Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture 2024

Shri Shankar Shikshayatan organises Pandit Motilal Shastri Memorial Lecture every year. The lecture forms part of the annual festival organised by the institute for vedic research. On September 28, 2024,this lecture was organised at the Vachaspati Auditorium of Shri Lal Bahadur Shastri National Sanskrit University. During this function, two books were released by the guests present. One book was ‘Vedic Concept of Man and Universe’ written in English language. This book contains five lectures given by Pandit Motilal Shastri at the Rashtrapati Bhawan in 1956. The English translation of these lectures was done by Rishi Kumar Mishra. The institute has brought out a new edition with corrections and additional translation of the fifth lecture which was absent from the earlier edition. The second book was Ahoratravada Vimarsh. It is a review of Pandit Madhusudan Ojha’s book named Ahoratravada. Both these books have been published in 2024 by DK Print World, Delhi. The keynote speaker in this lecture was Prof. Krishna Kant Sharma, former Faculty Head, Sanskrit Vidya Dharmavigyan Faculty, Banaras Hindu University, Varanasi. He revealed the contemporary importance of the book Indravijaya. He gave his lecture on various aspects of Indravijaya. Pandit Madhusudan Ojha accepts history in the Vedas. Other scholars do not accept history in the Vedas. If there is history in the Vedas, then the eternity of the Vedas will be destroyed. We read many stories in many verses of the Rigveda. In Indravijaya , Indra was the first king of our Bharat nation. Keeping Indra at the centre, the geography and history of Bharatavarsha has been revealed in this book. Prof. Rajdhar Mishra, Grammar Department, Jagadguru Ramanandacharya Rajasthan Sanskrit University, Jaipur, who was present as a special guest, said that Indravijaya not only determines the geographical boundaries of Bharatavarsha, but the description of the world is also given in Indravijaya. The entire history of Bharatavarsha is proved by Shruti Praman. He said that various aspects of naming Bharat have been analysed. Bharatavarsha has four names – Bharatavarsha, Nabhivarsha, Arshabhavarsha and Haimavatvarsha. Four proofs for naming Bharat have also been presented in the book. Agnidhra’s son was Nabhi, Nabhi’s son was Rishabh, Rishabh’s son was Bharat, Bharatavarsha was named after them. Dushyant and Shakuntala’s son was Bharat, Bharatavarsha is named after them. In Shatapath Brahman, Agni is called Bharat, on this basis also the name Bharatavarsha is derived. The name Bharat also means where sustenance and nourishment is provided for. Prof. Santosh Kumar Shukla, Jawaharlal Nehru University, welcomed all the guests and introduced Shri Shankar Shikshayatan’s principal objectives. He said the institute was founded by Rishi Kumar Mishra. Mishraji’s guru was Pandit Motilal Shastri, Motilal Shastri’s guru was Pandit Madhusudan Ojha. In this way, Shri Shankar Shikshayatan is associated with the propagation of Vedic science through guru tradition. He gave a detailed presentation on Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The programme was presided over by Prof. Bhagirath Nand of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University. He explained the importance of Indravijaya. He said that iron was not invented in the Vedic period. But stone was available everywhere. Indra’s thunderbolt was made of stone. Here stone means the hardest substance. Kalidas has also said in his epic Raghuvansha that in the course of narration of Raghucharit, King Raghu’s horse came from Iran. This evidence proves that India’s borders were very wide. Mr Anand Bordia, trustee of Shri Shankar Shikshayatan, thanked all the scholars present. A The lecture began with the melodious singing of Vedic Mangalacharana by Prof. Gopal Prasad Sharma of Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University and Prof. Mahanand Jha of Laukika Mangalacharana. The programme was conducted by Dr. Mani Shankar Dwivedi of Sanskrit Department of Jamia Millia Islamia University. Many scholars from Delhi University, Jawaharlal Nehru University, Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit University, Jamia Millia Islamia University, research students and Sanskrit lovers participated enthusiastically in the lecture and made the programme a success.

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पण्डित मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान-2024

प्रतिवेदन  विसवीं शताब्दी के वैदिकविज्ञान के महान् शास्त्रचिन्तक पण्डित मोतीलाल शास्त्री संस्कृत जगत् में सुविख्यात हैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा में शतपथब्राह्मण का, उपनिषद् का और गीताविज्ञानभाष्य का अभिनव व्याख्या की है। उनकी उपलब्ध सभी रचना श्रीशंकर शिक्षायतन के वेबसाईट पर पढने के लिए रखा गया है। श्रीशंकर शिक्षायतन प्रतिवर्ष मोतीलाल शास्त्री स्मारक व्याख्यान का समायोजन करता है। इस वर्ष सितम्बर माह के  दिनांक २८ शनिवार को श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के वाचस्पति सभागार में यह व्याख्यान सुसंपन्न हुआ है।। श्रीशंकर शिक्षायतन का यह वार्षिक उत्सव के रूप में यह यह व्याख्यान प्रतिवर्ष समायोजित होता है। इस व्याख्यान में दो ग्रन्थों का लोकार्पण समागत अतिथियों के द्वारा किया गया। एक ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में लिखित ‘वैदिक कन्सेप्ट आफ मेन एन्ड यूनिवर्स’ है। यह  ग्रन्थ राष्ट्रपतिभवन में महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष  वैदिकविज्ञान के पाँच विषयों पर पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने १९५६ ई. में  व्याख्यान दिया था। उस व्याख्यान का अंग्रेजी अनुवाद ऋषि कुमार मिश्र जी ने किया था। पुन विस्तृत संस्करण निकाला गया है। दूसरा ग्रन्थ अहोरात्रवादविमर्श है। पण्डित मधुसूदन ओझा जी के  अहोरात्रवाद नामक ग्रन्थ की समीक्षा है। ये दोनों ग्रन्थ २०२४ ई. डी. के. प्रिन्ट वर्ल्ड, दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं। इस व्याख्यान में मुख्यवक्ता प्रो. कृष्ण कान्त शर्मा, पूर्वसंकाय अध्यक्ष, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी थे। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के समसामयिक महत्त्व को उद्घाटित किया। उन्होंने इन्द्रविजय के विविध पक्षों पर अपना व्याख्यान दिया। पण्डित मधुसूदन ओझा वेद में इतिहास को स्वीकार करते हैं । दूसरे विद्वान् वेद में इतिहास को  स्वीकार नहीं करते हैं। वेद में यदि इतिहास है तो वेद  की नित्यता भङ्ग हो जायेगी। ऋग्वेद के अनेक सूक्तयों में अनेक कथा हम लोग पढ़ते हैं। इन्द्रविजय ग्रन्थ में इन्द्र हमारे भारत राष्ट्र प्रथम राजा थे। इन्द्र को केन्द्र में रख कर भारतवर्ष का भूगोल और इतिहास का उद्घाटन इस ग्रन्थ में किया गया है। विशिष्ट अतिथि के रूप में  विराजमान प्रो. राजधर मिश्रः, व्याकरण विभाग, जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर ने कहा कि यह इन्द्रविजय ग्रन्थ भारतवर्ष  के भौगोलिक सीमा ही  निर्धारण नहीं करता है अपितु भूगल का वर्णन भी इन्द्रविजय में है। भारतवर्ष का समग्र इतिहास श्रुतिप्रमाण से प्रमाणित है। उन्होंने कहा कि भारत नामकरण के विविध पक्षों का विश्लेषण किया गया है। भारतवर्ष के चार नाम हैं भारतवर्ष, नाभिवर्ष, आर्षभवर्ष और हैमवतवर्ष। भारत नामकरण के लिए चार प्रमाण भी ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है। आग्नीध्र के पुत्र नाभि थे, नाभि के पुत्र ऋषभ, ऋषभ के पुत्र भरत थे, उन्हीं के नाम पर भारतवर्ष है।  दुष्यन्त और शकुन्तल के पुत्र भरत थे, उनके नाम पर यह भारतवर्ष है। शतपथब्राह्मण में अग्नि को भरत कहा गया है, इस आधार पर भी भारतवर्ष नाम है। भरण और पोषण करने के  कारण भी भारत यह नाम सिद्ध होता है। कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्लः, प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने  समागत सभी अतिथियों का स्वागत किया। प्रो. शुक्ल ने दृढता के साथ कहा कि  इस समय संपूर्ण भारतवर्ष में वैदिक विज्ञान के प्रमुख संस्थान श्रीशंकर शिक्षायतन है। इस शिक्षायतन की संस्थापना प्रख्यात शिक्षाविद् ऋषि कुमार मिश्र ने की थी। मिश्र के गुरु पण्डित मोतीलाल शास्त्री जी थे, मोतीलाल शास्त्री के गुरु पण्डित मधुसूदन ओझा जी थे । इस प्रकार गुरु परम्परा से वैदिक विज्ञान का संप्रसार प्रचार संलग्न यह श्रीशंकर शिक्षायतन है। इतिहास दो प्रकार के होते हैं। एक  इतिहास सृष्टिपक्ष को उद्घाटित करता है। दूसरा पक्ष राजाओं के चरितवृत्तान्त समुद्घाटित करता है। जगद्गुरुवैभव नामक ग्रन्थ में स्वयं पण्डित मधुसूदन ओझा लिखा है।                       यद्विश्वसृष्टेरितिवृत्तिमासीत् पुरातनं तद्धि पुराणमाहुः।                      यच्चेतनानां नु नृणाम् चरित्रं पृथक् कृतं स्यात् स इहेतिहासः॥ कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. भागीरथ नन्द, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के शैक्षणिक पीठाध्यक्ष की थी। उन्होंने इन्द्रविजय ग्रन्थ के महत्त्व का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि वैदिककाल में लौहपदार्थ का आविष्कार नहीं हुआ था।  परन्तु पत्थर की उपलब्धता सभी जगहों पर थी। इन्द्र का वज्र पत्थर  से बना हुआ था । यहाँ पत्थर का अर्थ कठोरतम पदार्थ से है। कालिदास भी अपने रघुवंश नामक महाकाव्य में रघुचरित के वर्णन के क्रम में राजा रघु का अश्व ईरानदेश से आया था, यह कहा है। इस प्रमाण से  सिद्ध होता है कि भारतवर्ष की  सीमा बहुविस्तृत थी। श्रीशंकर शिक्षायतन के न्यासी श्रीमान् आनन्द बोर्दिया जी ने उपस्थित  सभी विद्वानों का धन्यवादज्ञापन किया । एवं अपने उद्बोधन में भारतवर्ष के व्यापक चिन्तन का महत्त्व का  निरूपण किया गया है। जहाँ  भारतवर्ष में वैदिककाल से  ज्ञान के विविध पक्ष का  विकास हुआ है । हमारे देश में शास्त्रचिन्तन की स्वतन्त्रता है। व्याख्यान के प्रारम्भ श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रो. गोपाल प्रसाद शर्मा वैदिक मङ्गलाचरण का एवं प्रो.महानन्द झा ने लौकिक मङ्गलाचरण का सुस्वर गायन किया। कार्यक्रम का सञ्चालन जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के डॉ. मणिशंकर द्विवेदी ने किया। व्याख्यान में दिल्ली विश्वविद्यालय के, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल के, श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अनेक  विद्वानों ने, शोधछात्रों ने संस्कृतानुरागियों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के कार्यक्रम को सफल बनाने में बड़ा योगदान किया।

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National Seminar on Indravijaya-Bharatavarsha Part VIII

Report Shri Shankar Shikshayatan organised the eighth seminar on August 31, 2024, as part of its vedic seminar series Pandit Madhusudan Ojha’s Indravijaya. The seminar was organised on the basis of various topics from the last part of the second chapter of Indravijaya . Speaking on the topic as the chief guest, Prof. Shobha Mishra, Acharya, Sanskrit Department, Vikramajit Singh Sanatan Dharma Mahavidyalaya, Kanpur said that in Indravijaya, Pandit Madhusudan Ojha has presented elaborate discussion on ribhu. He has referred to the Rigveda notations on Ribhu. In the context of Ribhu, Ribhu was a craftsman who assisted man in his work. Ribhu had created two horses for Indra. Riding on those two horses, Indra killed the bandits. These references prove that Ribhu was a resident of Bharatavarsha. Prof. Anita Rajpal, Acharya, Department of Sanskrit, Hindu College, Delhi University, Delhi, also emphasised that Ribhu was a skilled sculptor and he was taught by Tvashta. Ribhu was endowed with three types of craftmanship. Dr. Jaya Sah, Assistant Acharya, Department of Sanskrit, Tripura University, Tripura, pointed out that Ojahji has collected the names of many rivers through the Bharatvarsha narrative of the book named Indravijaya. Not only are the names of the rivers mentioned, but a detailed outline of the geographical area situated on the river banks is described. In Rigveda, these names of Purvasaptanad are- Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri, Parushni, Asakni and Vitasta. In this, Ganga, Yamuna, Saraswati, Shutudri Stoma, Sachta Purushnya are the names of Paschim Saptnad. There is another Saptnad from Panch Gaur country towards the north. Whose names are Kulishi, Veerpatni, Shifanjsi etc. Prof. Santosh Kumar Shukla, Acharya, School of Sanskrit and Indic Studies, Jawaharlal Nehru University, chaired the session. He pointed out Pandit Madhusudan Ojha has listed the characteristics of a true Aryan. According to Ojhaji, the one whose deity is Omkar, whose shastra is Veda and whose deity is Ganga and cow, is the real Arya. He is a native of India. He has not come from outside in any way. The seminar was conducted by Dr. Laxmi Kant Vimal of Shri Shankar Shikshayatan. Professors, research scholars, and many people interested in the subject from various states participated enthusiastically and contributed to success of the seminar Please watch the proceedings of the seminar here– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I

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राष्ट्रीय संगोष्ठी इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान -शृंखला-८

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ अगस्त को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केद्वितीय अध्याय के अन्तिम भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित की गईथी । प्रो. शोभा मिश्रा, आचार्या, संस्कृत विभाग, विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय, कानपुर नेमुख्य अतिथि के रूप में विषय पर बोलती हुई कही कि इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ में ऋभु विषय पर व्यापकविचार किया गया है। ऋग्वेद में दीर्घतमा द्वारा किया गया कीर्तिसूक्त, वामदेव द्वारा ऋभु विषय परवामदेवसूक्त प्राप्त होता है। ऋभु के प्रसंग में ऋभु मनुष्य का कार्यसहायक शिल्पी था, मनुष्य होने से वह ऋभुभारतवर्ष का ही निवासी था। ऋभु ने दो घोड़ों का निमार्ण किया था, उन दोनों घोड़ों पर चढकर देवराज इन्द्रने दस्युओं का संहार किया था। इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि ऋभु भारतवर्ष का ही निवसी था। मनुष्यलोक मेंसुधन्वा ऋभु के पिता थे, इस प्रमाण से ऋभु आर्य था जिसका निवासस्थान भारतवर्ष ही था। इत्थमृभूणामेषां शिल्पं शृणुमः पुरा मनुष्याणाम् ।भारतवर्षाभिजना ध्रुवमासंस्ते मनुष्यत्वात् ॥एभिश्च निर्मितौ तावश्वौ हरिसंज्ञकौ समारुह्य ।इन्द्रो दस्यूनवधीत् तस्मादृभवः पुरैवासन् ।।एष सुधन्वा राजा जनक ऋभूणां च मानुषे लोके ।आसीद् भारतवर्षे तस्मादार्याः पुराप्यासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३४३, कारिका१-३ प्रो. अनीता राजपाल, आचार्या, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली नेइन्द्रविजय ग्रन्थ में वर्णित ऋभु के परिचय के क्रम में ऋभु के पिता का नाम सुधन्वा था। ऋभु के गुरु त्वष्टा थे।त्वष्टा ने ऋभु को शिल्प कर्म में पूर्ण शिक्षित किया था। भारत के इतिहास में दस्युयुद्ध अत्यन्त प्रसिद्ध है, दस्युके युद्ध से पूर्व एव ऋभु का सन्दर्भ ऋग्वेद में देखने को मिलता है। दस्युनियुद्धादस्माद् बहुपूर्वं भारते वर्षे ।आसीन्नृपः सुधन्वा पुत्रास्तस्य त्रयस्त्वासन् ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२०, कारिका २ ऋभु के तीन प्रकार के शिल्प थे। ये हैं-परोक्ष के लिए पाँच शिल्प, मित्रता के लिए दश शिल्प और यशः कीप्राप्ति के लिए अनेक शिल्प। अथ कुशला ऋभवस्ते त्रेधा शिल्पानि कल्पयामासुः।पञ्च परोक्षार्थेऽपि च दश सख्यार्थे बहूनि कीर्त्यर्थे ॥ इन्द्रविजयः पृ. ३२४, कारिका १ डॉ. जया साह, सहायका आचार्या, संस्कृत विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, त्रिपुरा ने इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केभारतवर्ष आख्यान के माध्यम से अनेक नदियों के नामों का संग्रह किया गया है। न केवल नदियों के नाम हैं,अपितु नदीतट पर स्थित भौगोलिक क्षेत्र की विस्तृत रूपरेखा वर्णित है। ऋग्वेद में पूर्वसप्तनद के ये नाम हैं- गङ्गा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री, परुष्णि, असक्नी और वितस्ता ।इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या । असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयाऽर्जीकीये शृणुह्या सुषोमया। ऋग्वेदः १०.७५.५ पश्चिमसप्तनद के नाम हैं। जैसे- हे सिन्धो ! तुम गमनशील गोमती नदी को मिलाने के लिए पहले तुष्टामा नदी केसाथ चली। फिर तुम सुसर्तु, रसा श्वेती, कुभा और मेहन्तु नदियों के साथ मिलती है। इस के बाद तुम इन सबके साथ एक रथ पर आरूढ होकर चलती है। तृष्टा मया प्रथमं यातवे सजूः सु सर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे ॥ ऋग्वेदः १०.७५.६ उत्तरसप्तनद के नाम इस प्रकार हैं- पाँच गौर देश से उत्तर की दिशा की ओर दूसरा एक सप्तनद है। जिसका नामकुलिशी, वीरपत्नी, शिफांजसी आदि हैं। तत्पञ्चगौरदेशादुत्तरतोऽन्योऽस्ति सप्त नददेशः ।कुलिशी च वीरपत्नी शिफाञ्जसीत्यादिभिः क्लृप्तः॥ इन्द्रविजयः पृ. ३१०, कारिका १ डॉ. दीपमाला, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, राजकीय महाविद्यालय, जोधपुर, ने अपने वक्तव्य में कही किदास दो प्रकार के होते हैं। मनुष्यदास और अमनुष्यदास । दास न देव थे, न दानव थे और न ही मनुष्य थे। उनकाआर्यों के साथ विद्वेष था, वह कोई आनार्यविशेष ही था। स एष दासस्तु न देव आसीन्न दानवो नापि मनुष्य आसीत्।आर्यैर्द्विषन् कश्चिदनार्यः पृथग्वदेवैष विभाग आसीत्॥ इन्द्रविजयः पृ. ३०३, कारिका १ प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल, आचार्य, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,कार्यक्रम के अध्यक्ष थे।उन्होंने कहा कि आर्यों का स्वभाव कैसा था, इस विषय पर ग्रन्थकार पण्डित ओझा नेलिखा है कि जिसके आराध्य ओङ्कार हो, जिसका शास्त्र वेद हो और जसकी आराध्या गङ्गा एवं गाय हो,वही वास्तविक आर्य है। वही भारतवर्ष का मूलनिवासी है। वह किसी भी प्रकार से बाह्य भाग से नहीं आया है। ओङ्कार एष येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः। येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ इन्द्रविजयः पृ. २५८, कारिका १ डॉ. मधुसूदन शर्मा, अतिथि प्रध्यापक, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय , नईदिल्ली ने सस्वर वैदिक मङ्गलाचरण का गान किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिकशोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ. लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्यालऔर महाविद्याल के आचार्य, शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भागग्रहण कर के संगोष्ठी को सफल बनाया में अपना योगदान दिया। कृपया सेमिनार की कार्यवाही यहां देखें– https://youtu.be/YsdTpvwpZ5I

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Yajnasarasvati

Dr Ramanuj Upadhyay translated the book on yajna by Pandit Madhusudan Ojha into Hindi. He teaches at Shri Lal Bahadur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapeeth, New Delhi. The book presents a comprehensive view of yajna vijnana or the science of yajna. This book is divided into two sections–somakhanda and agnichayankhanda. In Somakhanda, a comprehensive and yet simple description of ishti and rajasuya-yajna. In the agnichayankhanda, selection of material for yajna and preparation of the place of yajna have been described with colourful illustrations. यज्ञसरस्वतीयह यज्ञविज्ञान नामक ग्रन्थविभाग के अन्तर्गत लिखा गया याज्ञिक विषयों का प्रतिपादक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ के सोमकाण्ड एवं अग्निचयनकाण्ड नामक दो खण्ड हैं । सोमकाण्ड के अन्तर्गत जहाँ इष्टि से लेकर राजसूययज्ञ तक के यज्ञों की पद्धति सरल रीति से बतलायी गयी है वहीं अग्निचयनकाण्ड में चयनविद्या एवं उसकी पद्धति तथा चितियों का निर्माण सादा एवं रंगीन नक्शों के साथ बहुत ही सुन्दरता से प्रतिपादित किया गया है ।डॉ. रामानुज उपाध्याय, सहाचार्य, वेदविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली ने पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत यज्ञसरस्वती ग्रन्थ की हिन्दी व्याख्या की है।(This is a copyrighted material and cannot be reproduced)

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Purananirmanadhikaran

  This small book has been written by Ojhaji on the development of Puranas–where they originated, who were their first speakers, who were the authors of the current Puranas, etc. In this book, a very clear and detailed discussion of the above topics has been given on the basis of the Puranas. पुराणनिर्माणाधिकरण आज जो पुराण-ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनका विकास किस क्रम से हुआ, इनका मूल कहाँ से है, इनके प्रथम वक्ता कौन हैं, वर्तमान पुराण ग्रन्थों के कर्ता कौन हैं, आदि विषयों को लेकर ओझाजी द्वारा इस लघु ग्रन्थ का प्रणयन किया गया है । इस लघु ग्रन्थ में उक्त विषयों का बहुत स्पष्ट और विस्तृत विवेचन पुराणों के अधार पर ही किया गया है ।   Read/download

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Maharshikulavaibhavam 2

This is the second volume of Pandit Madhusudan Ojha’s work on rishis. Well-known acharya and disciple of Ojhaji, Pandit Giridhar Sharma Chaturvedi, translated the guru’s work with great care and clarity. Pandit Chaturvedi, at that time, was teaching Sanskrit at the Benares Hindu University, Varanasi. महर्षिकुलवैभम्यह पंडित मधुसूदन ओझा की ऋषियों पर लिखी कृति का दूसरा खंड है। Read/download

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राष्ट्रीय संगोष्ठी–इन्द्रविजय : भारतवर्ष आख्यान (शृंखला-७)

प्रतिवेदन श्रीशंकर शिक्षायतन वैदिक शोध संस्थान द्वारा दिनांक ३१ जुलाई को सायंकाल ५-७ बजे तक अन्तर्जालीयमाध्यम से राष्ट्रीय संगोष्ठी का समायोजन किया गया। पण्डित मधुसूदन ओझा प्रणीत इन्द्रविजय नामक ग्रन्थ केद्वितीय अध्याय के प्रारम्भिक भाग से विविध विषयों को आधार बना कर यह राष्ट्रीय संगोष्ठी समायोजित कीगई थी । प्रो. रामराज उपाध्याय, आचार्य, पौरोहित्यविभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृतविश्वविद्यालय, ने सोमवल्ली के परिप्रेक्ष्य में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। पण्डित ओझा जी ने इन्द्रविजयनामक ग्रन्थ में सोमवल्ली की अभिनव व्याख्या की है, जो पाठकों के लिए सर्वथा नवीन है। हेमकूट नामक एकपर्वत है। उस पर्वत पर चन्द्रमा ही सोमवल्ली के रूप में अवस्थित हैं। सोम तत्त्व से ही यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञका साधन सोम है। जब देवों के साथ असुर का युद्ध हुआ, तब उस युद्ध में असुर ने उस सोमवल्ली नष्ट कर दिया । चन्द्रस्तु सोमवल्लीरूपो यो हेमकूटाद्रौ।यज्ञैकसाधनं तद्देवानामुदखनन्नसुराः॥ इन्द्रविजय, पृ. २८७, कारिका १ इस प्रसङ्ग में यज्ञ का महत्त्व रेखांकित किया गया है। देवता ने यज्ञ के माध्यम से ही विविध प्रकार की सिद्धियाँप्राप्त की थी। असुर भी यज्ञ को करने के लिए प्रयत्न किया था। परन्तु वे असुर यज्ञविधि ठीक से नहीं जानने केकारण सिद्ध को प्राप्त नहीं हुए। अत एव वे असुर यज्ञ से होने वाली सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सके। यज्ञात् सिद्धीर्देवतानामनेका दृष्ट्वा यज्ञं कर्तुमैच्छन्नदेवाः।किन्त्वस्मिंस्ते यज्ञविज्ञानशिक्षाशून्यः सिद्धिं नाप्नुवन् विध्यबोधात्॥ वही, कारिका २ प्रो. विजय गर्ग, आचार्य, संस्कृत विभाग, हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने देवयजनभूमि नामकविषय को आधार बना कर अपना व्याख्यान दिया था। उन्होंने कहा कि स्वर्गशब्द का पर्याय त्रिविष्टप है।वैदिकविज्ञान में त्रिलोकी एक प्रधान विषय है। त्रिलोकी में पहला पृथ्वीलोक भारतवर्ष है। दूसरा अन्तरिक्ष औरतीसरा हैमवतवर्ष द्युलोक है। यही तीनों लोक मिल कर त्रिविष्टप है । यहाँ पर पण्डित ओझा जी ने त्रिविष्टप कास्थाननिर्धारण किया है। उत्तर समुद्र से लेकर कुरुवर्ष पर्यन्त स्थान त्रिविष्टप कहलाता है। इस प्रकार त्रिविष्टप को ही द्युलोक कहा गया है। जिस प्रकार एक पृथ्वी है। उस पृथिवी के एक भाग का राजा देवदत्त है, दूसरे भागका राजा कोई अन्य व्यक्ति है। तीसरे भाग का राजा कोई दूसरा ही है। एक ही भूपिण्ड का राजा के भेद से राज्यका भेद होता है। उसी प्रकार स्वर्ग के एक भाग का राजा ब्रह्मा है। ब्रह्मा जिस भाग का राजा है, वह भाग ब्रह्माका विष्टप कहलाता है, स्वर्ग के दूसरे भाग का राजा विष्णु है, वह भाग विष्णुविष्टप कहलाता है। तीसरे भागका राजा इन्द्र, वह भाग इन्द्र का विष्टप कहलाता है। भारतवर्षं पृथ्वी हैमवतं वर्षमन्तरिक्षं स्यात् ।उत्तरमब्धिं यावत् कुरुवर्षान्तं त्रिविष्टपं तु द्यौः॥ब्रह्मण एकं विष्टपमपरं विष्णोस्तृतीयमिन्द्रस्य।एभिस्त्रिभिरधिपतिभिः स्वर्गो लोकस्त्रिविष्टपं भवति॥ वही पृ. २७१, कारिका१-२ डॉ. रितेश कुमार पाण्डेय, सह आचार्य, व्याकरण विभाग, श्रीरङ्ग लक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, वृन्दावनने सुरा की उत्पत्तिप्रसंग के ऊपर अपना स्वव्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि जब असुर सोमरस को प्राप्त नहींकर पाया तब उन्होंने अपने राजा वरुण के समीप जाकर प्रार्थना की । वरुण ने एक मादक पदार्थ को बना करअसुरों को दे दिया। वरुण के प्रयास से निर्मित मादक पदार्थ को असुर ने स्वीकार किया। वे असुर कहने लगे किहम लोग सुरा को पिते हैं, इस प्रकार से सुरा शब्द लोक में मदिरा के अर्थ में प्रचलित हो गया। अप्राप्य सोममसुराः सोमविधं मादकं विधापयितुम्।असुराधीशं वरुणं राजानं प्रार्थयामासुः॥वरुणस्ततः प्रयत्नाद् विनिर्ममे वारुणीं मदिराम्।पास्यामस्त्वसुरानिति सुरामिमां नातश्चक्रुः॥ वही, पृ. २९४, कारिका १-२ डॉ. नीरजा कुमारी, सहायक आचार्या, संस्कृत विभाग, महन्त दर्शन दास महाविद्यालय. मुजफ्फरपुर, बिहार नेइन्द्रविजय ग्रन्थ के दूसरे अध्याय के विषयवस्तु पर अपना व्याख्यान प्रदान की। उन्होंने कही कि भरतीयज्ञानपरम्परा में ओङ्कार का महत्त्व अधिक है। भारतवर्ष का महत्त्व कैसा था इस के विषय में ग्रन्थकार स्वयंलिखते हैं कि जहाँ वेद शास्त्र है, भारतवर्ष के निवासी में धर्म के अनुरूप चार वर्णों का विभाग है। गाय एवंपवित्र गंगा पूजनीय है। वह देश ही भारतवर्ष है। ओङ्कार एव येषामविशेषान्मन्त्र आराध्यः।येषां भिन्नमतानामप्यत्रास्त्येकबन्धुत्वम् ॥येषां शास्त्रं वेदश्चातुर्वर्ण्ये विभाजितो धर्मः।धेनुर्गङ्गाऽऽराध्या तेषां देशोऽस्ति भारतं वर्षम् ॥ वही, पृ. २५८, कारिका१-२ डॉ. रवीन्द्र ओझा, श्रीलक्ष्मी नारायण वेदपाठशाला, सूरत, ने अपने छात्रों के साथ सस्वर वैदिकमङ्गलाचरण किया । इस कार्यक्रम का सञ्चालन श्रीशंकर शिक्षायतन, वैदिक शोध संस्थान के शोधाधिकारी डॉ.लक्ष्मी कान्त विमल ने किया । इस कार्यक्रम में विविध प्रान्तों से विश्वविद्याल और महाविद्याल के आचार्य,शोधच्छात्र, विषाय में अनुराग रखने वाले अनेक लोगों ने उत्साह पूर्वक भाग ग्रहण कर के संगोष्ठी को सफलबनाया में अपना योगदान दिया।

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Chhandobhyasta

This is a volume on yajna-vijnana or the science of yajna. Here, Ojhaji has elucidated upon all subjects related to yajna. It is written in Vedic language and deals with havi (offerings), mahayana, atiyajna, shiroyajna and yajnaparishad. छन्दोभ्यस्तयह यज्ञविज्ञान का ग्रन्थ है जिसमें यज्ञीय विषयों का सम्यक् विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना वैदिक भाषा में की गयी है । यह ग्रन्थ हविर्यज्ञ, महायज्ञ, अतियज्ञ, शिरोयज्ञ एवं यज्ञपरिशिष्ट नामक पाँच प्रकरणों में विभक्त है । Read/download

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Brahmavinaya

In this volume, Pandit Madhusudan Ojha has explained the concept of Chatushpad Brahma. Given here are four aspects —paratpar,  avyaya, akshara and kshkara. However, Ojhaji has included an additional aspect which he called nirvishesh, considered even higher than paratpar. ब्रह्मविनयपं. मधुसूदन ओझाजी का ब्रह्मविषयक सिद्धान्त चतुष्पाद् ब्रह्म की सत्ता पर निर्भर है । ये चतुष्पाद हैं- परात्पर, अव्यय, अक्षर एवं क्षर । दार्शनिक दृष्टि से परात्पर के भी उपर एक पाँचवा निर्विशेष को माना गया है । ओझाजी ने इन्हीं पाँच की व्याख्या हेतु इस ग्रन्थ की रचना की है । सम्प्रति उपलब्ध संस्करण में निर्विशेषानुवाक्, परात्परानुवाक्, अव्ययानुवाक् एवं अक्षरानुवाक् नामक कुल चार प्रकरण ही प्राप्त होते हैं । Read/download

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