This is a fairly voluminous work on Indian philosophy. Pandit Motilal Shastri has drawn extensively from the Vedas and puranas to present new dimensions of Indian philosophy. There are two versions of the book–the longer version is given below, followed by the short version.
भारतीय हिन्दू-मानव और उसकी भावुकता—पूर्ण संस्करण
भूमिका-(पृष्ठ १-१८) के लेखक प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. वासुदेवशरण अग्रवाल है। पुरुष के विषय में लिखते हुए शतपथब्राह्मण को उद्धृत किया गया है। ‘पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्, ४.३.४.३’ पुरुष प्रजापति के निकटतम है। पुरुष प्रजापति की सच्ची प्रतिमा है। प्रजापति मूल है, तो पुरुष उसकी ठीक प्रतिकृति है। (पृ.१)
किमपि प्रास्ताविकम्-(पृष्ठ १-२०) के अन्तर्गत पं. शास्त्री जी ने ‘आत्मा उ एकः सन्नेतत् त्रयम्, त्रयं सदेकमयमात्मा, (बृहदारण्यक १.६.३)’ एक ही तत्त्व सृष्टि काल में दैवतभाव में, आत्मभाव में और भूतभावों में व्यक्त रहता है। प्रतिसर्ग की दशा में तीनों तत्त्व एक ही रूप में परिणत हो जता है। (पृ.८)
असदाख्यान-मीमांसा– (पृ.१-१३२) यह प्रथम स्तम्भ है। भारतीय उसासनाकाण्ड में उपासक की लक्ष्यसिद्धि के लिए प्रतिमा को माध्यम माना गया है। ‘माइथा’ शब्द मिथ्याभाव का संग्राहक है। ‘लाजी’ शब्द ज्ञानशब्द का संग्राहक है। माइथालाजी का अर्थ मिथ्याज्ञान है। यही तात्पर्य असदाख्यान का है। (पृ.६)
युधिष्ठिर प्रमुख पाण्डव सर्वात्मना दुःखार्त एवं दुर्योधन कौरव सर्वात्मना सुखी और समृद्ध क्यों और कैसे? यह मूल प्रश्न है। जिसका हिन्दू मानव की भावुकता के माध्यम से इस निबन्ध में विश्लेषण किया जायेगा । (पृ. २३)
विश्वस्वरूप-मीमांसा- (पृ. १३६-४४७) यह द्वितीय स्तम्भ है। विश्व शब्द पर विचार करते हुए कहा गया है कि प्रवेशनार्थक ‘विश’ धातु से ‘क्वुन्’ प्रत्यय द्वारा विश्व शब्द बना है। ‘विशति अत्र आत्मा, तद् विश्वम्’। जहाँ आत्मा प्रविष्ट रहता है, वह विश्व है। (पृ.१३७) तात्त्विक दृष्टि से विश्व शब्द का अर्थ ‘सर्व’ है।‘विश्वानि देव, यजुर्वेद ३.२०’। शतपथब्राह्मण में भी जो विश्व है वही सब कुछ है। ‘यद्वै विश्वं, सर्वम् तत्, शतपथब्राह्मण ३.१.२.११’। एकत्व आत्मनिबन्धन है और अनेकत्व विश्वनिबन्धन है। अमृतलक्षण आत्मा अखण्ड है, एकाकी है। मृत्युलक्षण क्षरात्मक विश्व खण्ड खण्डात्मक बनता हुआ नानाभावापन्न है। इसके लिए बृहदारण्यक उपनिषद् प्रमाण है।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति, य इह नानेव पश्यति। ४.४.१९ (पृ. १३८)
वाक् शब्द पर विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि मन, प्राण और बल ये तीन तत्त्व है। मन के लिए ‘अ’ का, प्राण के लिए ‘उ’ का और बल के लिए ‘अच्’ का ग्रहण किया जाता है। ‘उ’ का संप्रसारण होकर अर्थात् ‘उ’ बदल कर ‘व्’ हो जाता है। ‘व्+ अ+ अच्’ इस स्थिति में ‘अ+ अच्’ मिलकर ‘आच्’ हो गया। पुनः ‘व्’ से मिल कर ‘वाच्’ होता हुआ वाक् बन जाता है। (पृ. २५३)
Bharatiya Hindu Manav aur Uski Bhavukta—Short version
This is the short version of the above volume.
भारतीय हिन्दू-मानव और उसकी भावुकता–-लघु संस्करण
भारतीय हिन्दू मानव और उसकी भावुकता नाम से जो बड़ा ग्रन्थ है। उसी ग्रन्थ को संक्षेप में लघुरूप में पाठक के रुचि को बढ़ाने के लिए संकलित किया गया है।
भावुकता के लिए महाभारत की कथा को आधार बनाया गया है। पाण्डव में सब गुण होते हुए भी वे दुःखी थे। कौरव में सब दोष होते हुए भी वे सुखी थे। इसका कारण भावुकता है। पाण्डव में भावुकता थी और कौरव में निष्ठा थी। (पृ.१-२)
द्यूतकर्म से प्रभावित धर्मभीरु युधिष्ठिर ने प्रत्यक्ष से प्रभावित होकर सती द्रौपदी को दाव पर लगा दिया। द्यूत जैसे निन्दनीय कर्म के साथ प्रतिज्ञापालन जैसे धर्म तत्त्व का ग्रन्थिबन्धन करने की भावुकता करते हुए युधिष्ठिर ने आपना राज्य खो दिया। (पृ.४)
चार प्रकार के मानव को आधार बना कर विषय को स्पष्ट किया गया है। ये हैं-आत्मा, मन, बुद्धि और शरीर।
बुद्धि, मन और शरीर से संबद्ध आत्मा को प्रधान मानने वाला मनुष्य हमेशा खुश रहता है। वह सभी समयों में निष्ठावान् रहता है।आत्मा, मन और शरीर से संबद्ध बुद्धि को प्रधान मानने वाला मनुष्य हमेशा समृद्धि में रहता है। वह भविष्य को सोच कर विश्वासी रहता है।
आत्मा, बुद्धि और शरीर से संबद्ध मन को प्रधान मानने वाला मनुष्य हमेशा जीवन का निर्वाह मात्र करता है। वह वर्तमानकाल में रहता हुआ श्रद्धालु बना रहता है। आत्मा, बुद्धि और मन से संबद्ध मन को प्रधान मानने वाला मनुष्य हमेशा भावुक रहता है। वह भूतकाल को सोचता हुआ लक्ष्यभ्रष्ट बना रहता है। (पृ. १३)
उपनिषत्काल में भारतराष्ट्र और उसका मानव समाज अभ्युदय और निःश्रेयस के परम उत्कर्ष पर पहुँचा हुआ था। यह काल भारतराष्ट्र का स्वर्णयुग था। छान्दोग्योपनिषद् को उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि मेरे राज्य में एक भी चोर नहीं है, एक भी कृपण नहीं है, एक भी शराबी नहीं है, एक भी अनाग्निहिताग्नि नहीं है (सभी यज्ञ करने वाले हैं), एक भी मूर्ख नहीं है, एक भी व्यभिचारी नहीं है, फिर व्यभिचारिणी कहाँ से मिले।
स ह (कैकेयः) प्रातः संजिहान उवाच न मे स्तेनो जनपदे, न कदर्यः, न मद्यपः, न अनाहिताग्निः, न अविद्वान्, न स्वैरी, न स्वैरिणी कुतः। ५.११.५ (पृ.६०)
उपनिषद् के इस वाक्य से हिन्दूशास्त्र की सर्वोत्कृष्ट व्यवहारिकता का एवं चरम सफलता का परिचय प्राप्त होता है।