Krishnarahasya series

Eight commentaries were written by Pandit Motilal Shastri based on Pandit Madhusudan Ojha’s Gitavijnana Bhashya in Sanskrit. The commentary has three parts – Rahasya Khanda, Mool Khanda, and Acharya Khanda. Ojha ji has described various forms of Shri Krishna in Acharya khanda.The ultimate principle in Vedic literature is truth and this has been revealed in Manushottam Krishnarahasya. Pandit Motilal Shastri has presented the Krishnarahasya series in the form of small books on the basis of Ojha ji’s Sanskrit commentary. These are eight respectively-

Manushottamkrishnarahasya, Satyakrishnarahasya, Pratishtakrishnarahasya,Jyotikrishnarahasya,Ishwarkrishnarahasya, Paramesththikrishnarahasya,Chakshushkrishnarahasya and Vaihayakrishnarahasya.


कृष्णरहस्य शृंखला

पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने  संस्कृत में गीताविज्ञानभाष्य लिखा है। विज्ञानभाष्य के तीन भाग हैं- रहस्यकाण्ड, मूलकाण्ड, और आचार्यकाण्ड। आचार्यकाण्ड में श्रीकृष्ण के विविध स्वरूपों का वर्णन ओझा जी ने  किया है।  वैदिक साहित्य में परम तत्त्व सत्य है।  उस सत्य तत्त्व का अवतरण क्रमशः मानुषोत्तम कृष्ण में हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्यों में सबसे उत्तम हैं।  पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ओझा जी के संस्कृत भाष्य के आधार पर कृष्णरहस्य शृंखला को लघुग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। ये क्रमशः आठ हैं-

मानुषोत्तमकृष्णरहस्य

सत्यकृष्णरहस्य

प्रतिष्ठाकृष्णरहस्य

ज्योतिकृष्णरहस्य

ईश्वरकृष्णरहस्य

परमेष्ठीकृष्णरहस्य

चाक्षुषकृष्णरहस्य

वैहायसकृष्णरहस्य


Manushottamkrishnarahasya

Pandit Madhusudan Ojha has described the mystery of Manushottam Krishna in the Acharya khanda of Gitavijnanabhashya. This is the first book in the Krishnarahasya series written by his disciple, Pandit Motilal Shastri. Just as the word Purushottam is formed, similarly the word Manushottam is formed. Bhagwan Sri Krishna is Manushottam (supreme human being). Pandit Ojha ji has determined on the basis of the quotations from Gita that the word used by Bhagwan Krishna for himself in Gita has been used to describe Sri Krishna.

मानुषोत्तमकृष्णरहस्य

पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड में मानुषोत्तमकृष्णरहस्य का वर्णन है। पण्डित
मोतीलाल शास्त्री ने कृष्णरहस्य शृंखला में यह पहला है। जिस प्रकार पुरुषोत्तम शब्द बनता है उसी प्रकार
मानुषोत्तम शब्द है। भगवान् श्रीकृष्ण मानुषोत्तम हैं। पण्डित ओझा जी ने गीता के उद्धरणों के आधार पर यह
निश्चित किया है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने लिए जो शब्द गीता में प्रयोग किया है उसी को आधार बना कर
श्रीकृष्ण का निरूपण किया गया है।
मानुष अवतार कृष्ण के लिए (मैं) शब्द- ग्रन्थकार ने १२ उद्धरण यहाँ संकलित किया है।
ये मे मत मिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। गीता ३.३१
कर्तव्यानीति मे पार्थ! निश्चितं मतमुत्तमम्। गीता १८.६

(गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.१)
इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मैं’ शब्द है उसका अर्थ मेरा है। यह मेरा शब्द मनुष्य के अर्थ में है।
ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द-

अभुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। गीता ४.७
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्ततथैव भजाम्यम्। गीता ४.११

(गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.२)
इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वरकृष्ण के अर्थ में है।
अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द-

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। गीता ३.३०
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ गीता ४.१४

(गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)
इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मयि’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्ययकृष्ण के अर्थ में है।
मानुष और ईश्वर कृष्ण के लिए (मैं) शब्द-

मम देहे गुडाकेश ! यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि । गीता ११.७
न च मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्। गीता. ११.८

(गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.४)
इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मम’ और ‘मां’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष ईश्वर कृष्ण के अर्थ में है।
मानुष और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द-

न त्वेवाहं जातु नाम न त्वं नेमे जनाधिपाः। गीता २.१२
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते। गीता ३.२७

(गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)
इन दोनों उद्धरणों में जो ‘अहम्’ शब्द है उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द मानुष अव्यय कृष्ण के अर्थ में है।

ईश्वर और अव्यय कृष्ण के लिए (मैं) शब्द-

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। गीता २.६१
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। गीता ५.२९

(गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)
इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मत्’ और ‘माम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द ईश्वर अव्यय कृष्ण के अर्थ में
है।
अव्यय, ईश्वर और मानुष कृष्ण के लिए (मैं) शब्द-

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। गीता ३.२२
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। गीता ३.२४

(गीताविज्ञानभाष्य, आचार्यकाण्ड, पृ.६)
इन दोनों उद्धरणों में जो ‘मे’ और ‘अहम्’ शब्द हैं उसका अर्थ ‘मैं’ है। यह ‘मैं’ शब्द अव्यय ईश्वर कृष्ण के अर्थ में
है।
इस प्रकार इस ग्रन्थ में कृष्ण के अनेक स्वरूपों को उद्घाटित किया गया है।

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Satyakrishnarahasya

Satyakrishnarahasya is the second part in Acharya khanda of Gitavijnanabhashya written by Pandit Madhusudan Ojha. The true substance in the world is Krishna. Every living being in the world has a kind of destiny. Water always goes downwards. Fire always moves upwards. Air always moves diagonally. This is called destiny. This is the form of truth. The substance which never changes is called truth. This principle of destiny has been going on for millions of years. It is the same even today. Destiny is the truth and that is also Krishna. The thing which is not bound in the past, future and present is called truth. This thing is true, it never changes, this is the sign of truth. 

Brahma is everything, this is the meaning of Shruti. The whole universe has originated from this one Brahman. This whole world has originated from that one Brahman. Various thoughts have originated from that one. Brahman is the truth. The universe is the second thought of truth. Creation and dissolution – these two thoughts exist. In Vedic definition, these two are called Sanchara-Pratisanchara. The true Brahman itself transforms into the form of creation. The world is created from the order of Sanchara in Brahman. 

सत्यकृष्णरहस्य

पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के अन्तर्गत सत्यकृष्णरहस्य दूसरे स्थान पर है।

संसार में जो सत्य पदार्थ है वही कृष्ण है। संसार के प्राणिमात्र में  एक प्रकार की नियति होती है। पानी सदा नीचे की ओर जाता है ।अग्नि की गति सदा ऊपर की ओर ही होती है। वायु सदा तिरझा ही चलता है। इसी को नियति कहते हैं। यही सत्य का स्वरूप है। जो पदार्थ कभी नहीं बदलता उसी का नाम सत्य है। नियति का यह सिद्धान्त लाखों वर्ष पहले से चलता हुआ आ रहा है। आज भी वही है। नियति ही सत्य है वही कृष्ण भी है। (सत्यकृष्ण रहस्य पृ. १)                                                            

जिस वस्तु का भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालों में बाध न हो, वही वस्तु सत्य कहलाती है। यह वस्तु सत्य है, इसका कभी परिवर्तन नहीं होता, यही सत्य का लक्षण है। (वही, पृ. ६३)  

ब्रह्म ही सब कुछ है, यही श्रुति का तात्पर्य है। इसी ब्रह्म सत्य से सारा विश्व उत्पन्न हुआ है। यह सारा प्रपञ्च उसी एक ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है। एक से ही नाना भाव उत्पन्न हुआ है। ब्रह्म सत्य है। विश्व ही सत्य का उत्तर भाव है। सृष्टि और संहार-ये दो ही भाव रहते हैं। इन्हीं दोनों को वैदिक परिभाषा में सञ्चर-प्रतिसञ्चर कहते हैं। सत्य ब्रह्म ही सृष्टि स्वरूप में परिणत होता है । ब्रह्म ही सञ्चर क्रम से जगत् बना हुआ है। (वही, पृ.३)

यह ब्रह्म सत्य हैं (सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। तैत्तिरीयोपनिषद्), अर्थात् सत्ता स्वरूप हैं, ज्ञान स्वरूप हैं, अनन्त हैं, आनन्दस्वरूप हैं। जो वस्तु अनन्त अर्थात् अपरिमित होती है, उसे वैदिक परिभाषा में भूमा कहते हैं। बहुत्व को भी भूमा कहते हैं एवं भूमा को ही आनन्द कहते हैं।( यो वै भूमा तद् वै सुखम्। छान्दोग्योपनिषद् ७.२३.१)

 इस प्रकार अनन्त का अर्थ आनन्द ही हो जाता है। वह ब्रह्म सत्यस्वरूप है। जो वस्तु सत्य होती है, जिसका त्रिकाल में अबाध होता है, वही  ‘अस्ति’ कहलाती है। अस्ति ही सत्ता कहलाती है। इस प्रकार सत्य का अर्थ सत्ता ही है। वह ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है। (सत्यकृष्ण रहस्य, पृ.४९)

रस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि रस नाम है संस्रव का अर्थात् बहने वाला। जो वस्तु बह कर दूसरे में चली जाय, उसी का नाम रस है। ‘रसति स्रवति इति रसः’। वह वस्तु दूसरे में संस्रवित हो जाती है, इसीलिए उसे रस कहते हैं। रस का यही सामान्य लक्षण है- रसः संस्रवः। (वही, पृ.८७)

ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र  ये तीनों ही रसभाग के नाम हैं एवं अग्नि और सोम बल भाग के नाम हैं। रस अप्रत्यक्ष है। बल का ही रूप दीखा करता है। विश्व का स्वरूप अग्नि और सोम से बनता है। अत एव ‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ कहा जाता है। (वही, पृ.९९)

‘चतुष्टयं वा इदं सर्वम्’  इस ब्राह्मण ग्रन्थ के आधार पर सृष्टि की व्याख्या की जाती है। आत्मा, सत्त्व, शरीर और महिमा ये चार हैं। (वही, पृ. १११)

इस प्रकार इस ग्रन्थ में अनेक विषय हैं। कृष्णरहस्य शृंखला में थोड़ा बड़ा भी है।        

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Pratishtakrishnarahasya
Pratishthakrishnarahasya is the third book under Acharya Khanda of Gitavijnanabhashya  written by Pandit Madhusudan Ojha. He  has explained the term ‘Pratishtha’ in his book, Brahmasiddhanta, as a defining word related to vedic science.  The use of the term Pratishtha is found in Brihadaranyaka Upanishad, Kenopanishad and Bhagavad Gita. Pandit Motilal Shastri, in his commentary, has described the pratishtha form of Krishna in Pratishthakrishnarahasya. Pratishtha means that whatever material exists in the world has a presence which means it has pratishtha and that is Brahma. Shastrijii has considered Brahma as synonymous with pratishtha and has presented its explanation in various dimensions in this book.

प्रतिष्ठाकृष्णरहस्य

पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के अन्तर्गत
प्रतिष्ठाकृष्णरहस्य तीसरे स्थान पर है। पण्डित मधुसूदन ओझा ने ब्रह्मसिद्धान्त नामक ग्रन्थ में प्रतिष्ठाधिकरण में ‘प्रतिष्ठा’ पद को एक वैदिकविज्ञान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रस्तुत किया है। इनके प्रधान शिष्य एवं
वैदिकविज्ञान के हिन्दी विज्ञानभाष्यकार पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने गीता की व्याख्या के क्रम
में प्रतिष्ठाकृष्ण रहस्य नामक किताब में कृष्ण के प्रतिष्ठा रूप का वर्णन किया है। प्रतिष्ठा पद का
प्रयोग बृहदारण्यक उपनिषद् (अहोरात्राणि प्रतिष्ठा, बृहदारण्यक उपनिषद् १.१.१), केनोपनिषद् (तस्यै
तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः। केनोपनिषद् ४.८) एवं गीता,( ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च। गीता
१४. २४) में मिलता है। प्रतिष्ठा का अर्थ है कि संसार में जितने भी पदार्थ हैं उसमें जो स्थिरता है,
वही प्रतिष्ठा है और वह ब्रह्म है। शास्त्री जी ने ब्रह्म को प्रतिष्ठा का पर्याय मान कर विविध
आयामों में इसकी व्याख्या इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है। ब्रह्म और प्रतिष्ठा में कोई अन्तर नहीं है
प्रतिष्ठा का स्रोत वैदिक ग्रन्थों में मिलने के कारण इसको अलग से समझाने की आवश्यकता हुई।
ब्रह्म संसार के सभी पदार्थों की प्रतिष्ठा है एवं यही सबसे पहला है। सबसे पहले ब्रह्म ही
ज्ञात होता है। इस ब्रह्म शब्द से प्रतिष्ठा तत्त्व ही अभिप्रेत है। संसार के सभी पदार्थों में जो एक
ठहराव है उसी का नाम प्रतिष्ठा ब्रह्म है।( प्रतिष्ठाकृष्ण रहस्य पृ. १)
प्रतिष्ठा दो प्रकार की होती है- आत्मधारण लक्षणा और विधृति लक्षणा। जो आत्मधारण
लक्षणा प्रतिष्ठा है, वही सत्ता प्रतिष्ठा कहलाती है। इसी को स्वप्रतिष्ठा भी कहते हैं। यह सर्वथा
स्वतन्त्र है। दूसरी प्रतिष्ठा विधृति लक्षणा है। इसी प्रतिष्ठा को पर-प्रतिष्ठा भी कहते हैं। यह
प्रतिष्ठा सर्वथा परतन्त्र है। (सत्यकृष्ण रहस्य पृ. १२९)
ब्रह्म सबसे पहले स्वरूप को प्राप्त होता है । संसार में जितने भी नई वस्तुएँ विकसित
होती हैं, उन सब में पहले यह ब्रह्म ही रहता है। जो कुछ विकसित होता है उसमें पहले प्रतिष्ठा
का ही जन्म होता है। क्रिया से ही विश्व की उत्पत्ति होती है। आदान क्रिया और विसर्ग क्रिया
ही विश्व की जननी है। जिसका आदान होता है उसका नाम सोम है और जिसका विसर्ग होता है
उसका नाम अग्नि है। अग्नि और सोम से ही तो सारी सृष्टि होती है। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र अग्नि और
सोम ये पाँच अक्षर ही तो सब कुछ हैं। पाँच अक्षर ही तो सृष्टि के मूल तत्त्व है। ब्रह्मा प्रतिष्ठा का
नाम है, इन्द्र विसर्ग का नाम है विष्णु आदान सक्ति का नाम है।( प्रतिष्ठाकृष्ण रहस्य पृ. ६)
भगवान् श्री कृष्ण वासुदेव मनुष्य के पुत्र होते हुए भी विद्या और अविद्या दोनों में
समभाव से कार्य करते हुए ईश्वर है और मनुष्य भी हैं। यही ईश्वर तत्त्व आधार होने से प्रतिष्ठा
का स्वरूप बनता है। इस प्रकार इस लघु पुस्तक में प्रतिष्ठा के अनेक स्वरूपों का वर्णन मिलता है।

ब्रह्मैवास्य सर्वस्य प्रतिष्ठा ब्रह्म वै सर्वस्य प्रथमजम् ।
स एष पुत्रः स पिता स मात तपो ह यज्ञं प्रथमं संबभूव॥

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Jyotikrishnarahasya
Jyotikrishnrahasya is the fourth section after Pratishthakrishnarahasya. Jyoti means name and form. If there is an object with a permanent existence, then it must have some name and form. Name and form is Jyoti. Pandit Motilal Shastri has described many forms of Krishna on the basis of Acharya khanda, Gitavijnanabhashya of Pandit Madhusudan Ojha. The reason behind the light that we see in the world is Jyotiswaroop Krishna.

ज्योति कृष्णरहस्य
प्रतिष्ठाकृष्णरहस्य के बाद ज्योतिकृष्णरहस्य का क्रम चौथा है। ज्योति का अर्थ नाम-रूप है। यदि
कोई प्रतिष्ठित अस्तित्वयुक्त वस्तु है तो उसका कोई न कोई नाम भी अवश्य ही है एवं रूप भी
अवश्य ही है। नाम-रूप ही ज्योति है।( ज्योतिकृष्ण रहस्य पृ. ३)
पण्डित मधुसूदन ओझा जी के गीताविज्ञानभाष्य आचार्यकाण्ड के आधार पर पण्डित मोतीलाल
शास्त्री ने कृष्ण के अनेक स्वरूपों का वर्णन किया है। कृष्णों के विविध स्वरूपों के आधार पर
धारावाहिक रूप में लघुग्रन्थों का प्रणयन किया गया है। कृष्ण का पौराणिक स्वरूप को
वैदिकधारा से जोड़ने का कार्य किया गया है। प्रायः लोक में जिस प्रकाश के दर्शन हम लोग
करते हैं उस प्रकाश का जो कारण है। वह ज्योतिश्वरूप कृष्ण है। इस क्रम में शास्त्री जी ने
मुण्डकोपनिषद् के मन्त्र को उद्धृत किया है।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।( मुण्डकोपनिषद् २.२.१०)
वहाँ न तो सूर्य प्रकाशित होता है, न चन्द्रमा और तारागण ही, न ये बिजलियाँ ही चमकती हैं,
फिर इस अग्नि के लिए तो कहना ही क्या। जिस के प्रकाश से सभी प्रकाशित होते हैं । उस प्रकाश
से यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है। यह मन्त्र कठोपनिषद् एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी
मिलता है। ज्योति का अर्थ प्रकाश है। जिससे यह लोक प्रकाशित होता है। उस को जहाँ से प्रकाश
मिलता है वही तत्त्व कृष्ण हैं। इसी मन्त्र के आधार पर ज्योति दो प्रकार के हैं, ऐसा शास्त्री जी
कहते हैं। पहला ज्ञानज्योति और दूसरा भूतज्योति। भूतज्योति में सूर्य, चन्द्रमा, तारा, विद्युत् एवं
अग्नि है।( ज्योतिकृष्ण रहस्य पृ. ३)
भूत और ज्ञान ज्योति दोनों ही नाम-रूप द्वारा संसार के सभी पदार्थों को प्रकाशित करते
हैं। अत एव नाम-रूप को ज्योति कहा जाता है। पदार्थों पर सूर्य की रश्मियाँ पड़ती है। वही
पदार्थ का रूप धारण कर लेती है। आँखों पर आने वाली सूर्य रश्मियाँ ही तो रूप है। सूर्य
रश्मियाँ ही रूप के कारण हैं। अत एव रात्रि में पदार्थों के रूप का प्रत्यक्ष नहीं होता। अत एव
मानना पड़ता है कि रूप अवश्य ही ज्योति है। श्रुति में ‘वाक्’ को भी अर्थ का द्योतक बतलाया
है। वाक् से ही नाम बनते हैं। नाम से विषय चमक पड़ते हैं। नाम ही ज्योति है। घट के रूप का
तो चक्षुरिन्द्रिय से प्रत्यक्ष हो जाता है परन्तु ‘घट’ इस नाम का चक्षुरिन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता।
नाम और रूप से ही संसार के पदार्थ प्रकाशित होते हैं। प्रकाश को ही ज्योति कहते है।
( ज्योतिकृष्ण रहस्य पृ. ८)
इस प्रकार ज्योति के विविध स्वरूपों को बतलाते हुए भगवान् श्री कृष्ण के साथ संबन्ध
को दर्शाया गया है यही इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है।

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Ishvarkrishnarahasya

In this commentary on Bhagavad Gita, Pandit Motilal Shastri has given a vivid explanation of the elemental force of Shri Krishna. Topics like saptaloka vijnana,rodasi-krandasi-samyati vijnana,shatasanst prajapati vijnana,panchapundeer vijnana,panchachiti vijnana, saptdwipa and saptamudra are described in detail. In this volume, Shastriji has explained the difference between ishvar and parameshvar. We cannot explain parameshvar but we can find a meaning for ishvar because of one of its forms is prajapati.

ईश्वरकृष्णरहस्य

पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के अन्तर्गत ईश्वरकृष्णरहस्य पाँचवें स्थान
पर है। ईश्वरकृष्ण रहस्य नामक ग्रन्थ में ईश्वर का अर्थ प्रजापति है, ऐसा पण्डित मोतीलाल शास्त्री का विचार है।
शतपथब्राह्मण में ‘संवत्सरः प्रजापतिः’(बृहदारण्यक १.५.१५), ऐसा वर्णन मिलता है। इसी के आधार पर
प्रजापति की व्याख्या उन्होंने की है। संवत्सर की वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरत्, हेमन्त, शिशिर ये छह ऋतुएँ हैं।
अत एव प्रजापति भी छह संस्था वाले हैं- आत्मा, गुण, शरीर, द्रविण, उपग्रह, कार्त्स्न्य। (ई.कृ. रहस्य, पृ ३)
आत्म प्रजापति- अव्यय, अक्षर, और क्षर इन तीनों की समष्टि का नाम आत्मा है। क्षर दो प्रकार के हैं- आत्मक्षर
और यज्ञक्षर। (वही, पृ. ८) ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम से पाँच अक्षर तत्त्व हैं। ये सभी पृथक् पृथक् भाव
में शुद्ध रूप में रहते हैं। जब इन तत्त्वों से सृष्टि होती है तब ये सभी आत्मक्षर कहलाते हैं। ब्रह्मा से प्राण, विष्णु से
आप, इन्द्र से वाक्, अग्नि से अन्नाद और सोम से अन्न, ये विकारक्षर हैं। जब ये पाँचों आपस में मिलते है तब सृष्टि
होती है। मिलने वाली अवस्था ही यज्ञक्षर है। (परमेष्ठीकृष्णरहस्य, पृ.३) यज्ञक्षर का तात्पर्य विश्व है।(ई.कृ.
रहस्य, पृ ८)
गुण प्रजापति- प्रतिष्ठा, ज्योति और यज्ञ ये तीन आत्मा के गुण हैं ।
यः सर्वज्ञ: सर्ववित् यस्य ज्ञानमयं तपः।
तस्मादेतद् ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायते॥ मुण्डकोपनिषद् १.१.९
इस मन्त्र में जो ब्रह्म है वही प्रतिष्ठा है। नाम और रूप ज्योति है तथा अन्न ही यज्ञ है।
शरीर प्रजापति- बीज, दैवत और भूत इन तीनों की समष्टि ही आत्मप्रजापति हैं।
द्रविणप्रजापति- द्रविण का अर्थ वित्त अथवा सम्पत्ति है। यह तीन प्रकार की है- ब्रह्म, क्षत्र और विट्। ब्रह्म का
अग्नि से सम्बन्ध है। अग्नि का छन्द गायत्री है अतएव‘गायत्र्या ब्राह्मणे निरवर्तयत्’ यह कहा जाता है। क्षत्र का
इन्द्र से सम्बन्ध है। इन्द्र के छन्द का नाम ‘त्रिष्टुप्’ है। अतएव ‘त्रिष्टुभो वै राजन्यः’ विट् विश्वेदेवों से सम्बन्ध
रखता है। वह द्युलोकस्थ है। द्युलोक के छन्द जगती है। अत एव ‘जगती-छन्दा वै राजन्य:’ कहा जाता है। ब्रह्म,
क्षत्र और विट् ये तीन अन्तरङ्ग वीर्य कहलाता है।
उपग्रहप्रजापति- वेद, लोक और वाक् ये तीन उपग्रह हैं। इस उपग्रह में वेद साहस्री, लोक साहस्री और वाक्
साहस्री ये तीन साहस्री हैं।
कार्त्स्न्य प्रजापति- जाया, प्रजा और वित्त ये तीन ही कार्त्स्न्य (समग्र)हैं। जब तक ये तीनों नहीं होती हैं तब तक
जीवात्मा अपने आपको अधूरा समझता है।

आत्मप्रजापति——— अव्यय, अक्षर, क्षर
गुण प्रजापति——– प्रतिष्ठा, ज्योति, यज्ञ
शरीर प्रजापति——- बीज, दैवत, भूत
द्रविणप्रजापति ——ब्रह्म, क्षत्र, विट्
उपग्रहप्रजापति ——-वेद, लोक, वाक्
कार्त्स्न्य प्रजापति——– जाया, प्रजा, वित्त

कौषीतकि ब्राह्मण में ‘चतुष्टयं वा इदं सर्वम्, २.१’ यह कहा गया है। ये हैं आत्मा, पदम्, पुनःपदम् और कार्त्स्न्यम्।
आत्मा में षोडशी और यज्ञ रहते हैं, पदम् में प्रथमज और शारीर रहते हैं, पुनःपदम् में द्रविण और उपग्रह रहते हैं
और कार्त्स्न्य में आत्मा और काम्य रहते हैं। (ई.कृ. रहस्य, पृ ३७)
इस प्रकार इस ग्रन्थ में अनेक विषयों को स्पष्ट किया गया है। वर्णन के क्रम में शास्त्री जी ने अनेक भेदों
उपभेदों का वर्ण किया है। इस के अध्ययन से भारतीय दर्शन के पाठकों को एक नई दिशा मिलेगी।

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Parameshtikrishnarahasya

Pandit Motilal Shastri has explained in this volume that Krishna was a scientific element spread throughout the universe. One of these is Parameshti Krishna. It is one of the first elements born from Parameshti. What is Parameshti and how is it present in the universe? Answers to these profound questions have been given in this book. Parameshti is the element which makes the universe work. It is where the yajna of Creation begins.

परमेष्ठीकृष्णरहस्य

पण्डित मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड में परमेष्ठी का स्वरूप पृष्ठ २०५ से
२१५ तक वर्णित है। कृष्णरहस्य शृंखला में परमेष्ठीकृष्णरहस्य छठे स्थान पर है। वैदिकविज्ञान में महिमामण्डल
और परमाकाश एक ही अर्थ के द्योतक हैं। महिमामण्डल में अप्, वायु और सोम रहते हैं। परमाकाश को ऋत
कहा जाता है। परमाकाश में रहने के कारण अप्, वायु और सोम को भी ऋत कहा जाता है। ये तीनों तत्त्व का
कोई शरीर नहीं होता है। शरीर का अर्थ पिण्ड है। ये तीनों परम स्थान, परमाकाश और महिमा में रहते हैं। अत
एव ये तीनों परमेष्ठी कहलाते हैं। अप्, वायु और सोम की समष्टि ही परमेष्ठी है। जिस प्रकार सूर्य अग्नि का गोला
है उसी प्रकार पानी, हवा और सोम का गोला ही परमेष्ठी है। (परमेष्ठीकृष्णरहस्य, पृ, २१)
परमेष्ठी का अर्थ विष्णु है। वैदिक विज्ञान में यज्ञ को विष्णु कहा जाता है। अग्नि में सोम की आहुति पड़ने
का नाम ही यज्ञ है। ‘यज्ञो वै विष्णुः’ ‘विष्णुर्वै यज्ञः’ कहा गया है। पृथिवी के अधिष्ठाता अग्नि है। अन्तरिक्ष के
अधिष्ठाता वायु है। वायु में एक भाग मरुत्वान् इन्द्र का रहता है।
तुरीय-भागमिन्द्रोऽभवत् त्रिभागवायुः। स एष इन्द्रतुरीयोग्रहोगृह्यते यदेन्द्रवायवः। (ऐ. ब्रा.)
अत एव इन्द्र को अन्तरिक्ष का अधिष्ठाता कहा गया है। द्युलोक का अधिष्ठाता सूर्य है। इस प्रकार अग्नि, वायु और
सूर्य अथवा अग्नि, इन्द्र और सूर्य ये तीन देवता तीनों लोकों के अधिष्ठाता हैं। जैसा की यास्क ने कहा है-
तिस्र एव देवता इति नैरुक्ताः-अग्निर्भूस्थानो वायुर्वेन्द्रोऽन्तरिक्षस्थानः सूर्यो द्युस्थानः।

निरुक्त ७.२

यहाँ ध्यान यह देना है कि अन्तिरिक्ष स्थान के लिए कहीं वायु का कहीं इन्द्र का उल्लेख होता है।
(परमेष्ठीकृष्णरहस्य, पृ, ३६)
सूर्य से विष्णु का ग्रहण होता है। इसके लिए पं. शास्त्री जी लिखते हैं कि इन्द्र, विवस्वान्, मित्रा, वरुण, धाता,
अर्यमा, अंस, त्वष्टा, भग, पूषा, सविता और विष्णु हैं। ये बारह आदित्य हैं। आदित्य के अन्तर्गत भी विष्णु का
स्थान निर्धारित है।(परमेष्ठीकृष्णरहस्य, पृ, ३७)
सृष्टि का प्रारम्भ परमेष्ठी मण्डल से होता है। जब दो वस्तु परस्पर मिल कर एक तीसरी वस्तु बन जाती है, उसी
का नाम सृष्टि है। यह मिलने का काम परमेष्ठी से ही होता है पानी में स्नेह (चिकनापन) गुण रहता है। वह मिला
देता है। सृष्टि का मूल कारण पानी है। प्रजा उत्पन्न करने के लिए भगवान् प्रजापति ने सबसे पहले पानी को
उत्पन्न किया। अग्नि औएअ सोम से सृष्टि होती है। स्त्री के अग्निमय रुधिर में जब सोमस्वरूप पुरुष के शुक्र की
आहुति होती है तो अग्नीषोमात्मक यज्ञ से ही प्रजोत्पत्ति होती है। अग्नि का नाम अङ्गिरा है और सोम का नाम
भृगु है। दोनों ही परमेष्ठी के मनोता हैं। परमेष्ठी आपोमय है। अत एव सर्वमापोमयं जगत् कहा गया है।
(मानुषोत्तमकृष्णरहस्य पृ. ९)

ऋतमेव परमेष्ठि ऋतं नात्येति किञ्चन।
ऋतं समुद्र आहितं ऋतं भूमिरियं शृता॥तैत्तिरीयब्राह्मण १.५.५.१

इस मन्त्र को उद्धृत करते हुए पं शास्त्री जी लिखते हैं कि अप, वायु और सोम ये तीनों ही ऋत हैं। ये तीनों तत्त्व
जिस स्थान पर उत्पन्न होते हैं, जिस स्थान पर प्रतिष्ठित रहते हैं और जिस स्थान पर विलीन होते हैं। वह स्थान
परमेष्ठीमण्डल है। उसी को ब्रह्मपद कहा गया है। वर्तमान समय में जहाँ भी जल का, वायु का और सोम की

प्रतीति होती है वह परमेष्ठी ही है। परमेष्ठी स्वरूप ब्रह्म के चारों ओर इसकी महिमास्वरूप जो अप्, वायु और
सोम का मण्डल है वह ‘ब्रह्मपुर’ कहलाता है। ((परमेष्ठीकृष्णरहस्य, पृ, २४-२५)

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Chakshushakrishnarahasya
Pandit Motilal Shastri has explained the Krishna element and given meaning to avataran and avatar scientifically. He has explained the importance of chakshu (eye) in human body and how Brahma lives in chakshu. Sources of illumination in the universe like sun, moon, stars, agni and electricity are all matter but depend on jnana jyoti for their illumination. This jyoti is chakshush purusha and Shastriji has presented a vivid description of this element. This illumination is part of Krishna element.

चाक्षुषकृष्णरहस्य

पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के अन्तर्गत
चाक्षुषकृष्णरहस्य सातवें स्थान पर है।
पण्डित मधुसूदन ओझा ने गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड में पृष्ठ संख्या २१६-२२५ पर
चाक्षुष कृष्ण का स्वरूप का प्रतिपादन किया है। पण्डित मोती लाल शास्त्री ने हिन्दी भाषा में
चाक्षुषकृष्ण रहस्य पर एक लघुग्रन्थ प्रकाशित किया है। छान्दोग्योपनिषद् में चाक्षुषपुरुष का
स्वरूप प्राप्त होता है। यह चक्षु द्वारा उपलक्षित आकाश अनुगर है वह चाक्षुष पुरुष है।
अथ यत्रैतदाकाशमनुविषण्णं चक्षुः स चाक्षुषः पुरुषः। दर्शनाय चक्षुः। ८.१२.४
यह जो पुरुष नेत्रों में दिखाई देता है यह आत्मा है, यह अमृत है, यह अभय है, यह ब्रह्म है।
य एषोऽक्षिणि पुरुषो दृश्यते एष आत्मा, एतदमृतम् अभयम्, एतद् ब्रह्म च। वही ८.७.४
वैदिकविज्ञान में स्वयम्भूमण्डल, परमेष्ठीमण्डल, सूर्यमण्डल, पृथ्वीमण्डल और चन्द्रमण्डल ये
पाँच मण्डल हैं। इन पाँचों मण्डलों में सत्य का अवतार होता है। सूर्यमण्डल में जो सत्य का
अवतरण होता है वही सौरकृष्ण है। इसमें ऐतरेय उपनिषद् प्रमाण है। । (चाक्षुषकृष्णरहस्य पृ.१)

आदित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशत्। १.२.४

बृहदारण्यक उपनिषद् में भी चाक्षुष पुरुष का वर्णन प्राप्त होता है। वह जो सत्य है, वह आदित्य
है, इस आदित्यमण्ड में जो पुरुष है, दक्षिण नेत्र में जो पुरुष है, वे दोनों पुरुष एक दूसरे में
प्रतिष्ठित है, आदित्य रश्मियों के द्वारा चाक्षुष पुरुष में प्रतिष्ठित है आउर चाक्षुष पुरुष प्राणों के
द्वारा उसमें प्रतिष्ठित है। (चाक्षुषकृष्णरहस्य पृ.३४)
तद् यत्तत् सत्यमसौ स आदित्यो य एष एतस्मिन् मण्डले पुरुषो यश्चायंदक्षिणेऽक्षन्
पुरुषस्तावेतावन्योन्यस्मिन् प्रतिष्ठितौ रश्मिभिरेषोऽस्मिन् प्रतिष्ठितः प्राणैरयममुष्मिन्। ५.५.२
सूर्य से इन्द्र नामाक आदित्य अभिप्रेत है। सूर्य के गोले में १२ प्राण हैं जिस बारह आदित्य कहते
हैं। इन बारह प्राणों में एक इन्द्र नामक प्राण है।(चाक्षुषकृष्णरहस्य पृ.१) मनुष्य के दाहिनी आँख में
इन्द्र और बायीं आँख में इन्द्र की पत्नी रहती है। । (चाक्षुषकृष्णरहस्य पृ.३५)
बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि दक्षिण नेत्र में जो पुरुष है, वह इन्ध नाम वाला है।
उसी पुरुष को इन्ध होते हुए भी परोक्षरूप से इन्द्र कहते हैं, क्योंकि देवगण परोक्षप्रिय हैं।
इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन् पुरुषस्तं वा एतमिन्धं सन्तमिद्र इत्याचक्षते परोक्षेणैव
परोक्षप्रिया इव हि देवताः। ४.२.२। (चाक्षुषकृष्णरहस्य पृ.२७)

इस प्रकार लघुग्रन्थ चाक्षुष कृष्ण रहस्य में अनेक तत्त्व समाहित हैं। भारतीय दर्शन में यह विषय
सर्वथा नवीन है। इस तत्त्व की ओर विद्वानों का ध्यान नहीं गया है। आँख से देखने के समय अनेक

रंगों का दर्शन होता है। उन सात रंगों को वैदिक प्रमाण के आधार पर चाक्षुष कृष्ण रहस्य में
परतिपादन किया गया है।

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Vaihayasakrishnarahasya
Pandit Motilal Shastri has explained the vaihayas form (sky or atmosphere) of Krishna. Moon existing in space is Krishna. Shastriji has also presented a sensitive portrayal of rasarasika and radha in his work.

वैहायसकृष्ण रहस्य

पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित गीताविज्ञानभाष्य के आचार्यकाण्ड के पृष्ठ २२६ से २३० तक अन्तर्गत
वैहायसकृष्ण का वर्णन किया है। यह वैहायसकृष्ण रहस्य आठवें स्थान पर है। विहायस का अर्थ आकाश अथवा
अन्तरिक्ष है। विहायस् शब्द से वैहायस बना है।

वियद्विष्णुपदं वा तु पुंस्याकाशविहायसी। अमरकोश

पण्डित मोतीलाल शास्त्री के अनुसार अवतार का क्रम यह है कि स्वयम्भू क्रमश: परमेष्ठीमण्डल में, सूर्यमण्डल में,
चन्द्रमण्डल में और पृथ्वी में उतरता है। पृथ्वी पर उतर कर ही सृष्टि का कार्य करता है। चन्द्रमण्डल आकाश में है
और आकाश का अन्तरिक्ष स्वरूप है। अत एव वैहायस के वर्णन में चन्द्रमा मुख्य आधार है। चन्द्रमा को आधार
बनाकर ग्रन्थ का विश्लेषण किया गया है। चन्द्रमण्डल का जो तेज है वह कृष्ण का ही तेज है। गीता में भगवान्
कहते हैं कि सूर्य का तेज, जो सारे विश्व के अन्धकार को दूर करता है, चन्द्रमा और अग्नि का तेज मेरा ही है।
चन्द्रमा का कृष्ण से संबन्ध है यही इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भाषयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥ गीता. १५.१२

चन्द्रमा का रूप कृष्ण (काला ) है अतएव कृष्ण का भी रूप काला है। यजुर्वेद के एक मन्त्र में चन्द्रमा को
समुद्र में स्थान बताया है। इसी आधार पर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका में समुद्र के बीच में रहे।

चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि।
रयिं पिशङ्गं बहुलं पुरुस्पृहं हरिरेति कनिक्रदत्॥
यजुर्वेद ३३.९०, वैहायसकृष्ण रहस्य पृ. ८

यजुर्वेद के भाष्यकारों ने ऐसा अर्थ नहीं किया है। वैदिकविज्ञान की दृष्टि से शास्त्री जी ने इस मन्त्र का
व्याख्यान किया है।
पं. ओझा जी ने शुक्लयजुर्वेद का एक मन्त्र उद्दृत किया है। जिस में (ब्रह्म कृष्णश्च नोऽवतु, २३.१३)
शुक्लयजुर्वेद के भाष्यकार महीधर ने अकृष्ण माना है, जिसे ओझा जी ने उसे अविज्ञानिक कहा है। (अकृष्ण इति
महिधरव्याख्यानं त्ववैज्ञानिकम्, पृ २२६) ओझा जी कृष्ण अर्थ ही मानते हैं।
प्रकृति यज्ञ में अध्वर्यु वायु, उद्गाता आदित्य, होता पृथिवी से संबन्धित अग्नि और चन्द्रमा ब्रह्मा। यह
प्राकृतिक यज्ञ है।

तस्याग्निर्होताऽऽसीत्। वायुरध्वर्युः। सूर्य उद्गाता। चन्द्रमा ब्रह्मा।

गोपथब्राह्मण १.१३, वैहायसकृष्ण रहस्य पृ. ४

यज्ञ में जो ऋग्वेद के मन्त्रों को पाठ करता है वह ‘होता’ कहलता है। यजुर्वेद के मन्त्र को जो पढ़ता है
वह ‘अध्वर्यु’ है। सामवेद के मन्त्र को पढ़ने वाला ‘उद्गाता’ और अथर्ववेद के मन्त्र को पढ़ने वाला ‘ब्रह्मा’ कहलाता
है। यहाँ शास्त्री जी ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर चन्द्रमा के स्वरूप को बताया और चन्द्रमा का कृष्ण के साथ
संबन्ध को स्थापित किया। यह वेदविज्ञान की नयी दृष्टि है।
इस लघुकाय ग्रन्थ में पुराण में वर्णित रासलीला की वैज्ञानिकता का प्रतिपादन करना है। राधा का
परिचय के क्रम में कहा गया है कि सत्ताईस नक्षत्रों में विशाखा नामक एक नक्षत्र है। विशाखा का अर्थ राधा है।
क्योंकि विशाखा के बाद अनुराधा नक्षत्र आता है। (वैहायसकृष्णरहस्य पृ. १६) राधा के पिता का नाम वृषभानु
है। सूर्य का स्वरूप इन्द्रमय है। इन्द्र को वृषा कहा गया है। ‘वृष वै भानुः’ इस व्युतपत्ति से इन्द्रात्मक सूर्य का
तात्पर्य वृषभानु से है। सूर्य की रश्मियों से चन्द्रिका उत्पन्न होती है। अत एव वृषभानुसुता कहा गया है।

गीता में कहा गया है कि (नक्षत्राणामहं शशी, १०.२१) इस वाक्य के आधार पर चन्द्रमा भी एक नक्षत्र
है। उपर्युक्त कथन को पुराण से संगति करते हुए जिस प्रकार कृष्ण समुद्र में रहे वैसा ही यह कृष्ण रूप चन्द्र पानी
में ही रहता है।
आकाश में अनेक नक्षत्र दिखलाई पड़ते हैं। वे सब पानी के गोले हैं। उनमें थोड़ा हिस्सा मिट्टी का है और बाकी
जल ही जल भरा हुआ है। चन्द्रमा भी एक नक्षत्र है। इसमें भी पानी भरा हुआ है। इसी पर सूर्य रश्मियाँ
प्रतिबिम्बित होती है। इसी से चन्द्रमा और नक्षत्र प्रकाशित होते हैं। नक्षत्र ‘आपोमय’ है । अत एव पुराणों में
‘नक्षत्राण्यापः’ यह कहा जाता है। पानी को ‘उडु’ कहते हैं। अमरकोश में पानी से पार ले जाने वाला छोटा नाव
‘उडुप’ है।

उडुपं प्लवः कोलः। अमरकोश १.१०.११

इस से स्पष्ट होता है कि पानी का नाम ‘उडु’ है। कोश में नक्षत्र का भी नाम ‘उडु’ है।
नक्षत्रमृक्षं भं तारा तारकाप्युडु वा स्त्रियाम्। अमरकोश १.३.२१

इस वैज्ञानिक व्याख्या से स्पष्ट होता है कि चन्द्रमा एवं नक्षत्र पर ७५ प्रतिशत पानी है। वैहायसकृष्ण
रहस्य पृ. २३-२४
इस प्रकार इस ग्रन्थ में कृष्ण का चन्द्र के साथ साम्य बतला कर विविध विषयओं के माध्यम से विषय
को स्पष्ट किया गया है। शास्त्री जी ने कृष्ण को पूर्णावतार स्वीकार कर इनके विविध रूपों का वर्णन किया है।

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