Sanskritik Vyakhyanapanchakam

This is the collection of five lectures given by Pandit Motilal Shastri at Rashtrapati Bhavan, New Delhi, in 1956.  Shastriji was invited by the first President of independent India, Dr Rajendra Prasad, to present his profound views on the Vedas and other sacred texts.



सांस्कृतिक व्याख्यानपञ्चकम्
पं. मोतीलाल शास्त्री का राष्ट्रपतिभवन में भारत के प्रथम राष्ट्रपति माननीय डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष १४ से१८ दिसम्बर १९५६ ई. को लगातार पाँच दिनों तक वैदिकविज्ञान पर व्याख्यान हुआ था। एक-एक दिन के विषय इस प्रकार हैं- संवत्सरमूला अग्नीषोमविद्या, पञ्चपर्वात्मिका विश्वविद्या, मानव का स्वरूप परिचय, अश्वत्थ विद्या का स्वरूप परिचय और वेद शास्त्र के साथ पुराण का समन्वय।

संवत्सरमूला अग्नीषोमविद्या
इस शीर्षक में अनेक विषयों को शास्त्री जी ने समाहित किया है। यहाँ ऋतु शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। ऋत अग्नि में ऋत सोम की आहुति होती है। दोनों के परस्पर मिलन से अपूर्वभाव उत्पन्न होता है। उसे ही ऋतु कहा गया है।

वसन्त ऋतु- मान लीजिए अभी अत्यन्त शीत का प्रकोप है। संवत्सर अग्नि से विहीन बन रहा है। सोमात्मक शीततत्त्व के चरम विकास के बाद अग्नि का जन्म होता है। वह अग्निकण सोम पर बरसने लगता है। यही वसन्त ऋतु है। जिसका निर्वचन है- ‘यस्मिन् काले अग्निकणाः पदार्थेषु वसन्तो निवसन्तो भवन्ति स कालः वसन्तः’।
ग्रीष्म ऋतु- जिस ऋतु के बाद अग्नि ने अधिक बल से पदार्थों को ग्रहण किया वही काल ग्रीष्म है। जिसका निर्वचन है- ‘यस्मिन् काले अग्निकणाः पदार्थान् गृह्णन्ति स कालः ग्रीष्मः’। ग्रीष्म का ही दूसरा नाम ‘निदाघ’ है। इसमें अग्नि अधिक बढ़ा रहता है, निःसीम बना, पदार्थों को जलाने लगा यही निदाघ कहलाता है। इसका निर्वचहन है- ‘नितरां दहत्यग्निः पदार्थान्’।

वर्षा ऋतु- निदाघ की चरम अवस्था ने अग्निविकास को परावर्तित कर दिया। संकोचावस्था आरम्भ हो गया। यही संकोच अवस्था वर्षा ऋतु है। जिसका निर्वचन है- ‘अतिशयेन उरु अग्निः यस्मिन् काले’। पाणिनि व्याकरण के अनुसार ‘उरु’ के स्थान पर वर्ष आदेश होता है।
यहाँ तीनों ऋतुओं में अग्नि का विकास है। आगे की ऋतुओं में अग्नि का ह्रास का वर्णन है। अग्नि का ह्रास का अर्थ है सोम का विकास।

शरत् ऋतु- जिस अनुपात से वसन्त से अग्निकण बढ़े थे, उसी अनुपात से अब अग्निकण कम होने लगे। जिस काल में अग्नि न्यून होता है वह शरत् ऋतु है। जिसका निर्वचन है- ‘यस्मिन् काले अग्निकणा शीर्णा भवन्ति स कालः शरत्’।

हेमन्त ऋतु- जिस काल अग्नि कण पहले से भी कम हो गया वह हेमन्त ऋतु है। जिसका निर्वचन है- ‘यस्मिन् काले अग्निकणा हीनतां गता भवन्ति स कालः हेमन्तः’।
शिशिर ऋतु- अग्निकण जहाँ पूर्ण रूप से कम हो जाता है वह काल शिशिर ऋतु है। जिसका निर्वचन है-‘पुनः
पुनरतिशयेन शीर्णाः अग्निकणाः स कालः शिशिरः’। (सांस्कृतिक व्याख्यानपञ्चकम् पृ. ३५-३६)

इस प्रकार ऋतुओं से ही संवत्सरयज्ञ का स्वरूप निर्धारित होता है। यही ‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ का संक्षिप्त स्वरूप है।

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English translation can be found here https://shankarshikshayatan.org/vedic-concept-of-man-universe/

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