Pandit Motilal Shastri started a series of books based on many subjects under the title ‘Indian Hindu Manav aur uski Bhavukta’. The fourth part of this series is named ‘Digdeshkaalsvrupamimansa’. Three elements have been considered in this text. . Dik means direction. For example, east, west, north and south are the names of directions. Desh means place. For example, Delhi, Patna, India. Kaal means time. For example, past, present and future. One or two points are being presented here from the viewpoint of Vedic science of time.
In Vedic science, the sun is time, the moon is direction and the earth is the country. The body is made from the earth, hence the body is called country, intelligence is obtained from the sun, hence intelligence is time. Time is calculated from the sun. Hence the sun is time. There is a relation between the mind and the moon, hence the mind is the direction.
दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा-1
पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने ‘भारतीय हिन्दू मानव और उसकी भावुकता’ नामक शीर्षक से अनेक विषयों को आधार बनाकर ग्रन्थ शृंखला का प्रारम्भ किया था। इस शृङ्खला के चतुर्थ खण्ड का नाम ‘दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा’ है।
दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा में तीन तत्त्वों पर विचार किया गया है। दिक् का अर्थ है दिशा। जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ये दिशाओं के नाम हैं। देश का अर्थ स्थान है। जैसे दिल्ली, पटना, भारत। काल का अर्थ समय है। जैसे भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यत्काल। इन तीनों विषयों पर विचार इस ग्रन्थ में किया गया है। काल के वैदिकविज्ञान की दृष्टि से एक-दो बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
वैदिकविज्ञान में सूर्य काल है, चन्द्रमा दिशा है और पृथ्वी ही देश है। पृथ्वी से शरीर बनता है अत एव शरीर देश कहलाता है, सूर्य से बुद्धि की प्राप्ति होती है अत एव बुद्धि ही काल है। सूर्य से ही काल की गणना होती है। अत एव सूर्य काल है। चन्द्रमा से मन का संबन्ध है अत एव मन दिशा है।( दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ७०, ७१)
शरीर | पृथ्वी | देश |
बुद्धि | सूर्य | काल |
मन | चन्द्रमा | दिशा |
अथर्ववेदीय कालसूक्त में स्पष्ट वर्णन है कि काल एक तत्त्व है जिससे सृष्टि होती है। सूक्त के एक मन्त्र का अर्थ यहाँ शास्त्री जी के ही शब्दों में प्रस्तुत है। काल से ‘आप्’ तत्त्व उत्पन्न हुआ है। काल से ब्रह्म उत्पन्न हुआ है। काल से दिशाएँ उत्पन्न हुई हैं। काल से ही सूर्य उत्पन्न हुआ है। काल में ही सूर्य पुनः प्रवेश कर जाता है।
कालादापः समभवन्, कालाद् ब्रह्म तपो दिशः।
कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः॥
अथर्ववेद १९.५४, दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, पृ. ३०९
व्याख्या क्रम में शास्त्री जी ने कहा है कि काल का महाकालस्वरूप है क्योंकि उसी में देश और दिशा मिल जाता है और एक मात्र काल तत्त्व ही बचता है। (दिग्देशकालस्वरूपमीमांसा, प्रस्तावना, पृ. ८५)
इस ग्रन्थ की विशालता का अनुभव पृष्ठों के आधार पर किया जा सकता है, क्योंकि इस में ९०० पृष्ठ हैं। इसकी प्रस्तावना में २०६ उपशिर्षकों को समाहित किया गया है। पारिभाषिक प्रकरण में १८५ बिन्दूओं पर चर्चा की गयी है। ग्रन्थ में दिग्देशकाल का विस्तृत स्वरूप विवेचित है। वेद पुराणों को आधार बनाकर विषयों को लोकोपकारी एवं सर्वजन्यग्राह्य बनाने का सफल प्रयास किया गया है। यह तीनों विषय पर वर्तमान समय में भी विद्वानों के द्वारा गहन चिन्तन किया जा रहा है। इस ग्रन्थ को एक बार पढने मात्र से विषय का सहज बोध हो जाता है।