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National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha VII

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the seventh seminar on Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya on July 31, 2024. The discussion focused on Bharatavarsha. Prof. Ramraj Upadhyaya of Lal Bahadur Shastri Rashtriya Rashtriya Sanskrit University, spoke about Somavalli. There was a mountain known as Hemkut and the moon was located on it as somavalli. The yagna is carried out with soma. When devas fought with asuras, the latter destroyed somavalli. चन्द्रस्तु सोमवल्लीरूपो यो हेमकूटाद्रौ।यज्ञैकसाधनं तद्देवानामुदखनन्नसुराः॥ इन्द्रविजय, पृ. २८७, कारिका १ chandrastu somavallirupo yo hemakutadrauyagyekasadhanam tadyevanamudakhannnasuraha–Indravijaya, page 278 shloka 1 This episode lays importance to yagya. Devatas acquired several powers through yagya. Asuras also tried to carry out yagnas for that purpose but could not do so. Asuras were unaware of the correct method of yagna. यज्ञात् सिद्धीर्देवतानामनेका दृष्ट्वा यज्ञं कर्तुमैच्छन्नदेवाः।किन्त्वस्मिंस्ते यज्ञविज्ञानशिक्षाशून्यः सिद्धिं नाप्नुवन् विध्यबोधात्॥ वही, कारिका २ yagyat sidhirdevatanamaneka drishta yagyam katurmechhannadevahakintavsmimste yagyavigyanshikshashunyaha siddhim napruvan vidyabodhat–Indravijaya page 278 shloka 2 Prof. Vijay Garg, Acharya, Sanskrit Department, Hindu College, Delhi University gave his lecture based on the topic Devyajnabhumi. He said that the synonym of the word svarga was Trivishtap. Triloki is a major topic in Vedic science. In triloki, the first earth is Bharatavarsha. The second is space and the third is Hemavatvarsh Dyuloka. These three worlds together are Trivishtap. Here Pandit Ojha ji has determined the location of Trivishtap. The place from North Ocean to Kuruvarsh is called Trivishtap. In this way Trivishtap has been called Dyulok. The king of one part of that earth is Devadatta, the king of the other part is some other person. The king of the third part is someone else. The kingdom is different based on the king of the same earth. Similarly, the king of one part of svarga is Brahma. The part of svarga where Brahma is the king is called Brahma’s Vishtap. The other part of svarga where Vishnu is the king is called Vishnu vishtap. The third part where Indra is the king is called Indra’s Vishtap. भारतवर्षं पृथ्वी हैमवतं वर्षमन्तरिक्षं स्यात् ।उत्तरमब्धिं यावत् कुरुवर्षान्तं त्रिविष्टपं तु द्यौः॥ब्रह्मण एकं विष्टपमपरं विष्णोस्तृतीयमिन्द्रस्य।एभिस्त्रिभिरधिपतिभिः स्वर्गो लोकस्त्रिविष्टपं भवति॥ वही पृ. २७१, कारिका१-२ Bharatavarsha prithvi haimavatam varshamantariksham syatuttaramabdhim yavat kuruvarshantam trivishtapam tu dyoBrahman ekam vishtapamparam vishnostrutiyamindrasyaebhistnibhiradhipatibhiha svargo lokastinvishtapam bhavat.–Indravijaya page 271 shlokas 1-2 Dr. Ritesh Kumar Pandey, Associate Professor, Grammar Department, Shrirang Laxmi Adarsh ​​Sanskrit Mahavidyalaya, Vrindavan, gave his lecture on the origin of Sura. He said that when the demons could not obtain Somras, they went to their king Varuna and prayed. Varuna made an intoxicant and gave it to the demons. The demons accepted the intoxicant made by Varuna’s efforts. The demons started saying that they drink Sura, and in this way the word Sura became popular in the public in the sense of alcohol. Dr. Neerja Kumari, Assistant Professor, Sanskrit Department, Mahant Darshan Das Mahavidyalaya, Muzaffarpur, Bihar delivered her lecture on the second chapter of Indravijaya. She said that Omkar has great importance in the Indian knowledge tradition. Regarding the importance of Bharatavarsha, the author himself writes where there are the Vedas and the residents are divided into four castes according to religion, and where cow and holy Ganga are worshipped, that country is Bharatavarsha. ओङ्कार एव येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः।येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ वही, पृ. २५८, कारिका१-२ omkar eva yeshamavisheshanmantra aradhyahayesham bhinnamatanamapyatrastyekabandhutvamyesham shastram vedashchatuvranarye vibhajite dharmahadhenugrangaradhya tesham deshosti bharatavarsham–Indravijay, p 258, shloka 1-2 Dr. Ravindra Ojha, Shri Lakshmi Narayan Vedapathshala, Surat, recited Vedic Manglacharan with his students. The programme was conducted by Dr. Lakshmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. Professors from universities and colleges, research scholars, and several others interested in the subject from various states participated enthusiastically and contributed to making the seminar a success.

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-७)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केद्वितीय अध्याय के प्रारम्भिक भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित कीगई थी । प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्यविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, ने सोमवल्ली के परिप्रेक्ष्य में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। पण्डित ओझा जी ने इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ में सोमवल्ली की अभिनव व्याख्या की है, जो पाठकों के लिए सर्वथा नवीन है। हेमकूट नामक एकपर्वत है। उस पर्वत पर चन्द्रमा ही सोमवल्ली के रूप में अवस्थित हैं। सोम तत्त्व से ही यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञका साधन सोम है। जब देवों के साथ असुर का युद्ध हुआ, तब उस युद्ध में असुर ने उस सोमवल्ली नष्ट कर दिया । चन्द्रस्तु सोमवल्लीरूपो यो हेमकूटाद्रौ।यज्ञैकसाधनं तद्देवानामुदखनन्नसुराः॥ इन्द्रविजय, पृ. २८७, कारिका १ इस प्रसङ्ग में यज्ञ का महत्त्व रेखांकित किया गया है। देवता ने यज्ञ के माध्यम से ही विविध प्रकार की सिद्धियाँप्राप्त की थी। असुर भी यज्ञ को करने के लिए प्रयत्न किया था। परन्तु वे असुर यज्ञविधि ठीक से नहीं जानने केकारण सिद्ध को प्राप्त नहीं हुए। अत एव वे असुर यज्ञ से होने वाली सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सके। यज्ञात् सिद्धीर्देवतानामनेका दृष्ट्वा यज्ञं कर्तुमैच्छन्नदेवाः।किन्त्वस्मिंस्ते यज्ञविज्ञानशिक्षाशून्यः सिद्धिं नाप्नुवन् विध्यबोधात्॥ वही, कारिका २ प्रो. विजय गर्ग, आचार्य, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने देवयजनभूमि नामकविषय को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया था। उन्होंने कहा कि स्वर्गशब्द का पर्याय त्रिविष्टप है।वैदिकविज्ञान में त्रिलोकी एक प्रधान विषय है। त्रिलोकी में पहला पृथ्वीलोक भारतवर्ष है। दूसरा अन्तरिक्ष औरतीसरा हैमवतवर्ष द्युलोक है। यही तीनों लोक मिल कर त्रिविष्टप है । यहाँ पर पण्डित ओझा जी ने त्रिविष्टप कास्थाननिर्धारण किया है। उत्तर समुद्र से लेकर कुरुवर्ष पर्यन्त स्थान त्रिविष्टप कहलाता है। इस प्रकार त्रिविष्टप को ही द्युलोक कहा गया है। जिस प्रकार एक पृथ्वी है। उस पृथिवी के एक भाग का राजा देवदत्त है, दूसरे भागका राजा कोई अन्य व्यक्ति है। तीसरे भाग का राजा कोई दूसरा ही है। एक ही भूपिण्ड का राजा के भेद से राज्यका भेद होता है। उसी प्रकार स्वर्ग के एक भाग का राजा ब्रह्मा है। ब्रह्मा जिस भाग का राजा है, वह भाग ब्रह्माका विष्टप कहलाता है, स्वर्ग के दूसरे भाग का राजा विष्णु है, वह भाग विष्णुविष्टप कहलाता है। तीसरे भागका राजा इन्द्र, वह भाग इन्द्र का विष्टप कहलाता है। भारतवर्षं पृथ्वी हैमवतं वर्षमन्तरिक्षं स्यात् ।उत्तरमब्धिं यावत् कुरुवर्षान्तं त्रिविष्टपं तु द्यौः॥ब्रह्मण एकं विष्टपमपरं विष्णोस्तृतीयमिन्द्रस्य।एभिस्त्रिभिरधिपतिभिः स्वर्गो लोकस्त्रिविष्टपं भवति॥ वही पृ. २७१, कारिका१-२ डॉ. रितेश कुमार पाण्डेय, सह आचार्य, व्याकरण विभाग, श्रीरङ्ग लक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, वृन्दावनने सुरा की उत्पत्तिप्रसंग के ऊपर अपना स्वव्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि जब असुर सोमरस को प्राप्त नहींकर पाया तब उन्होंने अपने राजा वरुण के समीप जाकर प्रार्थना की । वरुण ने एक मादक पदार्थ को बना करअसुरों को दे दिया। वरुण के प्रयास से निर्मित मादक पदार्थ को असुर ने स्वीकार किया। वे असुर कहने लगे किहम लोग सुरा को पिते हैं, इस प्रकार से सुरा शब्द लोक में मदिरा के अर्थ में प्रचलित हो गया। अप्राप्य सोममसुराः सोमविधं मादकं विधापयितुम्।असुराधीशं वरुणं राजानं प्रार्थयामासुः॥वरुणस्ततः प्रयत्नाद् विनिर्ममे वारुणीं मदिराम्।पास्यामस्त्वसुरानिति सुरामिमां नातश्चक्रुः॥ वही, पृ. २९४, कारिका १-२ डॉ. नीरजा कुमारी, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, महन्त दर्शन दास महाविद्यालय. मुजफ्फरपुर, बिहार नेइन्द्रविजय ग्रन्थ के दूसरे अध्याय के विषयवस्तु पर अपना व्याख्यान प्रदान की। उन्होंने कही कि भरतीयज्ञानपरम्परा में ओङ्कार का महत्त्व अधिक है। भारतवर्ष का महत्त्व कैसा था इस के विषय में ग्रन्थकार स्वयंलिखते हैं कि जहाँ वेद शास्त्र है, भारतवर्ष के निवासी में धर्म के अनुरूप चार वर्णों का विभाग है। गाय एवंपवित्र गंगा पूजनीय है। वह देश ही भारतवर्ष है। ओङ्कार एव येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः।येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ वही, पृ. २५८, कारिका१-२ डॉ. रवीन्द्र ओझा, श्रीलक्ष्मी नारायण वेदपाठशाला, सूरत, ने अपने छात्रों के साथ सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ.लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के संगोष्ठी को सफलबनाया में अपना योगदान दिया।

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Chhandobhyasta

This is a volume on yajna-vijnana or the science of yajna. Here, Ojhaji has elucidated upon all subjects related to yajna. It is written in Vedic language and deals with havi (offerings), mahayana, atiyajna, shiroyajna and yajnaparishad. छन्दोभ्यस्तयह यज्ञविज्ञान का ग्रन्थ है जिसमें यज्ञीय विषयों का सम्यक् विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना वैदिक भाषा में की गयी है । यह ग्रन्थ हविर्यज्ञ, महायज्ञ, अतियज्ञ, शिरोयज्ञ एवं यज्ञपरिशिष्ट नामक पाँच प्रकरणों में विभक्त है । Read/download

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Brahmavinaya

In this volume, Pandit Madhusudan Ojha has explained the concept of Chatushpad Brahma. Given here are four aspects —paratpar,  avyaya, akshara and kshkara. However, Ojhaji has included an additional aspect which he called nirvishesh, considered even higher than paratpar. ब्रह्मविनयपं. मधुसूदन ओझाजी का ब्रह्मविषयक सिद्धान्त चतुष्पाद् ब्रह्म की सत्ता पर निर्भर है । ये चतुष्पाद हैं- परात्पर, अव्यय, अक्षर एवं क्षर । दार्शनिक दृष्टि से परात्पर के भी उपर एक पाँचवा निर्विशेष को माना गया है । ओझाजी ने इन्हीं पाँच की व्याख्या हेतु इस ग्रन्थ की रचना की है । सम्प्रति उपलब्ध संस्करण में निर्विशेषानुवाक्, परात्परानुवाक्, अव्ययानुवाक् एवं अक्षरानुवाक् नामक कुल चार प्रकरण ही प्राप्त होते हैं । Read/download

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Brahmachatushpadi

Extremely difficult subjects need to be repeated and presented from different perspectives for a better grasp. Brahma-vijnana (science of the creator) is one such knowledge which requires several interpretations. Hence there are many works on different aspects of Brahma-vijnana. In this  volume, several aspects of creation have been explained. ब्रह्मचतुष्पदीउपनिषदों में आख्यायिका एवं उपदेश के रूप में चतुष्पाद् ब्रह्म का निरूपण है, उसी के आधार पर ब्रह्म के चार पादों की कल्पना कर इस ब्रह्मचतुष्पदी की रचना की गयी । यहाँ निर्गुण, निर्विशेष रसतत्त्व से प्रारम्भ कर संसार की वर्तमान स्थिति तक चार प्रकार की अवस्था मानी गयी है । गूढात्मा, शिपिविष्ट, अधियज्ञ एवं विराट् यही चार अवस्थाएँ एक-एक पाद मानी गयी हैं । Read/download

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Sharirikavigyanam I & II

This is an important work on the principles of Vedanta. Influenced to a great extent by Shankaracharya’s commentaries on Vedanta, Pandit Madhsudan Ojha has written his own interpretation of the subject. In his work, Ojhaji has clarified several points by Shankaracharya which, otherwise, would have remained difficult to understand. It is in two parts. शरीरकविज्नाना भाग एक और दो वेदान्तसूत्रों पर आचार्य शंकर के पश्चात् लिखे गये भाष्यों में शारीरकविज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि इस भाष्यग्रन्थ पर आचार्य शंकर के भाष्य का प्रभाव तो स्वाभाविक ही है परन्तु इस भाष्य के अनेक स्थलों के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ के बिना वेदान्त सूत्रों के अनेक स्थल अस्पष्ट रह जाते या उनके विपरीत अर्थ ग्रहण कर लिये जाते । इन्हीं दृष्टिभेद बिन्दुओं को लेकर इस भाष्यग्रन्थ की रचना ओझाजी ने की है । यह भाष्य ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है ।  Read/download Part IRead/download Part II

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Gita-vijnanabhashya-Acharya Khand

This is the third volume in the Bhagvad Gita Vijnanabhashya compendium. The volume has five chapters–Krishna ki trividhita (three identities of Krishna), Manusha Krishna (Krishna in human form), Divya Krishna ( Krishna as Bhagwan), Gita Krishna (Krishna in Gita) and Teenon Krishna ki Ekatmata (unity of three forms of Krishna). These chapters contain the entire Brahmajnana. गीता-विज्ञानभाष्य -आचार्य-काण्ड यह भगवद्गीता विज्ञानभाष्य संकलन का तीसरा खंड है। इस खंड में पांच अध्याय हैं- कृष्ण की त्रिविधा (कृष्ण की तीन पहचान), मानुषा कृष्ण (मानव रूप में कृष्ण), दिव्य कृष्ण (कृष्ण भगवान के रूप में), गीता कृष्ण (गीता में कृष्ण) और तीन कृष्ण की एकात्मता (कृष्ण के तीन रूपों की एकता)। इन अध्यायों में संपूर्ण ब्रह्मज्ञान समाविष्ट है।Read/Download

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Pratyantaprasthanamimasa

Pandit Madhusudan Ojha has written a well-argued case for travelling abroad. In the olden times, sailing to foreign countries was considered a taboo. It was said to be against the shastras. Ojhaji argued that such travels were within the norms of shastras. He wrote this book in the context of the invitation sent out by the English ruler, King Edward VIII, to his coronation. It was mandatory for all kings and rulers to attend the function. Jaipur king, Sawai Madhosingh, too had to prepare for the travel to London. Ojhaji was his royal guru. He considered the long journey of two to three months against the shastras and hence sought advice from his ministers and advisers. Ojhaji advised him to travel and he also went along with the royal entourage. On their return, there were strong rumours of banishing him from the community. The king too came under criticism. Ojhaji then wrote this volume to prove how foreign travel was considered valid by the shastras. Read/Download

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Vedic-kosha

Vedic-kosha is also known as Nighantumanimala which means a collection of vedic terms. The book contains vedic terms and their meaning. वैदिककोश वैदिककोश का दूसरा नाम  निघण्टुमणिमाला है। इस में मुख्यरूप से निघण्डु में जो  वैदिकशब्द प्रयुक्त हैं। उन शब्दों को पद्य के रूप में उपस्थापित किया है। निघण्टु में वैदिकशब्द है और निरुक्त में उसी शब्द की व्याख्या है। इस ग्रन्थ में वैदिक शब्द और उसके अर्थ दोनों को समाहित किया गया है। शौनक कृत बृहद्देवता के पद्य को यथावत् लिया गया है।                             वर्गा इमे दैव-दिव्य-नर-धर्म-क्रियाव्ययैः।                                नैगम-द्वयनानार्थैर्बृहद्देवतयापि च ॥ एतैस्तु दशभिर्वर्गैर्निघण्टूक्ता यथायथम्। गृहीता श्लोकबन्धेन शब्दाः प्रायेण वैदिकाः॥ पृ. ५७ देवतवर्ग- इस वर्ग में ३३ कारिका हैं। इस में त्रीलोकी के देवाता, पृथ्वीलोक के देवता, अन्तरिक्षलोक के देवता और द्य्लोक के देवता के नाम उल्लिखित हैं। मरुत्, रुद्र, भृगु, अङ्गिरा, अथर्व, ऋभु, विशिष्ठ इतने गणदेवता हैं।                   मरुतो रुद्राः पितरो भृगवोऽङ्गिरसोऽप्यथर्व ऋभवः स्त्युः।                      अथ च वशिष्ठा आप्त्या एता गणदेवतास्तत्र ॥ पृष्ठ ३, कारिका २४ दिव्यवर्ग- इस वर्ग में ३५ कारिका हैं तथा द्युलोक-पृथ्वीलोक, पृथ्वी, हिरण्य, अनतरिक्ष, दिशा, किरण, दिन, उषा, रात्रि, मेघ, जल, नदी और अश्व के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। मनुष्यवर्ग- इस में आठ कारिका हैं। मनुष्य, मेधावी, स्तोता, ऋत्विक्, अध्यक्ष, चौर और अपत्य के नामों का संग्रह किया गया है। धर्मवर्ग- इस वर्ग में ४५ कारिका हैं। महान्, क्षुद्र, बहुः, समीप, दूर, पुराण, नवीन, अन्तर्हित, सुन्दर, रूप, हस्त, अङ्गुलि, कर्म, यज्ञ, सत्य, वाक्, प्रज्ञा, सुख, बल, क्रोध, वज्र, युद्ध, धन, गौ, अन्न, गृह, कूप, प्रज्वलन और शीघ्र इतने शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संग्रह किया गया है। क्रियावर्ग- इस वर्ग में  २९ कारिका हैं। धातु रूप क्रिया, व्याप्ति, ईशन, अध्येषणा, अर्चा, परिचर्चा, याचना, ईक्षण, इच्छा, दान, भोजन, प्रज्वलन, क्रोधन, हनन और शयन आदि शब्दों का संग्रह किया गया है। उपसर्गवर्ग- इस में १४ कारिका हैं। आ, प्र, प्रति अभि आदि शब्द से पूर्व लगने वाले उपसर्गों को समाहित किया गया है। ऐकपदिकवर्ग- इसमें २७ कारिका हैं तथा अनेक शब्दों का संग्रह है। ऐकपदिकार्थवर्ग- इस में १४३ कारिका हैं। इसके अन्तर्गत द्विपदिकार्थसंग्रह है- इसमें ४ कारिका हैं। द्वयर्थसाधारणपद- इसमें ४ कारिका हैं। अनेकार्थवर्ग-  अकारिदिक्रम से अनेक शब्दों का संग्रह है इस में ६० कारिका हैं। १० कारिकाओं को अलग से समाहित किया गया है। बृहद्देवतावर्ग- इस में १२० कारिका है। Read/Download

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Smarthakundasameekshadhyaya

`Smarthakundasamikshadhyaya has three notes–smartha, kunda and samiksha. Smartha originates from smriti or commemoration. The person who conducts yagya karma according to smriti grantha is smartha. A family man is smartha. Kunda means a pit meant for offering. Samiksha means contemplation. Hence the book which explains the pit of offering from memory is Smarthakundasamikshadhyaya. स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय ‘स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय’ इस  में तीन पद हैं- स्मार्त, कुण्ड और समीक्षा। स्मृति शब्द से स्मार्त शब्द बना है। जो स्मृति ग्रन्थ के अनुसार यज्ञकर्म करता है वह स्मार्त कहलाता है। गृहस्थ व्यक्ति स्मार्त है। उसका यज्ञकर्म स्मृति के अनुसार होता है। कुण्ड का अर्थ यज्ञ संबन्धी कुण्ड। जिस  कुण्ड में यज्ञ किया जाता है।  समीक्षा का अर्थ विचार होता है। स्मृति के अनुसार यज्ञकुण्ड का निरूपण करने वाला ग्रन्थ स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। स्मृति के अन्तर्गत मनुस्मृति, याज्ञवल्य स्मृति आदि ग्रन्थ आते हैं एवं गृह्यसूत्र भी स्मृति की कोटि में है। इस में पाकयज्ञ संबन्धी विषयों को आधार बनाया गया है।                               स्मार्तकुण्डविधिः पाकयज्ञार्थ उपयुज्यते। स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय पृ. १          पण्डित मधुसूदन ओझा ने यज्ञमधुसूदन नामक एक ग्रन्थ का प्रणयन किया है। इस ग्रन्थ  में  तीन अध्याय हैं- प्रतिपत्तिकाण्ड, प्रयोगकाण्ड और प्राचीनपद्धतिकाण्ड। इनमें से प्रथम अध्याय का दूसरा अध्याय स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। इस स्मार्तकुण्डाध्याय में भी तीन भाग हैं- प्रथमभाग में भूमि मापने का विधान है। इसमें अंगुलि से किस प्रकार यज्ञवेदी को नापा जाय। इसका विधान है। भूमि को किस प्रकार समतल किया जाय। दिशाओं को निर्धारण किस उअपकरण से किया जाता है। यज्ञमण्डप साधन में यह विचार किया जाता है कि  किस स्थान पर मण्डप का निर्माण हो। अनेक प्रकार की परीक्षा अर्थात् परीक्षण भी वर्णित हैं- विकारपरीक्षा, प्रवणपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, रूपपरीक्षा, रसपरीक्षा आदि अनेक विषय हैं। दूसरेभाग में दस प्रकार के कुण्डों का स्वरूप निर्धारित किया गया है। कुण्ड के ये नाम हैं- योनिकुण्ड, अर्धचन्द्रकुण्ड, त्रिकोणकुण्ड, वर्तुलकुण्ड, षट्कोणकुण्ड, पद्मकुण्ड, अष्टकोणकुण्ड, पञ्चास्रकुण्ड और सप्तास्रकुण्ड।  तीसरे भाग में कुण्ड के पाँच अंगों पर विचार किया गया है। ये हैं- खात, कण्ठ, नाभि, मेखला और योनि। खात- खोदने की क्रिया को खात कहा जाता है। कुण्ड का  गहराई कितना होना चाहिए। कुण्ड के आकार के अनुरूप ही गहराई की व्यवस्था की जाती है। यदि कुण्ड वृत्त के आकार का है तो तो गहराई वैसा ही होगा। यदि कुण्ड समानरूप से  चारों कोणों के अनुसार है तो गहराई भी वैसा ही होगा।           खननण् खातः, कुण्डगर्तः समचतुरस्रे कुण्डे चतुरस्रो वृत्ते वृत्त इत्येवं कुण्डानुरूपं कार्यः। वही पृ. ९८ कण्ठ- कण्ठ का ही दूसरा नाम ओष्ठ है। खात के बाह्य भाग में  खात और मेखाला के बीच चारो दिशाओं में समानरूप से, कुण्डव्यास के चौबीसवें अंश या बारहवें अंश के बराबर बनाया जाना चाहिए। कण्ठ ओष्ठ इत्येकोऽर्थः । सच खातस्य बहिर्भागे खात-मेखलयोरन्तराले चतुर्दिक्षु परितः समः कुण्डव्यास-चतुर्विंशांशेन द्वादशांशेन कार्यः। वही पृ. १०३ नाभि- कुण्ड के भीतर  दो अंगुली ऊँची, चार अंगुली लम्बी व इतनी ही चौड़ी नाभि बनती है।                             तेनैकहस्ते कुण्डे द्व्यङ्गुलोच्छ्रिता चतुरङ्गुलायामविस्तारा नाभिः संपद्यते। वही पृ. १०५ मेखला- कण्ठ के भी बाहर चारो ओर परिधि की तरह व्याप्त मेखला बनाई जाती है।                            कण्ठतोऽपि बहिर्भागे समन्ततो वृत्तिरूपा मेखला क्रियते। वही पृ. १०६ योनि-कुण्ड के पृष्ठ भाग की मेखला के मध्य भाग में पीपल के पत्ते या हाथी के ओष्ठ की आकृति की योनि बनाई जाती है।                               सा पृष्ठमेखलाया मध्यभागेऽश्वत्थपत्राकृतिर्गजोष्ठाकृतिर्वा क्रियते। वही, पृ. ११३ Read/Download

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