध अक्षरब्रह्म एवं अपरा प्रकृति नाम से प्रसिद्ध क्षरनामक महद्ब्रह्म के साथ नित्य युक्त रहता है । अक्षरानुगृहीत महद्ब्रह्म ही मूर्ति (शरीर) भाव की योनि है । इसके इस स्वभावधर्म से नवीन नवीन शरीर उत्पन्न होता रहता है, पुराने शरीर नष्ट होते रहते हैं। इस क्रम से अव्यय के साथ नश्वर शरीर का योगरूप जन्म भाव, वियोगरूप मृत्यु- भाव धारावाहिक रूप से बार बार चक्रवत् परिवर्तित होता ही रहता है। इन आगन्तुक, उत्पन्न विनाश- शाली द्वन्द्वों से न अव्यय की हानि होती, न ह्रास होता । फलतः अव्ययानुगामी के लिए द्वन्द्वमूलक आनुशोक करना सर्वथा व्यर्थं हो जाता है ।इस में गीता के दूसरे अध्याय के २२वां श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

पाँचवां उपदेश

इस क नाम अपि चैतस्याव्ययात्मनः पञ्चभूत-गुरणाननुस्पृष्टत्वेन- विनाशासंभवाद नुशोकानौ चित्यम् है। पञ्चभूत एवं पञ्चतन्मात्रादि-गुणभूतों से अव्यय सर्वथा निर्लिप्त है, फलतः इसका विनाश कदापि सम्भव नहीं है। इसलिए तेरा अशोक करना व्यर्थ है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के २३ वें, २४वें और २५ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

छठा उपदेश

इस क नाम जन्म-मरणवति भोक्तरि कर्मात्मनि जन्म-मरण-द्वन्द्वस्य प्रवाह-नित्यत्वादपरिहार्यत्वाच्च शोकानौचित्यम् है। जन्म-मृत्युलक्षण द्वन्द्व से युक्त भोक्ता कर्मात्मा के साथ जनन-मरण द्वन्द्व का इसी प्रकार अनादि काल से प्रवाह चला आ रहा है।  इस के साथ ही हम इस प्रवाह को रोक भी नहीं सकते। ऐसी परिस्थिति में शोक करना सर्वथा व्यर्थ है ।इस में गीता के दूसरे अध्याय के २६ वें, २७वें और २८ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

सातवां उपदेश

इस क नाम नित्यानित्ययोरसङ्ग-सङ्गिनोः सम्बन्धस्यानिर्वचनीयत्वात्, आश्चर्यमयत्वेऽपि आत्मावध्यत्व-सिद्धान्तात्-शोकानौचित्यम् है। आत्मा नित्य है, असङ्ग है । शरीर अनित्य है, ससंग है । दोनों तमः प्रकाशवत् अत्यन्तविरुद्ध दोनों का सम्बन्ध नहीं होना चाहिए था, परन्तु हो रहा है। यही इस सम्बन्ध की अनिर्वचनीयता है। अनिर्वचनीयसम्बन्ध के कारण आत्मा एक आश्चर्य की वस्तु है। इसके यथार्थस्वरूप को जानना असंभव है। फिर भी इसके सम्बन्ध में यह निश्चित है कि यह कभी मरता नहीं। इसलिए तेरा शोक करना व्यर्थ है । इस में गीता के दूसरे अध्याय के २९ वें  और ३० वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

इस प्रकार इस ग्रन्थ मे ८५ पृष्ठ है।


Read/download Rajarshividya Part I

राजर्षिविद्याद्वितीय

राजर्षिविद्या नामक ग्रन्थ दूसरे भाग में एक उपनिषद् है।  जिसका नाम है-‘बुद्धियोगिनोऽनुशो कानौचित्यः’ । जो बुद्धियोगी है उसको शोक नहीं करना चाहिए। ज्ञानयोगी के लिए शोका का अनौचित्य है।       

 उपक्रम

इस  उपक्रम भाग में गीता के दूसरे अध्याय का ३८ वां श्लोक समाहित है। इस का नाम है-‘कर्मफलासक्ति-परित्यागोपक्रमः’ अर्थात् कर्म फल में आसक्ति का परित्याग करना।

पहला उपदेश

इस क नाम ‘कम्मसंन्यासलक्षणज्ञानयोगापेक्षया फलासक्तित्यागोपाधिकबुद्धियोगप्राशस्त्यम्’ है। बुद्धियोगनिष्ठ योगी को प्रत्येक दशा में कर्मफल की आसक्ति छोड देनी चाहिए। इससे आसक्तिमूलक अनुशोक अपने श्राप निवृत्त हो जाएगा, दूसरे शब्दों में अनासक्त कर्मठयोगी के ऊपर अनुशोक कभी आक्रमण ही नहीं करेगा । इस में गीता के दूसरे अध्याय के ३९ वें, ४०वें और ४१ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

दूसरा उपदेश

इस क नाम ‘काम्य-कर्मयोगस्य बुद्धियोग-विक्षेपकत्वेन बुद्धियोग-विघातकत्वाद् अनिष्टत्वम्’ है। काम्य कर्म बुद्धि विक्षेप करने वाला होते हैं। अत एव  वे बुद्धियोग का विरोधी होने से अनिष्ट कारक हैं। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ४२ वें, ४३ वें, ४४ वें, ४५ वें और ४६ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

तीसरा उपदेश

इस क नाम ‘कर्मयोगस्य फलासक्तित्यागोपाधिकबुद्धियोगात्मकत्वेनाभ्युपपत्तौ श्रेयस्करत्वम्’ है। कर्मयोग का यदि फलकामासक्ति छोडते हुए अनुष्ठान किया जाता है तो ऐसा कर्मयोग बुद्धि- योगात्मक बनता हुआ आत्मा के श्रेयोभाव का कारण बन जाता है  इस में गीता के दूसरे अध्याय के ४७ वें श्लोक से ५१ वें श्लोक तक कुल ५ श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है।

चौथा उपदेश

इस क नाम ‘मोह-व्यतितीर्णाः स्थितप्रज्ञताया बुद्धियोगसिद्ध्युपयत्वम्। अज्ञानवृतज्ञानजनिताया उत्थाप्याकाङ्क्षाया मनसि निर्वेदस्य बुद्धियोग-सिद्ध्युपयत्वम्’ है। जब प्रज्ञानमन के प्रज्ञानभाग से मोह हट जाता है तो मोहसंबन्ध से चञ्चल बनी हुई प्रज्ञा स्थिर बन जाती है। प्रज्ञा के स्थिर होते ही उस पर प्रतिबिम्बित बुद्धि स्थिर होती हुई आत्मा के साथ योग कर लेती है।

        
अज्ञान से ठके हुए ज्ञानलक्षण मोह से उत्थाप्याकांक्षा का उदय होता है। जब तक उत्थाप्याकांक्षा रहती है, तब तक मन में कभी अनासक्तिभाव का उदय नहीं हो सकता। फलतः तब तक बुद्दियोगनिष्ठा प्राप्त नहीं हो सक्ती। इसके लिए मन से पहले उत्थाप्याकांक्षा को हटाना होता है, तभी बुद्धियोग सिद्ध होगा। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ५२ वें और ५३ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

पाँचवां उपदेश

इस का ‘वैराग्यलक्षणबुद्धियोगस्वरूपसम्पत्तिरूपायाः स्थितप्रज्ञतायाः षड् लक्षणानि’  है। वैराग्यलक्षण बुद्धियोग रूप स्थितप्रज्ञता के छः लक्षण हैं। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ५४ वें श्लोक से ६१ वें श्लोक तक कुल ८ श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है। तुष्टिमूला के लिए ५५ वां श्लोक, प्रेयोऽनासक्तिमूला ५६ वां श्लोक, श्रेयोऽनासक्तिमूला ५७ वां श्लोक, तृप्तिमूला ५८ वां श्लोक, अनशनतपोमूला ५९वां श्लोक और इन्द्रियवशीकारमूला ६० वां एवं ६१ श्लोक हैं।

छठा उपदेश

इस क नाम ‘बुद्धियोग-प्रतिबन्धक-धर्माः’ है। बुद्धियोग के प्रतिबन्धक धर्म ७ सात हैं- विषयों का ध्यान, विषयों से संग, विषयों की इच्छा, क्रोध, संमोह, स्मृतिविभ्रम और बुद्धिनाश। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ६२ वें और ६३ वें श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

सातवां उपदेश

इस क नाम ‘राग-द्वेष-जनित-वासनामय-कषायनाशे बुद्धियोगप्रसादाद् विमल-बुद्धि-लक्षणस्य बुद्धियोगस्य ब्राह्मीस्थिति-हेतुत्वम् है’। रागद्वेष जन्य वासनारूप कषाय के नाश से बुद्धिप्रसाद के कारण निर्मल बुद्धिरूप बुद्धियोग ब्राह्मी स्थिति का कारण है। इस में गीता के दूसरे अध्याय के ६४ वें श्लोक से ७२ वें श्लोकों  को व्याख्यायित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में ३६४ पृष्ठ हैं। ७ उपदेश होने के कारण इसे सप्तोपदेशी कहा गया है।

Read/download Rajarshividya Part II

राजर्षिविद्यातृतीय

राजर्षिविद्या नामक ग्रन्थ दूसरे भाग में एक उपनिषद् है।  जिसका नाम है-‘बुद्धियोगिनः कर्मपरित्यागानौचित्यः’ । बुद्धियोगी के लिए कर्मत्याग अनुचित है।           

पहला उपदेश

इस क नाम ‘कर्मसंन्यास-कर्मारम्भ-लक्षणयोः सांख्ययोगयोः योगस्यैव श्रेयस्त्वम्’ है। कर्मसंन्यास लक्षण संन्यास (ज्ञानयोग) एवं कर्मारम्भण लक्षण योग (कर्मयोग) दोनों में बुद्धियोग नाम का  योग ही श्रेष्ठ है। इस में गीता के तीसरे अध्याय के १, २, और ३ श्लोक को व्याख्यायित किया गया है।

दूसरा उपदेश

इस क नाम ‘नैष्कर्म्योपायत्वात्, कर्मसंन्यास-वैयर्थ्यात्, कर्मपरित्यागाशक्यत्वात्, प्रकृतिसिद्धत्वत्, सनासक्त-कर्मयोग-वैशेष्यात्,कर्मारम्भ-कर्मसंन्यासयोः कर्मारम्भश्रैष्ट्यात्, जीवन-निर्वाहकत्वाच्चेति सप्तधा नाप्राप्तकर्मणः परित्यागाशक्यत्वम्’। नैष्कर्म्य का उपाय होने के कारण, कर्मत्याग व्यर्थ होने के कारण, कर्मत्याग अशक्य होने के कारण, प्रकृतिसिद्ध होने के कारण, अनासक्त कर्म योग विशिष्ट होने के कारण, कर्मत्याग तथा कर्मारम्भ में कर्मारम्भ श्रेष्ठ होने के कारण, जीवननिर्वाहक होने से, इस प्रकार सात कारणों से प्राप्त कर्म का परित्याग संभव नहीं है। । इस में गीता के तीसरे अध्याय के  ४ थे श्लोक से ८वें  श्लोक तक कुल ५  श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है।

तीसरा उपदेश

इस क नाम ‘यज्ञार्थ-कर्माणाम् अनासक्ति-कृतत्वाद् अबन्धनत्वात्  अवश्य-कर्तव्यम्। यज्ञकर्मणोऽवश्यकर्तव्यत्वात् परित्यागानौचित्यम्’ है । यज्ञार्थ कर्म अनासक्ति से किये जाते हैं, वे बन्धन का न होने से अवश्य करने चाहिए, उनका त्याग अनुचित है। इस में गीता के तीसरे अध्याय के  ९वें श्लोक से १३ वें  श्लोक तक कुल ५  श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है।

चौथा उपदेश

इस क नाम ‘उपेक्षा-बुद्धि-सहकृत-कर्मणाम् अनासक्तिकृतत्वाद् अबन्धनत्वाद् अदुष्टत्वम्। आत्मारामस्य, आत्मपरायणस्य, विषयानसक्तस्य बहिर्लोकयात्रायाम् उपेक्षा-बुद्धौ,  अपेक्षा-बुद्धिमूलक-संस्कारोदयासम्भवाद् अबन्धनस्यात्मज्ञानौपयिकस्य कर्मणः परित्यागानौचित्यम्’ है।  उपेक्षा बुद्धि से किया गया अनासक्त कर्म बन्धनकारक न होने से दोषरहित है। विषयों में अनासक्त आत्मनिष्ठ मनुष्य को बाह्य लोकयात्रा में उपेक्षा होने से, अपेक्षायुक्त संस्कार उत्पन्न होना संभव नहीं होने से बन्धन नहीं होता, ऐसे कर्म आत्मज्ञान में उपयोगी हैं, अतः उनका त्याग अनुचित है। इस में गीता के तीसरे अध्याय के  १७ वें श्लोक से २० वें  श्लोक तक कुल ४  श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है।

पाँचवां उपदेश

इस का ‘विद्वत् पामराद्युच्चावच-सर्ववोध-लोक-स्थिति-निर्वाहो लोकसंग्रह। लोकसंग्रह-कर्तव्यतादृष्ट्या कृतस्य कर्मणोऽनासक्तिहेतुत्वद् अबन्धनत्वात् परित्यागानौचित्यम्’  है। विद्वान्, पामर आदि सब प्रकार के लोगों की स्थिति का निर्वाह लोकसंग्रह है। लोकसंग्रह की दृष्टि से किया गया कर्म, अनासक्ति का हेतु होने से बन्धन नहीं करता, अतः उसका त्याग अनुचित है। इस में गीता के तीसरे अध्याय के  २१ वें श्लोक से २६ वें  श्लोक तक कुल ७  श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है।

छठा उपदेश

इस क नाम ‘प्रकृति-सिद्ध-सहज-गुण-कर्मण्यनासक्तौ कर्तृत्वानभिमानाद् अबन्धनत्वात् परित्यागायोग्यत्वम्’ है। प्रकृतिसिद्ध स्वाभाविक गुणकर्मों में अनासक्ति होने पर कर्तृत्व का अभिमान न होने से कर्म बन्धन नहीं करते, अतः कर्म त्याज्य नहीं है।  इस में गीता के तीसरे अध्याय के  २७ वें श्लोक से ३० वें  श्लोक तक कुल ४  श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है।

सातवां उपदेश

इस क नाम ‘कर्मत्यागानौचित्यस्य भगवन्मतत्व-प्रतिज्ञानम् है’। भगवान् का मत है कि कर्मत्याग अनुचित है। इस में गीता के तीसरे अध्याय के ३१ वें श्लोक  और से ३२ वें श्लोकों को व्याख्यायित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में २३८ पृष्ठ हैं। ७ उपदेश होने के कारण इसे सप्तोपदेशी कहा गया है।

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