admin

राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-९)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायत वैदिक शोध संस्थान के द्वारा ३० सितम्बर, सोमवार को सायंकाल ५- ७ बजे तकअन्तर्जालीय माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गयी। पण्डित मधुसूदन ओझा जी का इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ के तृतीय अध्याय के विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई । प्रो. रञ्जीत कुमार मिश्र, हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ केतीसरे अध्याय में उषा के विविध स्वरूप को उद्घाटित किया गया है। उषा के स्तुति करने वाले अनेक ऋषि हैं।जिनके नाम ग्रन्थकार ने उल्लिखित किया है। यथा- विश्वामित्र, वसिष्ठ, प्रस्कण्व काण्व, कक्षीवान् दीर्घतमा,अष्टादंष्ट्र वैरूप और आप्त्य। इतने ऋषियों ने ऋग्वेद में उषा की स्तुति की है। उषा के मनुष्यरूप की परिकल्पनाहै फिर भी आधिदैविक के स्तर पर उषा का व्यवहार किया जाता है। सूर्योदयकाल में हिरण्यमय रथ पर आरूढहोकर उषा मनुष्य के समीप आती है। देवताओं के द्वारा सञ्चालित सौ रथ उषा के पीछे पीछे चलते हैं। सूर्योदयादेव रथं हिरण्मयं सारुह्य दूरानभियाति मानुषान् ।अध्यासितं तत्सहचारि दैवतैः शतं रथानामनुयापि पृष्ठतः॥ इन्द्रविजय पृ. ३६९, का.१ ऋषि वसिष्ठ राजा वरुण के पुरोहित थे। सूर्यभवन में वसिष्ठ की नियुक्ति की गयी। वह वशिष्ठ ऋषि उषा कीस्तुति की है। ऋग्वेद के सन्दर्भित मण्डल में उषा की विशद व्याख्या मिलती है। डॉ. गोविन्द शुक्ल, सहायक आचार्य, व्याकरण विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, वेदव्यास परिसर नेकहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के तृतीय अध्याय का नाम विज्ञानभवन है। इस अध्याय में सूर्यसदन की संस्थापना कीबड़ी चर्चा ग्रन्थकार पं. ओझा जी ने की है। नदियों के नामों का उल्लेख और उस नदी के साथ स्थान का परिचयभी यहाँ उपलब्ध होता है। जिस प्रकार काश्मीर से उत्तरदिशा की ओर बिन्दुसार नामक सरोवर है। वह सरोवरइस समय ‘सरपस’ इस नाम से जाना जाता है। कई विद्वान् इस सरोवर को सरस्वती नाम से भी व्याख्यायितकरते हैं। काश्मीरादुत्तरतो बिन्दुसरस्तत्सरीकुलेत्युक्तम्।‘सरपस’ नाम च तस्मात् सरस्वतीत्याहुरन्ये तु ॥ वही, पृ. ३४४, का. ७ सिन्धुनदी के सङ्गमस्थल से पूर्व भाग में और पश्चिमतटभाग पर सरस्वती नगरी थी। वहीं सूर्य का यह सदनसंस्थापित हुआ था। सिन्धोः सङ्गमदेशे तस्या वामे च दक्षिणे च तटे ।यासीत्सरस्वती पूस्तस्यां सूर्यप्रतिष्ठाऽऽसीत्॥ वही, पृ. ३४६, का.८ डॉ. राधावल्लभ शर्मा, सहायक आचार्य, साहित्य विभाग, हरियाणा संस्कृत विद्यापीठ, पलबल ने कहा किइन्द्रविजय ग्रन्थ की सूर्यसंस्था का विस्तार से समीक्षा की गयी है । सूर्यसदन में सूर्य के दो चक्र थे। एक चक्रद्युलोक में लगाने के लिए दस्युओं से इन्द्र पराक्रम पूर्वक लिया था। कुत्स नामक व्यक्ति के समीप यह चक्र रखागया। ये द्वे चक्रे सूर्यस्तत्रैकं दिवि समाधातुम् ।दस्योः शङ्कित इन्द्रो हत्वाऽन्यत् कुत्सरक्षणे न्यदधात् ॥ वही, पृ. ३८९, का. १ इसी प्रसंग में विष्टप का भी वर्णन ग्रन्थकार पण्डित मधुसूदन ओझा ने किया है।विष्टप का अर्थ स्वर्ग होता है।अपराजिता स्थान से ईशान दिशाया में चन्द्रमा का विष्टप था। दक्षिण दिशा में ब्रह्मा का विष्टप और उत्तर दिशामें विष्णु का विष्टप था। डॉ. शर्मा ने कहा कि इन्द्रविजय में वर्णित विष्टप का स्वरूप भारतीय भूगोल पक्ष काउद्घाटन करता है। स्वर्गस्त्रिविष्टपाख्यो विष्टपमेतस्य मण्डलं खण्डम् ।ऐशान्यामपराजितदिशि चैन्द्रं विष्टपं त्वासीत् ॥प्राग्मेरुलक्षित तु ब्राह्मं विष्टपमवाग् दिशि प्रथितम् ।तत उत्तरदिक्प्रथितं नाकारब्धं विष्टपं विष्णोः॥ वही, पृ. ३९६, का १ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने कहा कि इन्द्रविजय ग्रन्थ के तृतीय अध्याय में सूर्यभवन कीअपूर्व व्याख्या देखने को मिलती है । तृतीय अध्याय में सूर्य की विद्या और उषा की विद्या का विस्तार से वर्णनहुआ है। प्रारम्भ में ही ग्रन्थकार लिखते हैं कि सरस्वती नदी के तट पर सूर्यसदन इन्द्र के द्वारा संस्थापित कियागया था। इस सूर्यसदन का संस्थापना वसिष्ठ ऋषि की आध्यक्षता में हुई थी। सूर्य का ज्योति और उषा की विद्याको जानने के लिए ही सूर्यसदन था। वेत्तुं वसिष्ठमुख्याः सूर्यस्य गवां तथोषसो विद्याम् ।चक्रे सूर्यं नामाधिष्ठानं प्राक् सरस्वतीकूले ॥ वही, पृ. ३४५, का.२ डॉ. प्रवीण कोईराला, सामवेद प्राध्यापक, धर्मोदय वेदविज्ञान गुरुकुल, मणिपुर ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरणकिया। कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्तविमल ने किया । इस कार्यक्रम में अनेक प्रान्तों के विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य, शोधछात्र, संस्कृतविद्या मे रुचि रखने वाले विद्वानों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर संगोष्ठी को सफल बनाया।

Read More

Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2024

Report Shri Shankar Shikshayatan organises Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture every year. This year, on September 28, this lecture was successfully conducted in the Vachaspati Auditorium of Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University.This lecture is organised every year as an annual festival of Shri Shankar Shikshayatan. In this lecture, two books were released by the guests present. One book is ‘Vedic Concept of Man and Universe’ written in English language. This book contains five lectures given by Pandit Motilal Shastri at the Rashtrapati Bhawan in 1956. The English translation of that lecture was done by Rishi Kumar Mishra. A detailed, newly edited version has been brought out again. The second book is Ahoratravada Vimarsh. It is a review of Pandit Madhusudan Ojha’s book named Ahoratravada. Both these books have been published in 2024 by DK Print World, Delhi. The keynote speaker in this lecture was Prof. Krishna Kant Sharma, former Faculty Head, Sanskrit Vidya Dharmavigyan Faculty, Banaras Hindu University, Varanasi. He revealed the contemporary importance of the book Indravijaya. He gave his lecture on various aspects of Indravijaya. Pandit Madhusudan Ojha accepts history in the Vedas. Other scholars do not accept history in the Vedas. If there is history in the Vedas, then the eternity of the Vedas will be destroyed. We read many stories in many verses of the Rigveda. In Indravijaya , Indra was the first king of our Bharat nation. Keeping Indra at the centre, the geography and history of Bharatavarsha has been revealed in this book. Prof. Rajdhar Mishra, Grammar Department, Jagadguru Ramanandacharya Rajasthan Sanskrit University, Jaipur, who was present as a special guest, said that Indravijaya not only determines the geographical boundaries of Bharatavarsha, but the description of the world is also given in Indravijaya. The entire history of Bharatavarsha is proved by Shruti Praman. He said that various aspects of naming Bharat have been analysed. Bharatavarsha has four names – Bharatavarsha, Nabhivarsha, Arshabhavarsha and Haimavatvarsha. Four proofs for naming Bharat have also been presented in the book. Agnidhra’s son was Nabhi, Nabhi’s son was Rishabh, Rishabh’s son was Bharat, Bharatavarsha was named after them. Dushyant and Shakuntala’s son was Bharat, Bharatavarsha is named after them. In Shatapath Brahman, Agni is called Bharat, on this basis also the name Bharatavarsha is derived. The name Bharat also means where sustenance and nourishment is provided for. Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, welcomed all the guests and introduced Shri Shankar Shikshayatan’s principal objectives. He said the institute was founded by Rishi Kumar Mishra. Mishraji’s guru was Pandit Motilal Shastri, Motilal Shastri’s guru was Pandit Madhusudan Ojha. In this way, Shri Shankar Shikshayatan is associated with the propagation of Vedic science through guru tradition. He gave a detailed presentation on Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The programme was presided over by Prof. Bhagirath Nand of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University. He explained the importance of Indravijaya. He said that iron was not invented in the Vedic period. But stone was available everywhere. Indra’s thunderbolt was made of stone. Here stone means the hardest substance. Kalidas has also said in his epic Raghuvansha that in the course of narration of Raghucharit, King Raghu’s horse came from Iran. This evidence proves that India’s borders were very wide. Mr Anand Bordia, trustee of Shri Shankar Shikshayatan, thanked all the scholars present. A The lecture began with the melodious singing of Vedic Mangalacharana by Prof. Gopal Prasad Sharma of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University and Prof. Mahanand Jha of Laukika Mangalacharana. The programme was conducted by Dr. Mani Shankar Dwivedi of Sanskrit Department of Jamia Millia Islamia University. Many scholars from Delhi University, Jawaharlal Nehru University, Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Jamia Millia Islamia University, research students and Sanskrit lovers participated enthusiastically in the lecture and made the programme a success.

Read More

पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान-2024

प्रतिवेदन  विसवीं शताब्दी के वैदिकविज्ञान के महान् शास्त्रचिन्तक पण्डित मोतीलाल शास्त्री संस्कृत जगत् में सुविख्यात हैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा में शतपथब्राह्मण का, उपनिषद् का और गीताविज्ञानभाष्य का अभिनव व्याख्या की है। उनकी उपलब्ध सभी रचना श्रीशंकर शिक्षायतन के वेबसाईट पर पढने के लिए रखा गया है। श्रीशंकर शिक्षायतन प्रतिवर्ष मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान का समायोजन करता है। इस वर्ष सितम्बर माह के  दिनांक २८ शनिवार को श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में यह व्याख्यान सुसंपन्न हुआ है।। श्रीशंकर शिक्षायतन का यह वार्षिक उत्सव के रूप में यह यह व्याख्यान प्रतिवर्ष समायोजित होता है। इस व्याख्यान में दो ग्रन्थों का लोकार्पण समागत अतिथियों के द्वारा किया गया। एक ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में लिखित ‘वैदिक कन्सेप्ट आफ मेन एन्ड यूनिवर्स’ है। यह  ग्रन्थ राष्ट्रपतिभवन में महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष  वैदिकविज्ञान के पाँच विषयों पर पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने १९५६ ई. में  व्याख्यान दिया था। उस व्याख्यान का अंग्रेजी अनुवाद ऋषि कुमार मिश्र जी ने किया था। पुन विस्तृत संस्करण निकाला गया है। दूसरा ग्रन्थ अहोरात्रवादविमर्श है। पण्डित मधुसूदन ओझा जी के  अहोरात्रवाद नामक ग्रन्थ की समीक्षा है। ये दोनों ग्रन्थ २०२४ ई. डी. के. प्रिन्ट वर्ल्ड, दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं। इस व्याख्यान में मुख्यवक्ता प्रो. कृष्ण कान्त शर्मा, पूर्वसंकाय अध्यक्ष, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी थे। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के समसामयिक महत्त्व को उद्घाटित किया। उन्होंने इन्द्रविजय के विविध पक्षों पर अपना व्याख्यान दिया। पण्डित मधुसूदन ओझा वेद में इतिहास को स्वीकार करते हैं । दूसरे विद्वान् वेद में इतिहास को  स्वीकार नहीं करते हैं। वेद में यदि इतिहास है तो वेद  की नित्यता भङ्ग हो जायेगी। ऋग्वेद के अनेक सूक्तयों में अनेक कथा हम लोग पढ़ते हैं। इन्द्रविजय ग्रन्थ में इन्द्र हमारे भारत राष्ट्र प्रथम राजा थे। इन्द्र को केन्द्र में रख कर भारतवर्ष का भूगोल और इतिहास का उद्घाटन इस ग्रन्थ में किया गया है। विशिष्ट अतिथि के रूप में  विराजमान प्रो. राजधर मिश्रः, व्याकरण विभाग, जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर ने कहा कि यह इन्द्रविजय ग्रन्थ भारतवर्ष  के भौगोलिक सीमा ही  निर्धारण नहीं करता है अपितु भूगल का वर्णन भी इन्द्रविजय में है। भारतवर्ष का समग्र इतिहास श्रुतिप्रमाण से प्रमाणित है। उन्होंने कहा कि भारत नामकरण के विविध पक्षों का विश्लेषण किया गया है। भारतवर्ष के चार नाम हैं भारतवर्ष, नाभिवर्ष, आर्षभवर्ष और हैमवतवर्ष। भारत नामकरण के लिए चार प्रमाण भी ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है। आग्नीध्र के पुत्र नाभि थे, नाभि के पुत्र ऋषभ, ऋषभ के पुत्र भरत थे, उन्हीं के नाम पर भारतवर्ष है।  दुष्यन्त और शकुन्तल के पुत्र भरत थे, उनके नाम पर यह भारतवर्ष है। शतपथब्राह्मण में अग्नि को भरत कहा गया है, इस आधार पर भी भारतवर्ष नाम है। भरण और पोषण करने के  कारण भी भारत यह नाम सिद्ध होता है। कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्लः, प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने  समागत सभी अतिथियों का स्वागत किया। प्रो. शुक्ल ने दृढता के साथ कहा कि  इस समय संपूर्ण भारतवर्ष में वैदिक विज्ञान के प्रमुख संस्थान श्रीशंकर शिक्षायतन है। इस शिक्षायतन की संस्थापना प्रख्यात शिक्षाविद् ऋषि कुमार मिश्र ने की थी। मिश्र के गुरु पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी थे, मोतीलाल शास्त्री के गुरु पण्डित मधुसूदन ओझा जी थे । इस प्रकार गुरु परम्परा से वैदिक विज्ञान का संप्रसार प्रचार संलग्न यह श्रीशंकर शिक्षायतन है। इतिहास दो प्रकार के होते हैं। एक  इतिहास सृष्टिपक्ष को उद्घाटित करता है। दूसरा पक्ष राजाओं के चरितवृत्तान्त समुद्घाटित करता है। जगद्गुरुवैभव नामक ग्रन्थ में स्वयं पण्डित मधुसूदन ओझा लिखा है।                       यद्विश्वसृष्टेरितिवृत्तिमासीत् पुरातनं तद्धि पुराणमाहुः।                      यच्चेतनानां नु नृणाम् चरित्रं पृथक् कृतं स्यात् स इहेतिहासः॥ कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. भागीरथ नन्द, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के शैक्षणिक पीठाध्यक्ष की थी। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के महत्त्व का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि वैदिककाल में लौहपदार्थ का आविष्कार नहीं हुआ था।  परन्तु पत्थर की उपलब्धता सभी जगहों पर थी। इन्द्र का वज्र पत्थर  से बना हुआ था । यहाँ पत्थर का अर्थ कठोरतम पदार्थ से है। कालिदास भी अपने रघुवंश नामक महाकाव्य में रघुचरित के वर्णन के क्रम में राजा रघु का अश्व ईरानदेश से आया था, यह कहा है। इस प्रमाण से  सिद्ध होता है कि भारतवर्ष की  सीमा बहुविस्तृत थी। श्रीशंकर शिक्षायतन के न्यासी श्रीमान् आनन्द बोर्दिया जी ने उपस्थित  सभी विद्वानों का धन्यवादज्ञापन किया । एवं अपने उद्बोधन में भारतवर्ष के व्यापक चिन्तन का महत्त्व का  निरूपण किया गया है। जहाँ  भारतवर्ष में वैदिककाल से  ज्ञान के विविध पक्ष का  विकास हुआ है । हमारे देश में शास्त्रचिन्तन की स्वतन्त्रता है। व्याख्यान के प्रारम्भ श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा वैदिक मङ्गलाचरण का एवं प्रो.महानन्द झा ने लौकिक मङ्गलाचरण का सुस्वर गायन किया। कार्यक्रम का सञ्चालन जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के डॉ. मणिशंकर द्विवेदी ने किया। व्याख्यान में दिल्ली विश्वविद्यालय के, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल के, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अनेक  विद्वानों ने, शोधछात्रों ने संस्कृतानुरागियों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के कार्यक्रम को सफल बनाने में बड़ा योगदान किया।

Read More

Sattanirapeksha Sanskriti Shabda Evam Sattasapeksha Sabhyata Shabda ka Chirantan Itivritti

In this book written by Pandit Motilal Shastri, ‘Culture’ and ‘Civilization’ have been described from the point of view of Indian tradition. The author himself has written that after reading the book ‘Sanskriti ke Char’ Adhyay by Ramdhari Singh Dinkar, he felt that Dinkar’s thoughts are influenced by the western countries. What could be its Indian form? He has tried to explain this in one thousand pages of the book. He has tried to explain a mantra of Yajurveda ‘sa sanskritih prathama vishwavara‘ on the basis. He has also mentioned the thoughts of Nehru etc. keeping in view the contemporary politics. Shastri ji believes that knowledge of civilization can be obtained from archaeology and knowledge of culture can be obtained only from original scientific literature. In this regard, he has said that the ancient ruins, statues, buildings, pots, skulls and skeletons etc. related to archaeology are not called culture. All these can be called symbols of civilization. ‘Culture’ cannot be considered to have any relation with these. If you want to see the form of ‘culture’ then you will have to take refuge in the original literature based on Indian thinking, knowledge and science. Literature is considered to be the only living symbol. You can know your civilization by seeing the remains of archaeology. But you cannot understand the nature of culture through a rigid philosophy. सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द एवं सत्तासापेक्ष सभ्यता शब्द का चिरन्तन इतिवृत्त पण्डित मोतीलाल शास्त्री द्वार लिखित इस ग्रन्थ में भारतीय परम्परा की दृष्टि से ‘संस्कृति’और ‘सभ्यता’ का वर्ण किया गया है। स्वयं लेखक ने लिखा है कि रामधारी सिंह दिनकर के ‘संस्कृति के चार’ अध्याय नामक ग्रन्थ को पढकर उन्हें ऐसा लगा कि यह दिनकर जी का विचार तो पश्चिम के देशों से प्रभावित है।( सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, प्रस्तावना पृ. ७) इसका भारतीय क्या स्वरूप हो  सकता है । इसका प्रयास ग्रन्थ के एक हजार पृष्ठों में यहाँ किया है। उन्होंने यजुर्वेद के एक मन्त्र ‘सा संस्कृतिः प्रथमा विश्ववारा’ को आधर बना कर व्याख्या करने का प्रयास किया है। उन्होंने तात्कालिक राजनीति को भी दृष्टि में रख कर नेहरू आदि के विचारों का उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी एवं पाठक की जिज्ञासा को बढ़ाता है। सभ्यता और संस्कृति के विषय में कहा गया है कि मानव के आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक स्वरूप से संबन्ध रखने वाले अन्तः और बाह्य आचार ही मानव की संस्कृति और सभ्यता है। (सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. ४) शास्त्री जी मानते हैं कि पुरातत्त्व से सभ्यताअ का ज्ञान हो सकता है और संस्कृति का ज्ञान विज्ञानात्मक मौलिक साहित्य से ही हो सकता है। इसके संबन्ध में उन्होंने कहा है कि पुरातत्त्व से संबन्ध रखनेवाले प्राचीन खण्डहरों, मूर्तियों, भवनों, घट, कपाल और कंकालों आदि का नाम संस्कृति नहीं है। ये सभी सभ्यता के प्रतीक कहे जा सकते हैं। ‘संस्कृति’ का तो इन से थोड़ा भी सम्बन्ध नहीं माना जा सकता। यदि आपको ‘संस्कृति’ के स्वरूप का दर्शन करना है तो आपको भारतीय चिन्तन ज्ञान-विज्ञानात्मक मौलिक साहित्य के शरण में ही आना पड़ेगा। साहित्य ही एकमात्र प्राणवान् प्रतीक माना गया है। पुरातत्त्व  के अवशेषों के दर्शन से आप अपनी सभ्यता को जान सकते हैं। किन्तु जड़ दर्शन से आप संस्कृति का स्वरूपबोध प्राप्त नहीं कर सकते हैं।( सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. ७) सभा का सभ्य सदस्य ही मन्त्रभाषा में सभेय कहलाता है। इसके लिए उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्र को उद्धृत किया है कि  यजमान के युवा पुत्र  सभा में भाग लेने वाला हो।( सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्, यजुर्वेद २२.२२) छान्दोग्योपनिषद् का एक मन्त्र उद्धृत किया है  जिसमें सभा का वर्णन है। मैं प्रजापति के सभागृह को प्राप्त होता हूँ, मैं यशःसंज्ञक आत्मा हूँ, मैं ब्राह्मणों के यश, क्षत्रियों के यश और वैश्यों के यश को प्राप्त होना चाहता हूँ।( आत्मा प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानां यशो राज्ञां यशो विशां यशोऽहम्। छा.उ.८.१४.१) आगे विषय को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जिस समिति में, समूह में, समाज में, गण में, अनेक मानव साथ सम्मिलित होकर प्रतिभा को विकसित करते हैं वही समिति है वही सभा है। सभा की व्युत्पत्ति बतलाते हैं कि जिसमें समान भाव से सभी सुशोभित होते हैं वही सभा है। सभा का सदस्य ही सभ्य कहलाता है। ऐसे सभ्यों के सभास्वरूप आचार-व्यवहार, नियम-उपनियम, विधि, विधान ही सभ्यता कहलाती है।( सह भान्ति यस्यां सा सभा। सत्तानिरपेक्ष ‘संस्कृति’ शब्द, पृ. २३) उपनिषद् के मन्त्र में आत्मा और प्रजापति शब्द एक ही अर्थ का वाचक है। इसी प्रमाण के आधार पर सभ्यता और संस्कृति की दार्शनिक व्याख्या इस ग्रन्थ में हुआ है। यह हिन्दी भाषा में लिखित बहुत बड़ा ग्रन्थ है। इसमें  प्रस्तावना १४१ पृष्ठ की और गन्थ में ७७२ पृष्ठ हैं। कुल९१३ पृष्ठ हैं। इसी से इस की व्यापकता का परिचय मिलता है।  Read/Download

Read More

National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Part VIII

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the eighth seminar on August 31, 2024, as part of its vedic seminar series Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The seminar was organised on the basis of various topics from the last part of the second chapter of Indravijaya . Speaking on the topic as the chief guest, Prof. Shobha Mishra, Acharya, Sanskrit Department, Vikramajit Singh Sanatan Dharma Mahavidyalaya, Kanpur said that in Indravijaya, Pandit Madhusudan Ojha has presented elaborate discussion on ribhu. He has referred to the Rigveda notations on Ribhu. In the context of Ribhu, Ribhu was a craftsman who assisted man in his work. Ribhu had created two horses for Indra. Riding on those two horses, Indra killed the bandits. These references prove that Ribhu was a resident of Bharatavarsha. Prof. Anita Rajpal, Acharya, Department of Sanskrit, Hindu College, Delhi University, Delhi, also emphasised that Ribhu was a skilled sculptor and he was taught by Tvashta. Ribhu was endowed with three types of craftmanship. Dr. Jaya Sah, Assistant Acharya, Department of Sanskrit, Tripura University, Tripura, pointed out that Ojahji has collected the names of many rivers through the Bharatvarsha narrative of the book named Indravijaya. Not only are the names of the rivers mentioned, but a detailed outline of the geographical area situated on the river banks is described. In Rigveda, these names of Purvasaptanad are- Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri, Parushni, Asakni and Vitasta. In this, Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri Stoma, Sachta Purushnya are the names of Paschim Saptnad. There is another Saptnad from Panch Gaur country towards the north. Whose names are Kulishi, Veerpatni, Shifanjsi etc. Prof. Santosh Kumar Shukla, Acharya, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, chaired the session. He pointed out Pandit Madhusudan Ojha has listed the characteristics of a true Aryan. According to Ojhaji, the one whose deity is Omkar, whose shastra is Veda and whose deity is Ganga and cow, is the real Arya. He is a native of India. He has not come from outside in any way. The seminar was conducted by Dr. Laxmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. Professors, research scholars, and many people interested in the subject from various states participated enthusiastically and contributed to success of the seminar Please watch the proceedings of the seminar here– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I

Read More

राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान -शृंखला-८

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ अगस्त को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केद्वितीय अध्याय के अन्तिम भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गईथी । प्रो. शोभा मिश्रा, आचार्या, संस्कृत विभाग, विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय, कानपुर नेमुख्य अतिथि के रूप में विषय पर बोलती हुई कही कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में ऋभु विषय पर व्यापकविचार किया गया है। ऋग्वेद में दीर्घतमा द्वारा किया गया कीर्तिसूक्त, वामदेव द्वारा ऋभु विषय परवामदेवसूक्त प्राप्त होता है। ऋभु के प्रसंग में ऋभु मनुष्य का कार्यसहायक शिल्पी था, मनुष्य होने से वह ऋभुभारतवर्ष का ही निवासी था। ऋभु ने दो घोड़ों का निमार्ण किया था, उन दोनों घोड़ों पर चढकर देवराज इन्द्रने दस्युओं का संहार किया था। इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि ऋभु भारतवर्ष का ही निवसी था। मनुष्यलोक मेंसुधन्वा ऋभु के पिता थे, इस प्रमाण से ऋभु आर्य था जिसका निवासस्थान भारतवर्ष ही था। इत्थमृभूणामेषां शिल्पं शृणुमः पुरा मनुष्याणाम् ।भारतवर्षाभिजना ध्रुवमासंस्ते मनुष्यत्वात् ॥एभिश्च निर्मितौ तावश्वौ हरिसंज्ञकौ समारुह्य ।इन्द्रो दस्यूनवधीत् तस्मादृभवः पुरैवासन् ।।एष सुधन्वा राजा जनक ऋभूणां च मानुषे लोके ।आसीद् भारतवर्षे तस्मादार्याः पुराप्यासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३४३, कारिका१-३ प्रो. अनीता राजपाल, आचार्या, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली नेइन्द्रविजय ग्रन्थ में वर्णित ऋभु के परिचय के क्रम में ऋभु के पिता का नाम सुधन्वा था। ऋभु के गुरु त्वष्टा थे।त्वष्टा ने ऋभु को शिल्प कर्म में पूर्ण शिक्षित किया था। भारत के इतिहास में दस्युयुद्ध अत्यन्त प्रसिद्ध है, दस्युके युद्ध से पूर्व एव ऋभु का सन्दर्भ ऋग्वेद में देखने को मिलता है। दस्युनियुद्धादस्माद् बहुपूर्वं भारते वर्षे ।आसीन्नृपः सुधन्वा पुत्रास्तस्य त्रयस्त्वासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२०, कारिका २ ऋभु के तीन प्रकार के शिल्प थे। ये हैं-परोक्ष के लिए पाँच शिल्प, मित्रता के लिए दश शिल्प और यशः कीप्राप्ति के लिए अनेक शिल्प। अथ कुशला ऋभवस्ते त्रेधा शिल्पानि कल्पयामासुः।पञ्च परोक्षार्थेऽपि च दश सख्यार्थे बहूनि कीर्त्यर्थे ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२४, कारिका १ डॉ. जया साह, सहायका आचार्या, संस्कृत विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, त्रिपुरा ने इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केभारतवर्ष आख्यान के माध्यम से अनेक नदियों के नामों का संग्रह किया गया है। न केवल नदियों के नाम हैं,अपितु नदीतट पर स्थित भौगोलिक क्षेत्र की विस्तृत रूपरेखा वर्णित है। ऋग्वेद में पूर्वसप्तनद के ये नाम हैं- गङ्गा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री, परुष्णि, असक्नी और वितस्ता ।इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या । असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयाऽर्जीकीये शृणुह्या सुषोमया। ऋग्वेदः १०.७५.५ पश्चिमसप्तनद के नाम हैं। जैसे- हे सिन्धो ! तुम गमनशील गोमती नदी को मिलाने के लिए पहले तुष्टामा नदी केसाथ चली। फिर तुम सुसर्तु, रसा श्वेती, कुभा और मेहन्तु नदियों के साथ मिलती है। इस के बाद तुम इन सबके साथ एक रथ पर आरूढ होकर चलती है। तृष्टा मया प्रथमं यातवे सजूः सु सर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे ॥ ऋग्वेदः १०.७५.६ उत्तरसप्तनद के नाम इस प्रकार हैं- पाँच गौर देश से उत्तर की दिशा की ओर दूसरा एक सप्तनद है। जिसका नामकुलिशी, वीरपत्नी, शिफांजसी आदि हैं। तत्पञ्चगौरदेशादुत्तरतोऽन्योऽस्ति सप्त नददेशः ।कुलिशी च वीरपत्नी शिफाञ्जसीत्यादिभिः क्लृप्तः॥ इन्द्रविजयः पृ. ३१०, कारिका १ डॉ. दीपमाला, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, राजकीय महाविद्यालय, जोधपुर, ने अपने वक्तव्य में कही किदास दो प्रकार के होते हैं। मनुष्यदास और अमनुष्यदास । दास न देव थे, न दानव थे और न ही मनुष्य थे। उनकाआर्यों के साथ विद्वेष था, वह कोई आनार्यविशेष ही था। स एष दासस्तु न देव आसीन्न दानवो नापि मनुष्य आसीत्।आर्यैर्द्विषन् कश्चिदनार्यः पृथग्वदेवैष विभाग आसीत्॥ इन्द्रविजयः पृ. ३०३, कारिका १ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,कार्यक्रम के अध्यक्ष थे।उन्होंने कहा कि आर्यों का स्वभाव कैसा था, इस विषय पर ग्रन्थकार पण्डित ओझा नेलिखा है कि जिसके आराध्य ओङ्कार हो, जिसका शास्त्र वेद हो और जसकी आराध्या गङ्गा एवं गाय हो,वही वास्तविक आर्य है। वही भारतवर्ष का मूलनिवासी है। वह किसी भी प्रकार से बाह्य भाग से नहीं आया है। ओङ्कार एष येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः। येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ इन्द्रविजयः पृ. २५८, कारिका १ डॉ. मधुसूदन शर्मा, अतिथि प्रध्यापक, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय , नईदिल्ली ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का गान किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिकशोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्यालऔर महाविद्याल के आचार्य, शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भागग्रहण कर के संगोष्ठी को सफल बनाया में अपना योगदान दिया। कृपया सेमिनार की कार्यवाही यहां देखें– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I

Read More

Digdeshakalasvarupamimasa Part I

Pandit Motilal Shastri started a series of books based on many subjects under the title ‘Indian Hindu Manav aur uski Bhavukta’. The fourth part of this series is named ‘Digdeshkaalsvrupamimansa’. Three elements have been considered in this text. . Dik means direction. For example, east, west, north and south are the names of directions. Desh means place. For example, Delhi, Patna, India. Kaal means time. For example, past, present and future. One or two points are being presented here from the viewpoint of Vedic science of time. In Vedic science, the sun is time, the moon is direction and the earth is the country. The body is made from the earth, hence the body is called country, intelligence is obtained from the sun, hence intelligence is time. Time is calculated from the sun. Hence the sun is time. There is a relation between the mind and the moon, hence the mind is the direction. दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा-1  पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ‘भारतीय हिन्दू मानव और उसकी भावुकता’  नामक शीर्षक से अनेक विषयों को आधार बनाकर ग्रन्थ शृंखला का प्रारम्भ किया था। इस शृङ्खला के चतुर्थ खण्ड का नाम ‘दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा’ है।    दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा में तीन तत्त्वों पर विचार किया गया है। दिक् का अर्थ है दिशा। जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ये दिशाओं के नाम हैं। देश का अर्थ स्थान है। जैसे दिल्ली, पटना, भारत। काल का अर्थ समय है। जैसे भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यत्काल। इन तीनों विषयों पर विचार इस ग्रन्थ में किया गया है। काल के वैदिकविज्ञान की दृष्टि से एक-दो बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। वैदिकविज्ञान में सूर्य काल है, चन्द्रमा दिशा है और पृथ्वी ही देश है। पृथ्वी से शरीर बनता है अत एव शरीर देश  कहलाता है,  सूर्य से बुद्धि की प्राप्ति होती है अत एव बुद्धि ही काल है। सूर्य से ही काल की गणना होती है। अत एव  सूर्य काल है।  चन्द्रमा से मन का संबन्ध है अत एव मन दिशा है।( दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ७०, ७१) शरीर पृथ्वी देश बुद्धि सूर्य काल मन चन्द्रमा दिशा अथर्ववेदीय कालसूक्त में स्पष्ट वर्णन है कि काल एक तत्त्व है जिससे सृष्टि होती है। सूक्त के एक मन्त्र का अर्थ यहाँ शास्त्री जी के ही शब्दों में  प्रस्तुत है। काल से ‘आप्’ तत्त्व उत्पन्न हुआ है। काल से ब्रह्म उत्पन्न हुआ है। काल से दिशाएँ उत्पन्न हुई हैं। काल से ही सूर्य उत्पन्न हुआ है। काल में ही सूर्य पुनः प्रवेश कर जाता है। कालादापः समभवन्, कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः॥ अथर्ववेद १९.५४, दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा,  पृ. ३०९   व्याख्या क्रम में   शास्त्री जी ने कहा है कि काल का महाकालस्वरूप है क्योंकि उसी में देश और दिशा  मिल जाता है और एक मात्र काल तत्त्व ही बचता है। (दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ८५) इस ग्रन्थ की विशालता का अनुभव पृष्ठों के आधार पर किया जा सकता है, क्योंकि इस में ९०० पृष्ठ हैं।  इसकी प्रस्तावना में २०६ उपशिर्षकों को समाहित किया गया है। पारिभाषिक प्रकरण में १८५ बिन्दूओं पर चर्चा की गयी है। ग्रन्थ में  दिग्देशकाल का विस्तृत स्वरूप विवेचित है। वेद पुराणों को आधार बनाकर विषयों को लोकोपकारी एवं सर्वजन्यग्राह्य बनाने का सफल प्रयास किया गया है।  यह तीनों विषय पर वर्तमान समय में भी विद्वानों के द्वारा गहन चिन्तन किया जा रहा है। इस ग्रन्थ को एक बार पढने मात्र से  विषय का सहज  बोध हो जाता है। Read/Download

Read More