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Pratyantaprasthanamimasa

Pandit Madhusudan Ojha has written a well-argued case for travelling abroad. In the olden times, sailing to foreign countries was considered a taboo. It was said to be against the shastras. Ojhaji argued that such travels were within the norms of shastras. He wrote this book in the context of the invitation sent out by the English ruler, King Edward VIII, to his coronation. It was mandatory for all kings and rulers to attend the function. Jaipur king, Sawai Madhosingh, too had to prepare for the travel to London. Ojhaji was his royal guru. He considered the long journey of two to three months against the shastras and hence sought advice from his ministers and advisers. Ojhaji advised him to travel and he also went along with the royal entourage. On their return, there were strong rumours of banishing him from the community. The king too came under criticism. Ojhaji then wrote this volume to prove how foreign travel was considered valid by the shastras. Read/Download

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Vedic-kosha

Vedic-kosha is also known as Nighantumanimala which means a collection of vedic terms. The book contains vedic terms and their meaning. वैदिककोश वैदिककोश का दूसरा नाम  निघण्टुमणिमाला है। इस में मुख्यरूप से निघण्डु में जो  वैदिकशब्द प्रयुक्त हैं। उन शब्दों को पद्य के रूप में उपस्थापित किया है। निघण्टु में वैदिकशब्द है और निरुक्त में उसी शब्द की व्याख्या है। इस ग्रन्थ में वैदिक शब्द और उसके अर्थ दोनों को समाहित किया गया है। शौनक कृत बृहद्देवता के पद्य को यथावत् लिया गया है।                             वर्गा इमे दैव-दिव्य-नर-धर्म-क्रियाव्ययैः।                                नैगम-द्वयनानार्थैर्बृहद्देवतयापि च ॥ एतैस्तु दशभिर्वर्गैर्निघण्टूक्ता यथायथम्। गृहीता श्लोकबन्धेन शब्दाः प्रायेण वैदिकाः॥ पृ. ५७ देवतवर्ग- इस वर्ग में ३३ कारिका हैं। इस में त्रीलोकी के देवाता, पृथ्वीलोक के देवता, अन्तरिक्षलोक के देवता और द्य्लोक के देवता के नाम उल्लिखित हैं। मरुत्, रुद्र, भृगु, अङ्गिरा, अथर्व, ऋभु, विशिष्ठ इतने गणदेवता हैं।                   मरुतो रुद्राः पितरो भृगवोऽङ्गिरसोऽप्यथर्व ऋभवः स्त्युः।                      अथ च वशिष्ठा आप्त्या एता गणदेवतास्तत्र ॥ पृष्ठ ३, कारिका २४ दिव्यवर्ग- इस वर्ग में ३५ कारिका हैं तथा द्युलोक-पृथ्वीलोक, पृथ्वी, हिरण्य, अनतरिक्ष, दिशा, किरण, दिन, उषा, रात्रि, मेघ, जल, नदी और अश्व के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। मनुष्यवर्ग- इस में आठ कारिका हैं। मनुष्य, मेधावी, स्तोता, ऋत्विक्, अध्यक्ष, चौर और अपत्य के नामों का संग्रह किया गया है। धर्मवर्ग- इस वर्ग में ४५ कारिका हैं। महान्, क्षुद्र, बहुः, समीप, दूर, पुराण, नवीन, अन्तर्हित, सुन्दर, रूप, हस्त, अङ्गुलि, कर्म, यज्ञ, सत्य, वाक्, प्रज्ञा, सुख, बल, क्रोध, वज्र, युद्ध, धन, गौ, अन्न, गृह, कूप, प्रज्वलन और शीघ्र इतने शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संग्रह किया गया है। क्रियावर्ग- इस वर्ग में  २९ कारिका हैं। धातु रूप क्रिया, व्याप्ति, ईशन, अध्येषणा, अर्चा, परिचर्चा, याचना, ईक्षण, इच्छा, दान, भोजन, प्रज्वलन, क्रोधन, हनन और शयन आदि शब्दों का संग्रह किया गया है। उपसर्गवर्ग- इस में १४ कारिका हैं। आ, प्र, प्रति अभि आदि शब्द से पूर्व लगने वाले उपसर्गों को समाहित किया गया है। ऐकपदिकवर्ग- इसमें २७ कारिका हैं तथा अनेक शब्दों का संग्रह है। ऐकपदिकार्थवर्ग- इस में १४३ कारिका हैं। इसके अन्तर्गत द्विपदिकार्थसंग्रह है- इसमें ४ कारिका हैं। द्वयर्थसाधारणपद- इसमें ४ कारिका हैं। अनेकार्थवर्ग-  अकारिदिक्रम से अनेक शब्दों का संग्रह है इस में ६० कारिका हैं। १० कारिकाओं को अलग से समाहित किया गया है। बृहद्देवतावर्ग- इस में १२० कारिका है। Read/Download

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Smarthakundasameekshadhyaya

`Smarthakundasamikshadhyaya has three notes–smartha, kunda and samiksha. Smartha originates from smriti or commemoration. The person who conducts yagya karma according to smriti grantha is smartha. A family man is smartha. Kunda means a pit meant for offering. Samiksha means contemplation. Hence the book which explains the pit of offering from memory is Smarthakundasamikshadhyaya. स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय ‘स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय’ इस  में तीन पद हैं- स्मार्त, कुण्ड और समीक्षा। स्मृति शब्द से स्मार्त शब्द बना है। जो स्मृति ग्रन्थ के अनुसार यज्ञकर्म करता है वह स्मार्त कहलाता है। गृहस्थ व्यक्ति स्मार्त है। उसका यज्ञकर्म स्मृति के अनुसार होता है। कुण्ड का अर्थ यज्ञ संबन्धी कुण्ड। जिस  कुण्ड में यज्ञ किया जाता है।  समीक्षा का अर्थ विचार होता है। स्मृति के अनुसार यज्ञकुण्ड का निरूपण करने वाला ग्रन्थ स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। स्मृति के अन्तर्गत मनुस्मृति, याज्ञवल्य स्मृति आदि ग्रन्थ आते हैं एवं गृह्यसूत्र भी स्मृति की कोटि में है। इस में पाकयज्ञ संबन्धी विषयों को आधार बनाया गया है।                               स्मार्तकुण्डविधिः पाकयज्ञार्थ उपयुज्यते। स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय पृ. १          पण्डित मधुसूदन ओझा ने यज्ञमधुसूदन नामक एक ग्रन्थ का प्रणयन किया है। इस ग्रन्थ  में  तीन अध्याय हैं- प्रतिपत्तिकाण्ड, प्रयोगकाण्ड और प्राचीनपद्धतिकाण्ड। इनमें से प्रथम अध्याय का दूसरा अध्याय स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय है। इस स्मार्तकुण्डाध्याय में भी तीन भाग हैं- प्रथमभाग में भूमि मापने का विधान है। इसमें अंगुलि से किस प्रकार यज्ञवेदी को नापा जाय। इसका विधान है। भूमि को किस प्रकार समतल किया जाय। दिशाओं को निर्धारण किस उअपकरण से किया जाता है। यज्ञमण्डप साधन में यह विचार किया जाता है कि  किस स्थान पर मण्डप का निर्माण हो। अनेक प्रकार की परीक्षा अर्थात् परीक्षण भी वर्णित हैं- विकारपरीक्षा, प्रवणपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, रूपपरीक्षा, रसपरीक्षा आदि अनेक विषय हैं। दूसरेभाग में दस प्रकार के कुण्डों का स्वरूप निर्धारित किया गया है। कुण्ड के ये नाम हैं- योनिकुण्ड, अर्धचन्द्रकुण्ड, त्रिकोणकुण्ड, वर्तुलकुण्ड, षट्कोणकुण्ड, पद्मकुण्ड, अष्टकोणकुण्ड, पञ्चास्रकुण्ड और सप्तास्रकुण्ड।  तीसरे भाग में कुण्ड के पाँच अंगों पर विचार किया गया है। ये हैं- खात, कण्ठ, नाभि, मेखला और योनि। खात- खोदने की क्रिया को खात कहा जाता है। कुण्ड का  गहराई कितना होना चाहिए। कुण्ड के आकार के अनुरूप ही गहराई की व्यवस्था की जाती है। यदि कुण्ड वृत्त के आकार का है तो तो गहराई वैसा ही होगा। यदि कुण्ड समानरूप से  चारों कोणों के अनुसार है तो गहराई भी वैसा ही होगा।           खननण् खातः, कुण्डगर्तः समचतुरस्रे कुण्डे चतुरस्रो वृत्ते वृत्त इत्येवं कुण्डानुरूपं कार्यः। वही पृ. ९८ कण्ठ- कण्ठ का ही दूसरा नाम ओष्ठ है। खात के बाह्य भाग में  खात और मेखाला के बीच चारो दिशाओं में समानरूप से, कुण्डव्यास के चौबीसवें अंश या बारहवें अंश के बराबर बनाया जाना चाहिए। कण्ठ ओष्ठ इत्येकोऽर्थः । सच खातस्य बहिर्भागे खात-मेखलयोरन्तराले चतुर्दिक्षु परितः समः कुण्डव्यास-चतुर्विंशांशेन द्वादशांशेन कार्यः। वही पृ. १०३ नाभि- कुण्ड के भीतर  दो अंगुली ऊँची, चार अंगुली लम्बी व इतनी ही चौड़ी नाभि बनती है।                             तेनैकहस्ते कुण्डे द्व्यङ्गुलोच्छ्रिता चतुरङ्गुलायामविस्तारा नाभिः संपद्यते। वही पृ. १०५ मेखला- कण्ठ के भी बाहर चारो ओर परिधि की तरह व्याप्त मेखला बनाई जाती है।                            कण्ठतोऽपि बहिर्भागे समन्ततो वृत्तिरूपा मेखला क्रियते। वही पृ. १०६ योनि-कुण्ड के पृष्ठ भाग की मेखला के मध्य भाग में पीपल के पत्ते या हाथी के ओष्ठ की आकृति की योनि बनाई जाती है।                               सा पृष्ठमेखलाया मध्यभागेऽश्वत्थपत्राकृतिर्गजोष्ठाकृतिर्वा क्रियते। वही, पृ. ११३ Read/Download

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Pitrsameeksha

The term pitr means ancestors. Pandit Madhsudan Ojha has written a comprehensive book on the subject of ancestors. The book opens with an explanation of theoretical elements of vedic science. The book then goes to offer an account of pitr or ancestors. According to Rigveda, there are three types of pitr–avar pitr, utparas pitr and madhyam pitr. Of these, avar pitra is the most important. पितृसमीक्षा सामान्यतया हम अपने पिता, पितामह या अधिक से अधिक प्रपितामह का नाम ही जानते हैं, हमारी पितृ-परम्परा में हुए सब पुरुषों का नाम हमें ज्ञात नहीं होता है । यदि हमें अपने एवं हमारे पितरों के स्वरूप को जानना है तो मूल सत्ता के स्वरूप को जानना पड़ेगा तथा ऋषि एवं मनु के स्वरूप को भी जानना पड़ेगा । इस विषय का वेद में विस्तृत प्रतिपादन किया गया है । इन तथ्यों की पूर्ण जानकारी हेतु सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का आजीवन अनुशीलन कर ओझाजी द्वारा ‘पितृसमीक्षा’ ग्रन्थ की रचना की गयी है ।                   उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यास । ऋग्वेद १०.१५.१ (पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३) यहाँ अवर पितर को दिव्य पितर के नाम से, उत्तम पितर को ऋतु पितर के नाम से एवं मध्यम पितर को प्रेतर पितर के नाम से निर्देश किया गया है।                   ते चैते क्रमेण दिव्या ऋतवः प्रेताश्चेति भाव्याः।  (पितृसमीक्षा, पृष्ठ १३)  पुनः इन तीनों पितरों को अग्नि, यम और सोम के भेद से विवेचन को विस्तार किया गया है।          एषां पुनरेकैके मूलप्रकृतिभेदात् त्रिविधास्त्रिविधा इष्यन्ते, आग्नेयाः याम्याः सौम्याश्चेति। (वही, पृ. १३)                                            दिव्यपितर ७ प्रकार के  दिव्य पितर होते हैं- अग्निष्वात्त-    इनका नाम वैभ्राज है, ये चमकते रहते हैं, दक्षिणा दिशा में रहते हैं, अमूर्त (इनका कोई रूप नहीं होता है) और मध्यम पितर हैं। बर्हिषद्-       इनका नाम सोमपथ अथवा सोमपद है, अमूर्त और मध्यम पितर हैं। सोमसद्-      इनका नाम सनातन अथवा संतानक है, उत्तर दिशा में रहते हैं, अमूर्त और मध्यम पितर हैं। हविर्भुक्-      इनका नाम मारीच है, इन्द्र  प्राण प्रधान होने से क्षत्रियों के पितर हैं। मूर्ति रूप में रहते हैं। उत्तम पितर हैं। आज्यप-       ये तेजस्वी होते हैं, इनमें विश्वेदेव नाम के प्राण की प्राधानता होती है, वैश्य के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं। सोमपा-        ये ज्योति रूप में प्रतीत होने वाले पितर हैं, इनमें अग्नि प्राण प्रधान होता है, ये ब्राह्मणों के पितर हैं, मूर्ति रूप में रहते हैं और उत्तम पितर हैं। सुकाली-       ये मानस पितर हैं, ये शूद्रों के पितर हैं, ये अवर पितर कहे जाते हैं और मूर्ति रूप में रहते हैं।                                                                                  (वही, पृष्ठ ३९)                                              ऋतुपितर जो अग्नि अपने मूल अवस्था से हट कर वायु रूप में परिणत होकर फैलने लगता है वह वायु ऋतु नाम से कहा जाता है।  ऋत रूप अग्नि में ऋतु शब्द का प्रयोग होता है। ऋत रूप अग्नि ही सोम रूप में विभक्त हो कर ऋतु  बन जाता है। योऽग्निः प्रभवात् प्रवृक्तो वायुसञ्चरति तदृतुम्। तारतम्येन सोमान्वयात्-संविभक्त-शरीरेस्मिन् ऋताग्नावृतुशब्दः। ऋताग्नय एअवैते सोमसंविभक्तकाया ऋतवः। (वही, पृ.३९) अग्निष्वात्त-शिशिर ऋतु, बर्हिषद्-हेमन्त ऋतु, सोमसद्-शरत् ऋतु,  हविर्भुक्-वर्षा ऋतु, आज्यप-ग्रीष्म ऋतु और सोमपा-वसन्त ऋतु है। (वही, पृष्ठ ४५ )                                     प्रेतपितर पृथ्वीलोक पर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन  पाँचों की समष्टि से बनने वाली जीवात्मा ही भूतात्मा कहलाता है। जब जीवात्मा शरीर का त्याग कर गन्धर्व प्राण प्रधान शरीर को धारण करता है। गन्धर्वरूप से तेरह मासो में नक्षत्रों लोकों को पार करते हुए चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। यही प्रेतपितर हैं। ये तीन प्रकार के हैं- परपितर, मध्यमपितर और अवरपितर हैं। ये ही क्रमशः नान्दीमुख पितर, पार्वण पितर और प्रेतपितर कहे जाते हैं। मध्यमपितर और अवरपितर की अपेक्षा से परपितर नान्दीमुख पितर कहलाता है। नान्दीमुख का अर्थ प्रसन्नमुख होता है। नान्दीमुख पितर सबसे उच्च स्थान में रहते हैं। ये हमेशा ऊर्ध्वमुख और अमूर्त (बिना आकार के) रहते हैं। ये प्रेतपितर भी सोमसद्, बहिषद् और  अग्निष्वात्त कहलाते हैं। पृथिवीलोकस्था भूतात्मानो देहत्यागादूर्ध्वं गान्धर्वशरीरा नक्षत्रैस्त्रयोदशमासैश्चन्द्रमसं गच्छन्ति। तेऽमी प्रेताः पितरस्त्रेधा निष्पद्यन्ते-परा मध्यमा अवराश्च। ते एव नान्दीमुखाः पार्वणाः प्रेताश्च। मध्यमावराणाम् अश्रुमुखत्वाद् अपेक्षया परेषां नान्दीमुखत्वम्। नान्दीमुखाः प्रसन्नमुखाः। ते चैते सर्वस्माद् अस्माद् उपरिष्टाद् वर्तन्ते। ऊर्ध्वमुखा अमूर्ताश्च। ते त्रिविधाः सोमसदः बर्हिषदः अग्निष्वात्ताश्च। (वही, पृ. ४८) इस प्रकार  पार्वणपितर, प्रेतपितृविज्ञान, गोत्रसन्तान, सपिण्डीकरण, श्राद्ध और गया पिण्डदान आदि विषय समाहित किये गये हैं।Read/Download                                    

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Varnasameeksha

Varnasamiksha is an important volume on linguistics. An integral part of this science of language is phonology. The volume presents a comprehensive view of phonology. Languages is studied through sentences. Every sentence is made up of alphabets. Another term for alphabet or varna is akshara. The volume is divided into two parts–Varnasamiksha and Gunasamiksha. The sanskrit term for Varnasamiksha is Pathyasvasti. वर्णसमीक्षा वर्णसमीक्षा भाषाविज्ञान का ग्रन्थ है। भाषाविज्ञान का एक अंग ध्वनिविज्ञान है। ध्वनिविज्ञान का यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी  है। भाषा का अध्ययन वाक्य के माध्यम से होता है। सबसे बड़ा वाक्य होता है। उस वाक्य में अनेक पद होते हैं और पदों में वर्ण होता है। ‘राम घर जाता है’ यह एक वाक्य है। इस में राम और घर पद है तथा ‘र् आ म् अ’ ये वर्ण हैं। वर्ण का ही दूसरा नाम अक्षर है। वर्ण की समीक्षा अर्थात् वर्ण के  सभी विषयों का यहाँ निरूपण किया गया है। पं. ओझा जी ने धर्म को प्रधान माना है। धर्म से ही मनुष्य उच्चता को प्राप्त करता है। धर्म का अर्थ क्रिया से है। कोई नियमित अध्ययन करता है, कोई नियम पूर्वक किसी की सेवा करता है, कोई नियमित व्यापार करता है और कोई  जीवन के लिए एक निश्चित कर्म को नियमित रूप से करता है। यही धर्म है। इसी से मानव को उन्नति मिलती है। इस सत्कर्म का ज्ञान वेद, पुराण आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। ग्रन्थ में वाक्य, वाक्य में पद और पद में वर्ण होते हैं-                  धर्मादभ्युदयः सदाऽभ्युदयते धर्मश्च साहित्यतो                           विज्ञाप्योऽप्यविनाकृतं तदपि वा वाक्यैश्च वाक्यं पुनः ।                  संपद्येत पदैः पदं पुनरिदं वर्णाहितं वर्ण्यते                           तस्माद्वर्णनिरूपणं प्रथमतः कर्तुं समुद्यम्यते ॥ वर्णसमीक्षा पृ. १ इस ग्रन्थ में दो भाग हैं प्रथम भाग का नाम वर्णसमीक्षा है। जिसमें में मातृका, विवृति, स्वरभक्ति, यम आदि विषय हैं। दूसरे भाग का नाम गुणसमीक्षा है। जिसमें वाग् विज्ञान, वाक की उत्पत्ति, स्वरसमीक्षा हैं। मातृका- वर्ण अथवा अक्षर का ही नाम मातृका है। ये पाँच हैं- ब्रह्ममातृका, अक्षमातृका सिद्धमातृका, भूतमातृका। जिसमें स्वर और व्यञ्जनों का स्पष्ट भेद विद्यमान रहता है वह ब्रह्म आदि चार मतृकाएँ  हैं। जिस में स्वर और व्यञ्जनों का भेद स्पष्ट नहीं है वह अनार्यमातृका है।           इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वर्णों की संख्या पर विचार किया गया है। २१ स्वरवर्ण है और ४२ व्यञ्जन वर्ण हैं। इन दोनों के योग से ६३ वर्ण होते हैं।                      अत्रादितः एकविंशतिः स्वराः, ततो द्विगुणानि व्यञ्जनानि । वर्ण समीक्षा पृ. २ किसी किसी आचार्यों के विचार में ६४ वर्ण हैं ।  आचार्य कात्यायन के अनुसार इसकी संख्या ६५ है। किसी किसी के विचार में ७९ वर्ण हो जाते हैं। ७९ की संख्या को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है। २२ स्वर, २५ स्पर्श, यकार- शकार ८  यम २०, और ४ अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय ।                      एकोनाशीतिवर्णास्तु प्रोक्ताश्चात्र स्वयम्भुवा ।                  स्वराः द्वाविंशतिश्चैव स्पर्शानां पञ्चविंशतिः ।                  यादयः शादयश्चाष्टौ यमा विंशतिरेव च ।                  अनुस्वारो विसर्गश्च कपौ चापि पराश्रयौ ॥ वर्णसमीक्षा पृ. ३-४ वर्णसमीक्षा का वैदिक नाम पथ्यास्वस्ति है।  पं. ओझा जी ने वैदिक वर्णों का विश्लेषण पथ्यास्वस्ति नामक ग्रन्थों में किया है। व्याकरणविनोद नामक ग्रन्थ व्याकरण संबन्धी विषयों को सरलता से प्रतिपादन करते हुए वैदिक विज्ञान की दृष्टि से निरूपण किया है।     Read/Download

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Brahmasiddhanta with 2 Hindi translations and 1 with Sanskrit commentary

This volume deals with the establishment of brahmavad by Brahma, practical aspects of Brahma, practical aspects of Maya and the outcome of the interaction between Brahma and Maya.  The first book listed here is the Hindi translation of Ojhaji’s book by Devidut Pandit Chaturvedi and the second one contains a commentary on the subject by Giridhar Sharma Chaturvedi in Sanskrit.      ब्रह्मासिद्धान्त यह खंड ब्रह्मा द्वारा ब्रह्मवाद की स्थापना, ब्रह्मा के व्यावहारिक पहलुओं, माया के व्यावहारिक पहलुओं और ब्रह्मा और माया के बीच संपर्क के परिणाम से संबंधित है । यहां सूचीबद्ध पहली पुस्तक देवीदत्त पंडित चतुर्वेदी द्वारा ओझा जी की पुस्तक का हिंदी अनुवाद है और दूसरी में संस्कृत में गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी द्वारा इस विषय पर एक टिप्पणी है । Read/download Read/download—Brahmasiddhanta with Sanskrit tika Read/download—Brahmasiddhanta with Hindi translation

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Aithihasikodhyaya

Aithihasikodhyaya is part of Pandit Motilal Shastri’s Gitavijnana-bhashya. In this compact volume, Shastriji has described the epic battle between the Kauravas and Pandavas in a vivid explanation of the word, Kurukshetra. ऐथिहासिकोआध्याय ऐथिहासिकोआध्याय पंडित मोतीलाल शास्त्री रचित गीताविजय-भाष्य का हिस्सा है । इस संक्षिप्त खंड में, शास्त्री जी ने कौरवों और पांडवों के बीच महाकाव्य युद्ध का वर्णन कुरुक्षेत्र शब्द की विशद व्याख्या में किया है । Read/download

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Upanishad vijnana bhashya

During the study of Upanishads and their commentaries, Shastriji discovered there were several disputes that need to be resolved scientifically. He decided to write a long essay on the subject. This essay, since then, has been divided into three volumes. In the first volume, the following have been elucidated: 1.Introduction; 2. Why is mangalacharan recited before and after the reading of Upanishads? 3. What is the meaning of Upanishad? and 4. Are Upanishads Veda? The introduction examines the skepticism about the Upanishads prevalent among modern Indians. Why is such profound knowledge ignored by the people? उपनिषद विज्ञानभाष्य–प्रथम भाग उपनिषदों और उनकी टिप्पणियों के अध्ययन के दौरान, शास्त्रीजी ने पाया कि कई विवाद थे जिन्हें वैज्ञानिक रूप से हल करने की आवश्यकता है । उन्होंने इस विषय पर एक लंबा निबंध लिखने का फैसला किया । तब से यह निबंध तीन खंडों में विभाजित है । पहले खंड में, निम्नलिखित को स्पष्ट किया गया है: 1.परिचय; 2. उपनिषदों के पढ़ने से पहले और बाद में मंगलचरण का पाठ क्यों किया जाता है? 3. उपनिषद का अर्थ क्या है? और 4. क्या उपनिषद वेद हैं? परिचय आधुनिक भारतीयों के बीच प्रचलित उपनिषदों के बारे में संदेह की जांच करता है । लोगों द्वारा इस तरह के गहन ज्ञान की अनदेखी क्यों की जाती है? Read/download Upanishad Vijnana Bhashya Part II The second volume continues with the examination of whether the Upanishads are Veda. In the first volume, an overview of the same has been given. It is unfortunate that such a profound knowledge is lost on the present generation. It is clear that the people of this country have relied more on words given in veda-shastra than the true meaning of this knowledge. Do we need to forever validate the upanishad? उपनिषद विज्ञानभाष्य–भाग द्वितीय दूसरा खंड इस बात की परीक्षा के साथ जारी है कि क्या उपनिषद वेद हैं । पहले खंड में उसी का अवलोकन दिया गया है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान पीढ़ी पर इतना गहरा ज्ञान खो गया है । यह स्पष्ट है कि इस देश के लोगों ने इस ज्ञान के वास्तविक अर्थ की तुलना में वेद-शास्त्र में दिए गए शब्दों पर अधिक भरोसा किया है । क्या हमें हमेशा के लिए उपनिषद को मान्य करने की आवश्यकता है? Read/download Upanishad Vijnana Bhashya Part III The final volume of the commentary is called vedanta. Keeping Brahma at the centre, the volume explains the basic explanations of science of the universe. The volume also deals with the profound question whether the Upanishad is man-made or not. उपनिषद विज्ञानभाष्य –भाग तृतीय टीका के अंतिम खंड को वेदांत कहा जाता है । ब्रह्मा को केंद्र में रखते हुए, यह ग्रंथ ब्रह्मांड के विज्ञान की बुनियादी व्याख्याओं की व्याख्या करता है । यह ग्रंथ इस गहन प्रश्न से भी संबंधित है कि उपनिषद मानव निर्मित है या नहीं । Read/download Ishopanishadvigyanbhashyaईशोपनिषद्विज्ञानभाष्यRead/Download Kenopanishadकेनोपनिषद् Read/Download Mundakopanishadमुण्डकोपनिषद् Read/Download Mandukyopanishadमाण्डूक्योपनिषद् Read/Download

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Prashnopanishad-vijnana-bhashya

Prashnopanishad is an important Upanishad. Pandit Motilal Shastri has referred to it as Pippalodapanishad or Pranopanishad. There are six questions in this upanishad. These are on parameshti mahan, saur vijnanatma, chandra pragyanatma, parthiv pranatmaka, svaymbhu avavyatma and purushatma. The bashya gives a detailed account of these. It is considered to be one of the finest works of Shastriji. Shodashi purusha is infused with five pranas–avyaktaprana, mahatprana,vijnanaprana,pragyanprana and pashuprana. These are in some definitions termed as vishvasrit. These are termed as prana, apah,vaka, anna and annada–the brahmasatya. प्रशनोपनिषद-विज्ञान-भाष्यप्रशनोपनिषद एक महत्वपूर्ण उपनिषद है । पंडित मोतीलाल शास्त्री ने इसे पिपलोदापनिषद या प्राणोपनिषद कहा है । इस उपनिषद में छह प्रश्न हैं। ये परमशक्ति महान, सौर विज्ञान, चंद्र प्रज्ञानात्मा, पार्थिव प्राणात्मक, स्वयंभू अवव्यात्मा और पुरुषात्मा पर हैं । यह शास्त्रीजी की बेहतरीन कृतियों में से एक मानी जाती है । षोडशी पुरुष पांच प्राणों से प्रभावित है-अव्यक्त, महात्माना,विज्ञानप्राना,प्रज्ञानप्राना और पशुप्राना । इन्हें कुछ परिभाषाओं में कहा जाता है विश्वाश्रित । इन्हें प्राण, पापा, वाका, अन्ना और अन्नदा कहा जाता है-ब्रह्मा सत्य । Read/download

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Katopanishadvijnana-bhashya

Katopanishad has an important place among Upanishads.This upanishad is famous as the dialogue between Nachiketa and Yama, the deity of death. Offered by his father in a yajna, Nachiketa reaches paraloka in a a bodyless form. After waiting for three days, he meets with Yama. Yama asks Nachiketa to see three blessings for the three days he had to wait.Along with asking the three blessings, Nachiketa asks fundamental questions on life and death. Yama answers them. The Upanishad contains explanations of many philosophical questions. Pandit Motilal Shastri says that the primary focus, however, is on bhoktatma. This book by Pandit Motilal Shastri is considered to be one of his finest commentaries. कटोपनिषाद्विज्ञान-भाष्य उपनिषदों में कटोपनिषद का महत्वपूर्ण स्थान है । यह उपनिषद मृत्यु के देवता नचिकेता और यम के बीच संवाद के रूप में प्रसिद्ध है । एक यज्ञ में अपने पिता द्वारा प्रस्तुत, नचिकेता एक शरीर रहित रूप में परलोक तक पहुँचता है । तीन दिनों के इंतजार के बाद, वह यम से मिलता है । यम ने नचिकेता से तीन दिनों तक तीन आशीर्वाद देखने के लिए कहा। तीन आशीर्वाद पूछने के साथ, नचिकेता जीवन और मृत्यु पर मौलिक प्रश्न पूछता है । यम उन्हें जवाब देता है । उपनिषद में कई दार्शनिक प्रश्नों की व्याख्या है । पंडित मोतीलाल शास्त्री कहते हैं कि प्राथमिक ध्यान भोक्तात्मा पर है । पंडित मोतीलाल शास्त्री की यह पुस्तक उनकी बेहतरीन टिप्पणियों में से एक मानी जाती है । Read/download

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