These is the compendium of Pandit Motilal Shastri’s talks delivered on the All India Radio, Jaipur, in 1953. In these talks, Shastriji has explained the scientific aspect of the Veda. He has presented the true scope and meaning of the Veda. Reading of these talks offers a new insight into the very concept of “vijnana` (science).
भारतीय दृष्टि से विज्ञान शब्द का समन्वय
यह ग्रन्थ 1953 में ऑल इंडिया रेडियो, जयपुर ,पर दी गई पंडित मोतीलाल शास्त्री वार्ता का संग्रह है । इन वार्ताओं में शास्त्री जी ने वेद के वैज्ञानिक पहलू की व्याख्या की है । उन्होंने वेद का वास्तविक दायरा और अर्थ प्रस्तुत किया है । इन वार्ताओं को पढ़ने से `विज्ञान`की अवधारणा में एक नई अंतर्दृष्टि मिलती है ।
विज्ञान शब्द में ‘वि’ उपसर्ग और ज्ञान संज्ञा शब्द है। ‘वि’ के तीन अर्थ हैं- विविध, विशेष और विरुद्ध । ‘विशेषं ज्ञानं विज्ञानम्’, ‘विविधं ज्ञानं विज्ञानम्’ और ‘विरुद्धं ज्ञानं विज्ञानम्’। इन तीनों में ‘विरुद्धं ज्ञानं विज्ञानम्’ यह पक्ष ठीक नहीं है। बाकी दो अर्थों पर विचार आवश्यक है। विचार के लिए विविध और विशेष ही समुचित है।
‘विशेषभावानुगतं विशेषभावाभिन्नं विविधं ज्ञानम् एव विज्ञानम्’।(पृ. ८-९)। एकं ज्ञानम्- ज्ञानम्, विविधं ज्ञानं विज्ञानम्।
ब्रह्मैवेदं सर्वम् (बृहदारण्यक उपनिषद्, २.४.६), (आत्मैवेदं सर्वम्, छान्दोग्योपनिषद् ७.२५.२ )
इस श्रुतिवाक्य में वह ब्रह्म ही सब कुछ है, यह श्रुति ब्रह्म को उद्देश्य मान कर ‘इदं सर्वम्’ इस विश्व का विधान करती है, ब्रह्म से विश्व की ओर आना विज्ञान का पक्ष है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्योपनिषद् ३.१४.१) यह सब कुछ ब्रह्म ही है। यह श्रुति विश्व को उद्देश्य मान कर ब्रह्म का विधान करती है। विश्व से ब्रह्म की ओर आना, यह ज्ञानपक्ष है। (पृ. २३) ग्रन्थकार पं शास्त्री जी ने इस प्रकार के अनेक श्रुति को उद्दृत किया है। विज्ञान के लिए प्रजापति के सन्दर्भ में ब्राह्मण वाक्य उद्धृत करते हैं।
प्रजापतिस्त्वेवेदं सर्वं यदिदं किञ्च (शतपथब्राह्मण २.१.२.११) ज्ञान के पक्ष में ब्राह्मण वाक्य है।(सर्वमु ह्येवैदं प्रजापतिः) (पृ. २३)
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, यह श्रुति ज्ञान का द्योतक है और ‘नित्यं ज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म’ यह श्रुति विज्ञान का द्योतक है।( पृ. २४) ज्ञान के लिए ब्रह्म और विज्ञान के लिए यज्ञ शब्द का प्रयोग होता है। इस प्रकार ब्रह्मविज्ञान और यज्ञविज्ञान ये दो धाराएँ हैं। (पृ.२९)
अमृत मृत्यु की व्याख्या करते हैं। जो अमृत तत्त्व है वही जीव के शरीर में विद्यमान है। जो मनुष्य इस तत्त्व में नानात्व को देखता है वह मृत्यु से मृत्यु को ही प्राप्त होता है। इस श्रुति में जहाँ जहाँ नानाभावों का, अनेक भावों का, पृथक्भावों का स्वरूप विश्लेषण किया है। वहाँ वहाँ उनके साथ-साथ ही मृत्यु शब्द का संबन्ध है। नानात्व, भेदत्व, पृथक्त्व मृत्यु का धर्म है। अनेकत्व अभेदत्व, अपृथक्त्व अमृत का धर्म है। अमृत और मृत्यु से ज्ञान और विज्ञान को विश्लेषण किया गया है। (पृ. १०)
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ कठोपनिषद् २.१.१० (पृ.१०)
एकं वा इदं वि बभूव सर्व (ऋग्वेद ८.६८.२) इस में एक से अनेक की ओर जान विज्ञानपक्ष है। (पृ.२२) अब ग्रन्थकार ज्ञान और विज्ञान को ब्रह्म और यज्ञ से परिभाषित करते हैं। ज्ञानात्मक विज्ञान के लिए ‘ब्रह्म’ शब्द और विज्ञानात्मक विज्ञान के लिए ‘यज्ञ’ शब्द है। (पृ.२५) ब्रह्म और यज्ञ परस्पर आश्रित रहते हैं। यज्ञ ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है और ब्रह्म भी यज्ञ के द्वारा विभूतिभाव में परिणत होता है।
तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्। गीता ३.१५ (पृ. ४५)